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+ | प्रभाशंकर पाटनी का जन्म 14 अप्रैल, 1862 ई. को सौराष्ट्र के मोख कस्बे में एक गरीब [[परिवार]] में हुआ था। उन्होंने दो वर्ष तक [[मुंबई]] के मेडिकल कॉलेज़ में शिक्षा पाई। पाटनी [[संस्कृत]] के विद्वान और नरम विचारों के व्यक्ति थे। पर वे राष्ट्रवादी थे। इस बीच [[1891]] में [[भावनगर]] रियासत में पहले प्रभाशंकर राजकुमार के सहयोगी, फिर राजा के निजी सचिव और बाद में [[दीवान]] बन गए। [[गांधी जी]] से उनकी निकटता थी और भावनगर में उन्होंने हरिजन उद्धार, महिला जागरण आदि के रचनात्मक कार्यों को आगे बढ़ाया। | ||
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+ | भावनगर रियासत की सेवा के बाद प्रभाशंकर पाटनी मुंबई के गवर्नर की एक्जिक्यूटिव के सदस्य और [[दिल्ली]] में [[वाइसराय]] की एक्जिक्यूटिव के सदस्य मनोनीत हुए थे। [[1917]] में उन्हें भारत मंत्री की कौंसिल के सदस्य के रूप में दो वर्ष के लिए [[लंदन]] बुला लिया। [[भारत]] वापस आने पर प्रभाशंकर पाटनी भावनगर रियासत के प्रशासक बने। लंदन के [[द्वितीय गोलमेज सम्मेलन]] में भाग लेने के लिए वे और [[गांधी जी]] एक एक जहाज़ से गए थे। पाटनी ने राष्ट्र संघ में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। प्रभाशंकर पाटनी की जानकारी में लाहौर पड्यंत्र केस के अभियुक्त सरदार पृथ्वी सिंह बहुत समय तक भावनगर में रहे थे। ब्रिटिश अधिकारी, रियासत के राजा और गांधी जी सभी पाटनी का विश्वास करते थे। | ||
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+ | ==जन्म एवं परिचय== | ||
+ | प्रेमनाथ डोगरा का जन्म जम्मू के निकट समाइलपुर में 24 अक्टूबर, 1884 ई. में हुआ था। उनके [[पिता]] पंडित अनंतराम [[लाहौर]] में [[कश्मीर|कश्मीर राज्य]] की संपत्ति के प्रबंधक | ||
+ | थे। प्रेमनाथ की शिक्षा वहीं हुई। शिक्षा पूरी करने पर वे राज्य की सेवा में तहसीलदार नियुक्त हुए और फिर डिप्टी कमिश्नर बन गए। लेकिन [[1931]] में मुजफ्फराबाद में [[मुस्लिम]] आंदोलनकारियों को दबाने में ढिलाई का आरोप लगा कर उन्हें सेवा से हटा दिया गया। प्रेमनाथ डोगरा बड़े मृदुभाषी और सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। | ||
+ | ==कश्मीर के लिए योगदान== | ||
+ | राज्य की सेवा से हटने के बाद प्रेमनाथ ने अपना ध्यान समाज सेवा की ओर लगाया। वे 'ब्राह्मण मंडल' और 'सनातन धर्म सभा' के [[अध्यक्ष]] बन गए। प्रेमनाथ ने अपने पिता के साथ मिल कर उस कानून को पास कराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया जिसके अनुसार कोई गैर-कश्मीरी न तो [[कश्मीर]] में सरकारी नौकरी पा सकता है और न वहां कोई संपत्ति खरीद सकता है। प्रेमनाथ ने कश्मीर के महाराजा का साथ दिया और वे इस 'हिंदो रियासत' को उसके पूर्व रूप में बनाए रखना चाहते थे। किन्तु बाद की परिस्थितियों में राजा को ठीक समय पर भारतीय संघ में सम्मिलित होने के लिए अधिकृत कर दिया। | ||
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+ | प्रेमनाथ डोगरा [[जम्मू कश्मीर|जम्मू कश्मीर राज्य]] में [[राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ]] के संचालक थे। उन्हें [[1948]] में नजरबंद किया गया। [[1949]] और [[1950]] में प्रेमनाथ फिर गिरफ्तार हुए थे। अंतिम गिरफ्तारी के समय केंद्रीय मंत्री गोपाला स्वामी आयंगार के हस्तक्षेप से रिहा हुए थे। यह समय था जब शेख अब्दुल्ला धीरे-धीरे राज्य को केंद्रीय सरकार से अलग करने के प्रयत्नों में लगे हुए थे। ऐसी स्थिति में कश्मीर के [[हिंदु|हिंदुओं]] का नेतृव्य प्रेमनाथ डोगरा के हाथों में आ गया। प्रेमनाथ ने केंद्र के साथ निकटता बनाए रखने के लिए प्रजा परिषद की स्थापना की और आंदोलन चलाया। फलत: [[1953]] में शेख अब्दुला की सरकार भंग कर दी गई और उन्हें जेल में डाल दिया गया। | ||
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+ | अब तक प्रेमनाथ पर्याप्त लोकप्रिय हो चुके थे। [[1955]]-[[1956]] में उन्हें [[भारतीय जन संघ]] का [[अध्यक्ष]] चुना गया। प्रेमनाथ डोगरा अनेक वर्षों तक राज्य की [[विधान सभा]] में [[जम्मू]] नगर के प्रतिनिधि भी रहे थे। | ||
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+ | भवानीदयाल संन्यासी का जन्म 10 सितंबर, 1892 ई. को जोहान्सबर्ग ([[दक्षिण अफ्रीका]]) में हुआ था। उनके पिता जयराम सिंह और माता कुली बन कर [[भारत]] से वहां गए थे। भवानीदयाल की शिक्षा दक्षिण अफ्रीका में ही एक गुजराती ब्राह्मण द्वारा संचालित हिंदी हाई स्कूल और मिशन स्कूल में हुई। | ||
==परिचय== | ==परिचय== | ||
− | + | भवानी दयाल राष्ट्रवादी विचारों के व्यक्ति थे। [[बंगाल]] विभाजन के आंदोलन के काल में वे भारत आए थे और स्वदेशी आंदोलन से उनका संपर्क हुआ। यहां भवानीदयाल को [[तुलसीदास]] और [[सूरदास]] की रचनाओं के साथ-साथ [[स्वामी दयानंद]] के 'सत्यार्थप्रकाश' के अध्ययन का अवसर मिला और वे आर्यसमाजी बन गए। | |
− | == | + | ==गांधी जी से भेंट== |
− | [[ | + | अफ्रीका वापस जाने पर [[1913]] में भवानी दयाल की [[गांधी जी]] से भेंट हुई और उन्होंने आर्य समाज के प्रचार के साथ-साथ गांधी जी के विचारों के प्रचार में ही योग दिया। यद्यपि उनके जीवन का अधिक समय अफ्रीका में ही बीता, फिर भी वे बीच-बीच में [[भारत]] आते रहे। |
− | + | ==आर्य समाज के संन्यासी== | |
− | + | भवानीदयाल ने [[कांग्रेस]] के अधिवेशनों में भाग लिया आंदोलनों में जेल गए और [[बिहार]] के [[किसान आंदोलन]] में भी सम्मिलित रहे। [[1927]] में उन्होंने संन्यास ले लिया था और आर्य समाज के संन्यासी के रूप में [[धर्म]] और [[हिंदी भाषा]] के प्रचार में लगे रहे। स्वामी जी भारत की राष्ट्रीयता और [[दक्षिण अफ्रीका]] के प्रवासी भारतीयों के बीच एक सेतु का काम करते थे। उन्होंने हिंदी के प्रचार के लिए दक्षिण अफ्रीका में 'हिंदी आश्रम' की स्थापना की। वे नेटाल की आर्य प्रतिनिधि सभा के पहले अध्यक्ष थे। | |
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− | + | भवानीदयाल संन्यासी [[1939]] में स्थायी रूप से भारत आकर [[अजमेर]] में रहने लगे थे। उन्होंने अनेक [[ग्रंथ|ग्रंथों]] की रचना की और अपना शेष जीवन '[[हिंदी]], [[हिंदू]], हिन्दुस्तान' की सेवा में लगाया। | |
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+ | '''रणधीर सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Randhir Singh'', जन्म- [[7 जुलाई]], [[1978]], [[लुधियाना ज़िला]], [[पंजाब]]; मृत्यु- [[16 अप्रैल]] [[1961]], लुधियाना ज़िला, पंजाब) प्रसिद्ध सिख नेता और क्रांतिकारी थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन=भारतकोश पुस्तकालय |संपादन=|पृष्ठ संख्या=569|url=}}</ref> | ||
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+ | रणधीर सिंह का जन्म 1978 ई. में पंजाब के लुधियाना ज़िले में हुआ था। उन्होंने [[लाहौर]] के क्रिश्चियन कॉलेज में शिक्षा पाई। तत्कालीन प्रमुख सिख नेताओं से परिचय के बाद रणधीर सिंह 'सिंह सभा' आंदोलन में सम्मिलित हो गए। उनकी सशस्त लेखनी और काव्य प्रतिभा से इस आंदोलन को बड़ा बल मिला। रणधीर सिंह केवल [[पंजाबी भाषा]] में ही लिखते थे। अध्ययन के द्वारा उन्होंने सिख जीवन दर्शन का गहन ज्ञान प्राप्त किया। आजीविका के लिए रणधीर सिंह ने कुछ वर्ष तहसीलदार के रूप में काम किया और उसके बाद खालसा कॉलेज [[अमृतसर]] में अध्यापक बन गए। | ||
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+ | रणधीर सिंह सामाजिक सुधारों के प्रबल समर्थक थे। वे अस्पृश्यता के विरोधी और महिलाओं के अधिकारों के पक्षधर थे। रणधीर सिंह का कहना था कि विद्यालयों के पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा का समावेश हो और उसे विदेशी प्रभाव से मुक्त रखा जाए। | ||
+ | ==ब्रिटिश सरकार के विरोधी== | ||
+ | प्रथम विश्वयुद्ध ([[1914]]-[[1918]]) के समय [[ब्रिटिश सरकार]] ने रकाबगंज गुरुद्वारा की बाहरी दीवारें गिरा देने का आदेश दिया तो भाई रणधीर सिंह के विचारों में एकदम परिवर्तन आया। वे ब्रिटिश विरोधी हो गए। [[भारतीय सेना]] को भी विद्रोह के लिए तैयार किया गया। [[1915]] में ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने का निश्चय किया गया। | ||
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+ | पर पहले ही भेद खुल जाने के कारण भाई रणधीर सिंह और उनके साथी गिरफ्तार कर लिए गए। भाई को आजीवन कारावास की सजा मिली। 17 वर्ष जेल में रहकर जब वे बाहर आए, उस समय तक देश की राजनीतिक स्थिति बदल चुकी थी। रणधीर सिंह [[कांग्रेस]] की अहिंसक राजनीति का समर्थन नहीं कर सके और उसके आलोचक बने रहे। | ||
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12:33, 4 जनवरी 2017 का अवतरण
माधवी 3
| |
पूरा नाम | प्रभाशंकर पाटनी |
जन्म | 14 अप्रैल 1862 |
जन्म भूमि | सौराष्ट्र मोख |
मृत्यु | 16 अक्टूबर, 1938 |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | समाज सेवा |
प्रसिद्धि | समाज सुधारक |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | गांधी जी |
अन्य जानकारी | भावनगर रियासत की सेवा के बाद प्रभाशंकर पाटनी मुंबई के गवर्नर की एक्जिक्यूटिव के सदस्य और दिल्ली में वाइसराय की एक्जिक्यूटिव के सदस्य थे। |
अद्यतन | 04:45, 1 जनवरी-2017 (IST) |
प्रभाशंकर पाटनी (अंग्रेज़ी: Prabhashankar Patni, जन्म- 14 अप्रैल 1862, सौराष्ट्र; मृत्यु- 16 अक्टूबर,1938) गुजरात के प्रमुख सार्वजनिक कार्यकर्त्ता थे। गांधी जी से उनकी निकटता थी। भावनगर में प्रभाशंकर पाटनी ने हरिजन उद्धार, महिला जागरण आदि के रचनात्मक कार्यों को आगे बढ़ाया। प्रभाशंकर पाटनी मुंबई के गवर्नर की एक्जिक्यूटिव के सदस्य और दिल्ली में वाइसराय की एक्जिक्यूटिव के सदस्य थे।[1]
परिचय
प्रभाशंकर पाटनी का जन्म 14 अप्रैल, 1862 ई. को सौराष्ट्र के मोख कस्बे में एक गरीब परिवार में हुआ था। उन्होंने दो वर्ष तक मुंबई के मेडिकल कॉलेज़ में शिक्षा पाई। पाटनी संस्कृत के विद्वान और नरम विचारों के व्यक्ति थे। पर वे राष्ट्रवादी थे। इस बीच 1891 में भावनगर रियासत में पहले प्रभाशंकर राजकुमार के सहयोगी, फिर राजा के निजी सचिव और बाद में दीवान बन गए। गांधी जी से उनकी निकटता थी और भावनगर में उन्होंने हरिजन उद्धार, महिला जागरण आदि के रचनात्मक कार्यों को आगे बढ़ाया।
भारत का प्रतिनिधित्व
भावनगर रियासत की सेवा के बाद प्रभाशंकर पाटनी मुंबई के गवर्नर की एक्जिक्यूटिव के सदस्य और दिल्ली में वाइसराय की एक्जिक्यूटिव के सदस्य मनोनीत हुए थे। 1917 में उन्हें भारत मंत्री की कौंसिल के सदस्य के रूप में दो वर्ष के लिए लंदन बुला लिया। भारत वापस आने पर प्रभाशंकर पाटनी भावनगर रियासत के प्रशासक बने। लंदन के द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए वे और गांधी जी एक एक जहाज़ से गए थे। पाटनी ने राष्ट्र संघ में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। प्रभाशंकर पाटनी की जानकारी में लाहौर पड्यंत्र केस के अभियुक्त सरदार पृथ्वी सिंह बहुत समय तक भावनगर में रहे थे। ब्रिटिश अधिकारी, रियासत के राजा और गांधी जी सभी पाटनी का विश्वास करते थे।
निधन
16 अक्टूबर, 1938 को प्रभाशंकर पाटनी का निधन हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 492 |
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख
माधवी 3
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पूरा नाम | प्रेमनाथ डोगरा |
जन्म | 24 अक्टूबर, 1884 |
जन्म भूमि | समाइलपुर ज़िला जम्मू |
मृत्यु | 20 मार्च, 1972 |
अभिभावक | पिता - पंडित अनंतराम |
नागरिकता | भारतीय |
पद | विधान सभा के सदस्य |
अन्य जानकारी | भारतीय जन संघ का अध्यक्ष चुना गया था। |
अद्यतन | 04:45, 1 जनवरी-2017 (IST) |
प्रेमनाथ डोगरा (अंग्रेज़ी: Premnath Dogra, जन्म- 24 अक्टूबर, 1884, समाइलपुर ज़िला जम्मू; मृत्यु- 20 मार्च, 1972) जम्मू-कश्मीर के एक नेता थे जिन्होंने भारत के साथ राज्य एकीकरण के लिए काम किया था। प्रेमनाथ डोगरा जम्मू कश्मीर राज्य में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संचालक थे। प्रेमनाथ ने एक महत्वपूर्ण कानून लागू कराया जिसके अनुसार कोई गैर-कश्मीरी न तो कश्मीर में सरकारी नौकरी पा सकता है और न वहां कोई संपत्ति खरीद सकता है।[1]
जन्म एवं परिचय
प्रेमनाथ डोगरा का जन्म जम्मू के निकट समाइलपुर में 24 अक्टूबर, 1884 ई. में हुआ था। उनके पिता पंडित अनंतराम लाहौर में कश्मीर राज्य की संपत्ति के प्रबंधक थे। प्रेमनाथ की शिक्षा वहीं हुई। शिक्षा पूरी करने पर वे राज्य की सेवा में तहसीलदार नियुक्त हुए और फिर डिप्टी कमिश्नर बन गए। लेकिन 1931 में मुजफ्फराबाद में मुस्लिम आंदोलनकारियों को दबाने में ढिलाई का आरोप लगा कर उन्हें सेवा से हटा दिया गया। प्रेमनाथ डोगरा बड़े मृदुभाषी और सरल स्वभाव के व्यक्ति थे।
कश्मीर के लिए योगदान
राज्य की सेवा से हटने के बाद प्रेमनाथ ने अपना ध्यान समाज सेवा की ओर लगाया। वे 'ब्राह्मण मंडल' और 'सनातन धर्म सभा' के अध्यक्ष बन गए। प्रेमनाथ ने अपने पिता के साथ मिल कर उस कानून को पास कराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया जिसके अनुसार कोई गैर-कश्मीरी न तो कश्मीर में सरकारी नौकरी पा सकता है और न वहां कोई संपत्ति खरीद सकता है। प्रेमनाथ ने कश्मीर के महाराजा का साथ दिया और वे इस 'हिंदो रियासत' को उसके पूर्व रूप में बनाए रखना चाहते थे। किन्तु बाद की परिस्थितियों में राजा को ठीक समय पर भारतीय संघ में सम्मिलित होने के लिए अधिकृत कर दिया।
जेल का सफर
प्रेमनाथ डोगरा जम्मू कश्मीर राज्य में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संचालक थे। उन्हें 1948 में नजरबंद किया गया। 1949 और 1950 में प्रेमनाथ फिर गिरफ्तार हुए थे। अंतिम गिरफ्तारी के समय केंद्रीय मंत्री गोपाला स्वामी आयंगार के हस्तक्षेप से रिहा हुए थे। यह समय था जब शेख अब्दुल्ला धीरे-धीरे राज्य को केंद्रीय सरकार से अलग करने के प्रयत्नों में लगे हुए थे। ऐसी स्थिति में कश्मीर के हिंदुओं का नेतृव्य प्रेमनाथ डोगरा के हाथों में आ गया। प्रेमनाथ ने केंद्र के साथ निकटता बनाए रखने के लिए प्रजा परिषद की स्थापना की और आंदोलन चलाया। फलत: 1953 में शेख अब्दुला की सरकार भंग कर दी गई और उन्हें जेल में डाल दिया गया।
लोकप्रियता
अब तक प्रेमनाथ पर्याप्त लोकप्रिय हो चुके थे। 1955-1956 में उन्हें भारतीय जन संघ का अध्यक्ष चुना गया। प्रेमनाथ डोगरा अनेक वर्षों तक राज्य की विधान सभा में जम्मू नगर के प्रतिनिधि भी रहे थे।
निधन
20 मार्च, 1972 ई. को प्रेमनाथ डोगरा का देहांत हो गया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 494 |
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माधवी 3
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पूरा नाम | भवानी दयाल संन्यासी |
जन्म | 10 सितंबर, 1892 |
जन्म भूमि | जोहान्सबर्ग दक्षिण अफ्रीका |
मृत्यु | 9 मई, 1950 |
अभिभावक | पिता - जयराम सिंह माता -कुली बन |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | समाज सेवा |
प्रसिद्धि | समाज सुधारक |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | गांधी जी |
अन्य जानकारी | उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की और अपना शेष जीवन 'हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान' की सेवा में लगाया। |
अद्यतन | 04:45, 1 जनवरी-2017 (IST) |
भवानी दयाल संन्यासी (अंग्रेज़ी: Bhawani Dayal Sanyaasi, जन्म- 10 सितंबर, 1892, जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ्रीका); मृत्यु- 9 मई, 1950) राष्ट्रवादी, हिंदीसेवी और आर्यसमाजी थे।[1]
जन्म एवं शिक्षा
भवानीदयाल संन्यासी का जन्म 10 सितंबर, 1892 ई. को जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) में हुआ था। उनके पिता जयराम सिंह और माता कुली बन कर भारत से वहां गए थे। भवानीदयाल की शिक्षा दक्षिण अफ्रीका में ही एक गुजराती ब्राह्मण द्वारा संचालित हिंदी हाई स्कूल और मिशन स्कूल में हुई।
परिचय
भवानी दयाल राष्ट्रवादी विचारों के व्यक्ति थे। बंगाल विभाजन के आंदोलन के काल में वे भारत आए थे और स्वदेशी आंदोलन से उनका संपर्क हुआ। यहां भवानीदयाल को तुलसीदास और सूरदास की रचनाओं के साथ-साथ स्वामी दयानंद के 'सत्यार्थप्रकाश' के अध्ययन का अवसर मिला और वे आर्यसमाजी बन गए।
गांधी जी से भेंट
अफ्रीका वापस जाने पर 1913 में भवानी दयाल की गांधी जी से भेंट हुई और उन्होंने आर्य समाज के प्रचार के साथ-साथ गांधी जी के विचारों के प्रचार में ही योग दिया। यद्यपि उनके जीवन का अधिक समय अफ्रीका में ही बीता, फिर भी वे बीच-बीच में भारत आते रहे।
आर्य समाज के संन्यासी
भवानीदयाल ने कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लिया आंदोलनों में जेल गए और बिहार के किसान आंदोलन में भी सम्मिलित रहे। 1927 में उन्होंने संन्यास ले लिया था और आर्य समाज के संन्यासी के रूप में धर्म और हिंदी भाषा के प्रचार में लगे रहे। स्वामी जी भारत की राष्ट्रीयता और दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों के बीच एक सेतु का काम करते थे। उन्होंने हिंदी के प्रचार के लिए दक्षिण अफ्रीका में 'हिंदी आश्रम' की स्थापना की। वे नेटाल की आर्य प्रतिनिधि सभा के पहले अध्यक्ष थे।
भवानीदयाल संन्यासी 1939 में स्थायी रूप से भारत आकर अजमेर में रहने लगे थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की और अपना शेष जीवन 'हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान' की सेवा में लगाया।
निधन
1959 में भवानीदयाल का देहांत दुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 567 |
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रणधीर सिंह (अंग्रेज़ी: Randhir Singh, जन्म- 7 जुलाई, 1978, लुधियाना ज़िला, पंजाब; मृत्यु- 16 अप्रैल 1961, लुधियाना ज़िला, पंजाब) प्रसिद्ध सिख नेता और क्रांतिकारी थे।[1]
जन्म एवं परिचय
रणधीर सिंह का जन्म 1978 ई. में पंजाब के लुधियाना ज़िले में हुआ था। उन्होंने लाहौर के क्रिश्चियन कॉलेज में शिक्षा पाई। तत्कालीन प्रमुख सिख नेताओं से परिचय के बाद रणधीर सिंह 'सिंह सभा' आंदोलन में सम्मिलित हो गए। उनकी सशस्त लेखनी और काव्य प्रतिभा से इस आंदोलन को बड़ा बल मिला। रणधीर सिंह केवल पंजाबी भाषा में ही लिखते थे। अध्ययन के द्वारा उन्होंने सिख जीवन दर्शन का गहन ज्ञान प्राप्त किया। आजीविका के लिए रणधीर सिंह ने कुछ वर्ष तहसीलदार के रूप में काम किया और उसके बाद खालसा कॉलेज अमृतसर में अध्यापक बन गए।
सामाजिक सुधारों के समर्थक
रणधीर सिंह सामाजिक सुधारों के प्रबल समर्थक थे। वे अस्पृश्यता के विरोधी और महिलाओं के अधिकारों के पक्षधर थे। रणधीर सिंह का कहना था कि विद्यालयों के पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा का समावेश हो और उसे विदेशी प्रभाव से मुक्त रखा जाए।
ब्रिटिश सरकार के विरोधी
प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के समय ब्रिटिश सरकार ने रकाबगंज गुरुद्वारा की बाहरी दीवारें गिरा देने का आदेश दिया तो भाई रणधीर सिंह के विचारों में एकदम परिवर्तन आया। वे ब्रिटिश विरोधी हो गए। भारतीय सेना को भी विद्रोह के लिए तैयार किया गया। 1915 में ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने का निश्चय किया गया।
आजीवन कारावास
पर पहले ही भेद खुल जाने के कारण भाई रणधीर सिंह और उनके साथी गिरफ्तार कर लिए गए। भाई को आजीवन कारावास की सजा मिली। 17 वर्ष जेल में रहकर जब वे बाहर आए, उस समय तक देश की राजनीतिक स्थिति बदल चुकी थी। रणधीर सिंह कांग्रेस की अहिंसक राजनीति का समर्थन नहीं कर सके और उसके आलोचक बने रहे।
निधन
16 अप्रैल, 1961 को रणधीर सिंह का देहांत हो गया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 569 |
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