धर्म

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धर्मों के प्रतीक

(संस्कृत शब्द, अर्थात् जो स्थापित हो यानी धर्म, रीति, विधि या कर्तव्य), पालि शब्द, धम्म। हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म में बहुअर्थी मूल अवधारणा। आज धर्म के जिस रूप को प्रचारित एवं व्याख्यायित किया जा रहा है उससे बचने की ज़रूरत है। मूलतः धर्म संप्रदाय नहीं है। ज़िंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है। मध्ययुग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के प्रति आज के व्यक्ति की आस्था कम होती जा रही है। मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के प्रमुख प्रतिमान थे- स्वर्ग की कल्पना, सृष्टि एवं जीवों के कर्ता रूप में ईश्वर की कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा। उस युग में व्यक्ति का ध्यान अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की ओर कम था, अपने आराध्य की स्तुति एवं जय गान करने में अधिक था।
धर्म के व्याख्याताओं ने संसार के प्रत्येक क्रियाकलाप को ईश्वर की इच्छा माना तथा मनुष्य को ईश्वर के हाथों की कठपुतली के रूप में स्वीकार किया। दार्शनिकों ने व्यक्ति के वर्तमान जीवन की विपन्नता का हेतु 'कर्म-सिद्धान्त' के सूत्र में प्रतिपादित किया। इसकी परिणति मध्ययुग में यह हुई कि वर्तमान की सारी मुसीबतों का कारण 'भाग्य' अथवा ईश्वर की मर्ज़ी को मान लिया गया। धर्म के ठेकेदारों ने पुरुषार्थवादी-मार्ग के मुख्य-द्वार पर ताला लगा दिया। समाज या देश की विपन्नता को उसकी नियति मान लिया गया। समाज स्वयं भी भाग्यवादी बनकर अपनी सुख-दुःखात्मक स्थितियों से सन्तोष करता रहा। आज के युग ने यह चेतना प्रदान की है कि विकास का रास्ता हमें स्वयं बनाना है। किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को सँवारने में अधिक है। उसका ध्यान 'भविष्योन्मुखी' न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है। वह पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है।[1]
हिन्दू धर्म में धार्मिक और नैतिक नियम है, जो व्यक्तिगत और सामूहिक आचरण को शासित करते हैं। यह जीवन के चार साध्यों में से एक है। प्रासंगिक संवेदनशीलता इसके विशिष्ट लक्षणों में से एक है। यद्यपि धर्म के कुछ पहलुओं को सार्वभौमिक और चिरस्थायी माना जाता है, अन्य का पालन लोगों को अपनी श्रेणी, स्तर और लक्ष्य के अनुसार करना होता है। धर्म हिन्दू विधि के आरंभिक स्रोत धर्मसूत्र, जो नीतिशास्त्र व सामाजिक संगठन की नियमावली और विषय–वस्तु है। यह नियमावली समय के साथ विधि एवं परंपरा के संग्रह के रूप में विस्तृत हुई, जो धर्मशास्त्र कहलाई। सर्वाधिक ज्ञात धर्मशास्त्र मनुस्मृति है, जो प्रारंभिक शताब्दियों तक प्रामाणिक बन गया था, परंतु यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित है कि ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा इसके कुछ पहलुओं को औपनिवेशिक क़ानून में समाहित कर लिये जाने से पहले यह कभी वास्तविक न्यायिक प्रक्रिया में क्रियाशील था भी अथवा नहीं।

  • बौद्धों में धर्म प्रत्येक व्यक्ति के लिये सर्वकालिक सार्वभौमिक सत्य है, जैसा गौतम बुद्ध ने खोजा व घोषित किया था। धर्म, बुद्ध और संघ (बौद्ध मठ व्यवस्था) मिलकर ‘त्रिरत्न’ या तीन रत्न हैं। जो बौद्ध सिद्धांत और आचरण के प्राथमिक स्रोत हैं। बौद्ध अध्यात्म में बहुवचन के रूप में इस शब्द का उपयोग उन अंर्तसंबंधित तत्त्वों के उल्लेख के लिए होता है, जो अनुभवजन्य विश्व की रचना करते हैं।
  • जैन दर्शन में धर्म आमतौर पर नैतिक मूल्य के रूप में समझे जाने के अलावा एक विशिष्ट अर्थ रखता है, शाश्वत वस्तु (द्रव्य) का एक सहायक माध्यम, जो मनुष्य को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।

धर्म का महत्त्व

भारतीय संस्कृति में विभिन्नता उसका दूषण नहीं वरन् भूषण है। यहाँ हिन्दू धर्म के अगणित रूपों और संप्रदायों के अतिरिक्त, बौद्ध, जैन, सिक्ख, इस्लाम, ईसाई, यहूदी आदि धर्मों की विविधता का भी एक सांस्कृतिक समायोजन देखने को मिलता है। हिन्दू धर्म के विविध सम्प्रदाय एवं मत सारे देश में फैले हुए हैं, जैसे वैदिक धर्म, शैव, वैष्णव, शाक्त आदि पौराणिक धर्म, राधा-बल्लभ संप्रदाय, श्री संप्रदाय, आर्यसमाज, समाज आदि। परन्तु इन सभी मतवादों में सनातन धर्म की एकरसता खण्डित न होकर विविध रूपों में गठित होती है। यहाँ के निवासियों में भाषा की विविधता भी इस देश की मूलभूत सांस्कृतिक एकता के लिए बाधक न होकर साधक प्रतीत होती है।

हर दशा में दूसरे सम्प्रदायों का आदर करना ही चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य अपने सम्प्रदाय की उन्नति और दूसरे सम्प्रदायों का उपकार करता है। इसके विपरीत जो करता है वह अपने सम्प्रदाय की (जड़) काटता है और दूसरे सम्प्रदायों का भी अपकार करता है। क्योंकि जो अपने सम्प्रदाय की भक्ति में आकर इस विचार से कि मेरे सम्प्रदाय का गौरव बढ़े, अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा करता है और दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करता है, वह ऐसा करके वास्तव में अपने सम्प्रदाय को ही गहरी हानि पहुँचाता है। इसलिए समवाय (परस्पर मेलजोल से रहना) ही अच्छा है अर्थात् लोग एक-दूसरे के धर्म को ध्यान देकर सुनें और उसकी सेवा करें।[2]


- सम्राट अशोक

आध्यात्मिकता

आध्यात्मिकता हमारी संस्कृति का प्राणतत्त्व है। इनमें ऐहिक अथवा भौतिक सुखों की तुलना में आत्मिक अथवा पारलौकिक सुख के प्रति आग्रह देखा जा सकता है। चतुराश्रम-व्यवस्था (अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा सन्न्यास आश्रम) तथा पुरुषार्थ-चतुष्टम (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) का विधान मनुष्य की आध्यात्मिक साधना के ही प्रतीक हैं। इसमें जीवन का मुख्य ध्येय धर्म अर्थात् मूल्यों का अनुरक्षण करते हुए मोक्ष माना गया है।

भारतीय आध्यात्मिकता

विभिन्न धर्मावलम्बियों की संख्या (भारत)
धर्म संख्या (लाख) कुल जनसंख्या का प्रतिशत
हिन्दू 8,275 80.5
मुस्लिम 1,381 13.4
ईसाई 240 2.33
सिख 192 1.84
बौद्ध 79.5 0.8
जैन 42.5 0.4
अन्य 66.3 1.8
कुल 10,286 100.0

भारतीय आध्यात्मिकता में धर्मान्धता को महत्त्व नहीं दिया गया। इस संस्कृति की मूल विशेषता यह रही है कि व्यक्ति अपनी परिस्थितियों के अनुरूप मूल्यों की रक्षा करते हुए कोई भी मत, विचार अथवा धर्म अपना सकता है यही कारण है कि यहाँ समय-समय पर विभिन्न धर्मों को उदय तथा साम्प्रदायिक विलय होता रहा है। धार्मिक सहिष्णुता इसमें कूट-कूट कर भरी हुई है। वस्तुत: हमारी संस्कृति में ग्रहण शीलता की प्रवृत्ति रही है। इसमें प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाकर अपने में समाहित कर लेने की अद्भुत शक्ति है। ऐतिहासिक काल से लेकर मध्य काल तक भारत में विभिन्न धर्मों एवं जातियों का भारत पर आक्रमण एवं शासन स्थापित हुआ। परन्तु भारतीय संस्कृति की ग्रहणशील प्रकृति के कारण समयान्तर में वे सब इसमें समाहित हो गये।

भारतीय संस्कृति की विरासत

भारतीय संस्कृति की महत्त्वपूर्ण विरासत इसमें अन्तर्निहित सहिष्णुता की भावना मानी जा सकती है। यद्यपि प्राचीन भारत में अनेक धर्म एवं संप्रदाय थे, परन्तु उनमें धर्मान्धता तथा संकुचित मनोवृत्ति का अभाव था। अतीत इस बात का साक्षी है कि हमारे देश में धर्म के नाम पर अत्याचार और रक्तपात नहीं हुआ है। भारतीय मनीत्री ने ईश्वर को एक सर्वव्यापी, सर्वकल्याणकारी, सर्वशक्तिमान मानते हुए विभिन्न धर्मो, मतों और संप्रदायों को उस परम ईश तक पहुँचने का भिन्न-भिन्न मार्ग प्रतिपादित किया है। गीता में श्रीकृष्ण भी अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि संसार में सभी लोग अनेक प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। जैनियों का स्याद्वाद, अशोक के शिलालेख आदि भी यही बात दुहराते हैं। इसी भावना को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय एकता जागृत करने के लिए देश के कोने-कोने में गुंजारित किया था- ‘‘ईश्वर अल्ला तेरे नाम। सबको सम्मति दे भगवान।’’ भारतीय विचारकों की सर्वांगीणता तथा सार्वभौमिकता की भावना को सतत बल प्रदान किया है। इसमें अपनी सुख, शान्ति एवं उन्नति के साथ ही समस्त विश्व के कल्याण की कामना की गई है। हमारे प्रबुद्ध मनीषियों ने सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मानकर ‘विश्व वन्धुत्व’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्भकम्’ की भावना को उजागर किया है-

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुखभाग भवेत॥

हिन्दू धर्म

ओम
Om

भारत का सर्वप्रमुख धर्म हिन्दू धर्म है, जिसे इसकी प्राचीनता एवं विशालता के कारण 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है। ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी पैगम्बर या व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित धर्म नहीं है, बल्कि यह प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों, मतमतांतरों, आस्थाओं एवं विश्वासों का समुच्चय है। एक विकासशील धर्म होने के कारण विभिन्न कालों में इसमें नये-नये आयाम जुड़ते गये। वास्तव में हिन्दू धर्म इतने विशाल परिदृश्य वाला धर्म है कि उसमें आदिम ग्राम देवताओं, भूत-पिशाची, स्थानीय देवी-देवताओं, झाड़-फूँक, तंत्र-मत्र से लेकर त्रिदेव एवं अन्य देवताओं तथा निराकार ब्रह्म और अत्यंत गूढ़ दर्शन तक सभी बिना किसी अर्न्तविरोध के समाहित हैं और स्थान एवं व्यक्ति विशेष के अनुसार सभी की आराधना होती है।

सिक्ख धर्म

सिक्ख धर्म का प्रतीक

सिक्ख धर्म की स्थापना 15वीं शताब्दी में भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग के पंजाब में गुरु नानक देव द्वारा की गई। 'सिक्ख' शब्द शिष्य से उत्पन्न हुआ है, जिसका तात्पर्य है गुरु नानक के शिष्य, अर्थात् उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले। नानक देव का जन्म 1469 ई. में लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) के समीप तलवण्डी नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम कालूचंद और माता का तृप्ता था। बचपन से ही प्रतिभा के धनी नानक को एकांतवास, चिन्तन एवं सत्संग में विशेष रुचि थी। सुलक्खिनी देवी से विवाह के पश्चात् श्रीचंद और लखमीचंद नामक दो पुत्र हुए।

इस्लाम धर्म

इस्लाम धर्म का प्रतीक

इस्लाम शब्द का अर्थ है – 'अल्लाह को समर्पण'। इस प्रकार मुसलमान वह है, जिसने अपने आपको अल्लाह को समर्पित कर दिया, अर्थात् इस्लाम धर्म के नियमों पर चलने लगा। इस्लाम धर्म का आधारभूत सिद्धांत अल्लाह को सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत् का पालक तथा हज़रत मुहम्मद को उनका संदेशवाहक या पैगम्बर मानना है। यही बात उनके 'कलमे' में दोहराई जाती है - ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह अर्थात् 'अल्लाह एक है, उसके अलावा कोई दूसरा (दूसरी सत्ता) नहीं और मुहम्मद उसके रसूल या पैगम्बर।' कोई भी शुभ कार्य करने से पूर्व मुसलमान यह क़लमा पढ़ते हैं।

जैन धर्म

जैन धर्म का प्रतीक

जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। 'जैन' उन्हें कहते हैं, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने-जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात् 'जिन' भगवान का धर्म। जैन ग्रंथ 'भगवान महावीर एवं जैन दर्शन' में प्रतिपादित है कि भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। वे प्रवर्तमान काल के चौबीसवें तीर्थंकर हैं। आपने आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चारित्र्य से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर भारतीय साधना परम्परा में कीर्तिमान स्थापित किया। आपने धर्म के क्षेत्र में मंगल क्रांति सम्पन्न की।
आपने उद्घोष किया कि आँख मूँदकर किसी का अनुकरण या अनुसरण मत करो। धर्म दिखावा नहीं है, रूढ़ि नहीं है, प्रदर्शन नहीं है, किसी के भी प्रति घृणा एवं द्वेषभाव नहीं है। आपने धर्मों के आपसी भेदों के विरुद्ध आवाज उठाई। धर्म को कर्म-कांडों, अंधविश्वासों, पुरोहितों के शोषण तथा भाग्यवाद की अकर्मण्यता की जंजीरों के जाल से बाहर निकाला। आपने घोषणा की कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है।धर्म एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिससे आत्मा का शुद्धिकरण होता है। धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में, बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है। साधना की सिद्धि परमशक्ति का अवतार बनकर जन्म लेने में अथवा साधना के बाद परमात्मा में विलीन हो जाने में नहीं है, बहिरात्मा के अन्तरात्मा की प्रक्रिया से गुजरकर स्वयं परमात्मा हो जाने में है। प्रोफेसर जैन ने स्पष्ट किया है कि वर्तमान में जैन भजनों में भगवान महावीर को 'अवतारी' वर्णित किया जा रहा है। यह मिथ्या ज्ञान का प्रतिफल है। वास्तव में भगवान महावीर का जन्म किसी अवतार का पृथ्वी पर शरीर धारण करना नहीं है। उनका जन्म नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है, नर का ही नारायण हो जाना है। परमात्म शक्ति का आकाश से पृथ्वी पर अवतरण नहीं है। कारण-परमात्मास्वरूप का उत्तारण द्वारा कार्य-परमात्मस्वरूप होकर सिद्धालय में जाकर अवस्थित होना है। भगवान महावीर की क्रांतिकारी अवधारणा थी कि जीवात्मा ही ब्रह्म है।[3] जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमन्त्र है- णमो अरिहंताणं।
णमो सिद्धाणं।
णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं।
णमो लोए सव्वसाहूणं॥

बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म का प्रतीक

बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। इसके संस्थापक महात्मा बुद्ध, शाक्यमुनि (गौतम बुद्ध) थे। बुद्ध राजा शुद्धोदन के पुत्र थे और इनका जन्म लुंबिनी नामक ग्राम (नेपाल) में हुआ था। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जीवित थे। उनके गुज़रने के बाद अगली पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला, और अगले दो हज़ार सालों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया।

वैदिक धर्म

वैदिक धर्म कर्म पर आधारित था। वैदिक धर्म पूर्णतः प्रतिमार्गी है। वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है। अधिकांश देवताओं की अराधना मानव के रूप में की जाती थी किन्तु कुछ देवताओं की अराधना पशु के रूप में की जाती थी। 'अज एकपाद' और 'अहितर्बुध्न्य' दोनों देवताओं की परिकल्पना पशु के रूप में की गई है। मरुतों की माता की परिकल्पना 'चितकबरी गाय' के रूप में की गई है। इन्द्र की गाय खोजने वाला 'सरमा' (कुतिया) श्वान के रूप में है। इसके अतिरिक्त इन्द्र की कल्पना 'वृषभ' (बैल) के रूप में एवं सूर्य की 'अश्व' के रूप में की गई है। ऋग्वेद में पशुओं की पूजा का प्रचलन नहीं था।

पारसी धर्म

पारसी धर्म का प्रतीक

जरथुस्ट्र धर्म विश्व का एक अत्यंत प्राचीन धर्म है, जिसकी स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक संत जरथुष्ट्र ने की थी। इस्लाम के आविर्भाव के पूर्व प्राचीन ईरान में जरथुस्ट्र धर्म का ही प्रचलन था। सातवीं शताब्दी में अरबों ने ईरान को पराजित कर वहाँ के जरथुस्ट्र धर्मावलम्बियों को जबरन इस्लाम में दीक्षित कर लिया था। ऐसी मान्यता है कि कुछ ईरानियों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और वे एक नाव पर सवार होकर भारत भाग आये और यहाँ गुजरात तट पर नवसारी में आकर बस गये। वर्तमान में भारत में उनकी जनसंख्या लगभग एक लाख है, जिसका 70% बम्बई में रहते हैं।

ईसाई धर्म

ईसाई धर्म का प्रतीक

ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा मसीह (जीसस क्राइस्ट) थे, जिनका जन्म रोमन साम्राज्य के गैलिली प्रान्त के नज़रथ नामक स्थान पर 6 ई. पू. में हुआ था। उनके पिता जोजेफ़ एक बढ़ई थे तथा माता मेरी (मरियम) थीं। वे दोनों यहूदी थे। ईसाई शास्त्रों के अनुसार मेरी को उसके माता-पिता ने देवदासी के रूप में मन्दिर को समर्पित कर दिया था। ईसाई विश्वासों के अनुसार मेरी के गर्भ में आगमन के समय मेरी कुँवारी थी। इसीलिए मेरी को ईसाई धर्मालम्बी 'वर्जिन मेरी (कुँवारी मेरी) तथा ईसा मसीह को ईश्वरकृत दिव्य पुरुष मानते हैं।

यहूदी धर्म

प्राचीन मेसोपोटामिया (वर्तमान ईराक तथा सीरिया) में सामी मूल की विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले अक्कादी, कैनानी, आमोरी, असुरी आदि कई खानाबदोश कबीले रहा करते थे। इन्हीं में से एक कबीले का नाम हिब्रू था। वे यहोवा को अपना ईश्वर और अब्राहम को आदि-पितामह मानते थे। उनकी मान्यता थी कि यहोवा ने अब्राहम और उनके वंशजों के रहने के लिए इस्त्राइल प्रदेश नियत किया है। प्रारम्भ में गोशन के मिस्त्रियों के साथ हिब्रुओं के सम्बंध अच्छे थे, परन्तु बाद में दोनों में तनाव उत्पन्न हो गया।

सनातन धर्म

सनातन धर्म विश्व के सभी धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। परम्परगत वैदिक धर्म जिसमें परमात्मा को साकार और निराकार दोनों रूपों में पूजा जाता है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन समेटे हुए है। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी, देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है।
सनातन का अर्थ है – 'शाश्वत' या 'हमेशा बना रहने वाला'। सनातन अर्थात् जो सदा से है, जो सदा रहेगा, जिसका अंत नहीं है और जिसका कोई आरंभ नहीं है वही सनातन है। सत्य में केवल हमारा धर्म ही सनातन है, यीशु से पहले ईसाई मत नहीं था, मुहम्मद से पहले इस्लाम मत नहीं था। केवल सनातन धर्म ही सदा से है, सृष्टि के आरंभ से।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैन, प्रोफेसर महावीर सरन। विकास का रास्ता स्वयं बनाएँ (हिंदी) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 6 अगस्त, 2013।
  2. गिरनार का बारहवाँ शिलालेख "अशोक के धर्म लेख" से पृष्ठ सं- 31
  3. जैन, प्रोफेसर महावीर सरन। महावीर सरन जैन का आलेख : भगवान महावीर (हिंदी) रचनाकार (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 6 अगस्त, 2013।

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