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श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 64 श्लोक 27-40

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दशम स्कन्ध: चतुःषष्टितमोऽध्यायः (64) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 27-40 का हिन्दी अनुवाद


देवताओं के भी आराध्यदेव! पुरुषोत्तम गोविन्द! आप ही व्यक्त और अव्यक्त जगत् तथा जीवों के स्वामी हैं। अविनाशी अच्युत! आपकी कीर्ति पवित्र है। अन्तर्यामी नारायण! आप ही समस्त वृत्तियों और इन्द्रियों के स्वामी हैं । प्रभो! श्रीकृष्ण! मैं अब देवताओं के लोक में जा रहा हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिये। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मैं चाहे कहीं कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलों में ही लगा रहे । आप समस्त कार्यों और कारणों के रूप में विद्यमान हैं। आपकी शक्ति अनन्त हैं और आप स्वयं ब्रम्ह हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। सच्चिंदानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी वासुदेव श्रीकृष्ण! आप समस्त योगों के स्वामी योगेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ।

राजा नृग ने इस प्रकार कहकर भगवान की परिक्रमा की और अपने मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर सबके देखते-देखते ही वे श्रेष्ठ विमानपर सवार हो गये ।

राजा नृग के चले जाने पर ब्राम्हणों के परम प्रेमी, धर्म के आधार देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने क्षत्रियों को शिक्षा देने के लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्ब के लोगों से कहा— ‘जो लोग अग्नि के समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राम्हणों का थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठ-मूठ अपने को लोगों का स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं ? मैं हलाहल विष को विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुतः ब्राम्हणों का धन ही परम विष है, उसको पचा लेने के लिये पृथ्वी में कोई औषध, कोई उपाय नहीं है । हलाहल विष केवल खाने वाले का ही प्राण लेता है और आग भी जल के द्वारा बुझायी जा सकती है; परन्तु ब्राम्हण के धन रूप अरणि से जो आग पैदा होती है, वह सारे कुल को समूल जला डालती है । ब्राम्हण का धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाय तब तो वह भोगने वाले, उसके लड़के और पौत्र-इन तीन पीढ़ियों को ही चौपट करता है। परन्तु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाय, तब तो पूर्वपुरुषों की दस पिधियाँ और आगे की भी दस पीढ़ियाँ नष्ट हो जाती हैं । जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मी के घमंड से अंधे होकर ब्राम्हणों का धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरक में जाने का रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अधःपतन के कैसे गहरे गड्ढ़े में गिरना पड़ेगा । जिन उदारहृदय और बहु-कुटुम्बी ब्राम्हणों की वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोने पर उनके आँसू की बूँदों से धरती के जितने धूलकण भीगते हैं, उतने वर्षों तक ब्राम्हण के स्वत्व को छिनने वाले उस उच्छ्रंखल राजा और उसके वंशजों को कुम्भी पाक नरक में दुःख भोगना पड़ता है । जो मनुष्य अपनी या दूसरों की दी हुई ब्राम्हणों की वृत्ति, उनकी जीविका के साधन छीन लेते हैं, वे साथ हजार वर्ष तक विष्ठा के कीड़े होते हैं । इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राम्हणों का धन कभी भूल से भी मेरे कोष में न आये, क्योंकि जो लोग ब्राम्हणों के धन की इच्छा भी करते हैं—उसे छिनने की बात तो अलग रही—वे इस जन्म में अल्पायु, शत्रुओं से पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्यु के बाद भी दूसरों को कष्ट देने वाले साँप ही होते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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