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रत्न

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रत्न
रत्न
विवरण रत्न आकर्षक खनिज का एक टुकड़ा होता है जो कटाई और पॉलिश करने के बाद गहने और अन्य अलंकरण बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
उत्पत्ति खनिज रत्न खानों से, जैविक रत्न समुद्र से और वानस्पतिक रत्न पर्वतों से प्राप्त होते हैं।
प्रकार तीन (खनिज रत्न, जैविक रत्न और वानस्पतिक रत्न)
धार्मिक मान्यता 'अग्नि पुराण' के अनुसार - महाबली असुरराज वृत्रासुर ने देवलोक पर आक्रमण किया। तब भगवान विष्णु की सलाह पर इन्द्र ने महर्षि दधीचि से वज्र बनाने हेतु उनकी हड्डियों का दान मांगा। फिर इसी वज्र से देवताओं ने वृत्रासुर का संहार किया। अस्त्र (वज्र) निर्माण के समय दधीचि की अस्थियों के, जो सूक्ष्म अंश पृथ्वी पर गिरे, उनसे तमाम रत्नों की खानें बन गईं।
नवरत्न गोमेद, नीलम, पन्ना, पुखराज, माणिक्य, मूँगा, मोती, लहसुनिया और हीरा
रासायनिक तत्त्व इन रत्नों में मुख्यतः कार्बन, बेरियम, बेरिलियम, एल्यूमीनियम, कैल्शियम, जस्ता, टिन, तांबा, हाइड्रोजन, लोहा, फॉस्फोरस, मैंगनीज़, गंधक, पोटैशियम, सोडियम, जिंकोनियम आदि तत्त्व उपस्थित होते हैं।
अन्य जानकारी प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार उच्च कोटि में 84 प्रकार के रत्न आते हैं। इनमें से बहुत से रत्न अब अप्राप्य हैं तथा बहुत से नए-नए रत्नों का आविष्कार भी हुआ है। वर्तमान समय में प्राचीन ग्रंथों में वर्णित रत्नों की सूचियाँ प्रामाणिक नहीं रह गई है।

रत्न (अंग्रेज़ी:Gemstone) आकर्षक खनिज का एक टुकड़ा होता है जो कटाई और पॉलिश करने के बाद गहने और अन्य अलंकरण बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। बहुत से रत्न ठोस खनिज के होते हैं, लेकिन कुछ नरम खनिज के भी होते हैं। रत्न क़ीमती पत्थर को कहा जाता है। अपनी सुंदरता की वजह से यह क़ीमती होते हैं। रत्न अपनी चमक और अन्य भौतिक गुणों के सौंदर्य की वजह से गहने में उपयोग किया जाता है। ग्रेडिंग, काटने और पॉलिश से रत्नों को एक नया रूप और रंग दिया जाता है और इसी रूप और रंग की वजह से यह रत्न गहनों को और भी आकर्षक बनाते हैं। रत्न का रंग ही उसकी सबसे स्पष्ट और आकर्षक विशेषता है। रत्नों को गर्म कर के उसके रंग की स्पष्टता बढ़ाई जाती है।

रत्न कोई भी हो अपने आपमें प्रभावशाली होता है। मनुष्य अनादिकाल से ही रत्नों की तरफ आकर्षित रहा है, वर्तमान में भी है तथा भविष्य में भी रहेगा। रत्न शरीर की शोभा आभूषणों के रूप में तो बढ़ाते ही हैं और कुछ लोगों का मानना है की रत्न अपनी दैवीय शक्ति के प्रभाव के कारण रोगों का निवारण भी करते हैं। इन रत्नों से जहाँ स्वयं को सजाने-सँवारने की स्पर्धा लोगों में पाई जाती है वहीं संपन्नता के प्रतीक ये अनमोल रत्न अपने आकर्षण तथा उत्कृष्टता से सबको वशीभूत कर विश्व व्यापी से बखाने जाते हैं। रत्न और जवाहरात के नाम से जाने हुए ये खनिज पदार्थ विश्व की बहुमूल्य राशी हैं, जो युगों से अगणित मनों को मोहते हुए अपनी महत्ता बनाए हुए हैं।

रत्न क्या हैं?

रत्न किसे कहते हैं? यह एक बुनियादी सवाल है। इसके बिना हम रत्न द्वारा अशुभ निदान एवं चिकित्सा के बारे में सोच नहीं सकते। इसलिए सबसे पहले इससे जानना ज़रूरी है। यूँ तो रत्न एक क़िस्म के पत्थर ही होते हैं, लेकिन सभी पत्थर रत्न नहीं कहे जाते। पत्थर और रत्न में कुछ फ़र्क़ होता है। यदि इस फ़र्क़ को बेहतर ढंग से समझ लिया जाए तो हम रत्न को पत्थरों से छाँटकर निकाल सकते हैं। उनकी शिनाख़्त कर सकते हैं और फिर अपने दैनिक जीवन में उनका बेहतर प्रयोग कर सकते हैं। यदि ऐसा न करके हम बिना सोचे-समझे रत्नों का इस्तेमाल करते हैं तो उल्टा असर पड़ता है। ऐसी स्थिति में हमें नुक़सान भी उठाना पड़ सकता है।

इसलिए रत्नों का उपयोग जांच-परखकर तथा सोच-विचारकर करना चाहिए। कुछ पत्थर या पदार्थों के गुण, चरित्र एवं विशेषताएँ ऐसी होती हैं कि उन्हें देखते ही रत्न कह दिया जाता है, जैसे-हीरा, माणिक्य, वैदूर्य, नीलम, पुखराज, पन्ना आदि को लोग रत्न के नाम से पुकारते हैं। वैसे वास्तव में ये सारे पत्थर ही हैं, लेकिन बेशक़ीमती पत्थर। इसलिए अंग्रेज़ी में इन्हें प्रिसियस स्टोन (बहुमूल्य पत्थर) कहते हैं। 'रत्न' का विशेष अर्थ श्रेष्ठत्व भी है। इसी वजह से किसी ख़ास व्यक्ति को उसके महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए 'रत्न' शब्द से विभूषित किया जाता है। प्राचीनकाल से ही रत्न का अर्थ-भूगर्भ या समुद्र तल से प्राप्त होने वाले हीरा, मोती, माणिक्य आदि समझा जाता रहा है। रत्न भाग्य-परिवर्तन में शीघ्रातिशीघ्र अपना प्रभाव दिखाता है। दरअसल, पृथ्वी के अन्दर लाखों वर्षों तक पड़े रहने के कारण उसमें पृथ्वी का चुम्बकत्व तथा तेज़त्व आ जाता है। पृथ्वी के जिस क्षेत्र में जिस ग्रह का असर अधिक होता है, उस क्षेत्र के आसपास उस ग्रह से सम्बन्धित रत्न अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। वास्तव में पृथ्वी ग्रहों के संयोग से अपने अन्दर रत्नों का निर्माण करती है। अत: इसे 'रत्नग' भी कहा जाता है।

रासायनिक तत्त्व

रत्न वास्तव में खनिज पदार्थ हैं, जो प्रकृति की गोद में भिन्न-भिन्न रूपों में पाए जाते हैं। दरअसल, ये भिन्न-भिन्न तत्वों के आपस में मिलने अर्थात् क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरूप बनते हैं। इन रत्नों में मुख्यतः कार्बन, बेरियम, बेरिलियम, एल्यूमीनियम, कैल्शियम, जस्ता, टिन, तांबा, हाइड्रोजन, लोहा, फॉस्फोरस, मैंगनीज़, गंधक, पोटैशियम, सोडियम, जिंकोनियम आदि तत्त्व उपस्थित होते हैं।

इतिहास

  • रत्नों का इतिहास अत्यंत ही प्राचीन है। भारत की तरह अन्य देशों में भी इनके जन्म सम्बंधी अनगिनत कथाएं प्रचलित हैं। हमारे देश में इस तरह की जो कथाएं विख्यात हैं, वे पुराणों से ली गई हैं। पुराणों में रत्नों की उत्पत्ति से सम्बंधित अनेक कथाएँ हैं। 'अग्निपुराण' के अनुसार - महाबली असुरराज वृत्रासुर ने देवलोक पर आक्रमण किया। तब भगवान विष्णु की सलाह पर इन्द्र ने महर्षि दधीचि से वज्र बनाने हेतु उनकी हड्डियों का दान मांगा। फिर इसी वज्र से देवताओं ने वृत्रासुर का संहार किया। अस्त्र (वज्र) निर्माण के समय दधीचि की अस्थियों के, जो सूक्ष्म अंश पृथ्वी पर गिरे, उनसे तमाम रत्नों की खानें बन गईं।
  • इसी तरह एक दूसरी कथा है। उसके अनुसार - समुद्र मंथन के समय जब अमृत कलश प्रकट हुआ तो असुर उस अमृत को लेकर भाग गए। देवताओं ने उनका पीछा किया। आपस में छीना-झपटी हुई और इस प्रक्रिया में अमृत की कुछ बूंदें छलक कर पृथ्वी पर जा गिरीं। कालांतर में अमृत की ये बूंदें अनगिनत रत्नों में परिवर्तित हो गईं।
  • एक तीसरी कथा राजा बलि की है। जब वामन रूपी श्री विष्णु ने बलि से साढ़े तीन पग पृथ्वी मांगी तो उसने इसे देना स्वीकार कर लिया। तब भगवान विष्णु ने विराट स्वरूप धारण कर तीन पगों में तीनों लोकों को नाप लिया और आधे पग के लिए उसके शरीर की मांग की थी। राजा बलि ने अपना सम्पूर्ण शरीर वामन को समर्पित कर दिया। भगवान विष्णु के चरणस्पर्श से बलि रत्नमय और वज्रवत् हो गया। इसके बाद इन्द्र ने उसे अपने वज्र से पृथ्वी पर मार गिराया। पृथ्वी पर खंड- खंड होकर गिरते ही बलि के शरीर के सभी अंगों से अलग-अलग रंग, रूप व गुण के रत्न प्रकट हुए। भगवान शिव ने उन रत्नों को अपने चार त्रिशूलों पर स्थापित करके फिर उन पर नौ ग्रहों एवं बाहर राशियों का प्रभुत्व स्थापित किया। इसके बाद उन्हेँ पृथ्वी पर चार दिशाऑं में गिरा दिया। फलस्वरूप पृथ्वी पर विभिन्न रत्नों की खानें उत्पन्न हुईं।

इन कथाओं को बारे में आप जो कहें- कपोल कल्पना, मिथक या कुछ और... लेकिन इस बात से आप इंकार नहीं कर सकते कि प्राचीनकाल में लोगों को इन रत्नों के रूप, गुण व उपयोग के बारे में कमोबेश ज्ञान था। केवल इतना ही नहीं, वे इन रत्नों का उत्पादन प्राकृतिक व कृत्रिम तौर पर करने लगे थे। इस सच्चाई को आज के आधुनिक इतिहासकार भी मानते हैं। शोध कार्य में लगे वैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं।

ग्रन्थों के अनुसार

प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार उच्च कोटि में 84 प्रकार के रत्न आते हैं। इनमें से बहुत से रत्न अब अप्राप्य हैं तथा बहुत से नए-नए रत्नों का आविष्कार भी हुआ है। रत्नों में मुख्यतः नौ ही रत्न ज़्यादा पहने जाते हैं। वर्तमान समय में प्राचीन ग्रंथों में वर्णित रत्नों की सूचियाँ प्रामाणिक नहीं रह गई है। रत्नों के नामों की सूची निम्न प्रकार है -

रत्नों की सूची
अजूबा रत्न अहवा रत्न अबरी रत्न अमलिया रत्न अलेमानी रत्न उपल रत्न उदाऊ रत्न एक्वामेरीन रत्न
कर्पिशमणि रत्न कटैला रत्न कसौटी रत्न कांसला रत्न कुरण्ड रत्न क्राइसोबेरिल रत्न गुदड़ी रत्न गोदन्ती रत्न
गोमेद रत्न गौरी रत्न चकमक रत्न चन्द्रकांत रत्न चित्तो रत्न चुम्बक रत्न जजेमानी रत्न जबरजद्द रत्न
ज़हर मोहरा रत्न झरना रत्न टेढ़ी रत्न डूर रत्न तिलियर रत्न तुरमली रत्न तुरसावा रत्न तृणमणि रत्न
दाँतला रत्न दाने फिरग रत्न दारचना रत्न दुर्रेनजफ़ रत्न धुनला रत्न नरम रत्न नीलम रत्न नीलोपल रत्न
पनघन रत्न पारस रत्न पुखराज रत्न पन्ना रत्न पाइरोप रत्न फ़ाते ज़हर रत्न फ़ीरोज़ा रत्न बसरो रत्न
बांसी रत्न बेरुंज रत्न मकड़ी रत्न मरगज रत्न माक्षिक रत्न माणिक्य रत्न मासर मणि रत्न मूँगा रत्न
मूवेनजफ रत्न मोती रत्न रक्तमणि रत्न रक्ताश्म रत्न रातरतुआ रत्न लहसुनिया रत्न लालड़ी रत्न लास रत्न
लूधिया रत्न शेष मणि रत्न शैलमणि रत्न शोभामणि रत्न संगमरमर रत्न संगमूसा रत्न संगसितारा रत्न संगिया रत्न
संगेसिमाक रत्न संगेहदीद रत्न सिन्दूरिया रत्न सिफरी रत्न सींगली रत्न सीजरी रत्न सुनहला रत्न सुरमा रत्न
सूर्यकान्त रत्न सेलखड़ी रत्न सोनामक्खी रत्न स्पाइनेल रत्न स्फटिक रत्न हकीक रत्न हजरते ऊद रत्न हजरते बेर रत्न
हरितमणि रत्न हरितोपल रत्न हीरा रत्न

रत्नों की विशेषता

पुखराज के विभिन्न रंग

यदि संक्षिप्त में रत्न की विशेषता ज़ाहिर करनी है तो हम कह सकते हैं कि जिसमें अदभुत सौंदर्य व लावण्य हो, वह रत्न है। लेकिन रत्न की यह परिभाषा भी अधूरी है, क्योंकि केवल सौंदर्य व लावण्य ही किसी पम्थर को रत्न की संज्ञा से विभूषित नहीं करता। रत्न उसे ही कहेंगे, जिसका सौंदर्य व लावण्य अत्यधिक टिकाऊपन के गुण से भरपूर हो, अर्थात् जिसका सौंदर्य व लावण्य लम्बे समय तक बरक़रार रहे। साथ ही साथ स्थिर भी रहे। इन दोनों गुणों के मेल से रत्नों में एक दिव्यता आती है, उसके प्रति एक स्वाभाविक श्रद्धा मन में उमड़ती है। इसके अलावा जिन पत्थरों को रत्न कहा जाता है, उनमें दो गुण और होते हैं। पहला गुण है, ऐसे पत्थरों का कम पाया जाना। इसी वजह से इन्हें दुर्लभ पत्थर भी कहा जाता है। अत: लोग इन्हें आदर और प्रमुखता देते हैं। दूसरा गुण है, जिस पत्थर का अधिक चलन हो, मांग हो और फ़ैशन हो, उसे भी रत्न की संज्ञा दी जाती है।

उदाहरण स्वरूप, सन् 1920 से 1922 तक यूरोप व कुछ अन्य देशों में अम्बर अथवा तृणमणि की खूब मांग थी। वर्तमान में तारे की तरह चमकने वाले हीरे अथवा बारह किरणें छोड़ने वाले नीलम की मांग बहुत है। दरअसल, समय और बदलती अभिरुचि के अनुसार रत्नों की मांग भी परिवर्तित होती रहती है। रत्न की अंगूठी या लॉकेट पहने से व्यापार में उन्नति, नौकरी में पदोन्नति, राजनीति में सफलता, कोर्ट-कचहरी में सफलता, शत्रु नाश, कर्ज़ से मुक्ति, वैवाहिक ‍तालमेल में बाधा को दूर कर अनुकूल बनाना, संतान कष्ट, विद्या में रुकावटें, विदेश, आर्थिक उन्नति आदि में सफल‍ता मिलती है। मानवीय उत्थान-पतन में इनकी अद्भुत भूमिका को आँकना आसान नहीं है; तभी तो भारतीय कोहनूर हीरा अपनी दमक एवं प्रभाव से विश्व स्तर पर श्रेष्ठता बनाए हुए है।

चमक

मनुष्य जब कोई वस्तु देखता है तो सबसे पहले उसकी दृष्टि उस वस्तु के बाह्य परत पर पड़ती है। उसके अतिरिक्त परत पर यकायक दृष्टि का जाना अस्वाभाविक है। रत्नों के बाहरी परत अथवा सतह पर एक विशेष तरह की चमक विद्यमान रहती है, जिसे मनुष्य पहली नज़र में ही देख लेता है। रत्नों की यह चमक अथवा ज्योति मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करती है कि उस पर पड़ने वाली प्रकाश की किरणों को कितनों अंशों व मात्रा में वापस लौटाता है। कहने का मतलब यह है कि उससे टकराकर या फिर उसके अन्दर प्रवेश करके कितने प्रतिशत प्रकाश की किरणें वापस लौटती हैं। रत्नों से टकराकर या प्रवेश करके जो किरणें लौटती हैं, वे गुण के आधार पर कई तरह की होती हैं-

तुतिया चमक-

यह चमक प्राय: प्रत्येक रत्नों के बाहरी सतह पर ही दिखाई देती है।

धात्विक चमक

यह चमक धात्विक होती है, अर्थात् किसी धातु पर प्रकाश की किरणें पड़ने के बाद उससे निकलने वाली किरणें होती हैं। पीतल, सोना, इस्पात, ताँबा, चाँदी, प्लेटिनम आदि धातु पर प्रकाश पड़ता है, तो उसमें जैसी चमक होती है, ठीक उसी तरह की किरणें किसी रत्न पर प्रकाश पड़ने पर निकलती हैं। इसीलिए इसे धात्विक चमक कहते हैं।

मोती की चमक

मोती की अपनी एक विशेष चमक होती है। इसीलिए जौहरी इसे मोती की चमक या मुक्ता-ज्योति कहते हैं। इसे प्राच्य चमक भी कहा जाता है।

राल चमक

यह चमक कुछ लालिमा लिए हुए होती है। वस्तुत: यह रत्न जैसी ही चमक है। इसीलिए इसे राल चमक या राज ज्योति कहते हैं।

रेशमी चमक

यह चमक रेशम-सी चिकनी और मुलायम होती है। रत्नों पर जब प्रकाश की किरणें पड़ती हैं तो उससे निकलने वाली चमक रेशम की तरह मुलायम-सी दिखती हैं। अत: रेशमी इसे चमक कहते हैं। ऐसी चमक सभी रत्नों में नहीं होती है। इनके अतिरिक्त भी कई प्रकार की चमक होती हैं-जैसे हीरक ज्योति, मंद ज्योति और काचर ज्योति। ये भी रत्नों में पाई जाती हैं। लेकिन ये सभी रत्नों में प्रकट नहीं होती हैं।

कठोरता

ख़निज वैज्ञानिक बहुमूल्य रत्नों की कठोरता मापने के लिए पहले जिन विभिन्न तरीक़ों का इस्तेमाल करते थे, उनमें ख़रोंच तकनीक प्रमुख थी। इसके अनुसार यदि दो पत्थरों की कठोरता की जाँच करनी हो तो उनमें परस्पर ख़रोंच लगाई जाती थी। जिस पत्थर द्वारा दूसरे पत्थर पर आसानी से ख़रोंच आ जाती, उसे कम कठोर और जिस पर ख़रोंच न पड़े, उसे सर्वोत्तम कठोर की संज्ञा दी जाती थी। परन्तु आज रत्नों की कठोरता की जाँच कम्प्यूटर द्वारा की जाती है। इस प्रक्रिया से रत्नों पर ख़रोंच पड़ने या उनके अवमूल्यन का भय नहीं रहता है। रत्नों को तराशने और काटने के दौरान ही बिना किसी नुक़सान के उनकी कठोरता जाँच ली जाती है।

वियना के एक भूख़निज वैज्ञानिक फ़्रेडरिक मोहस ने रत्नों की कठोरता मापने के लिए कुछ मानदंड और कठोरता की मात्रा आंकने के आधार-अंक भी निर्धारित किए थे, जो ख़रोंच तकनीक पर आधारित थे। मोहस ने कठोरता के आधार पर 10 विभिन्न रत्न चुनकर उनकी परस्पर तुलना की। इनमें प्रत्येक रत्न अपने से निम्न श्रेणी के पत्थर पर ख़रोंच डाल सकता था तथा अपनी उच्च श्रेणी वाले रत्न से ख़ुरचा जा सकता था। दो समान कठोरता वाले रत्न एक-दूसरे पर ख़रोंच नहीं डाल सकते थे। इस प्रकार की कठोरता की जाँच के लिए 1 से 10 अंक तक का मोहस कठोरता पैमाना निर्धारित किया गया। इन अंकों के बीच की आपसी दूरी समान होना आवश्यक नहीं है।

मोहस के इस सिद्धान्त के अनुसार-प्रत्येक रत्न और क़ीमती उपरत्न की कठोरता को मापा जा सकता है। इसमें सबसे नाज़ुक रत्न को 1 वे 2 नम्बर पर रखा गया है। ऐसे रत्न अपेक्षाकृत कमज़ोर होते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार 3 से 6 तक की श्रेणी वाले रत्न मध्यम कठोर तथा 6 से ऊपर की श्रेणी के रत्न कठोर माने जाते हैं। अत्यन्त कठोर रत्नों की सीमा 8 से 10 मानी गयी है। दुर्भाग्यवश कठोरता का यह परिमाप सुनारों और आभूषण निर्माताओं की कसौटी पर ख़रा नहीं उतरा, क्योंकि मात्र कठोरता ही नहीं बल्कि कठोरता को सुदृढ़ बनाने वाले अन्य रासायनिक तत्त्व भी रत्न में होने चाहिए, जो उन्हें लम्बे समय तक एकरूपता एवं कठोरता प्रदान करते रहें।

इस प्रकार ख़रोंच प्रणाली का मानदंड 7 अंक से नीचे वाले रत्नों की कठोरता के लिए ख़रा नहीं उतरा। क्योंकि 7 अंक से नीचे वाले रत्न धूल-मिट्टी जमने से टूट जाते या विकृत हो जाते थे। इन रत्नों में काँच या स्फटिक के कण मिले होते थे। ऐसे रत्नों से बने आभूषणों के रख-रखाव में यह निर्देश दिया जाता था कि आभूषणों को धूल से बचाया जाए या किसी बंद डिब्बे में रखा जाए, ताकि किसी नुकीली चीज़ से उनके टूटने का भय न रहे। साथ ही ख़रोंच परीक्षण के लिए किसी रत्न के अच्छे धरातल पर तेज़धार वाले नुकीले औज़ार उपयोग किए जाएँ।

यदि रत्न में रासायनिक तत्त्व कम या ज़्यादा मात्रा में हों या रत्न की संरचना में काँच अथवा स्फटिक के कण असमान मात्रा में मिश्रित हों तो भी उसकी कठोरता में कमी आ जाती है। कुछ रत्न अलग-अलग दिशाओं या विभिन्न भागों में भिन्न श्रेणी की अपनी कठोरता व्यक्त करते हैं।

मोहस सिद्धान्त के अनुसार अगर क्यानाइट नामक रत्न पर लम्बाई वाले धरातल पर ख़रोंच डाली जाए तो उसकी कठोरता 4.5 और चौड़ाई में 6 या 7 निकलती है। इस प्रकार आगे-पीछे के धरातलों पर विभिन्न कठोरता वाले रत्न को दोहरी प्रतिरोधक शक्ति वाला कहते हैं। हीरे की कठोरता में भी अन्तर होता है।

रत्न के व्यापारियों को यह अच्छी तरह ज्ञात होना चाहिए कि कटिंग या तराश के दौरान किस रत्न की कठोरता विभिन्न धरातलों पर क्या है? मात्र ख़रोंच या एकाध विधियों से परीक्षण न करके तीख़े और नुकीले औज़ारों से भी कठोर से कठोरतम रत्न की श्रेणी आंकी जा सकती है। मोहस सिद्धान्त केवल यही बताता है कि कौन सा पत्थर दूसरे पत्थर पर ख़रोंच लगा सकता है। इससे हल्की या गहरी ख़रोंच की कोई चर्चा नहीं है। कठोरता की जाँच तभी करनी चाहिए, जब कोई अन्य साधन उपलब्ध न हो, क्योंकि यह परीक्षण त्रुटिपूर्ण भी हो सकता है। कठोरता क्रम में दो अंक के मध्य की दूरी असमान भी हो सकती है।

रत्न की परिभाषा

उपरोक्त विश्लेषण से अब हम रत्न को परिभाषित कर सकते हैं। निचोड़ के रूप में यह कहा जा सकता है कि जिस पत्थर से आभूषण की शोभा बढ़कर दुगुनी हो तथा उसकी लावण्यता आकर्षण पैदा करे, रत्न कहा जाएगा। इस श्रेणी में हम मोती को ले सकते हैं। लेकिन यह रत्न दुर्लभ नहीं है। इसमें उतना टिकाऊपन भी नहीं है, क्योंकि मोती मुलायम होता है। इसके अलावा यह कोई पत्थर भी नहीं है। यह तो समुद्र में पाया जाने वाला एक पदार्थ है। फिर भी अपने सौंदर्य व लावण्यता के कारण इसे रत्नों की श्रेणी में रखा जाता है। इन रत्नों की ख़ूबसूरती यूँ तो कई बातों पर आधारित होती है, लेकिन इनका सौन्दर्य प्रकाश की किरणों के छलावा से अत्यधिक बढ़ जाता है। प्रकाश कि किरणों का यह छलावा अजीबो-ग़रीब होता है। जब ये किरणें किसी रत्न पर पड़ती हैं तो कुछ रत्नों से टकराकर देखने वाले की आँखों की ओर लौट आती हैं। कुछ घुसकर पार चली जाती हैं और कुछ घुसकर फिर वापस लौटती हैं। इस तरह किरणों के पुंजों का एक मनभावन खेल आकर्षक पुंजों के रूप में दिखाई पड़ता है, जो बरबर मन को मोह लेता है। प्रकाश की यह किरण पुंज हमें स्वच्छ-धवल दिखाई पड़ती है, लेकिन इसकी सफ़ेदी में सात रंग होते हैं। इन्हीं सात रंगों का मिश्रण होता है यह सफ़ेदी। दरअसल, जब कोई प्रकाश की किरण किसी रत्न के भीतर जाकर वापस लौटती है तो वह सात रंगों में बंट जाती है। ऐसी स्थिति में लगता है कि वह रत्न सतरंगी किरणों से ढकी हुई अदभुत वस्तु है। स्वाभाविकत: यही दृश्य मनुष्य को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। इसी आकर्षण से मनुष्य में रत्न प्राप्ति की इच्छा जन्म लेती है। रत्नों के गुण को प्रकाशीय गुण कहते हैं।

रत्नों की उत्पत्ति

प्रकृति में खनिज रत्नों के अलावा जैविक व वानस्पतिक रत्न भी पाए जाते हैं, जो इनकी क्रिया-प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। मोती एवं मूँगा जैविक रत्न हैं जबकि तृणमणि और जेड वानस्पतिक रत्न। खनिज रत्न खानों से प्राप्त होते हैं, लेकिन जैविक रत्न समुद्रों में पाए जाते हैं। वानस्पतिक रत्न पर्वतों से प्राप्त होता हैं। दूसरी ओर कृत्रिम रत्नों के निर्माण का प्रचलन भी प्राचीनकाल से है, लेकिन आज इस क्षेत्र में भारी उन्नति हुई है। वर्तमान में कृत्रिम रत्नों का उत्पादन व्यापक पैमाने पर हो रहा है। सच कहें तो प्राकृतिक व शुद्ध रत्नों की अपेक्षा कई गुना अधिक कृत्रिम रत्न अब बाज़ार में पट गए हैं, जिन्हें पहचानने के मामले में बड़े-बड़े अनुभवी जौहरी व रत्न विशेषज्ञ भी धोखा खा जाते हैं।

रत्न

अंत में निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि प्रकृति की गोद में पड़े रत्नों का अस्तित्व मानव से पहले था, जो एक लम्बी प्रक्रिया के दौरान सामने आए। इन्होंने प्रकृति की गर्भ में रहकर न जाने कितने घात-प्रतिघात, उथल-पुथल, क्रिया-प्रतिक्रिया आदि सहे और खुद को ऐसा बना लिया कि उन पर इनका कोई असर ही न हो। फलतः ये मानव के लिए अत्यंत ही उपयोगी सिद्ध हुए। ज्योतिष के क्षेत्र में इनके उपयोग का मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता-ऐसा कहना असंगत नहीं लगता। क्योंकि इनमें विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों को सहने की अभूतपुर्व शक्ति निहित होती है।

रत्नों की पहचान

प्रत्येक रत्न में रंगों का 'फिंगर प्रिन्ट' होता है। इसे शोषक स्पेक्ट्रम कहते हैं। यह 'फिंगर प्रिन्ट' प्रत्येक रत्न में भिन्न-भिन्न होता है जो रत्न की पहचान स्थापित करता है। इसे आँखों से यूँ ही नहीं देखा जा सकता। इसलिए रत्नशास्त्री इसे 'स्पेक्ट्रोस्कोप' यंत्र से देखते हैं। यह यंत्र रत्न से निकलने वाली रोशनी को इसके रंगों के स्पेक्ट्रम में विभाजित कर देता है। यह प्रत्येक रत्न में अलग-अलग होता है। इसलिए रत्न की पहचान आसानी से होती है। कुछ रत्नों पर कृत्रिम प्रकाश पड़ने से उसका असली रंग और आभा बदल जाती है, जैसे-पुखराज सूर्य की रोशनी में जितनी अच्छी प्राकृतिक आभा देगा, वैसी बिजली के लैम्प के नीचे नहीं दे सकता। लेकिन माणिक्य और पन्ने की आभा कृत्रिम प्रकाश में दुगुनी हो जाती है। सबसे विस्मयकारी असर एलेक्जेन्ड्राइट पर होता है, जो सूर्य की रोशनी में हरा और विद्युत प्रकाश में लाल दिखाई देता है। हीरे के अतिरिक्त अन्य सभी रत्नों में प्राकृतिक एवं कृत्रिम प्रकाश का एक अनूठा प्रभाव और अन्तर देखने को मिलता है, जो प्रयोगशालाओं में परीक्षण के दौरान विशेष रूप से परिलक्षित होता है। अलग-अलग श्रेणी के रत्नों में जो प्रकाशीय चमक होती है, ठीक वैसी ही रंग काग़ज़ पर दर्शाना बहुत मुश्किल है। इनके वास्तविक रंग के जितने भी भेद और अन्तर दिखाई पड़ते हैं, हम उतने रंगों का चित्रण नहीं कर सकते। किसी भी रत्न में कोई भी रंग एकसार समान मात्रा में नहीं होता। हज़ारों प्रकार के रत्नों के रंग भी हज़ारों हैं। रंग विज्ञान और रत्नों के व्यापारी इन सभी रंगों के समतुल्य प्राकृतिक रंगों की सीमित श्रेणी से ही इनकी शुद्धता की जाँच करते हैं।

रत्नों के प्रकार एवं भेद

रत्न

रत्नों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है। इसका आधार इनके प्राप्ति स्थान व देशान्तर भिन्नता को बनाया गया है-

  1. पाषाण रत्न- चट्टानों, शिलाखण्डों एवं कुछ नदियों से प्राप्त रत्न जैसे- हीरा, माणिक्य, नीलम, अकीक, इत्यादि पाषाण रत्न कहलाते हैं।
  2. प्राणिज रत्न- जलीय जीवों व अन्य प्राणियों से प्राप्त रत्न जैसे- हाथी दांत, मोती सीप तथा नागमणि आदि इस श्रेणी में आते हैं।
  3. वानस्पति रत्न- इसमें कहरुवा जैसे- अश्मीहूत रत्नों की गणना की जाती है।

रत्नों में रंगों का प्रभाव

रत्नों के बाह्म रूप को आभामंडित करने में रंगों का बहुत बड़ा योगदान है। अगर रंग-रूप में रत्न द्युतिमान न हों तो उनकी कोई कीसम नहीं रह जाती। कई प्रकार के रत्न असली-मूल्यवान रत्नों से मिलते-जुलते हैं, परन्तु रंग में ज़रा-सा भेद होने से उनकी असलियत खुल जाती है। रत्नों में रंग का प्रभाव रंगहनी डालने पर नज़र आता है। रंगों को सोख लेने तथा उसे प्रतिबिम्बित करने की क्षमता पर ही रत्न का रंग आधारित होता है। सफ़ेद रंग इन्द्रधनुषी रंगों से बना है। जब यह रत्न पर पड़ता है तो स्पेक्ट्रम के कुछ रंग रत्न द्वारा सोख लिए जाते हैं। जो रंग रत्न द्वारा नहीं सोखा जाता, वह या तो रत्न से निकल जाता है या प्रतिबिम्बित होता है। प्रतिबिमित रंग ही रत्न को रंगीन आभा देता है। कुछ रत्न केवल एक ही रंग के होते हैं, जैसे-मैलाकाइट सदैव हरा होता है। यदि कोई रत्न लाल नज़र आता है तो उससे केवल लाल रंग ही प्रतिबिम्बित होता है, जबकि अन्य सभी रंग रत्न द्वारा आत्मसात् कर लिए जाते हैं।

रत्नों के संरचना तथा आकार

अधिकांश रत्न खनिज रूप में पाए जाते हैं। इनकी रचना धरती के गर्भ में कुछ विशेष भौतिक तथा रासायनिक परिवर्तनों के फलस्वरूप होती है। रत्नों की उत्पत्ति का कारण ताप तथा दाब होता है। कुछ खनिज धरती के गर्भ में कालान्तर में आए लावे से तथा कुछ अन्य धरती के भीतर जता ईधन या गैसों से निर्मित होते हैं। कुछ ऐसे भी रत्न हैं जो पारदर्शी या वर्तमान खनिजों पर पड़ने वाले धरती के तापमान और दबाव के कारण अपनी अलग संरचना बना लेते हैं। कुछ रत्न चट्टानों से अलग होकर झरनों तथा जलस्रोतों आदि के साथ बहकर नदियों की तलहटी में जमा हो जाते हैं। जल में बहते रहने से इनकी सतह चिकनी हो जाती है। ये गोल या अण्डाकार हो जाते हैं। खनिज रत्नों के अलावा जैविक प्रक्रिया से प्राप्त होने वाले रत्न मोती हैं। ये सीप द्वारा निर्मित होते हैं। सीप के भीतर रहने वाले घोघें को अपने अन्दर (सीप में) किसी विजातीय तत्त्व के प्रवेश कर जाने से कष्ट होता है। फलत: वह एक विशेष प्रकार का द्रव्य उस तत्त्व के चारों ओर लपेट देता है। ऐसी स्थिति में यह द्रव्य गोल आकार में मोती बन जाता है। इसी सिद्धान्त के आधार पर कृत्रिम मोतियों का निर्माण होता है। मूंगे का निर्माण 'पोलिप्स' नामक समुद्री जीव की अस्थियों से होता है। तृणमणि या कहरुवा की उत्पत्ति पेड़ों से निकले रेजिन के जीवाश्म के रूप में परिवर्तित होने से होती है। यह एक वानस्पतिक उत्पत्ति है।

रत्न अधिकतर चट्टानों में जड़े हुए प्राप्त होते हैं। चट्टानों की रचना अनेक प्रकार के खनिज तत्वों के मिश्रण से होती है। चट्टानें तीन प्रकार की होती हैं-

रूपान्तिरित चट्टानें-

ये अग्निज तथा तलछटी चट्टानों का ही एक रूप है। ये भूगर्भ में गर्मी तथा दबाव से परिवर्तित होकर नए खनिज तत्वों के साथ नई चट्टानों का निर्माण करती हैं। ऐसी प्रक्रिया में उनके भीतर रत्नों की रचना होती है। उदाहरणार्थ-गर्मी तथा दबाव से लाइमस्टोन से परिवर्तित होकर संगमरमर में से माणिक्य रत्न मिल सकता है।

अग्निज चट्टानें-

ये पिघली हुई चट्टानों का पुन: ठोस रूप ले चुकी चट्टानें हैं। पिघली हुई चट्टानें धरती के गर्भ से ऊपर आती हैं। यह भी माना जाता है कि ऐसी चट्टानें ज्वालामुखी के द्वारा लावे के रूप में निकलती हैं। धीमी गति से ठण्डी होने तथा ठोस रूप लेने वाली चट्टानों के मणिभ बड़े आकार के होते हैं। उनमें रत्नीय पत्थरों का निर्माण सरलतापूर्वक होता है।

तलछटी चट्टानें-

ये चट्टानें मौसम के प्रभाव स्वरूप टुकड़ों के जमा हो जाने से निर्मित होती हैं। बीतते समय के साथ ये चट्टानी टुकड़े पुन: कठोर चट्टानों का रूप ले लेते हैं। ये अधिकतर परतों में निर्मित होती हैं। आस्ट्रलिया में ऐसी अधिकतर चट्टानों में ओपल नामक रत्न पाया जाता है। फ़ीरोजा तथा कुछ अन्य रत्न भी अधिकतर ऐसी चट्टानों की दरारों में मिलते हैं। ये चट्टानों में अपना निश्चित् आकार बनाकर मणिभ के रूप में चिपके रहते हैं। हैलाइट तथा जिप्सम आदि भी ऐसी ही चट्टानों में मिलता है।

क्रिस्टलविज्ञान 'Crystallography' के अनुसार मणिभ के रूप वाले रत्न चट्टानों का भाग न होकर केवल उनसे चिपके रहते हैं। इनका अपना आकार भी होता है। इन मणिभों को छ: प्रकार की पद्धतियों में विभाजित किया गया है। मणिभों के रूप में प्राप्त होने वाले रत्न इन्हीं पद्धतियों के अनुसार समूचे विश्व में एक निश्चित् आकार में प्राप्त होते हैं। ये पद्धतियाँ हैं-घन पद्धति, चतुष्फलक पद्धति, षड्भुजीय पद्धति, समचतुर्भुज पद्धति, एकपदी पद्धति तथा त्रिपदी पद्धति।

रत्नों पर प्रकाश तथा रंगों का प्रभाव

बहुत से रत्नों पर तीव्र प्रकाश या रंग का प्रभाव ऐसा दिखाई देता है कि जिनका सम्बन्ध न तो उनकी रासायनिक बनावट से होता है और न ही उनमें उपस्थित अशुद्धियों से, जो रंगीय आभा युक्त होती हैं। ये रंग प्रभाव मात्र रोशनी के वर्तनांक में अवरोध के कारण पैदा होते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं-

इन्द्रधनुषीपन-

अगर रत्नों के अन्दर दरारों और बेमेल लहरों में रोशनी डाली जाए तो वह कई कोणों में फैल जाती है। इसके परिणामस्वरूप रत्न के प्रभावमण्डल में इन्द्रधनुष जैसी आभा बिख़र जाती है।

दूधियापन-

इस प्रकार की चमक मूनस्टोन श्रेणी के उन रत्नों में नज़र आती है, जिनको कैविकोन कट में तराशा जाता है।

बिल्लौरीपन-

जब किसी रत्न को कैविकोन कट में तराशा जाता है तो रत्न के भीतर से परावर्तित होता प्रकाश बिल्ली की आँख जैसा प्रतीत होता है।

झिलमिलापन-

इसमें रत्नों की ठोस पृष्ठभूमि पर झिलमिलाने वाला बहुरंगी प्रकाश नज़र आने लगता है।

जगमगाहट-

जिन रत्नों में भौतिक या रासायनिक प्रक्रिया के फलस्वरूप ज़रा सी रोशनी के प्रभाव से ढेर सारी जगमगाहट पैदा हो जाए, उनको उज्ज्वल प्रकाश के वर्तनांक श्रेणी का रत्न माना गया है। परन्तु इसमें जगमगाहट ताप उत्सर्जन सम्मिलित नहीं है। इन्फ़्रा-रेड किरणें डालने पर रत्नों को जाँचने-परख़ने से जो परिणाम निकलते हैं, वे सिद्धान्त रूप से प्रतिदीप्ति कहलाते हैं। इस प्रक्रिया से रत्न की रोशनी या जगमगाहट देखी जाती है।

ओपल रंगी-

आमतौर से नीली सूक्ष्म तरंगों के परावर्तन के कारण सामान्य ओपल रत्नों में नीली या मुक्ताभ आभा दिखाई देती है।

बहुरंगी-

ऐसे रंगों की छटा ओपल श्रेणी के रत्नों से प्रस्फुटित होती है। पत्थर को घुमाने या हिलाने-डुलाने से बहुत सारे रंगों की वर्ण आभा प्रभावमण्डल में बिख़र जाती है।

दोगलापन-

धात्विक चमक ख़ासतौर से लेब्रेडोराइट और स्पेक्ट्रोलाइट श्रेणी के रत्नों में पाई जाती है। इन रत्नों की प्रधान वर्ण आभा हरे व नीले रंग में होती है। परन्तु उसका समूचा दृश्य-पटल रंग-बिरंगा होना ज़रूरी है।

नव रत्न

सामान्य तौर पर ग्राहों-नक्षत्रों के अनुसार ज्योतिष में मात्र नवरत्नों को ही लिया जाता है। इन रत्नों के उपलब्ध न होने पर इनके उपरत्न या समान प्रभावकारी रत्नों का प्रयोग किया जाता है। भारतीय मान्यता के अनुसार कुल 84 रत्न पाए जाते हैं, जिनमें माणिक्य, हीरा, मोती, नीलम, पन्ना, मूँगा, गोमेद, तथा वैदूर्य (लहसुनिया) को नवरत्न माना गया है। ये रत्न ही समस्त सौरमण्डल के प्रतिनिधि माने जाते हैं। यहीं कारण है कि इन्हें धारण करने से शीघ्र फल की प्राप्ति होती है।

नवग्रह और रत्न ग्रहों के अनुसार रत्नों की अनुकूलता
ग्रह संबंधित रत्न उपयुक्त धातु
सुर्य माणिक्य स्वर्ण
चंद्र मोती चाँदी
मंगल मूँगा स्वर्ण
बुध पन्ना स्वर्ण,काँसा
बृहस्पति पुखराज चाँदी
शुक्र हीरा चाँदी
शनि नीलम लोहा, सीसा
राहु गोमेद चाँदी, सोना, ताँबा, लोहा, काँसा
केतु लहसुनिया चाँदी, सोना, ताँबा, लोहा, काँसा
लग्न साशि स्वामी ग्रह अनुकूल
मेष मंगल मूँगा
वृषभ शुक्र हीरा
मिथुन बुध पन्ना
कर्क चंद्र मोती
सिंह सूर्य माणिक्य
कन्या बुध पन्ना
तुला शुक्र हीरा
वृश्चिक मंगल मूँगा
धनु गुरु पुखराज
मकर शनि नीलम
कुंभ शनि नीलम
मीन गुरु पुखराज

माणिक्य

माणिक्य सूर्य ग्रह का रत्न है। माणिक्य को अंग्रेज़ी में 'रूबी' कहते हैं। यह गुलाबी की तरह गुलाबी सुर्ख श्याम वर्ण का एक बहुमूल्य रत्न है और यह काले रंग का भी पाया जाता है। इसे सूर्य-रत्न की संज्ञा दी गई है। अरबी में इसको 'लाल बदख्शां' कहते हैं। यह कुरुंदम समूह का रत्न है। गुलाबी रंग का माणिक्य श्रेष्ठ माना गया है।

पन्ना

पन्ना बुध ग्रह का रत्न है। पन्ना को अंग्रेज़ी में 'एमेराल्ड' कहते हैं जो कई रंगों में पाया जाता है। यह हरा रंग लिए सफ़ेद लोचदार या नीम की पत्ती जैसे रंग का पारदर्शक होता है। नवरत्न में पन्ना भी होता है। हरे रंग का पन्ना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। पन्ना अत्यंत नरम पत्थर होता है तथा अत्यंत मूल्यवान पत्थरों में से एक है। रंग, रूप, चमक, वजन, पारदर्शिता के अनुसार इसका मूल्य निर्धारित होता है।[1]

हीरा

हीरा शुक्र ग्रह का रत्न है। अंग्रेज़ी में हीरा को 'डायमंड' कहते हैं। हीरा एक प्रकार का बहुमूल्य रत्न है जो बहुत चमकदार और बहुत कठोर होता है। यह भी कई रंगों में पाया जाता है, जैसे- सफ़ेद, पीला, गुलाबी, नीला, लाल, काला आदि। इसे नौ रत्नों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। हीरा रत्न अत्यन्त महंगा व दिखने में सुन्दर होता है। सफ़ेद हीरा सर्वोत्तम है और हीरा सभी प्रकार के रत्नों में श्रेष्ठ है। हीरे को हीरे के कणों के द्वारा पॉलिश करके ख़ूबसूरत बनाया जाता है।[2]

नीलम

नीलम शनि ग्रह का रत्न है। नीलम का अंग्रेज़ी नाम 'सैफायर' है। नीलम रत्न गहरे नीले और हल्के नीले रंग का होता है। यह भी कई रंगों में पाया जाता है; मसलन- मोर की गर्दन जैसा, हल्का नीला, पीला आदि। मोर की गर्दन जैसे रंग वाला नीलम उत्तम श्रेणी का माना जाता है। नीलम पारदर्शी, चमकदार और लोचदार रत्न है। नवरत्न में नीलम भी होता है। शनि का रत्न नीलम एल्यूमीनियम और ऑक्सिजन के मेल से बनता है। इसे कुरुंदम समूह का रत्न माना जाता है।[3]

मोती

मोती चन्द्र ग्रह का रत्न है। मोती को अंग्रेज़ी में 'पर्ल' कहते हैं। मोती सफ़ेद, काला, आसमानी, पीला, लाला आदि कई रंगों में पाया जाता है। मोती समुद्र से सीपों से प्राप्त किया जाता है। मोती एक बहुमूल्य रत्न जो समुद्र की सीपी में से निकलता है और छूटा, गोल तथा सफ़ेद होता है। मोती को उर्दू में मरवारीद और संस्कृत में मुक्ता कहते हैं।

लहसुनिया

लहसुनिया केतु ग्रह का रत्न है। लहसुनिया रत्न में बिल्लि की आँख की तरह का सूत होता है। इसमें पीलापन्, स्याही या सफ़ेदी रंग की झाईं भी होती है। लहसुनिया रत्न को वैदूर्य भी कहा जाता है।

मूँगा

पुखराज की अंगूठी

मूँगा मंगल ग्रह का रत्न है। मूँगा को अंग्रेज़ी में 'कोरल' कहा जाता है, जो आमतौर पर सिंदूरी लाल रंग का होता है। मूँगा लाल, सिंदूर वर्ण, गुलाबी, सफ़ेद और कृष्ण वर्ण में भी प्राप्य है। मूँगा का प्राप्ति स्थान समुद्र है। वास्तव में मूँगा एक किस्म की समुद्री जड़ है और मूँगा समुद्री जीवों के कठोर कंकालों से निर्मित एक प्रकार का निक्षेप है। मूँगा का दूसरा नाम प्रवाल भी है। इसे संस्कृत में विद्रुम और फ़ारसी में मरजां कहते हैं।

गोमेद

गोमेद राहु ग्रह का रत्न है। गोमेद का अंग्रेज़ी नाम 'जिरकॉन' है। सामान्यतः इसका रंग लाल धुएं के समान होता है। रक्त-श्याम और पीत आभायुक्त कत्थई रंग का गोमेद उत्त्म माना जाता है। नवरत्न में गोमेद भी होता है। गोमेद रत्न पारदर्शक होता है। गोमेद को संस्कृत में गोमेदक कहते हैं।

पुखराज

पुखराज गुरु ग्रह का रत्न है। पुखराज को अंग्रेज़ी में 'टोपाज' कह जाता हैं। पुखराज एक मूल्यवान रत्न है। पुखराज रत्न सभी रत्नों का राजा है। यह अमूनन पीला, सफ़ेद, तथा नीले रंगों का होता है। वैसे कहावत है कि फूलों के जितने रंग होते हैं, पुखराज भी उतने ही रंग के पाए जाते हैं। पुखराज रत्न एल्युमिनियम और फ्लोरीन सहित सिलिकेट खनिज होता है। संस्कृत भाषा में पुखराज को पुष्पराग कहा जाता है। अमलतास के फूलों की तरह पीले रंग का पुखराज सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लाभकारी है पन्ना धारण करना (हिन्दी) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 17 जुलाई, 2010
  2. हीरा है शुक्र का रत्न (हिन्दी) नवभारत टाइम्स। अभिगमन तिथि: 19 जुलाई, 2010।
  3. नीलम है शनि का रत्न (हिन्दी) नवभारत टाइम्स। अभिगमन तिथि: 17 जुलाई, 2010

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