परिवार

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Disamb2.jpg परिवार एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- परिवार (बहुविकल्पी)

मुख्यत: परिवार के अंतर्गत पति, पत्नी और उनके बच्चों का समूह माना जाता है, परंतु विश्व के अधिकांश भागों में परिवार का अर्थ एक सम्मिलित रूप से निवास करने वाले रक्त संबंधियों का वह समूह है जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा (गोद लेने) द्वारा परिवार की स्वीकृति प्राप्त व्यक्ति भी सम्मिलित होते हैं।

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'मानव समाज में परिवार एक बुनियादी तथा सार्वभौमिक इकाई है। यह सामाजिक जीवन की निरंतरता, एकता एवं विकास के लिए आवश्यक प्रकार्य करता है। अधिकांश पारंपरिक समाजों में परिवार सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक गतिविधियों एवं संगठनों की इकाई रही है। आधुनिक औद्योगिक समाज में परिवार प्राथमिक रूप से संतानोंत्पत्ति, सामाजीकरण एवं भावनात्मक संतोष की व्यवस्था से संबंधित प्रकार्य करता है।'[1]

परिवार से अभिप्राय

विश्व के सभी समाजों में शिशु का जन्म और पालन पोषण का उत्तरदायित्व परिवार का ही होता है। शिशुओं को संस्कार देने और समाज के आचार, व्यवहार और नियमों में दीक्षित करने का दायित्व मुख्यत: परिवार का ही होता है। इसी परम्परा और नियम के द्वारा समाज की सांस्कृतिक विरासत और संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्वभाविक रूप से हस्तांतरित होती रहती है।

'भारत में ख़ासकर गांवों में परिवार बड़े हैं। लेकिन शहरों में परिवार छोटे हैं। शहरों में बच्चे को माँ बाप के साथ छोटे से मकान में रहना पड़ता है। कुछ परिवारों में बच्चा अपने चाचा, चाची, मां, पिता के साथ रहता है। परन्तु इन सभी परिवारों में माँ बच्चे के बीच सबसे अधिक नजदीकी रिश्ता है। बच्चे के विकास में भी माँ की ही सबसे ज़्यादा बड़ी भूमिका रहती है। बच्चा पैदा होने के बाद से माँ के आंचल में रहते हुये भी सीखना शुरू कर देता है। माँ की लोरियां उसे सिर्फ़ सुलाती ही नहीं उसके अन्दर प्रारंभ से ही सुनने, ध्यान देने और समझने की क्षमता भी विकसित करती हैं। दूसरी ओर मां-पिता या बाबा-दादी, नाना-नानी द्वारा सुनायी गयी कहानियां उसका नैतिक,चारित्रिक विकास करने के साथ ही उसके अंदर मानवीय मूल्यों की नींव भी डालती हैं। इसीलिये माँ को पहली शिक्षक भी कहा जाता है।' [2]

परिवार का आधार

परिवार के सदस्यों की सामाजिक मर्यादा और सीमा परिवार से ही निर्धारित होती है। नर नारी के यौन संबंधों का आधार मुख्यत: परिवार के अंतर्गत परिवार की सीमा में निहित होता है। वर्तमान में औद्योगिक सभ्यता से उत्पन्न जनसंकुल समाज और नगर को यदि इसके अंतर्गत ना लेकर छोड़ दिया जाए तो व्यक्ति का परिचय मुख्यत: उसके परिवार और कुल पर आधारित ही होता है।

परिवार के प्रकार

विश्व के विभिन्न प्रदेशों और विभिन्न कालों में रचना, आकार, संबंध, और कार्य की दृष्टि से परिवार के अनेक भेद किये हैं, परंतु परिवार के उपर्युक्त कार्य सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सनातन हैं। परिवार में देश, काल, प्रथा और परिस्थिति के कारण एक या एक से अधिक पीढ़ियों का, एक या एक से अधिक दंपतियों (पति-पत्नियों) का समूह होना संभव है। किसी भी परिवार के सदस्य एक निश्चित पारिवारिक अनुशासन व्यवस्था के अंतर्गत पति - पत्नी, भाई - बहन, दादा (पितामह) - पोता (पौत्र), चाचा - भतीजा, सास - पुत्रवधु जैसे अनेक संबंधों में बंधा रहता है जिसमें कर्तव्यों एवं अधिकारों से परस्पर बद्ध, अन्य दूसरे सामाजिक समूहों से अलग एक अभिन्न और घनिष्टतम अंतरंग समूह के रूप में एक साथ रहते हैं।

परिवार में कार्यविभाजन

परिवार के अंतर्गत स्त्री और पुरुष के मध्य कार्य का विभाजन भी सदैव से निश्चित, पारम्परिक और सार्वकालिक है। स्त्रियों का अधिकांश समय सामान्यत: घर में ही व्यतीत होता है। परिवार के सदस्यों का भोजन बनाना, शिशुओं की देखभाल और पालन पोषण, घर की स्वच्छ्ता का ध्यान रखना, वस्त्रों की सिलाई आदि अनेक ऐसे काम हैं जो परिवार की स्त्री के लिए होते हैं। पुरुष के लिए हमेशा से बाहरी कार्य और अधिक श्रमसाध्य कार्य निश्चित हैं - जैसे खेती, व्यापार, उद्योग, पशुओं का पालन, शिकार और युद्ध आदि। परंतु स्त्री पुरुष का यह कार्य विभाजन सब समाजों में समान नहीं है। इसके लिए कोई सामान्य सूची भी बनाना बहुत ही कठिन है क्योंकि कुछ समाजों में स्त्रियाँ भी खेती और शिकार जैसे पुरुषों के कार्यों में समान रूप से भाग लेती हैं।

परिवार संस्था का विकास

विवाह का परिवार के स्वरूपों से गहन संबंध है। 'लेविस मार्गन' जैसे विकासवादियों का मत है कि मानव समाज की प्रारंभिक अवस्था में विवाह प्रथा प्रचलित नहीं थी और समाज में पूर्ण कामाचार का प्रचलन था। इसके बाद समय के साथ साथ धीरे धीरे सामाजिक विकास के क्रम में 'यूथ विवाह', जिसमें कई पुरुषों और कई स्त्रियों का सामूहिक रूप से पति पत्नी होना), 'बहुपति' विवाह, 'बहुपत्नी' विवाह और 'एक पत्नी' या 'एक पति' की व्यवस्था समाज में विकसित हुई। वस्तुत: 'बहुविवाह' और 'एकपत्नी' की प्रथा असभ्य एवम सभ्य दोनों ही समाजों में पाई जाती है। अत: यह मत सुसंत प्रतीत नहीं होता। मानव शिशु के पालन पोषण के लिए एक दीर्घ अवधि अपेक्षित है। पहले शिशु की बाल्यावस्था में ही दूसरे अन्य छोटे शिशु उत्पन्न होते रहते हैं। गर्भावस्था और प्रसूति के समय में माता की देख-रेख का होना आवश्यक है। पशुओं की भाँति मनुष्य में रति की कोई विशेष ऋतु निश्चित नहीं है। अत: संभावना है कि मानव समाज के आरंभ में या तो पूरा समुदाय ही या केवल पति पत्नी और शिशुओं का समूह ही परिवार कहलाता था।

परिवार का स्वरूप

मानव सम्बंधों पर कार्य कर रहे वैज्ञानिकों को कोई ऐसा समाज नहीं मिला जहाँ विवाह के संबंध परिवार में ही होते हों, इस कारण से परिवार चाहे पितृसत्तात्मक हों या मातृसत्तात्मक, परिवार में पत्नी या पति को अतिरिक्त सदस्यता प्रदान की ही जाती है। युगल परिवार या एकाकी परिवार में पति और पत्नी मिलकर अपनी पृथक् घर - गृहस्थी स्थापित करते हैं, परंतु अधिकांशत: समाजों में परिवार 'बृहत्तर कौटुंबिक समूह' का अंग ही माना जाता है और जीवन के विभिन्न प्रसंगों में परिवार के सदस्यों पर घनिष्ट संबध के अतिरिक्त 'बृहत्तर कौटुबिक समूह' का भी नियंत्रण होता है। अमेरिका जैसे उद्योग प्रधान देशों में कुटुंबियों के सम्मिलित एवं बड़े परिवार के स्थान पर युगल परिवार या एकल की बहुलता हो गई है। अमेरिका का समाज पितृसत्तात्मक है, किंतु वहाँ का युगल परिवार किसी एक 'बृहत्तर कुटुंब' का अंग नहीं माना जाता। एकल या युगल परिवार में पति पत्नी और उनके अविवाहित शिशु सम्मिलित माने जाते हैं। सम्मिलित परिवारों में इनके अतिरिक्त विवाहित बच्चे और उनकी संतान, विवाहित भाई अथवा बहन और उनके बच्चे एक साथ रह सकते हैं। सम्मिलित परिवार में रक्त संबंधियों की मान्यता भिन्न भिन्न समाजों में भिन्न भिन्न है। भारत में एक सम्मिलित परिवार में साधारणत: 10 से लेकर 12 तक सदस्य होते हैं, किंतु कुछ परिवारों में सदस्यों की संख्या 50 - 60 या 100 तक भी होती है। 'समाज के कई बड़े संयुक्त परिवारों से मिलने पर एक बात सामने आई कि इन परिवारों में व्यक्ति से ज़्यादा अहमियत परिवार की होती है। वहां व्यक्तिगत पहचान कोई मुद्दा नहीं होता। परिवार में कुछ बंदिशें होती हैं, जिनका परिवार के सभी सदस्यों को अनिवार्य रूप से पालन करना पड़ता है। समाजशास्त्री मानते हैं कि बडे़ संयुक्त परिवारों को सही ढंग से चलाने के लिए लोगों को खुद से ज़्यादा परिवार को महत्त्वपूर्ण मानना पड़ता है।'[3]

विवाह, वंशावली, स्वामित्व और शासनाधिकार के विभिन्न रूपों के आधार पर परिवारों के विभिन्न रूप और प्रकार हो जाते हैं।

मातृसत्तात्मक परिवार

मातृस्थानीय परिवार में पति अपनी पत्नी के घर का स्थायी या अस्थायी सदस्य बनता है, मातृस्थानीय परिवार साधारणत: मातृवंशीय होते हैं। बहुधा परिवार की संपत्ति का स्वामित्व मातृस्थानीय परिवार में नारी को प्राप्त है। मातृसत्तात्मक परिवारों में मामा या माता का अन्य सबसे बड़ा रक्तसंबंधी (पुरुष) घर का मुखिया होता है।

पितृसत्तात्मक परिवार

पितृस्थानीय परिवार में पत्नी पति के घर जाकर रहती है। पितृस्थानीय परिवार पितृवंशीय होते हैं। बहुधा परिवार की संपत्ति का स्वामित्व पितृस्थानीय परिवार में पुरुष को प्राप्त है। पितृसत्तात्मक परिवारों में साधारणत: पिता अथवा घर का सबसे बड़ा पुरुष घर का मुखिया होता है।

संपत्ति का उत्तराधिकारी

प्राय: संपत्ति का उत्तराधिकारी परिवार की ज्येष्ठ संतान होती है। परंतु यह आवश्यक नियम नहीं है। भारत की गारो जैसी जनजाति में सबसे छोटी लड़की ही पारिवारिक संपत्ति की स्वामिनी होती है। अनेक समाजों में परिवार के सभी स्त्री या पुरुष सदस्यों में स्वमित्व निहित रहता है और कुछ परिवारों में पुरुष तथा स्त्री दोनों को संपत्ति का समान उत्तराधिकार प्राप्त है। परिवार का शासन अधिकांशत: समाजों में पुरुषों के पास होता है। अंतर बस इतना ही है कि पितृसत्तात्मक परिवारों में साधारणत: पिता अथवा घर का सबसे बड़ा पुरुष और मातृसत्तात्मक परिवारों में मामा या माता का अन्य सबसे बड़ा रक्तसंबंधी (पुरुष) घर का मुखिया होता है। अत: संसार के अधिकांश भागों के समाजों में पुरुष की प्रधानता पाई जाती है।

परिवार का प्रचलित स्वरूप

विश्व में दांपत्य जीवन में प्राय: 'एकपत्नी' परिवार ही सबसे अधिक प्रचलित है, किंतु अनेक समाजों में पुरुषों को एक से अधिक पत्नियाँ रखने की भी छूट प्राप्त है। इसके विपरीत टोडा और खस जनजातियों में और तिब्बत के कुछ प्रदेशों में बहुपति प्रथा, एक प्रकार के यूथ विवाह की प्रथा आज भी प्रचलित है। इसी प्रकार भारत में खासी, गारो और अमरीका में होपी, हैडिया जैसी जनजातियाँ भी हैं जो मातृस्थानीय और मातृवंशीय हैं। विवाह के इन रूपों में परिवार की रचना और स्वरूप में अंतर पड़ जाता है।

परिवार पर औद्योगिक क्रांति का प्रभाव

आधुनिक औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप परिवार की रचना और कार्यों में गंभीर परिवर्तन आये हैं। पहले सभी समाजों में परिवार समाज की सबसे महत्त्वपूर्ण, मौलिक और संगठित संस्था थी। जीवन के अधिकांश व्यापार परिवार के माध्यम से ही संपन्न होते थे। इन औद्योगिक समाजों में परिवार अब उत्पादन की इकाई नहीं रह गयी है, कार्य विभक्त हो गये हैं, जैसे - बच्चों के शिक्षण का कार्य शिक्षण संस्थाओं ने लिया है, भोजन व रसोई का कार्य व्यावसायिक भोजनालयों, जलपानगृहों में चला गया है। मनोरंजन के लिए पृथक् संगठन स्थापित हो गए हैं, सामाजिक सुरक्षा का उत्तरदायित्व राज्य के पास चला गया और धर्म के घटते हुए प्रभाव के कारण धार्मिक कृत्यों का स्थान गौण को गया है। पति - पत्नी का अधिकांश समय घर के बाहर व्यतीत होता है। फिर भी परिवार बना हुआ है और उसके द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न होते हैं, जो परिवार का 'स्थायी' या 'अवशिष्ट कार्य' कहलाता है।

कबीलाई परिवार

जनजातियों में, जो सामाजिक विकास क्रम में आदिम अवस्था के अधिक निकट हैं, विवाह और परिवार के लगभग सभी रूप मिलते हैं। इन परिवारों में विकास के क्रम के आधार से पूर्वापर क्रम निर्धारित करना संभव नहीं है। कंदमूल और शिकार पर बसर करनेवाले अंडमानी आदिमवासियों में एकपत्नीत्व का नियम है और वे पितृवंशीय तथा पितृस्थानीय हैं। उत्तरी अमरीका के खेतिहर होपी कबीले में एकपत्नीत्व या एकपतित्व की प्रथा है किंतु वे मातृवंशीय और मातृस्थानीय है। अधिकांश जनजातीयों में परिवार का संयुक्त रूप है, परंतु जहाँ पति पत्नी अलग घर में रहते हैं, वे भी एक बृहत्तर परिवार का ही अंग होते हैं और इस परिवार की सम्मिलित सम्पत्ति, आर्थिक क्रियाओं, धार्मिक कृत्यों तथा अनेक परिवारिक अधिकारों एवं कर्तव्यों आदि से जुड़ी एक पृथक् इकाई भी होती है। वंशावली के दो प्रकारों में से कोई कबीला या जनजाती या तो पितृवंशीय होती है या मातृवंशीय। जो कबीले मातृवंशीय हैं वे प्राय: मातृस्थानीय भी हैं, जहाँ पति परिवार का स्थायी या अस्थायी सदस्य होता है।

कबीलों में नारी का स्थान

गारो कबीले में तो वह आगंतुक मात्र है, जो रात भर का मेहमान होता है। किंतु मातृवंशीय और मातृस्थानीय कबीले बहुत कम हैं। बहुपतित्व कबीले तो और भी कम हैं। पितृवंशीय कबीलों में ही बहुपति प्रथा पाई गई है और इनमें नारी का स्थान पुरुष की अपेक्षा हीन है। पितृस्थानीय कबीलों में पुरुष को एक से अधिक पत्नी रखने की प्राय: अनुमति है, किंतु ऐसा बहुत कम होता है। विशिष्ट तथा शक्तिशाली व्यक्ति ही ऐसा कर पाते हैं। ऐसी अवस्था में पत्नियाँ एक घर में भी रहती हैं और पास पास बने अलग अलग घरों में भी। यूथ विवाह अपने शुद्ध रूप में किसी भी कबीले में नहीं मिलता। जौनसार बाबर में भ्रातुक बहुपति प्रथा है। वहाँ सगे भाई कभी कभी एक से अधिक पत्नियाँ रख लेते हैं और वे सब भाइयों की सामूहिक पत्नियाँ होती हैं, जो एक गृहस्थी तथा परिवार का अंग होती हैं।

शक्तिशाली वर्ग पुरुष

मातृवंशीय और मातृस्थानीय कबीलों में भी शासक व शक्तिशाली वर्ग पुरुष ही है, किंतु नारी के अधिकारों तथा प्रतिष्ठा की दृष्टि से पितृवंशीय और पितृस्थानीय कबीलों की अपेक्षा इन कबीलों में नारी की स्थिति प्राय: अच्छी है। कई पितृवंशीय कबीलों में भी नर और नारी का महत्व समान ही है, किंतु अधिकांश कबीलों में पुरुष की अपेक्षा उसका महत्व कम है।

विवाह विच्छेद और पुनर्विवाह

कबीलों में विवाह विच्छेद और पुनर्विवाह का पुराना नियम है और इस संबंध से स्त्री और पुरुष को प्राय: समान अधिकार हैं। वास्तव में अधिकांश कबीले पितृवंशीय हैं और नारी को विवाह के बाद पुरुष के परिवार, कुटुंब और बस्ती में जाना पड़ता है, जहाँ पति के माता, पिता, भाई तथा अन्य रक्त संबंधी और मित्र होते हैं। वहाँ उसे पति के परिवार का अंग बनकर परिवार के बड़े लोगों के अनुशासन में रहना होता है और पति के कुलाचार का पालन करना होता है। विवाह विच्छेद की अवस्था में नारी को अपने माता पिता की शरण लेनी पड़ती है। मातृस्थानीय कबीलों में परिवार अधिक स्थायी दिखाई देता है। यह रक्त संबंधियों का एक नैसर्गिक समूह जान पड़ता है। बहुत कम कबीले ऐसे हैं जहाँ लड़के या लड़कियों के लिए विवाह के पूर्व ब्रह्मचर्य पालन का नियम हो। कुछ कबीलों में विवाह के पूर्व परीक्षण काल की व्यवस्था भी पायी जाती है। जौनसार बाबर के खसों में अभ्यागतों के स्वागत में परिवार की अविवाहित लड़कियों को संभोग के लिए प्रस्तुत करने की प्रथा है। इससे यह स्पष्ट है कि परिवार का अस्तित्व नर नारी की वासना तृप्ति के लिए नहीं, वरन् परिवार द्वारा उसे मर्यादित किया जाता है।

भारतीय परिवार

भारत मुख्यत: एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की पारिवारिक रचना कृषि की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की गयी है। इसके अतिरिक्त भारतीय परिवार में परिवार की मर्यादा और आदर्श परंपरागत है। विश्व के किसी अन्य समाज़ में गृहस्थ जीवन की इतनी पवित्रता, स्थायीपन, और पिता - पुत्र, भाई - भाई और पति - पत्नी के इतने अधिक व स्थायी संबंधों का उदाहरण प्राप्त नहीं होता। विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों, जातियों में सम्पत्ति के अधिकार, विवाह और विवाह विच्छेद आदि की प्रथा की दृष्टि से अनेक भेद पाए जाते हैं, किंतु फिर भी 'संयुक्त परिवार' का आदर्श सर्वमान्य है। संयुक्त परिवार में संबंधी पति - पत्नी, उनकी अविवाहित संतानों के अति रिक्त अधिक व्यापक होता है। अधिकतर परिवार में तीन पीढ़ियों और कभी कभी इससे भी अधिक पीढ़ियों के व्यक्ति एक ही घर में, अनुशासन में और एक ही रसोईघर से संबंध रखते हुए सम्मिलित संपत्ति का उपभोग करते हैं और एक साथ ही परिवार के धार्मिक कृत्यों तथा संस्कारों में भाग लेते हैं। मुसलमानों और ईसाइयों में संपत्ति के नियम भिन्न हैं, फिर भी संयुक्त परिवार के आदर्श, परंपराएँ और प्रतिष्ठा के कारण इनका सम्पत्ति के अधिकारों का व्यावहारिक पक्ष परिवार के संयुक्त रूप के अनुकूल ही होता है। संयुक्त परिवार का कारण भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त प्राचीन परंपराओं तथा आदर्श में निहित है। रामायण और महाभारत की गाथाओं द्वारा यह आदर्श जन जन प्रेषित है।

परिवार की स्थिरता

कृषि कार्य ने सर्वत्र ही पारिवारिक जीवन की स्थिरता प्रदान की है। अत: भारतीय समाज में परंपरा से उत्पादन कार्य, उपभोग, और सुरक्षा की मूलभूत इकाई परिवार है। अपवादों को छोड़ दें तो भारतीय समाज पितृवंशीय, पितृस्थानीय और पितृभक्त है। यहाँ पुरुष की अपेक्षा नारी का महत्व कम माना जाता है। संपत्ति पर नारी का बहुत सीमित अधिकार माना गया है। किंतु घर गृहस्थी के अनेक मामलों में उसकी महत्ता स्वीकृत है।

एक विवाह की मान्यता

साधारणत: एक विवाह की मान्यता प्रचलित है, परंतु पुरुष को एक से अधिक विवाह करने का अधिकार प्राप्त है। परंपरागत आदर्श के अनुसार 'विधवा विवाह' का निषेध किया जाता है, किंतु विधुर का पुनर्विवाह हो सकता है। 'पतिव्रत धर्म' की बहुत महिमा है और समाज में प्रशंसा की दृष्टि से देखा जाता है।

पूजा का महत्व

पितर पूजा का भी भारी महत्व है। पितृ कर्मकांड जाते हैं और मृत पितरों की पूजा का भी विधान है। उच्च जातियों को छोड़कर अन्य सभी जातियों में विवाह विच्छेद और विधवा विवाह प्रचलित है, परंतु जब कोई जाति अपनी मर्यादा को ऊँचा करना चाहती है तो इन दोनों प्रथाओं का निषेध कर देती है।

वयोवृद्ध पुरुष मुखिया

घर का सबसे अधिक वयोवृद्ध पुरुष, यदि वह कार्यनिवृत्त न हो गया हो तो संयुक्त परिवार का कर्ता धर्ता अथवा मुखिया माना जाता है। कहीं कहीं उसे मालिक या स्वामी भी कहते हैं। यह पुरुष कर्ता अन्य वयोवृद्ध अथवा वयस्क सदस्यों की सलाह से या बिना सलाह के ही परंपरा के आधार पर परिवार में कार्य का विभाजन, उत्पादन, उपभोग आदि की व्यवस्था करता है और परिवार तथा उसके सदस्यों से संबंधित सामाजिक महत्व के कार्य और कार्य पद्धति का निर्णय करता है।

वयोवृद्ध नारी महिला वर्ग की मुखिया

घर की सबसे वयोवृद्ध नारी परिवार के महिला वर्ग की मुखिया होती है और जो भी कार्य महिलाओं की ज़िम्मेदारी होते हैं, उनकी देखभाल और व्यवस्था करने का प्रयास करती है, जैसे - भोजन तैयार करना, बच्चों का पालन पोषण तथा सिलाई, कताई आदि की व्यवस्था करना इन महिलाओं का मुख्य कार्य है। अधिकतर महिलाएँ खेती के या व्यवसाय के कुछ साधारण कार्यों में भी पुरुषों का हाथ बँटाती हैं।

संयुक्त परिवार

संयुक्त परिवार में चाचा, ताऊ की विवाहित संतान, उनके विवाहित पुत्र, पौत्र आदि भी हो सकते हैं। साधारणत: पिता के जीवन में उसका पुत्र परिवार से अलग होकर स्वतंत्र गृहस्थी नहीं बसाता है। यह अभेद्य परंपरा नहीं है, कभी कभी अपवाद भी पाये जाते हैं। ऐसा भी समय आता है जब रक्त संबंधों की निकटता के आधार पर एक संयुक्त परिवार दो या अनेक संयुक्त अथवा असंयुक्त परिवारों में विभक्त हो जाता है। असंयुक्त परिवार भी कालक्रम में संयुक्त परिवार का ही रूप ले लेता है और संयुक्त परिवार का क्रम बना रहता है।

समाजशास्त्री सुशीला जैन कहती हैं कि 'संयुक्त परिवारों में प्यार का दायरा बड़ा होता है। बच्चों को सभी का लाड-प्यार मिलता है। ज़ाहिर है कि उनका मानसिक विकास ज़्यादा होगा। परिवार में बड़े-बुजुर्ग होने की वजह से बच्चों में संस्कार जल्दी आ जाते हैं। परिवार में यदि कोई विधवा है, तो उसकी देखभाल केवल संयुक्त परिवार में ही हो सकती है। प्यार और सम्मान बच्चों को यहां बचपन से मिल जाते हैं।[4]

संयुक्त परिवार में परिवर्तन

भारत के समाज में संयुक्त परिवार प्रणाली बहुत प्राचीन है, यद्यपि इसके आंतरिक स्वरूप में बहुर्विवाह, उत्तराधिकार और संपत्ति के अधिकार के नियमों में, समयानुसार परिवर्तन होता रहा है। औद्योगिक क्रांति ने पाश्चात्य देशों में परंपरागत संयुक्त परिवार का स्वरूप ही भंग कर दिया है जिसका कारण बढ़ते हुए यंत्रीकरण के फलस्वरूप व्यक्ति को परिवार से बाहर मिली आजीविका, सुरक्षा और उन्नति की सुविधाओं को कारण बताया जाता है। भारत में भी औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नई अर्थव्यवस्था और नये औद्योगिक तथा आर्थिक संगठनों का आरंभ होने के कारण परिवार संस्था का विघटन प्रारम्भ हो चुका है।

मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि एकल परिवारों में पति-पत्नी के बीच छोटी-छोटी बातों पर अहम टकराने लगते हैं। उनके बीच के मनमुटाव को दूर करने के लिए उनके पास कोई तीसरा व्यक्ति नहीं होता है। अक्सर ऐसे मामलों में तलाक की नौबत आ जाती है। जानकार मानते है कि तलाक के ज़्यादातर मामले एकल परिवारों से आते हैं। इसके अलावा आत्महत्या और मानसिक अवसाद से जुड़े ज़्यादातर मामले भी एकल परिवारों की देन हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अकेले रहने वाले व्यक्ति हमेशा एक अज्ञात डर से भयभीत रहते हैं और कई बार यह डर इतना बढ़ जाता है कि नतीजा आत्महत्या के रूप में सामने आता है।[5]

यातायात और संचार के नये साधन उपलब्ध हो रहे हैं, नगरीकरण भी बहुत तेज़ी से हो रहा है। पाश्चात्य विचारधारा और पाश्चात्य शिक्षा दीक्षा और आदर्शों का प्रभाव भी परिवार के स्वरूप को प्रभावित कर रहा है। विशेषकर स्वाधीनता के बाद विवाह, उत्तराधिकार, दत्तकग्रहण और सांपत्तिक अधिकार के विषय में जो क़ानून बनाये जा रहे हैं उन्हें परिवार की संयुक्त प्रणाली के लिए हानिकारक समझा जाता है। इसी प्रकार आयकर के नियम भी इसके प्रतिकूल पड़ते हैं। वयस्क मताधिकार राजनीतिक लोकतंत्र भी संयुक्त परिवार के एकसत्तात्मक और व्यष्टिपरक अस्तित्व पर प्रहार कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में जब अर्थव्यवस्था और उत्पादन के साधनों में भी मूलभूत परिवर्तन हो रहा है, परिवार के शासन, रचना और कार्यों में परिवर्तन होना अवश्यंभावी है और वह दिखायी भी दे रहा है। अभी यह कहना कठिन है कि परिवार का संयुक्त रूप समाप्त हो रहा है। नगरों और ग्रामों में संयुक्त परिवार पहले से कम हो गए हैं। परिवर्तन के संबंध में विद्वानों में मुख्यत: दो प्रकार की विचारधाराएँ है -

  1. एक विचार के अनुसार परिस्थिति के प्रभावस्वरूप परिवार में कतिपय परिवर्तन होने पर भी उसका संयुक्त रूप नष्ट नहीं हो रहा है।
  2. दूसरे विचार के अनुसार औद्योगिक सभ्यता भारत में भी संयुक्त परिवार को बहुत कुछ उसी एकल परिवार के रूप में प्रचलित करेगी जो अमरीका तथा यूरोप में प्रचलित है। वर्तमान पारिवारिक विघटन और परिवर्तनों को इस विकासक्रम की आरंभिक अवस्था बताया जाता है।

भारत में मातृसत्तात्मक परिवार

भारत के मालावार प्रदेश में नायर और तिया जाति में मातृ स्थानीय तथा मातृवंशी परिवार वर्तमान तक रहे हैं। ऐसे परिवारों में पति अपने बच्चों के घर में एक अस्थायी आगंतुक होता है। उसके बच्चों की देखभाल उसका मामा करता है और उसके बच्चे अपनी माँ के परिवार का नाम ग्रहण करते हैं। परिवार का रूप संयुक्त है, जिसमें माँ की और उसकी पुत्री अथवा पौत्रियों की संतान होती है। इन परिवारों में घर का मुखिया मातृपक्षीय पुरुष होता है। असम राज्य के गारो और ख़ासी जनजातियों में भी मातृवंशीय और मातृस्थानीय परिवार की प्रथा है।

भारत में बहुपति परिवार

उत्तर प्रदेश के जौनसार बाबर में खस नाम की जनजाति में और आस पास के कुछ क्षेत्रों में बहुपति प्रथा है। परिवार में सब भाइयों की एक पत्नी और कभी-कभी एकाधिक सामूहिक पत्नियाँ हेती हैं। नीलगिरि की टोडा जनजाति में भी बहुपति प्रथा है, किंतु यहाँ एक स्त्री के पतियों में भाइयों के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी हो सकते हैं। गैर जनजातीय समाज में कहीं भी बहुपति प्रथा नहीं मिलती।


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