श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 86 श्लोक 14-26

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दशम स्कन्ध: षडशीतितमोऽध्यायः(86) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षडशीतितमोऽध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद


वे गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी किसी प्रकार का उद्दोग नहीं करते थे; जो कुछ मिल जाता, उसी से अपना निर्वाह कर लेते थे । प्रारब्धवश प्रतिदिन उन्हें जीवन-निर्वाह भर के लिये सामग्री मिल जाया करती थी, अधिक नहीं। वे उतने से ही सन्तुष्ट भी थे, और अपने वर्णाश्रम के अनुसार धर्म-पालन में तत्पर रहते थे । प्रिय परीक्षित्! उस देश के राजा भी ब्राम्हण के समान ही भक्तिमान् थे। मैथिलवंश के उन प्रतिष्ठित नरपति का नाम था बहुलाश्व। उनमें अहंकार का लेश भी न था। श्रुतदेव और बहुलाश्व दोनों की भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे भक्त थे । एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने उन दोनों पर प्रसन्न होकर दारुक से रथ मँगवाया और उस पर सवार होकर द्वारका से विदेह देश की ओर प्रस्थान किया । भगवान के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, मैं (शुकदेव), बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे । परीक्षित्! वे जहाँ-जहाँ पहुँचते, वहाँ-वहाँ की नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजा की सामग्री लेकर उपस्थित होती। पूजा करने वालों को भगवान ऐसे जान पड़ते, मानो ग्रहों के साथ साक्षात् सूर्यनारायण उदय हो रहे हों । परीक्षित्! उस यात्रा में आनर्त, धन्व, कुरुजांगल, कंक, मत्स्य, पांचाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल, अर्ण आदि अनेकों देशों के नर-नारियों ने अपने नेत्ररूपी दोनों से भगवान श्रीकृष्ण के उन्मुक्त हास्य और प्रेमभरी चितवन से युक्त मुखारविन्द के मकरन्द-रस का पान किया ।त्रिलोकगुरु भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से उन लोगों की अज्ञानदृष्टि नष्ट हो गयी। प्रभु-दर्शन करने वाले नर-नारियों को अपनी दृष्टि से परम कल्याण और तत्त्वज्ञान का दान करते चल रहे थे। स्थान-स्थान पर मनुष्य और देवता भगवान की उस कीर्ति का गान करके सुनाते, जो समस्त दिशाओं को उज्ज्वल बनाने वाली एवं समस्त अशुभों का विनाश करने वाली है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण धीरे-धीरे विदेह देश में पहुँचे । परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन का समाचार सुनकर नागरिक और ग्रामवासियों के आनन्द की सीमा न रही। वे अपने हाथों में पूजा कि विविध सामग्रियाँ लेकर उनकी अगवानी करने आये । भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करके उनके हृदय और मुखकमल प्रेम और आनन्द से खिल उठे। उन्होंने भगवान तथा मुनियों को, जिनका नाम केवल सुन रखा था, देखा न था—हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर प्रणाम किया । मिथिलानरेश बहुलाश्व और श्रुतदेव ने, यह समझकर की जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण हम-लोगों पर अनुग्रह करने के लिये ही पधारे हैं, उनके चरणों पर गिरकर प्रणाम किया । बहुलाश्व और श्रुतदेव दोनों ने ही एक साथ हाथ जोड़कर मुनि-मण्डली के सहित भगवान श्रीकृष्ण को आतिथ्य ग्रहण करने के लिये निमन्त्रित किया । भगवान श्रीकृष्ण दोनों की प्रार्थना स्वीकार करके दोनों को ही प्रसन्न करने के लिये एक ही समय पृथक्-पृथक् रूप से दोनों के घर पधारे और यह बात एक-दूसरे को मालूम न हुई कि भगवान श्रीकृष्ण मेरे घर के अतिरिक्त और कहीं भी जा रहे हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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