अमरू बिन कुलसूम

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अमरू बिन कुलसूम - अमरू इस्लाम से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले पैदा हुए थे। इनका संबंध तुग़्लिब कबीले से था। इनकी माता प्रसिद्ध कवि मुहलहिल की पुत्री थीं। ये 15 वर्ष की छोटी अवस्था में ही अपने कबीले के सरदार हो गए। तुग़्लिब तथा बकर कबीलों में बहुधा लड़ाइयाँ हुआ करती थीं जिनमें वे भी अपने कबीले की ओर से भाग लिया करते थे। एक बार इन दोनों कबीलों ने संधि करने के लिए हीर: के बादशाह अमरू बिन हिंद से प्रार्थना की। बादशाह ने नब्बू तुग़्लिब के विरुद्ध निर्णय किया जिसपर अमरू बिन कुलसूम रूष्ट होकर लौट आए। इसके अनंतर बादशाह ने किसी बहाने इनका अपमान करना चाहा पर इन्होंने बादशाह को मार डाला। यह पैगंबरपूर्व के उन कवियों में से थे जो 'असहाब मुप्रल्लका' कहलाते हैं। इनका वर्ण्य विषय वीरता, आत्मविश्वास तथा उत्साह और उल्लास के भावों से भरा हैं। अवश्य ही अपनी और अपने कबीले की प्रशंसा तथा शत्रु की बुराई करने में इन्होंने बड़ी अतिशयोक्ति की है। इनकी रचना में प्रवाह, सुगमता तथा गेयता बहुत है। इन्हीं गुणों के कारण इनकी कृतियाँ अरब में बहुत प्रचलित हुई और बहुत समय तक बच्चे बच्चे की जबान पर रहीं। इनकी मृत्यु सन्‌ 600 ई. के लगभग हुई।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 203 |

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