श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 39-48

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दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः(14) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 39-48 का हिन्दी अनुवाद

सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप सबके साक्षी हैं। इसलिये आप सब कुछ जानते हैं। आप समस्त जगत् के स्वामी हैं। यह सम्पूर्ण प्रपंच आपमें ही स्थित है। आपसे मैं और क्या कहूँ ? अब आप मुझे स्वीकार कीजिये। मुझे अपने लोक में जाने की आज्ञा दीजिये । सबके मन-प्राण को अपनी रूप-माधुरी से आकर्षित करवाले श्यामसुन्दर! आप यदुवंशरूपी कमल को विकसित करनवाले सूर्य हैं। प्रभो! पृथ्वी, देवता, ब्राम्हण और पशुरूप समुद्र की अभिवृद्धि करने वाले चन्द्रमा भी आप ही हैं। आप पाखण्डियों के धर्मरूप रात्रि का घोर अन्धकार नष्ट करने के लिये सूर्य और चन्द्रमा दोनों के ही समान हैं। पृथ्वी पर रहने वाले राक्षसों के नष्ट करने वाले आप चन्द्रमा, सूर्य आदि समस्त देवताओं के भी परम पूजनीय हैं। भगवन्! मैं अपने जीवन भर, महाकल्पर्यंत आपको नमस्कार ही करता रहूँ ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! संसार के रचयिता ब्रम्हाजी ने इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की। इसके बाद उन्होंने तीन बार परिक्रमा करके उनके चरणों में प्रणाम किया और फिर अपने गंतव्य स्थान सत्यलोक में चले गये । ब्रम्हाजी ने बछड़ों और ग्वालबालों को पहले ही यथास्थान पहुँचा दिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रम्हाजी को विदा कर दिया और बछड़ों को लेकर यमुनाजी के पुलिन पर आये, जहाँ वे अपने सखा ग्वालबालों को पहले छोड़ गये थे । परीक्षित्! अपने जीवनसर्वस्व—प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के वियोग में यद्यपि एक वर्ष बीत गया था, तथापि उन ग्वालबालों को वह समय आधे क्षण के समान जान पड़ा। क्यों न हो, वे भगवान की विश्व-विमोहिनी योगमाया से मोहित जो हो गये थे । जगत् के सभी जीव उसी माया से मोहित होकर शास्त्र और आचार्यों के बार-बार समझाने पर भी अपने आत्मा को निरन्तर भूले गए हैं। वास्तव में उस माया की ऐसी ही शक्ति है। भला, उससे मोहित होकर जीव यहाँ क्या-क्या नहीं भूल जाते हैं ?

परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही ग्वालबालों ने बड़ी उतावली से कहा—‘भाई! तुम भले आये। स्वागत है, स्वागत! अभी तो हमने तुम्हारे बिना एक कौर भी नहीं खाया है। आओ, इधर आओ; आनन्द से भोजन करो । तब हँसते हुए भगवान ने ग्वालबालों के साथ भोजन किया और उन्हें अघासुर के शरीर का ढाँचा दिखाते हुए वन से व्रज में लौट आये । श्रीकृष्ण के सिर पर मोरपंख का मनोहर मुकुट और घुँघराले बालों में सुन्दर-सुन्दर महँ-महँ महँकते हुए पुष्प गुँथ रहे थे। नयी-नयी रंगीन धातुओं से श्याम शरीर पर चित्रकारी की हुई थी। वे चलते समय रास्ते में उच्च स्वर से कभी बाँसुरी, कभी पत्ते और कभी सिंगी बजाकर वाद्योत्सव में मग्न हो रहे हैं। पीछे-पीछ ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्ति का गान करते जा रहे हैं। कभी वे नाम ले-लेकर अपने बछड़ों को पुकारते, तो कभी उनके साथ लाड़-लड़ाने लगते। मार्ग के दोनों ओर गोपियाँ खड़ी हैं; जब वे कभी तिरछे नेत्रों से उनकी नजर में नजर मिला देते हैं, तब गोपियाँ आनन्द-मुग्ध हो जाती है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने गोष्ठ में प्रवेश कियो । परीक्षित्! उसी दिन बालकों ने व्रज में जाकर कहा कि ‘आज यशोदा मैया के लाड़ले नन्दनन्दन ने वन में एक बड़ा भारी अजगर मार डाला है और उससे हमलोगों की रक्षा की है’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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