श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 35 श्लोक 14-21

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दशम स्कन्ध: पञ्चत्रिंशोऽध्यायः (35) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद

सतीशिरोमणि यशोदाजी! तुम्हारे सुन्दर कुँवर ग्वालबालों के साथ खेल खेलने में बड़े निपुण हैं। रानीजी! तुम्हारे लाड़ले लाल सबके प्यारे तो हैं ही, चतुर भी बहुत हैं। देखो, उन्होंने बाँसुरी बजाना किसी से सीखा नहीं। अपने ही अनेकों प्रकार राग-रागिनियाँ उन्होंने निकाल लीं। जब वे अपने बिम्बाफल सदृश लाल-लाल अधरों पर बाँसुरी रखकर ऋषभ, निषाद आदि स्वरों की अनेक जातियाँ बजाने लगते हैं, उस समय वंशी की परम मोहिनी और नयी तान सुनकर ब्रम्हा, शंकर और इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता भी—जो सर्वज्ञ हैं—उसे नहीं पहचान पाते। वे इतने मोहित हो जाते हैं कि उनका चित्त तो उनके रोकने पर भी उनके हाथ से निकल कर वंशीध्वनि में तल्लीन हो ही जाता है, सिर भी झुक जाता है, और वे अपनी सुध-बुध खोकर उसी में तन्मय हो जाते हाँ ।

अरी वीर! उनके चरणकमलों में ध्वजा, वज्र, कमल, अंकुश आदि के विचित्र और सुन्दर-सुन्दर चिन्ह हैं। जब व्रजभूमि गौओं के खुर से खुद जाती है, तब वे अपने सुकुमार चरणों से उसकी पीड़ा मिटाते हुए गजराज के समान मन्दगति से आते हैं और बाँसुरी भी बजाते रहते हैं। उनकी वह वंशीध्वनि, उनकी वह चाल और उनकी वह विलासभरी चितवन हमारे हृदय में प्रेम के, मिलन की आकांक्षा का आवेग बढ़ा देती है। हम उस समय इतनी मुग्ध, इतनी मोहित हो जाती हैं कि हिल-डोल तक नहीं सकतीं, मानों हम जड़ वृक्ष हों! हमें तो इस बात का भी पता नहीं चलता कि हमारा जूडा खुल गया है या बँधा है, हमारे शरीर पर का वस्त्र उतर गया है या है ।

अरी वीर! उनके गले में मणियों की माला बहुत ही भली मालूम होती है। तुलसी की मधुर गन्ध उन्हें बहुत प्यारी है। इसी से तुलसी की माला को तो वे कभी छोड़ते ही नहीं, सदा धारण किये रहते हैं। जब वे श्यामसुन्दर उस मणियों की माला से गौओं की गिनती करते-करते किसी प्रेमी सखा के गले में बाँह डाल देते हैं और भाव बता-बताकर बाँसुरी बजाते हुए गाने लगते हैं, उस समय बजती हुई उस बाँसुरी के मधुर स्वर से मोहित होकर कृष्णसार मृगों की पत्नी हरिनियाँ भी अपना चित्त उनके चरणों पर निछावर कर देती हैं और जैसे हम गोपियाँ अपने घर-गृहस्थी की आशा-अभिलाषा छोड़कर गुणसागर नागर नन्दनन्दन को घेरे रहतीं हैं, वैसे ही वे भी उनके पास दौड़ आती हैं और वहीँ एकटक देखती हुई खड़ी रह जाती हैं, लौटने का नाम भी नहीं लेतीं ।

नन्दरानी यशोदाजी! वास्तव में तुम बड़ी पुण्यवती हो। तभी तो तुम्हें ऐसे पुत्र मिले हैं। तुम्हारे वे लाड़ले लाल बड़े प्रेमी हैं, उनका चित्त बड़ा कोमल है। वे प्रेमी सखाओं को तरह-तरह से हास-परिहास के द्वारा सुख पहुँचाते हैं। कुन्दकली का हार-पहनकर जब वे अपने को विचित्र वेष में सजा लेते हैं और ग्वालबाल तथा गौओं के साथ यमुनाजी के तट पर खेलने लगते हैं, उस समय मलयज चन्दन के समान शीतल और सुगन्धित स्पर्श से मन्द-मन्द अनुकूल बहकर वायु तुम्हारे लाल की सेवा करती हैं और गन्धर्व आदि उपदेवता वंदीजनों के समान गा-बजाकर उन्हें संतुष्ट करते हैं तथा अनेकों प्रकार की भेंटें देते हुए सब ओर से घेरकर उनकी सेवा करते हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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