श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 50 श्लोक 26-35

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दशम स्कन्ध: पञ्चाशत्तमोऽध्यायः (50) (उत्तरार्धः))

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चाशत्तमोऽध्यायः श्लोक 26-35 का हिन्दी अनुवाद

उस युद्ध में अपार तेजस्वी भगवान बलरामजी ने अपने मूसल की चोट से बहुत-से मतवाले शत्रुओं को मार-मारकर उनके अंग-प्रत्यंग से निकले हुए खून की सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। कहीं मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं। उस नदियों में मनुष्यों की भुजाएँ साँप के समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओं की भीड़ लग गयी हो। मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहों के समान जान पड़ते। हाथ और जाँघे मछलियों की तरह, मनुष्यों के केश सेवार के समान, धनुष तरंगों की भाँति और अस्त्र-शस्त्र लता एवं तिनकों के समान जान पड़ते। ढालें ऐसी मालूम पड़ती, मानो भयानक भँवर हों। बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थर के रोड़ों तथा कंकडों के समान बहे जा रहे थे। उन नदियों को देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरों का आपस में खूब उत्साह बढ़ रहा था । परीक्षित्! जरासन्ध की वह सेना समुद्र के समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाई से जीतने योग्य थी। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने थोड़े ही समय में उसे नष्ट कर डाला। वे सारे जगत् के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेना का नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है । परीक्षित्! भगवान के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेल में ही तीनों लोकों की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओं की सेना का इस प्रकार बात-की-बात में सत्यानाश कर दें। तथापि जब वे मनुष्य-सा वेष धारण करके मनुष्य-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है । इस प्रकार जरासन्ध की सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीर में केवल प्राण बाकी रहे। तब भगवान श्रीबलरामजी ने जैसे एक सिंह दूसरे सिंह को पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्ध को पकड़ लिया । जरासन्ध ने पहले बहुत-से विपक्षी नरपतियों का वध किया था, परन्तु आज उसे बलरामजी वरुण की फाँसी और मनुष्यों के फंदे से बाँध रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वी का भार उतार सकेंगे, बलरामजी को रोक दिया । बड़े-बड़े शूरवीर जरासन्ध का सम्मान करते थे। इसलिये उसे इस बात बड़ी लज्जा मालूम हुई कि मुझे श्रीकृष्ण और बलराम ने दया करके दीन की भाँति छोड़ दिया है। अब उसने तपस्या करने का निश्चय किया। परन्तु रास्ते में उसके साथी नरपतियों ने बहुत समझाया कि ‘राजन्! यदुवंशियों में क्या रखा है ? वे आपको बिलकुल ही पराजित नहीं कर सकते थे। आपको प्रारब्धवश ही नीचा देखना पड़ा है।’ उन लोगों ने भगवान की इच्छा, फिर विजय प्राप्त करने की आशा आदि बतलाकर तथा लौकिक दृष्टान्त एवं युक्तियाँ दे-देकर यह बात समझा दी कि आपको तपस्या नहीं करनी चाहिये । परीक्षित्! उस समय मगधराज जरासन्ध की सारी सेना मर चुकी थी। भगवान बलरामजी ने उपेक्षापूर्वक उसे छोड़ दिया था, इससे वह बहुत उदास होकर अपने देश मगध को चला गया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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