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प्रदूषण

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समाज के शैशवकाल में मानव तथा प्रकृति के मध्य एकात्मकता थी। मानव पूर्णरूप से प्रकृति पर निर्भर था और अपनी आवश्यकताओ की पूर्ति प्रकृति से करता था। उस समय प्रकृति मानव की मित्र थी और मानव प्रकृति का। जैसे-जैसे मनुष्य अपने तथा अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति को अपना दायित्व समझने लगा, उसने स्वयं के अस्तित्व के लिए दूसरों की उपेक्षा करना प्रारंभ किया, जिससे दुश्मनी, स्वार्थ, वैमनस्य तथा प्रलोभन ने उसके जीवन में प्रवेश किया। उसने भूख एवं आत्मरक्षा के लिए विभिन्न तरीके खोज निकाले। बाद के समय मे मानव भूख और आत्मरक्षा के अतिरिक्त सुख-सुविधा तथा आमोद प्रमोद के लिए भी प्रयत्न करने लगा। यहीं से उसके भ्रष्ट होने की शुरुआत हुई और वह प्रकृति तथा पर्यावरण की उपेक्षा करने लगा। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए वह पर्यावरण को हानि पहुंचाने से भी नहीं झिझका, किन्तु उस दौर में भी मानव जो दूषित घटक पर्यावरण में छोड़ता था वह उसकी आवश्यक प्रतिक्रिया थी। जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ उसने आस-पास के वातावरण को प्रदूषित करने में कोई कमी नहीं की।

19वीं शताब्दी के प्रथम चरण में सन् 1928 में जब वोलर ने प्रयोगशाला में एक प्राकृतिक घटक यूरिया को रासायनिक क्रिया द्वारा उत्पन्न किया, तब से प्राकृतिक घटकों को प्रयोगशाला में उत्पन्न करने की होड़ शुरू हो गई। इन कृत्रिम रूप से उत्पन्न पदार्थों के प्रयोग से कुछ न कुछ हानिकारक विषैले पदार्थ उत्पन्न होते थे जिनके प्राकृतिक स्रोत, जल तथा वायु में मिलने से जल तथा वायु प्रदूषित हुए। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सर जेम्स वाट द्वारा वाष्प युग का सूत्रपात हुआ। मशीनीकरण से औद्यौगिक क्रान्ति हुई जो प्रदूषण के लिए काफ़ी हद तक जिम्मेदार है।

1960 के दशक के पहले पर्यावरण में प्रदूषण की समस्या का महत्व न तो राष्ट्रीय स्तर और न ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर था किंतु आज प्रदूषण की समस्या इतनी जटिल हो गयी है कि मनुष्य भविष्य में अपने अस्तित्व के लिए चिंतित है।

ध्यातव्य है कि सभी जीवधारी अपनी वृद्धि एवं विकास के लिए तथा सुव्यवस्थित रूप से अपना जीवन चक्र चलाने के लिए संतुलित पर्यावरण पर निर्भर करते हैं। संतुलित पर्यावरण म्रें प्रत्येक घटक एक निश्चित मात्रा एवं अनुपात में उपस्थित होते हैं परंतु कभी-कभी पर्यावरण में एक अथवा अनेक घटकों की मात्रा या तो आवश्यकता से बहुत अधिक बढ़ जाती है अथवा पर्यावरण में हानिकारक घटकों का प्रवेश हो जाता है। इस स्थिति में पर्यावरण दूषित हो जाता है तथा जीवधारियों के लिए किसी न किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है। पर्यावरण में इस अनचाहे परिवर्तन को पर्यावरणीय प्रदूषण कहते हैं।

प्रदूषण के प्रकार

प्रदूषण को सामान्यतः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. भौतिक प्रदूषण या पर्यावरणीय प्रदूषण
  2. सामाजिक प्रदूषण

भौतिक प्रदूषण

मानव के क्रिया-कलापों के कारण पर्यावरण के भौतिक संघटकों की गुणवत्ता में गिरावट को भौतिक या पर्यावरणीय प्रदूषण कहते हैं। ये चार प्रकार के हैं-

  1. जल प्रदूषण
  2. वायु प्रदूषण
  3. ध्वनि प्रदूषण
  4. भूमि प्रदूषण

सामाजिक प्रदूषण

सामाजिक प्रदूषण का उद्भव भौतिक एवं सामाजिक कारणों से होता है। इसे निम्न उप भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. जनसंख्या प्रस्फोट
  2. सामाजिक प्रदूषण (जैसे सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन, अपराध, झगड़ा फसाद, चोरी, डकैती आदि।)
  3. सांस्कृतिक प्रदूषण
  4. आर्थिक प्रदूषण (जैसे गरीबी)


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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