श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 36-38

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दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः(87) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः श्लोक 36-38 का हिन्दी अनुवाद

भगवन्! जैसे मिट्टी से बना हुआ घड़ा मिट्टीरूप ही होता है, वैसे ही सत् से बना हुआ जगत् भी सत् ही है—यह बात युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि कारण और कार्य का निर्देश ही उनके भेद का द्दोतक है। यदि केवल भेद का निषेध करने के लिये ही ऐसा कहा जा रहा हो तो पिता और पुत्र में, दण्ड और घटनाश में कार्य-कारण-भाव होने पर भी वे एक दूसरे से भिन्न हैं। इस प्रकार कार्य-कारण की एकता सर्वत्र एक-सी नहीं देखी जाती। यदि कारण-शब्द से निमित्त-कारण न लेकर केवल उपादान-कारण लिया जाय—जैसे कुण्डल का सोना—तो भी कहीं-कहीं कार्य की असत्यता प्रमाणित होती हैं; जैसे रस्सी में साँप। यहाँ उपादान-कारण के सत्य होने पर भी उसका कार्य सर्प सर्वथा असत्य है। यदि यह कहा जाय कि प्रतीत होने वाले सर्प का उपादान-कारण केवल रस्सी नहीं है, उसके साथ अविद्या का—भ्रम मेल भी है, तो यह समझना चाहिये कि अविद्या और सत् वस्तु के संयोग से ही इस जगत् की उत्पत्ति हुई है। इसलिये जैसे रस्सी में प्रतीत होने वाला सर्प मिथ्या है, वैसे ही सत् वस्तु में अविद्या के सयोग से प्रतीत होने वाला नाम-रूपात्मक जगत् भी मिथ्या है। यदि केवल व्यवहार की सिद्धि के लिये ही जगत् की सत्ता अभीष्ट हो, तो उसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि वह पारमार्थिक सत्य न होकर केवल व्यावहारिक सत्य है। यह भ्रम व्यावहारिक जगत् में माने हुए काल की दृष्टि से अनादि है; और अज्ञानीजन बिना विचार किये पूर्व-पूर्व के भ्रम से प्रेरित होकर अन्धपरम्परा से इसे मानते चले आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में कर्मफल को सत्य बतलाने वाली श्रुतियाँ केवल उन्हीं लोगों को भ्रम में डालती हैं, जो कर्म में जड़ हो रहे हैं और यह नहीं समझते कि इनका तात्पर्य कर्मफल की नित्यता बतलाने में नहीं, बल्कि उनकी प्रशंसा करके उन कर्मों में लगाने में है[1]। भगवन्! वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत् उत्पत्ति के पहले नहीं था और प्रलय के बाद नहीं रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीच में भी एकरस परमात्मा में मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है। इसी से हम श्रुतियाँ इस जगत् का वर्णन ऐसी उपमा देकर करती है कि जैसे मिट्टी में घड़ा, लोहे में शस्त्र और सोने में कुण्डल आदि नाममात्र हैं, वास्तव में मिट्टी, लोहा और सोना ही हैं, सर्वथा मिथ्या और मन की कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं[2]। भगवन्! जब जीव माया से मोहित होकर अविद्या को अपना लेता है, उस समय उसके स्वरूपभूत आनन्दादि गुण ढक जाते हैं; वह गुणजन्य वृत्तियों, इन्द्रियों और देहों में फँस जाता है तथा उन्हीं को अपना आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है। अब उनकी जन्म-मृत्यु में अपनी जन्म-मृत्यु मानकर उनके चक्कर में पड़ जाता है। परन्तु प्रभो! जैसे साँप अपने केंचुल से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, उसे छोड़ देता है—वैसे ही आप माया—अविद्या से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, उसे सदा-सर्वदा छोड़े रहते हैं। इसी से आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सदा-सर्वदा आपके साथ रहते हैं। अणिमा आदि अष्टसिद्धियों से युक्त परमैश्वर्य में आपकी स्थिति है। इसी से आपका ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य अपरिमित है, अनन्त है; वह देश, काल और वस्तुओं की सीमा से आबद्ध नहीं है[3]





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. माला में प्रतीयमान सर्प के समान सत्यस्वरूप आपसे उदय होने पर भी यह त्रिभुवन सत्य नहीं है। झूठा सोना बाज़ार में चल जाने पर भी सत्य नहीं हो जाता। वेदों का तात्पर्य भी जगत् की सत्यता में नहीं है। इसलिये आपका जो परम सत्य परमानन्दस्वरूप अद्वैत सुन्दर पद है, हे इन्द्रिरावन्दित श्रीहरे! मैं उसी की वन्दना करता हूँ। मुझ शरणागत को मत छोड़िये।
  2. सोना मुकुट, कुण्डल, कंकण और किंकणी के रूप में परिणत होने पर भी वस्तुतः सोना ही है। इसी प्रकार नृसिंह! महतत्व, अहंकार और आकाश, वायु आदि के रूप में उपलब्ध होने वाला यह सम्पूर्ण जगत् वस्तुतः आपसे भिन्न नहीं है।
  3. प्रभो! आपकी यह माया आपकी दृष्टि के आँगन में आकर नाच रही है और काल, स्वभाव आदि के द्वारा सत्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी अनेकानेक भावों का प्रदर्शन कर रही है। साथ ही यह मेरे सिर पर सवार होकर मुझ आतुर को बलपूर्वक रौंद रही है। नृसिंह! मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप ही इसे रोक दीजिये।

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