श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 1-11

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द्वादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः (10)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

मार्कण्डेयजी को भगवान का शंकर का वरदान सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! मार्कण्डेय मुनि ने इस प्रकार नारायण-निर्मित योगमाया-वैभव का अनुभव किया। अब यह निश्चय करके कि इस माया से मुक्त होने के लिये मायापति भगवान की शरण ही एकमात्र उपाय है, उन्हीं की शरण में स्थित हो गये । मार्कण्डेय ने मन-ही-मन कहा—प्रभो! आपकी माया वास्तव में प्रतीति मात्र होने पर भी सत्य ज्ञान के समान प्रकाशित होती है और बड़े-बड़े विद्वान भी उसके खेलों में मोहित हो जाते हैं। आपके श्रीचरणकमल ही शरणागतों को सब प्रकार से अभयदान करते हैं। इसलिये मैंने उन्हीं की शरण ग्रहण की है । सूतजी कहते हैं—मार्कण्डेय इस प्रकार शरणागति की भावना में तन्मय हो रहे थे। उसी समय भगवान शंकर भगवती पार्वतीजी के साथ नन्दी पर सवार होकर आकाशमार्ग से विचरण करते हुए उधर आ निकले और मार्कण्डेय को उसी अवस्था में देखा। उनके साथ बहुत-से गण भी थे । जब भगवती पार्वतीजी मार्कण्डेय मुनि को ध्यान की अवस्था में देखा, तब उनका हृदय वात्सल्य-स्नेह से उमड़ आया। उन्होंने शंकरजी से कहा—‘भगवन्! तनिक इस ब्राम्हण की ओर तो देखिये। जैसे तूफान शान्त हो जाने पर समुद्र की लहरें और मछलियाँ शान्त हो जाती हैं और समुद्र धीर-गम्भीर हो जाता है, वैसे ही इस ब्राम्हण का शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण शान्त हो रहा है। समस्त सिद्धियों के दाता आप ही हैं। इसलिये कृपा करके आप इस ब्राम्हण की तपस्या का प्रत्यक्ष फल दीजिये’ । भगवान शंकर ने कहा—देवि! ये ब्रम्हर्षि लोक अथवा परलोक की कोई भी वस्तु नहीं चाहते। और तो क्या, इनके मन में कभी मोक्ष की भी आकांक्षा नहीं होती। इसका कारण यह है कि घट-घटवासी अविनाशी भगवान के चरणकमलों में इन्हें परम भक्ति प्राप्त हो चुकी है । प्रिये! यद्यपि इन्हें हमारी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी मैंने इनके साथ बातचीत करूँगा; क्योंकि ये महात्मा पुरुष हैं। जीव मात्र के लिये सबसे बड़े लाभ की बात यही है कि संत पुरुषों का समागम प्राप्त हो । सूतजी कहते हैं—शौनकजी! भगवान शंकर समस्त विद्याओं के प्रवर्तक और सारे प्राणियों के हृदय में विराजमान अन्तर्यामी प्रभु हैं। जगत् के जितने भी संत हैं, उनके एकमात्र आश्रय और आदर्श भी वही हैं। भगवती पार्वती से इस प्रकार कहकर भगवान शंकर मार्कण्डेय मुनि के पास गये । उस समय मार्कण्डेय मुनि की समस्त मनोवृत्तियाँ भगवद्भाव में तन्मय थीं। उन्हें अपने शरीर और जगत् का बिलकुल पता न था। इसलिये उस समय वे यह भी न जान सके कि मेरे सामने सारे विश्व के आत्मा स्वयं भगवान गौरी-शंकर पधारे हुए हैं । शौनकजी! सर्वशक्तिमान् भगवान कैलासपति से यह बात छिपी न रही कि मार्कण्डेय मुनि इस समय किस अवस्था में हैं। इसलिये जैसे वायु अवकाश के स्थान में अनायास ही प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही वे अपनी योगमाया से मार्कण्डेय मुनि के हृदयाकाश में प्रवेश कर गये । मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि उनके हृदय में तो भगवान शंकर के दर्शन हो रहे हैं। शंकरजी के सिर पर बिजली के समान चमकीली पीली-पीली जटाएँ शोभायमान हो रही हैं। तीन नेत्र हैं और दस भुजाएँ। लम्बा-तगड़ा शरीर उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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