श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 36-45

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दशम स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः (30) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 36-45 का हिन्दी अनुवाद

इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर—अपनी सुधबुध खोकर एक दूसरों को भगवान श्रीकृष्ण के चरणचिन्ह दिखलाती हुई वन-वन में भटक रही थीं। इधर भगवान श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी को एकान्त में ले गये थे, उसने समझा कि ‘मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को छोड़कर, जो उन्हें इतना चाहती हैं, केवल मेरा ही मान करते हैं। मुझे ही आदर दे रहे हैं । भगवान श्रीकृष्ण ब्रम्हा और शंकर के भी शासक हैं। वह गोपी वन में जाकर अपने प्रेम और सौभाग्य के मद से मतवाली हो गयी और उन्हीं श्रीकृष्ण से कहने लगी—‘प्यारे! मुझसे अब तो और नहीं चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये हैं। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर ले चलो’। अपनी प्रियतमा की यह बात सुन्दर श्यामसुन्दर ने कहा—‘अच्छा प्यारी! तुम अब मेरे कंधे पर चढ़ लो’। यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधे पर चढ़ने चली, त्यों ही श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और वह सौभाग्वती गोपी रोने-पछताने लगी । ‘हा नाथ! हा रमण! हा प्रेष्ठ! हा महाभुज! तुम कहाँ हो! कहाँ हो!! मेरे सखा! मैं तुम्हारी दीन-हीन हासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सान्निध्य का अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो’ । परीक्षित्! गोपियाँ भगवान के चरणचिन्हों के सहारे उनके जाने का मार्ग ढूँढती-ढूँढती वहाँ जा पहुँची। थोड़ी दूर से ही उन्होंने देखा कि उन्होंने देखा कि उनकी सखी अपने प्रियतम के वियोग से दुःखी होकर अचेत हो गयी है । जब उन्होंने उसे जगाया, तब उसने भगवान श्रीकृष्ण से उसे जो प्यार और सम्मान प्राप्त हुआ था, वह उनको सुनाया। उसने यह भी कहा कि ‘मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया, इसी से वे अन्तर्धान हो गये।’ उसकी बात सुनकर गोपियों के आश्चर्य की सीमा न रही ।

इसके बाद वन में जहाँ तक चंद्रदेव की चाँदनी छिटक रही थी, वहाँ तक वे उन्हें ढूँढती जायँगी हुई गयीं। परन्तु जब उन्होंने देखा कि आगे घना अन्धकार है—घोर जंगल है—हम ढूँढती जायँगी तो श्रीकृष्ण और भी उसके अन्दर घुस जायँगे, तब वे उधर से लौट आयीं । परीक्षित्! गोपियों का मन श्रीकृष्णमय हो गया था। उनकी वाणी से कृष्णचर्चा के अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी। उनके शरीर से केवल श्रीकृष्ण के लिये और केवल श्रीकृष्ण की चेष्टाएँ हो रही थीं। कहाँ तक कहूँ; उनका रोम-रोम, उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय हो रही थी। वे केवल उनके गुणों और लीलाओं का ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने शरीर की भी सुध नहीं थी, फिर घर की याद कौन करता ? गोपियों का रोम-रोम इस बात की प्रतीक्षा और आकांक्षा कर रहा था कि जल्दी-से-जल्दी श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्ण की ही भावना में डूबी हुईं गोपियाँ यमुनाजी के पावन पुलिनपर—रमण रेती में लौंट आयीं और एक साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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