श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 88 श्लोक 26-40

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दशम स्कन्ध: अष्टाशीतितमोऽध्यायः(88) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टाशीतितमोऽध्यायः श्लोक 26-40 का हिन्दी अनुवाद


वैकुण्ठ में स्वयं भगवान नारायण निवास करते हैं। एकमात्र वे ही उन संन्यासियों की परम गति हैं जो सारे जगत् को अभयदान करके शान्तभाव में स्थित हो गये हैं। वैकुण्ठ में जाकर जीव को फिर लौटना नहीं पड़ता । भक्तभयहारी भगवान ने देखा कि शंकरजी तो बड़े संकट में पड़े हुए हैं। तब वे अपनी योगमाया से ब्रम्हचारी बनकर दूर से ही धीरे-धीरे वृकासुर की ओर आने लगे ।भगवान ने मूँज की मेखला, काला मृगचर्म, दण्ड और रुद्राक्ष की माला धारण कर रखी थी। उनके एक-एक अंग से ऐसी ज्योति निकल रही थी, मानो आग धधक रही हो। वे हाथ में कुश लिये हुए थे। वृकासुर को देखकर उन्होंने बड़ी नम्रता से झुककर प्रणाम किया । ब्रम्हचारी-वेषधारी भगवान ने कहा—शकुनिनन्दन वृकासुरजी! आप स्पष्ट ही बहुत थके-से जान पड़ते हैं। आज आप बहुत दूर से आ रहे हैं क्या ? तनिक विश्राम तो कर लीजिये। देखिये, यह शरीर ही सारे सुखों की जड़ है। इसी से सारी कामनाएँ पूरी होती हैं। इसे अधिक कष्ट न देना चाहिये । आप तो सब प्रकार से समर्थ हैं। इस समय आप क्या करना चाहते हैं ? यदि मेरे सुनने योग्य कोई बात हो बतलाइये। क्योंकि संसार में देखा जाता है कि लोग सहायकों के द्वारा बहुत-से काम बना लिया करते हैं । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान के एक-एक शब्द से अमृत बरस रहा था। उनके इस प्रकार पूछने पर पहले तो उसने तनिक ठहरकर अपनी थकावट दूर की; उसके बाद क्रमशः अपनी तपस्या, वरदान-प्राप्ति तथा भगवान शंकर के पीछे दौड़ने की बात शुरू से कह सुनायी । श्रीभगवान ने कहा—‘अच्छा, ऐसी बात है ? तब तो भाई! हम उसकी बात पर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या ? वह तो दक्ष प्रजापति के शाप से पिशाचभाव को प्राप्त हो गया है। आजकल वही प्रेतों और पिशाचों का सम्राट् है । दानवराज! आप इतने बड़े होकर ऐसी छोटी-छोटी बातों पर विश्वास कर लेते हैं ? आप यदि अब भी उसे जगद्गुरु मानते हों और उसकी बात पर विश्वास करते हों तो झटपट अपने सिर पर हाथ रखकर परीक्षा कर लीजिये । दानवशिरोमणे! यदि किसी प्रकार शंकर की बात असत्य निकले तो उस असत्यवादी को मार डालिये, जिससे फिर कभी झूंठ न बोल सके । परीक्षित्! भगवान ने ऐसी मोहित करने वाली अद्भुत और मीठी बात कही कि उसकी विवेक-बुद्धि जाती रही। उस दुर्बुद्धि ने भूलकर अपने ही सिर पर हाथ रख लिया । बस, उसी क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीँ धरती पर गिरा पड़ा, मानो उस पर बिजली गिर पड़ी हो। उस समय आकाश में देवता लोग ‘जय-जय, नमो-नमः, साधु-साधु!’ के नारे लगाने लगे । पापी वृकासुर की मृत्यु से देवता, ऋषि, पितर और गन्धर्व अत्यन्त प्रसन्न होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे और भगवान शंकर उस विकट संकट से मुक्त हो गये । अब भगवान पुरुषोत्तम ने भयमुक्त शंकरजी से कहा कि ‘देवाधिदेव! बड़े हर्ष की बात है कि इस दुष्ट को इसके पापों ने ही नष्ट कर दिया। परमेश्वर! भला, ऐसा कौन प्राणी है जो महापुरुषों का अपराध करके कुशल से रह सके ? फिर स्वयं जगद्गुरु विश्वेश्वर! आपका अपराध करके तो कोई सकुशल रह ही कैसे सकता है ?’ भगवान अनन्त शक्तियों के समुद्र हैं। उनकी एक-एक शक्ति मन और वाणी की सीमा के परे हैं। संकट से छुड़ाने की यह लीला जो कोई कहता या सुनता है, वह संसार के बन्धनों और शत्रुओं के भय मुक्त हो जाता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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