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'''ऐतरेय की कथा / Story of Aitereye'''<br />
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संसार में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हमारे [[वेद]] हैं । ये चार हैं-  [[ऋग्वेद]], [[यजुर्वेद]], [[सामवेद]] तथा [[अथर्ववेद]] । प्रत्येक वेदों को दो भागों में बंटा है । जिन्हें [[मन्त्र साहित्य|मन्त्र]] तथा [[ब्राह्मण साहित्य|ब्राह्मण]] कहा जाता है । जिन ग्रन्थों में मन्त्रों का संग्रह है वे सहिंता पुकारे गए । ब्राह्मण के तीन उप भाग हुए ब्राह्मण [[आरण्यक]] तथा [[उपनिषद]] । ब्राह्मण ग्रन्थ मनुष्यों के नित्य प्रति के कर्मकाण्ड से सम्बंधित है । इन्हीं में एक [[ऐतरेय ब्राह्मण]] कहलाता है जिसमें चालीस अध्याय हैं  । इस ऐतरेय ब्राह्मण का आविर्भाव किस प्रकार से हुआ यह [[कथा]] उसी से संबंधित है ।
 
 
संसार में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हमारे [[वेद]] हैं । ये चार हैं-  [[ऋग्वेद]], [[यजुर्वेद]], [[सामवेद]] तथा [[अथर्ववेद]] । प्रत्येक वेदों को दो भागों में बंटा है । जिन्हें [[मन्त्र साहित्य|मन्त्र]] तथा [[ब्राह्मण साहित्य|ब्राह्मण]] कहा जाता है । जिन ग्रन्थों में मन्त्रों का संग्रह है वे सहिंता पुकारे गए । ब्राह्मण के तीन उप भाग हुए ब्राह्मण [[आरण्यक]] तथा [[उपनिषद]] । ब्राह्मण ग्रन्थ मनुष्यों के नित्य प्रति के कर्मकाण्ड से सम्बंधित है । इन्हीं में एक [[ऐतरेय ब्राह्मण]] कहलाता है जिसमें चालीस अध्याय हैं  । इस ऐतरेय ब्राह्मण का आविर्भाव किस प्रकार से हुआ यह कथा उसी से संबंधित है ।
 
 
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{{दाँयाबक्सा|पाठ=माता की ऐसी दु:खपूर्ण बातें सुनकर ऐतरेय को कुछ ध्यान हुआ वह बोला माँ तुम तो संसार में आसक्त हो जबकि यह ससांर और इसके भोग सब नाशवान है केवल भगवान नाम ही सत्य है, उसी का मैं जाप करता हूं लेकिन मैं अब समझ गया हूं कि मेरा अपनी माँ के प्रति भी कुछ कर्तव्य है।|विचारक=}}
माता की ऐसी दु:खपूर्ण बातें सुनकर ऐतरेय को कुछ ध्यान हुआ वह बोला मां तुम तो संसार में आसक्त हो जबकि यह ससांर और इसके भोग सब नाशवान है केवल भगवान नाम ही सत्य है, उसी का मैं जाप करता हूं लेकिन मैं अब समझ गया हूं कि मेरा अपनी मां के प्रति भी कुछ कर्तव्य है।
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माण्डूकि नामक एक ऋषि थे उनकी पत्नी का नाम इतरा था । ये दोनों ही भगवान के भक्त थे  तथा अत्यन्त पवित्र जीवन व्यतीत करते थे । दोनों ही एक दूसरे का ध्यान रखते तथा हंसी खुशी से समय काटते थे। दु:ख था तो केवल एक उनके कोई सन्तान नहीं थीं। सोच विचार के पश्चात् पुत्र प्राप्ति की इच्छा से दोनों ने कठिन तपस्या की तथा भगवान ने उनकी  तपस्या तथा प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनकी इच्छा को पूरा कर दिया। उनके घर में एक पुत्र का जन्म हुआ जो अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक था। यह बालक उनकी महान् तपस्या का फल था। यद्यपि बचपन से ही यह बालक आलौकिक एवं चमत्कारपूर्ण घटनाओं का जनक था लेकिन प्राय: चुप ही रहता था। काफ़ी दिनों के पश्चात् उसने बोलना प्रारम्भ किया। आश्चर्य की बात तो यह थी कि वह जब भी बोलता वासुदेव वासुदेव ही कहता। आठ वर्ष तक उसने वासुदेव शब्द के अतिरिक्त और कोई शब्द नहीं कहा। वह आँखें बंद किए चुप बैठा ध्यान करता रहता। उसके चेहरे पर तेज़ बरसता तथा आंखों में तीव्र चमक थीं। आठवें वर्ष में बालक का [[यज्ञोपवीत]] [[संस्कार]] कराया गया तथा पिता ने उसे [[वेद]] पढाने का प्रयास किया लेकिन उसने कुछ भी नहीं पढा बस वासुदेव वासुदेव नाम का संकीर्तन करता रहता। पिता हताश हो गए और उस मूर्ख समझते हुए उसकी ओर ध्यान देना बंद कर दिया। परिणामरूवरूप उसकी माता की ओर से भी उन्होंने मुंह फेर लिया। कुछ दिनों पश्चात् माण्डूकि ऋषि ने दूसरा विवाह कर लिया जिससे उनके अनेक पुत्र हुए। बडे होकर ये सभी वेदों के तथा कर्मकाण्ड के महान् ज्ञाता हुए। चारों ओर उन्हीं की पूजा होती थी। बेचारी पूर्व पत्नी घर में ही उपेक्षित जीवन व्यतीत कर रही थी। उसके पुत्र ऐतरेय को इसका बिल्कुल ध्यान नहीं था। वह हर समय भगवान वासुदेव का नाम जपता रहता तथा एक मन्दिर में पडा रहता। एक दिन माँ को अति क्षोभ हुआ। वे मन्दिर में ही अपने पुत्र के पास पहुंची और उससे कहने लगीं तुम्हारे होने से मुझे क्या लाभ हुआ, तुम्हें तो कोई पूछता ही नहीं है, मुझे भी
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माण्डूकि नामक एक ऋषि थे उनकी पत्नी का नाम इतरा था । ये दोनों ही भगवान के भक्त थे  तथा अत्यन्त पवित्र जीवन व्यतीत करते थे । दोनों ही एक दूसरे का ध्यान रखते तथा हंसी खुशी से समय काटते थे। दु:ख था तो केवल एक उनके कोई सन्तान नहीं थीं। सोच विचार के पश्चात पुत्र प्राप्ति की इच्छा से दोनों ने कठिन तपस्या की तथा भगवान ने उनकी  तपस्या तथा प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनकी इच्छा को पूरा कर दिया। उनके घर में एक पुत्र का जन्म हुआ जो अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक था। यह बालक उनकी महान तपस्या का फल था। यद्यपि बचपन से ही यह बालक आलौकिक एंव चमत्कारपूर्ण घटनाओं का जनक था लेकिन प्राय: चुप ही रहता था। काफ़ी दिनों के पश्चात उसने बोलना प्रारम्भ किया। आश्चर्य की बात तो यह थी कि वह जब भी बोलता वासुदेव वासुदेव ही कहता। आठ वर्ष तक उसने वासुदेव शब्द के अतिरिक्त और कोई शब्द नहीं कहा। वह आखें बंद किए चुप बैठा ध्यान करता रहता। उसके चेहरे पर तेज बरसता तथा आंखों में तीव्र चमक थीं। आठवें वर्ष में बालक का [[यज्ञोपवीत]] [[संस्कार]] कराया गया तथा पिता ने उसे [[वेद]] पढाने का प्रयास किया लेकिन उसने कुछ भी नहीं पढा बस वासुदेव वासुदेव नाम का संकीर्तन करता रहता। पिता हताश हो गए और उस मूर्ख समझते हुए उसकी ओर ध्यान देना बंद कर दिया। परिणामरूवरूप उसकी माता की ओर से भी उन्होंने मुंह फेर लिया। कुछ दिनों पश्चात माण्डूकि ऋषि ने दूसरा विवाह कर लिया जिससे उनके अनेक पुत्र हुए। बडे होकर ये सभी वेदों के तथा कर्मकाण्ड के महान ज्ञाता हुए। चारों ओर उन्हीं की पूजा होती थी। बेचारी पूर्व पत्नी घर में ही उपेक्षित जीवन व्यतीत कर रही थी। उसके पुत्र ऐतरेय को इसका बिल्कुल ध्यान नहीं था। वह हर समय भगवान वासुदेव का नाम जपता रहता तथा एक मन्दिर में पडा रहता। एक दिन मां को अति क्षोभ हुआ। वे मन्दिर में ही अपने पुत्र के पास पहुंची और उससे कहने लगीं तुम्हारे होने से मुझे क्या लाभ हुआ, तुम्हें तो कोई पूछता ही नहीं है, मुझे भी
 
 
सभी घृणा की दष्टि से देखते हैं। बताओ ऐसे जीने से मेरा क्या लाभ है।
 
सभी घृणा की दष्टि से देखते हैं। बताओ ऐसे जीने से मेरा क्या लाभ है।
  
माता की ऐसी दु:खपूर्ण बातें सुनकर ऐतरेय को कुछ ध्यान हुआ वह बोला मां तुम तो संसार में आसक्त हो जबकि यह ससांर और इसके भोग सब नाशवान है केवल भगवान नाम ही सत्य है, उसी का मैं जाप करता हूं लेकिन मैं अब समझ गया हूं कि मेरा अपनी मां के प्रति भी कुछ कर्तव्य है। मैं उसे अब पूरा करूगां और तुम्हें ऐसे स्थान पर पदासीन करूगां जहां अनेक [[यज्ञ]] करके भी नहीं पहुँचा जा सकता। उस काल में हमारे ऋर्षियों ने देवशक्ति को खोज लिया था। वे उनको प्रसन्न एवं संतुष्ट करके जगा लेते थे तथा अपनी प्रत्येक मनोकामना को उनसे पूर्ण करा लेते थे। यह शक्ति समुचित विधि विधान द्वारा यज्ञों को करने से प्राप्त हो जाती थी। ऐतरेय ने भी यही किया। उसने भगवान [[विष्णु]] की सच्चे ह्रदय से प्रार्थना की जो वेद में अंकित है तथा उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए प्रत्येक विधि विधान का आश्रय लिया। भगवान विष्णु प्रसन्न हो गए तथा साक्षात प्रकट होकर ऐतरेय और उनकी माता को आर्शीवाद दिया। भगवान विष्णु के दर्शन पाकर माता तो अपने जीवन को धन्य मानने लगी। यह उसके पुत्र की तपस्या का ही फल था जो __INDEX__माता को भी प्राप्त हुआ। ऐतरेय तो जैसे विह्रल हो गया। उसकी आंखों से अश्रुओं की जलधारा बहने लगी। उसने भगवान से करबद्ध प्रार्थना की तथा अपने और अपनी मां के लिए आदेश चाहा जिससे उनकी मां को शांति और सुख की प्राप्ति हो। भगवान विष्णु बोले यद्यपि तुमने वेदों का अध्ययन नहीं किया लेकिन मेरी कृपा से तुम सभी वेदों के ज्ञाता हो जाओगे तुम वेद के एक अज्ञात भाग की भी खोज करोगे जो तुम्हारे नाम से [[ऐतरेय ब्राह्मण]] कहलाऐगा। विवाह करो, गृहस्थी बसाओ तथा सभी कर्मों को करो लेकिन सबको मुझे समर्पित कर दो अर्थात यह सोचकर करो कि मेरे आदेश से कर रहे हो। उनमें आसक्त मत होना तब तुम संसार में नहीं फंसोगे। एक स्थान जो कोटितीर्थ कहलाता है वहां जाओ। वहां पर हरिमेधा यज्ञ कर रहे हैं। तुम्हारे जैसे विद्धान की वहां जाने पर तुम्हारी माता की सभी इच्छाएं पूरी हो जाएंगी। इतना कहकर और ऐतरेय के सिर पर हाथ रखकर भगवान विष्णु अन्तर्धान हो गए।
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माता की ऐसी दु:खपूर्ण बातें सुनकर ऐतरेय को कुछ ध्यान हुआ वह बोला माँ तुम तो संसार में आसक्त हो जबकि यह ससांर और इसके भोग सब नाशवान है केवल भगवान नाम ही सत्य है, उसी का मैं जाप करता हूं लेकिन मैं अब समझ गया हूं कि मेरा अपनी माँ के प्रति भी कुछ कर्तव्य है। मैं उसे अब पूरा करूगां और तुम्हें ऐसे स्थान पर पदासीन करूगां जहां अनेक [[यज्ञ]] करके भी नहीं पहुँचा जा सकता। उस काल में हमारे ऋर्षियों ने देवशक्ति को खोज लिया था। वे उनको प्रसन्न एवं संतुष्ट करके जगा लेते थे तथा अपनी प्रत्येक मनोकामना को उनसे पूर्ण करा लेते थे। यह शक्ति समुचित विधि विधान द्वारा यज्ञों को करने से प्राप्त हो जाती थी। ऐतरेय ने भी यही किया। उसने भगवान [[विष्णु]] की सच्चे हृदय से प्रार्थना की जो वेद में अंकित है तथा उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए प्रत्येक विधि विधान का आश्रय लिया। भगवान विष्णु प्रसन्न हो गए तथा साक्षात प्रकट होकर ऐतरेय और उनकी माता को आर्शीवाद दिया। भगवान विष्णु के दर्शन पाकर माता तो अपने जीवन को धन्य मानने लगी। यह उसके पुत्र की तपस्या का ही फल था जो __INDEX__माता को भी प्राप्त हुआ। ऐतरेय तो जैसे विह्रल हो गया। उसकी आंखों से अश्रुओं की जलधारा बहने लगी। उसने भगवान से करबद्ध प्रार्थना की तथा अपने और अपनी माँ के लिए आदेश चाहा जिससे उनकी माँ को शांति और सुख की प्राप्ति हो। भगवान विष्णु बोले यद्यपि तुमने वेदों का अध्ययन नहीं किया लेकिन मेरी कृपा से तुम सभी वेदों के ज्ञाता हो जाओगे तुम वेद के एक अज्ञात भाग की भी खोज करोगे जो तुम्हारे नाम से [[ऐतरेय ब्राह्मण]] कहलाऐगा। विवाह करो, गृहस्थी बसाओ तथा सभी कर्मों को करो लेकिन सबको मुझे समर्पित कर दो अर्थात् यह सोचकर करो कि मेरे आदेश से कर रहे हो। उनमें आसक्त मत होना तब तुम संसार में नहीं फंसोगे। एक स्थान जो कोटितीर्थ कहलाता है वहां जाओ। वहां पर हरिमेधा यज्ञ कर रहे हैं। तुम्हारे जैसे विद्धान की वहां जाने पर तुम्हारी माता की सभी इच्छाएं पूरी हो जाएंगी। इतना कहकर और ऐतरेय के सिर पर हाथ रखकर भगवान विष्णु अन्तर्धान हो गए।
  
माता का ह्रदय अपने पुत्र के प्रति बजाय ममता के श्रृद्धा से ओतप्रोत हो गया। उसी के कारण तो उन्हें भी भगवान के दर्शन हुए थे तथा अपनी माता के कारण ही उसने भगवान के नाम के
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माता का हृदय अपने पुत्र के प्रति बजाय ममता के श्रृद्धा से ओतप्रोत हो गया। उसी के कारण तो उन्हें भी भगवान के दर्शन हुए थे तथा अपनी माता के कारण ही उसने भगवान के नाम के
अतिरिक्त कुछ बोला था। अब दोनों माता और पुत्र भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए हरिमधा के यज्ञ में पहंच गए। वहां ऐतरेय ने भगवान विष्णु से संबधित प्रार्थना का गान किया उसे सुनकर तथा उनके तेज और विद्वता से सभी उपस्थित विद्वान प्रभावित हो गए। हरिमेधा ने उन्हें ऊंचे आसन पर बैठाकर उनका परिचय प्राप्त किया तथा उनकी आवभगत की।
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अतिरिक्त कुछ बोला था। अब दोनों माता और पुत्र भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए हरिमधा के यज्ञ में पहंच गए। वहां ऐतरेय ने भगवान विष्णु से संबंधित प्रार्थना का गान किया उसे सुनकर तथा उनके तेज़ और विद्वता से सभी उपस्थित विद्वान् प्रभावित हो गए। हरिमेधा ने उन्हें ऊंचे आसन पर बैठाकर उनका परिचय प्राप्त किया तथा उनकी आवभगत की।
  
ऐतरेय ने यहीं पर [[वेद]] के नवीन चालीस अध्यायों का पाठ किया जो अभी तक अज्ञात थे तथा बाद में जो ऐतरेय ब्राहाण के नाम से विख्यात हुए। हरिमेधा ने ऐतरेय को सुयोग्य वर समझते हुए अपनी पुत्री का विवाह उनसे कर दिया। ऐतरेय की माता को ऐसा योग्य विद्वान तथा तपस्वी पुत्र के जन्म देने पर भूरि भूरि प्रशंसा की तथा ऐतरेय से भी अधिक सम्मान प्रदान किया। माता जो भी अपने पुत्र से कामना करती थी वह सब उसको प्राप्त हो गया था। अब वह सुखपूर्वक अपने  पुत्र तथा पुत्रवधू के साथ रहने लगी। महर्षि ऐतरेय का नाम सदा सदा के लिए अमर हो गया।
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ऐतरेय ने यहीं पर [[वेद]] के नवीन चालीस अध्यायों का पाठ किया जो अभी तक अज्ञात थे तथा बाद में जो ऐतरेय ब्राहाण के नाम से विख्यात हुए। हरिमेधा ने ऐतरेय को सुयोग्य वर समझते हुए अपनी पुत्री का विवाह उनसे कर दिया। ऐतरेय की माता को ऐसा योग्य विद्वान् तथा तपस्वी पुत्र के जन्म देने पर भूरि भूरि प्रशंसा की तथा ऐतरेय से भी अधिक सम्मान प्रदान किया। माता जो भी अपने पुत्र से कामना करती थी वह सब उसको प्राप्त हो गया था। अब वह सुखपूर्वक अपने  पुत्र तथा पुत्रवधू के साथ रहने लगी। महर्षि ऐतरेय का नाम सदा सदा के लिए अमर हो गया।
 
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'''अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।'''
 
'''अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।'''
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'''पुत्र पिता के अनुकूल काम करे और माता के साथ समान मन वाला हो, पत्नी पति से मीठी और सुख देने वाली वाणी बोले।'''
 
'''पुत्र पिता के अनुकूल काम करे और माता के साथ समान मन वाला हो, पत्नी पति से मीठी और सुख देने वाली वाणी बोले।'''
 
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==संबंधित लेख==
 
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[[Category:कथा साहित्य]]
 
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[[Category:कथा साहित्य कोश]]
 
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05:18, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

संसार में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हमारे वेद हैं । ये चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद । प्रत्येक वेदों को दो भागों में बंटा है । जिन्हें मन्त्र तथा ब्राह्मण कहा जाता है । जिन ग्रन्थों में मन्त्रों का संग्रह है वे सहिंता पुकारे गए । ब्राह्मण के तीन उप भाग हुए ब्राह्मण आरण्यक तथा उपनिषद । ब्राह्मण ग्रन्थ मनुष्यों के नित्य प्रति के कर्मकाण्ड से सम्बंधित है । इन्हीं में एक ऐतरेय ब्राह्मण कहलाता है जिसमें चालीस अध्याय हैं । इस ऐतरेय ब्राह्मण का आविर्भाव किस प्रकार से हुआ यह कथा उसी से संबंधित है ।


Blockquote-open.gif माता की ऐसी दु:खपूर्ण बातें सुनकर ऐतरेय को कुछ ध्यान हुआ वह बोला माँ तुम तो संसार में आसक्त हो जबकि यह ससांर और इसके भोग सब नाशवान है केवल भगवान नाम ही सत्य है, उसी का मैं जाप करता हूं लेकिन मैं अब समझ गया हूं कि मेरा अपनी माँ के प्रति भी कुछ कर्तव्य है। Blockquote-close.gif

माण्डूकि नामक एक ऋषि थे उनकी पत्नी का नाम इतरा था । ये दोनों ही भगवान के भक्त थे तथा अत्यन्त पवित्र जीवन व्यतीत करते थे । दोनों ही एक दूसरे का ध्यान रखते तथा हंसी खुशी से समय काटते थे। दु:ख था तो केवल एक उनके कोई सन्तान नहीं थीं। सोच विचार के पश्चात् पुत्र प्राप्ति की इच्छा से दोनों ने कठिन तपस्या की तथा भगवान ने उनकी तपस्या तथा प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनकी इच्छा को पूरा कर दिया। उनके घर में एक पुत्र का जन्म हुआ जो अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक था। यह बालक उनकी महान् तपस्या का फल था। यद्यपि बचपन से ही यह बालक आलौकिक एवं चमत्कारपूर्ण घटनाओं का जनक था लेकिन प्राय: चुप ही रहता था। काफ़ी दिनों के पश्चात् उसने बोलना प्रारम्भ किया। आश्चर्य की बात तो यह थी कि वह जब भी बोलता वासुदेव वासुदेव ही कहता। आठ वर्ष तक उसने वासुदेव शब्द के अतिरिक्त और कोई शब्द नहीं कहा। वह आँखें बंद किए चुप बैठा ध्यान करता रहता। उसके चेहरे पर तेज़ बरसता तथा आंखों में तीव्र चमक थीं। आठवें वर्ष में बालक का यज्ञोपवीत संस्कार कराया गया तथा पिता ने उसे वेद पढाने का प्रयास किया लेकिन उसने कुछ भी नहीं पढा बस वासुदेव वासुदेव नाम का संकीर्तन करता रहता। पिता हताश हो गए और उस मूर्ख समझते हुए उसकी ओर ध्यान देना बंद कर दिया। परिणामरूवरूप उसकी माता की ओर से भी उन्होंने मुंह फेर लिया। कुछ दिनों पश्चात् माण्डूकि ऋषि ने दूसरा विवाह कर लिया जिससे उनके अनेक पुत्र हुए। बडे होकर ये सभी वेदों के तथा कर्मकाण्ड के महान् ज्ञाता हुए। चारों ओर उन्हीं की पूजा होती थी। बेचारी पूर्व पत्नी घर में ही उपेक्षित जीवन व्यतीत कर रही थी। उसके पुत्र ऐतरेय को इसका बिल्कुल ध्यान नहीं था। वह हर समय भगवान वासुदेव का नाम जपता रहता तथा एक मन्दिर में पडा रहता। एक दिन माँ को अति क्षोभ हुआ। वे मन्दिर में ही अपने पुत्र के पास पहुंची और उससे कहने लगीं तुम्हारे होने से मुझे क्या लाभ हुआ, तुम्हें तो कोई पूछता ही नहीं है, मुझे भी सभी घृणा की दष्टि से देखते हैं। बताओ ऐसे जीने से मेरा क्या लाभ है।

माता की ऐसी दु:खपूर्ण बातें सुनकर ऐतरेय को कुछ ध्यान हुआ वह बोला माँ तुम तो संसार में आसक्त हो जबकि यह ससांर और इसके भोग सब नाशवान है केवल भगवान नाम ही सत्य है, उसी का मैं जाप करता हूं लेकिन मैं अब समझ गया हूं कि मेरा अपनी माँ के प्रति भी कुछ कर्तव्य है। मैं उसे अब पूरा करूगां और तुम्हें ऐसे स्थान पर पदासीन करूगां जहां अनेक यज्ञ करके भी नहीं पहुँचा जा सकता। उस काल में हमारे ऋर्षियों ने देवशक्ति को खोज लिया था। वे उनको प्रसन्न एवं संतुष्ट करके जगा लेते थे तथा अपनी प्रत्येक मनोकामना को उनसे पूर्ण करा लेते थे। यह शक्ति समुचित विधि विधान द्वारा यज्ञों को करने से प्राप्त हो जाती थी। ऐतरेय ने भी यही किया। उसने भगवान विष्णु की सच्चे हृदय से प्रार्थना की जो वेद में अंकित है तथा उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए प्रत्येक विधि विधान का आश्रय लिया। भगवान विष्णु प्रसन्न हो गए तथा साक्षात प्रकट होकर ऐतरेय और उनकी माता को आर्शीवाद दिया। भगवान विष्णु के दर्शन पाकर माता तो अपने जीवन को धन्य मानने लगी। यह उसके पुत्र की तपस्या का ही फल था जो माता को भी प्राप्त हुआ। ऐतरेय तो जैसे विह्रल हो गया। उसकी आंखों से अश्रुओं की जलधारा बहने लगी। उसने भगवान से करबद्ध प्रार्थना की तथा अपने और अपनी माँ के लिए आदेश चाहा जिससे उनकी माँ को शांति और सुख की प्राप्ति हो। भगवान विष्णु बोले यद्यपि तुमने वेदों का अध्ययन नहीं किया लेकिन मेरी कृपा से तुम सभी वेदों के ज्ञाता हो जाओगे तुम वेद के एक अज्ञात भाग की भी खोज करोगे जो तुम्हारे नाम से ऐतरेय ब्राह्मण कहलाऐगा। विवाह करो, गृहस्थी बसाओ तथा सभी कर्मों को करो लेकिन सबको मुझे समर्पित कर दो अर्थात् यह सोचकर करो कि मेरे आदेश से कर रहे हो। उनमें आसक्त मत होना तब तुम संसार में नहीं फंसोगे। एक स्थान जो कोटितीर्थ कहलाता है वहां जाओ। वहां पर हरिमेधा यज्ञ कर रहे हैं। तुम्हारे जैसे विद्धान की वहां जाने पर तुम्हारी माता की सभी इच्छाएं पूरी हो जाएंगी। इतना कहकर और ऐतरेय के सिर पर हाथ रखकर भगवान विष्णु अन्तर्धान हो गए।

माता का हृदय अपने पुत्र के प्रति बजाय ममता के श्रृद्धा से ओतप्रोत हो गया। उसी के कारण तो उन्हें भी भगवान के दर्शन हुए थे तथा अपनी माता के कारण ही उसने भगवान के नाम के अतिरिक्त कुछ बोला था। अब दोनों माता और पुत्र भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए हरिमधा के यज्ञ में पहंच गए। वहां ऐतरेय ने भगवान विष्णु से संबंधित प्रार्थना का गान किया उसे सुनकर तथा उनके तेज़ और विद्वता से सभी उपस्थित विद्वान् प्रभावित हो गए। हरिमेधा ने उन्हें ऊंचे आसन पर बैठाकर उनका परिचय प्राप्त किया तथा उनकी आवभगत की।

ऐतरेय ने यहीं पर वेद के नवीन चालीस अध्यायों का पाठ किया जो अभी तक अज्ञात थे तथा बाद में जो ऐतरेय ब्राहाण के नाम से विख्यात हुए। हरिमेधा ने ऐतरेय को सुयोग्य वर समझते हुए अपनी पुत्री का विवाह उनसे कर दिया। ऐतरेय की माता को ऐसा योग्य विद्वान् तथा तपस्वी पुत्र के जन्म देने पर भूरि भूरि प्रशंसा की तथा ऐतरेय से भी अधिक सम्मान प्रदान किया। माता जो भी अपने पुत्र से कामना करती थी वह सब उसको प्राप्त हो गया था। अब वह सुखपूर्वक अपने पुत्र तथा पुत्रवधू के साथ रहने लगी। महर्षि ऐतरेय का नाम सदा सदा के लिए अमर हो गया।

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमती वायं वदतु शान्तिवाम्।।
पुत्र पिता के अनुकूल काम करे और माता के साथ समान मन वाला हो, पत्नी पति से मीठी और सुख देने वाली वाणी बोले।

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