श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 37 श्लोक 1-8

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दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंशोऽध्यायः (37) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी घोड़े के रूप में मनके समान वेग से दौड़ता हुआ व्रज में आया। वह अपनी टापों से धरती को खड़ता आ रहा था! उसकी गरदन के छितराये हुए बालों के झटके से आकाश के बादल और विमानों की भीड़ तितर-बितर हो रही थी। उसकी भयानक हिनहिनाहट से सब-के-सब भय से काँप रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं, मुँह क्या था, मानो किसी वृक्ष का खोड़र ही हो। उसे देखने से ही डर लगता था। बड़ी मोटी गरदन थी। शरीर इतना विशाल था कि मालूम होता था काली-काली बादल की घटा है। उसकी नीयत में पाप भरा था। वह श्रीकृष्ण को मारकर अपने स्वामी कंस का हित करना चाहता था। उसके चलने से भूकम्प होने लगता था । भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत हो रहा है और उसकी पूँछ के बालों से बादल तितर-बितर हो रहे हैं, तथा वह लड़के के लिये उन्हीं को ढूँढ भी रहा है—तब वे बढ़कर उसके सामने आ गये और उन्होंने सिंह के समान गरजकर उसे ललकारा । भगवान को सामने आया देख वह और भी चिढ़ गया तथा उनकी ओर इस प्रकार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाश को पी जायगा। परीक्षित्! सचमुच केशी का वेग बड़ा प्रचण्ड था। उस पर विजय पाना तो कठिन था ही, उसे पकड़ लेना भी आसान नहीं था। उसने भगवान के पास पहुँचकर दुलत्ती झाड़ी ।

परन्तु भगवान ने उससे अपने को बचा लिया। भला, वह इन्द्रियातीत को कैसे मार पाता! उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिये और जैसे गरुड़ साँप को पकड़ कर झटक देते हैं, उसी प्रकार क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गये । थोड़ी ही देर के बाद केशी फिर सचेत हो गया और उठ खड़ा हुआ। इसके बाद वह क्रोध से से तिलमिलाकर और मुँह फाड़कर बड़े वेग से भगवान की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बायाँ हाथ उसके मुँह में इस प्रकार डाल दिया, जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है । परीक्षित्! भगवान का अत्यन्त कोमल करकमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो। उसका स्पर्श होते ही केशी के दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देने पर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण का भुजदण्ड उसके मुँह में बढ़ने लगा । अचिन्त्यशक्ति भगवान श्रीकृष्ण का हाथ उसके मुँह में इतना बढ़ गया कि उसकी साँस के भी आने-जाने का मार्ग न रहा। अब तो दम घुटने के कारण वह पैर पीटने लगा। उसका शरीर पसीने से लथपथ हो गया, आँखों की पुतली उलट गयी, वह मल-त्याग करने लगा। थोड़ी ही देर में उसका शरीर निश्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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