श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 53 श्लोक 18-31

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दशम स्कन्ध: त्रिपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (53) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद

वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजी के विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपाल को ही मिले, इस विचार से आये थे। उन्होंने अपने-अपने मन में यह पहले से ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण बलराम आदि यदुवंशियों के साथ आकर कन्या को हरने की चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओं ने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे ।

विपक्षी राजाओं की इस तैयारी का पता भगवान बलरामजी को लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारी का हरण करने के लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़े की बड़ी आशंका हुई । यद्यपि वे श्रीकृष्ण का बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भातृस्नेह से उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों की बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर के लिये चल पड़े ।

इधर परमसुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्ण की तो कौन कहे, अभी ब्राम्हण देवता भी नहीं लौटे! तो वे बड़ी चिन्ता में पड़ गयीं; सोचने लगीं । ‘अहो! अब मुझ अभागिनी के विवाह में केवल एक रात की देरी है। परन्तु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान अब भी नहीं पधारे! इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जाने वाले ब्राम्हण देवता भी तो अभी तक नहीं लौटे । इसमें सन्देह नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप परम शुद्ध है और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझमें कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरे हाथ पकड़ने के लिये—मुझे स्वीकार करने के लिये उद्दत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं ? । ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं! विधाता और भगवान शंकर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रूद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वतीजी मुझसे अप्रसन्न हों’। परीक्षित्! रुक्मिणीजी इसी उधेड़-बुन एन पड़ी हुई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हीं को सोंचते-सोंचते ‘अभी समय है’ ऐसा समझकर अपने आँसू भरे नेत्र बन्द कर लिये । परीक्षित्! इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फड़कने लगे, जो प्रियतम के आगमन का प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे । इतने में ही भगवान श्रीकृष्ण के भेजे हुए वे ब्राम्हण-देवता आ गये और उन्होंने अन्तःपुर में राजकुमारी रुक्मिणी को इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्न देवी हो । सती रुक्मिणीजी ने देखा ब्राम्हण-देवता का मख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरे पर किसी प्रकार की घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणों से ही समझ गयीं कि भगवान श्रीकृष्ण आ गये! फिर प्रसन्नता से खिलकर उन्होंने ब्राम्हणों देवता ने निवेदन किया कि ‘भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं।’ और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि ‘राजकुमारीजी! आपको ले जाने की उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है’। भगवान ने शुभागमन का समाचार सुनकर रुक्मिणीजी का हृदय आनन्दातिरेक से भर गया। उन्होंने इसके बदले में ब्राम्हण के लिए भगवान के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत् कि समग्र लक्ष्मी ब्राम्हण देवता को सौंप दी ।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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