श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 14-23

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दशम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः (23) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः श्लोक 14- 23 का हिन्दी अनुवाद

‘मेरे प्यारे ग्वालबालों! इस बार तुम लोग उनकी पत्नियों के पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आये हैं। तुम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी। वे मुझसे बड़ा प्रेम करती हैं। उनका मन सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है’|

अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशाला में गये। वहाँ जाकर देखा तो ब्राम्हणों की पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और गहनों से सज-धजकर बैठी हैं। उन्होंने द्विजपत्नियों को प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यह बात कही—‘आप विप्रपत्नियों को हम नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारी बात सुनें। भगवान श्रीकृष्ण यहाँ से थोड़ी ही दूर पर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है | वे ग्वालबाल और बलरामजी के साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं। इस समय उन्हें और उनके साथियों को भूख लगी है। आप उनके लिये कुछ भोजन दे दें’|

परीक्षित्! वे ब्राम्हणियाँ बहुत दिनों से भगवान की मनोहर लीलाएँ सुनती थीं। उनका मन उनमें लग चुका था। वे सदा-सर्वदा इस बात के लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्ण के दर्शन हो जायँ। श्रीकृष्ण के आने की बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं | उन्होंने बर्तनों में अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लह्य और चोष्य—चारों प्रकार की भोजन-सामग्री ले ली तथा भाई-बन्धु, पति-पुत्रों के रोकते रहने पर भी अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण के पास जाने के लिये घर से निकल पड़ी—ठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समुद्र के लिये। क्यों न हो; न जाने कितने दिनों से पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के गुण, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदि का वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणों पर अपना हृदय निछावर कर दिया था |

ब्राम्हणपत्नियों ने जाकर देखा कि यमुना के तटपर नये-नये कोंपलों से शोभायमान अशोक-वन में ग्वालबालों से घिरे हुए बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं |

उनके साँवले शरीर पर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। गले में वनमाला लटक रही है। मस्तक पर मोरपंख का मुकुट है। अंग-अंग में रंगीन धातुओं से चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोंपलों के गुच्छे शरीर में लगाकर नटका-सा वेष बना रखा है। एक हाथ अपने सखा ग्वालबाल के कंधे पर रखे हुए हैं और दूसरे हाथ से कमल का फूल नचा रहे हैं। कानों में कमल कुण्डल हैं, कपोलों पर घुँघराली अलकें लटक रही हैं और मुखकमल मन्द-मन्द मुसकान की रेखा से प्रफुल्लित हो रहा है | परीक्षित्! अब तक अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के गुण और लीलाएँ अपने कानों से सुन-सुनकर उन्होंने अपने मन को उन्हीं के प्रेम में रँग में डाला था, उसी में सराबोर कर दिया था। अब नेत्रों के मार्ग से उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देर तक वे मन-ही-मन उनका आलिंगन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदय की जलन शान्त की—ठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओं की वृत्तियाँ ‘यह मैं, यह मेरा’ इस भाव से जलती रहती हैं, परन्तु सुषुप्ति-अवस्था में उसके अभिमानी प्राज्ञ को पाकर उसी में लीं हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है |


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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