भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965)

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा विवाद पर जारी तनाव ने 1965 में युद्ध का रूप ले लिया। भारतीय फ़ौजों ने पश्चिमी पाकिस्तान पर लाहौर का लक्ष्य कर हमले किए। तत्तकालीन रक्षा मंत्री यशवंतराव चह्वाण ने कहा कि पाकिस्तानी सेना के हमले के जवाब में कार्रवाई की गई। पाकिस्तानी सेना ने भारतीय राज्य पंजाब पर हवाई हमले किए। तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल अय्यूब ख़ान ने भारत के ख़िलाफ़ पूर्ण युद्ध की घोषणा कर दी। तीन हफ़्तों तक चली भीषण लड़ाई के बाद दोनों देश संयुक्त राष्ट्र प्रायोजित युद्धविराम पर सहमत हो गए। भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और अयूब ख़ान के बीच ताशकंद में बैठक हुई जिसमें एक घोषणापत्र पर दोनों ने दस्तख़त किए। इसके तहत दोनों नेताओं ने सारे द्विपक्षीय मसले शांतिपूर्ण तरीके से हल करने का संकल्प लिया। दोनों नेता अपनी-अपनी सेना को अगस्त, 1965 से पहले की सीमा पर वापस बुलाने पर सहमत हो गए। लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद समझौते के एक दिन बाद ही रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई।[1]

ऑपरेशन जिब्राल्टर मिशन

जानकार कहते हैं कि युद्ध भारत ने नहीं छेड़ा। युद्ध के लिए भारत को पाकिस्तान ने उकसाया। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार महमूद अली दुर्रानी भी स्वीकार करते हैं कि पाकिस्तान ने भारत को युद्ध के लिए उकसाया। मार्च के महीने में ही पाकिस्तान ने सीमा पर छोटी मोटी घुसपैठ और गोलीबारी करनी शुरू कर दी थी। तब ब्रिटेन की मध्यस्थता पर मामला सुलझ गया था। लेकिन पाकिस्तान के इरादे कुछ और ही थे। पाकिस्तान कश्मीर की जनता को अपने घुसपैठियों की मदद से भड़का कर भारत के ख़िलाफ़ विद्रोह करवाना चाहता था। उसने इस मिशन का नाम रखा - 'ऑपरेशन जिब्राल्टर'। 5 अगस्त को पाकिस्तान ने भारत के ख़िलाफ़ आधिकारिक तौर पर युद्ध छेड़ दिया। पाकिस्तान के 30-40 हजार सैनिक भारत की सीमा में घुस गए। पाकिस्तान को उम्मीद थी कि भारत को कश्मीर में घुसपैठियों से मुकाबला करने में उलझा कर वो कश्मीरियों को भ्रमित कर सकेगा। इस दौरान कश्मीरी जनता भी भारतीय सेना के ख़िलाफ़ विद्रोह कर देगी और कश्मीर का भारतीय हिस्सा भी पाकिस्तान के हाथ में आ जाएगा। भारत चीन से युद्ध हारने के बाद इस हालत में नहीं था कि फिर से एक युद्ध झेल सके। इसी चीज का फायदा पाकिस्तान ने उठाया। उसी दिन भारतीय सरकार को पाकिस्तानी सेना के कश्मीर में घुसने की खबर मिली। कश्मीर बचाने की जुगत में भारतीय सेना ने भी जवाबी कार्रवाई करते हुए अन्तरराष्ट्रीय नियंत्रण रेखा पार कर रहे घुसपैठियों पर हमला बोल दिया। एक तरफ पाकिस्तान के घुसपैठिए कश्मीर के रास्ते अंदर घुसते जा रहे थे तो दूसरी तरफ भारतीय सेना पाकिस्तानी सैनिकों पर हमला कर रही थी। शुरूआत में भारतीय सेना को सफलता मिलती गई। उसने तीन पहाड़ों इलाकों को पाकिस्तानी घुसपैठियों के कब्जे से आज़ाद करा लिया।[2]

'ग्रैंड स्लेम' अभियान

एक हफ्ते के भीतर ही पाक ने टिथवाल, उड़ी और पुंछ के कुछ महत्त्वपूर्ण इलाकों में क़ब्ज़ा कर लिया। लेकिन, 15 अगस्त 1965 का दिन भारत के लिए शुभ रहा। 15 अगस्त को पाक में घुसी भारतीय सेना को अतिरिक्त टुकड़ियों का समर्थन मिल गया और भारत ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में 8 किलोमीटर अंदर घुस कर हाजी पीर दर्रे पर अपना झंडा लहरा दिया। एक समय पाकिस्तान को लगने लगा कि प्रमुख शहर मुजफ्फराबाद भी भारत के हाथ में चला जाएगा। भारतीय सेना का मनोबल तोड़ने के लिए पाकिस्तान ने 'ग्रैंड स्लेम' अभियान चलाया और कश्मीर के अखनूर और जम्मू पर हमला बोल दिया। चूंकि शेष भारत से कश्मीर में रसद और अन्य राहत पहुंचाने के लिए यह महत्त्वपूर्ण इलाके थे, इसलिए भारत को झटका लगा। जब थल सेना से काम नहीं चल पाया तो भारत ने हवाई हमले करने शुरू किए। इसके जवाब में पाकिस्तान ने श्रीनगर और पंजाब राज्य पर हमले करने शुरू कर दिए। अखनूर पर पाक हमले को लेकर भारत चिंतित हो गया था। भारत जानता था कि अखनूर पर पाकिस्तान का क़ब्ज़ा हो गया तो पूरा कश्मीर भारत के हाथ से निकल जाएगा। भारत पूरी ताकत से अखनूर को पाक हमले से बचाने की कोशिश कर रहा था। भारत के हवाई हमलों को विफल करने के लिए पाक ने श्रीनगर के हवाई ठिकानों पर हमले किए जिससे भारत घबरा गया। पाकिस्तान की बेहतर स्थिति और भारत की कमज़ोर स्थिति के बावजूद पाकिस्तान का 'ग्रैंड स्लेम' अभियान फेल हो गया। भारत के लिए यह राहत की बात थी। इस विफलता की वजह भारत नहीं बल्कि खुद पाकिस्तान था। दरअसल जब अखनूर पाक के कब्जे में आने ही वाला था, ऐन मौके पर पाकिस्तान के सैनिक कमांडर को बदल दिया गया। युद्ध के निर्णायक मोड़ पर खड़ी पाक सेना इस बदलाव से भ्रमित हो गई। 24 घंटों तक पाक सेना आगे नहीं बढ़ पाई और ये 24 घंटे भारत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहे। इन घंटों में भारत को अखनूर की रक्षा के लिये अतिरिक्त सैनिक और सामान लाने का अभूतपूर्व मौका मिला और अखनूर पाकिस्तान के हाथों में जाते जाते बच गया। कहा जाता है कि खुद भारतीय सैन्य कमांडर भी हैरान हो गए कि जीत के मुहाने पर आकर पाकिस्तान हार की वजहें क्यों पैदा कर रहा है।[2]

अमेरिका का हस्तक्षेप

6 सितंबर 1965 को भारत पाकिस्तान के बीच की वास्तविक सीमा रेखा इच्छोगिल नहर को पार करके भारतीय सेना पाकिस्तान में घुस गई। तेज़ीसे आक्रमण करती हुई भारतीय थल सेना का कारवां बढ़ता रहा और भारतीय सेना लाहौर हवाई अड्डे के नजदीक पहुंच गई। यहां एक रोचक वाकया हो गया। अमेरिका ने भारत से अपील की कि कुछ समय के लिए युद्धविराम किया जाए ताकि वो अपने नागरिकों को लाहौर से बाहर निकाल सके। भारतीय सेना ने अम‌ेरिका की बात मान ली और इस वजह से भारत को नुकसान भी हुआ। इसी युद्ध विराम के समय में पाकिस्तान ने भारत में खेमकरण पर हमला कर उस पर क़ब्ज़ा कर लिया।

खेमकरण और मुनाबाओ पर पाकिस्तान का क़ब्ज़ा

8 दिसंबर को पाकिस्तान ने मुनाबाओ पर हमला कर दिया। दरअसल पाकिस्तान लाहौर में हमला करने को तैयार भारतीय सेना का ध्यान बंटाना चाहता था। मुनाबाओ में पाकिस्तान को रोकने के लिए मराठा रेजिमेंट भेजी गई। मराठा सैनिकों ने जमकर पाक का मुकाबला किया लेकिन रसद की कमी और कम सैनिक होने के चलते मराठा सैनिक शहीद हो गए। फलस्वरूप 10 दिसंबर को पाकिस्तान ने मुनाबाओ पर क़ब्ज़ा कर लिया। खेमकरण पर कब्जे के बाद पाकिस्तान अमृतसर पर क़ब्ज़ा करना चाहता था लेकिन अपने देश में भारतीय सेना की बढ़त देखकर उसे कदम रोकने पड़े। 12 सितंबर तक जंग में कुछ ठहराव आया। दोनों ही देशों की सेना जीते हुए हिस्से पर ध्यान दे रही थी।[2]

युद्ध परिणाम

इस युद्ध में भारत और पाकिस्तान ने बहुत कुछ खोया। इस जंग में भारतीय सेना के क़रीब 3000 और पाकिस्तान के क़रीब 3800 जवान मारे गए। भारत ने युद्ध में पाकिस्तान के 710 वर्ग किलोमीटर इलाके और पाकिस्तान ने भारत के 210 वर्ग किलोमीटर इलाके को अपने कब्जे में ले लिया था। भारत ने पाकिस्तान के जिन इलाकों पर जीत हासिल की, ‌उनमें सियालकोट, लाहौर और कश्मीर के कुछ अति उपजाऊ क्षेत्र भी शामिल थे। दूसरी तरफ पाकिस्तान ने भारत के छंब और सिंध जैसे रेतीले इलाकों पर क़ब्ज़ा किया। क्षेत्रफल के हिसाब से देखा जाए तो युद्ध के इस चरण में भारत फायदे में था और पाकिस्तान नुकसान में। आखिरकार वह समय आया जब संयुक्त राष्ट्र की पहल पर दोनों देश युद्ध विराम को राजी हुए। रूस के ताशकंद में भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अयूब ख़ाँ के बीच 11 जनवरी, सन 1966 को समझौता हुआ। दोनों ने एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करके अपने विवादित मुद्दों को बातचीत से हल करने का भरोसा दिलाया और यह तय किया कि 25 फरवरी तक दोनों देश नियंत्रण रेखा अपनी सेनाएं हटा लेंगे। दोनों देश इस बात पर राजी हुए कि 5 अगस्त से पहले की स्थिति का पालन करेंगे और जीती हुई जमीन से क़ब्ज़ा छोड़ देंगे। ताशकंद समझौते कुछ ही घंटों बाद शास्त्री जी की रहस्यमय तरीके से मौत हो गई। आधिकारिक तौर पर कहा गया कि ताशकंद की भयंकर सर्दी के चलते शास्त्री जी को दिल का दौरा पड़ा। जबकि, कुछ लोग ये भी दावा करते हैं कि एक षड्यंत्र के जरिए उनकी हत्या की गई। कुछ जानकार यह भी संभावना जताते हैं कि भारत पाक समझौते में कुछ मसलों पर आम राय कायम न होने के चलते शास्त्री जी तनाव में आ गए और उन्हें दिल का दौरा पड़ा।[2]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आज़ाद भारत: मुख्य पड़ाव (हिंदी) बीबीसी। अभिगमन तिथि: 15 फ़रवरी, 2013।
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 सन् 1965 का भारत-पाक युद्ध : कुछ यादें (हिंदी) Blogger’s Paradise। अभिगमन तिथि: 15 फ़रवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख