ऐतरेय ब्राह्मण

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ऐतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद के शाकल शाखा के सम्बद्व है। इसमें 8 खण्ड, 40 अध्याय तथा 285 कण्डिकाएं हैं। इसकी रचना 'महिदास ऐतरेय' द्वारा की गई थी, जिस पर सायणचार्य ने अपना भाष्य लिखा है। इस ग्रन्थ से यह पता चलता है कि उस समय पूर्व में विदेह जाति का राज्य था जबकि पश्चिम में नीच्य और अपाच्य राज्य थे। उत्तर में कुरू और उत्तर मद्र का तथा दक्षिण में भोज्य राज्य थां। ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम दिये गये हैं। इसके अन्तिम भाग में पुरोहित का विशेष महत्त्व निरूपित किया गया है।

ॠक् साहित्य में दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। पहले का नाम ऐतरेय ब्राह्मण तथा दूसरे का शाख्ङायन अथवा कौषीतकि ब्राह्मण है। दोनों ग्रन्थों का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है, यत्र-तत्र एक ही विषय की व्याख्या की गयी है, किन्तु एक ब्राह्मण में दूसरे ब्राह्मण में विपरीत अर्थ प्रकट किया गया है। कौषीतकि ब्राह्मण में जिस अच्छे ढंग से विषयों की व्याख्या की गयी है उस ढंग से ऐतरेय ब्राह्मण में नहीं है। ऐतरेय ब्राह्मण के पिछले दस अध्यायों में जिन विषयों की व्याख्या की गयी है वे कौषीतकि में नहीं हैं, किन्तु इस अभाव को शाख्ङायन सूत्रों में पूरा किया गया है। आजकल जो ऐतरेय ब्राह्मण उपलब्ध है उसमें कुल चालीस अध्याय हैं। इनका आठ पंजिकाओं में विभाग हुआ है। शाख्ङायन ब्राह्मण में तीस अध्याय हैं।

ऐतरेय ब्राह्मण का प्रवचनकर्ता

पारम्परिक दृष्टि से ऐतरेय ब्राह्मण के प्रवचनकर्ता ॠषि महिदास ऐतरेय हैं। षड्गुरुशिष्य ने महिदास को किसी याज्ञवल्क्य नामक ब्राह्मण की इतरा (द्वितीया) नाम्नी भार्या का पुत्र बतलाया है।[1]
ऐतरेयारण्यक के भाष्य में षड्गुरुशिष्य ने इस नाम की व्युत्पत्ति भी दी है।[2] सायण ने भी अपने भाष्य के उपोद्घात में इसी प्रकार की आख्यायिका दी है, जिसके अनुसार किसी महर्षि की अनेक पत्नियों में से एक का का नाम 'इतरा' था। महिदास उसी के पुत्र थे। पिता की उपेक्षा से खिन्न होकर महिदास ने अपनी कुलदेवता भूमि की उपासना की, जिसकी अनुकम्पा से उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण के साथ ही ऐतरेयारण्यक का भी साक्षात्कार किया।[3] भट्टभास्कर के अनुसार ऐतरेय के पिता का नाम ही ॠषि इतर था।[4]

  • स्कन्द पुराण में प्राप्त आख्यान के अनुसार ऐतरेय के पिता हारीत ॠषि के वंश में उत्पन्न ॠषि माण्डूकि थे।[5]
  • छान्दोग्य उपनिषद[6] के अनुसार महिदास को 116 वर्ष की आयु प्राप्त हुई। शांखायन गृह्यसूत्र[7] में भी इनके नाम का 'ऐतरेय' और 'महैतरेय' रूपों के उल्लेख हैं।

कतिपथ पाश्चात्त्य मनीषियों ने अवेस्ता में 'ॠत्विक्' के अर्थ में प्रयुक्त 'अथ्रेय' शब्द से 'ऐतरेय' का साम्य स्थापित करने की चेष्टा की है। इस साम्य के सिद्ध हो जाने पर 'ऐतरेय' की स्थिति भारोपीयकालिक हो जाती है। हॉग और खोन्दा सदृश पाश्चात्त्य विद्वानों की धारणा है कि सम्पूर्ण ऐतरेय ब्राह्मण किसी एक व्यक्ति अथवा काल की रचना नहीं है। अधिक से अधिक महिदास को ऐतरेय ब्राह्मण के वर्तमान पाठ का सम्पादक माना जा सकता है।[8]

ऐतरेय-ब्राह्मण का विभाग, चयनक्रम और प्रतिपाद्य

सम्पूर्ण ऐतरेय ब्राह्मण में 40 अध्याय हैं। प्रत्येक पाँच अध्यायों को मिलाकर एक पंचिका निष्पन्न हो जाती है जिनकी कुल संख्या आठ है। अध्याय का अवान्तर विभाजन खण्डों में है, जिनकी संख्या प्रत्येक अध्याय में पृथक्-पृथक् है। समस्त चालीस अध्यायों में कुल 285 खण्ड हैं। ऋग्वेद की प्रसिद्धि होतृवेद के रूप में है, इसलिए उससे सम्बद्ध इस ब्राह्मण ग्रन्थ में सोमयागों के हौत्रपक्ष की विशद मीमांसा की गई है। होतृमण्डल में, जिनकी ‘होत्रक’ के नाम से प्रसिद्धि है, सात ॠत्विक होते हैं-

  • होता,
  • मैत्रावरुण,
  • ब्राह्मणाच्छंसी,
  • नेष्टा,
  • पोता,
  • अच्छावाक और
  • आग्नीघ्र।

ये सभी सोमयागों के तीनों सवनों में ॠङ्मन्त्रों से 'याज्या'[9] का सम्पादन करते हैं। इनके अतिरिक्त पुरोनुवाक्याएं होती हैं, जिनका पाठ होम से पहले होता है। होता, मैत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसी और अच्छावाक- ये आज्य, प्रउग प्रभृति शस्त्रों[10] का शंसन करते हैं। इन्हीं का मुख्यता प्रतिपादन इस ब्राह्मण ग्रन्थ में है। प्रसंग वश कतिपय अन्य कृत्यों का निरूपण भी हुआ है। होता के द्वारा पठनीय प्रमुख शस्त्र ये हैं-

  • आज्य शस्त्र,
  • प्रउग शस्त्र,
  • मरुत्वतीय शस्त्र,
  • निष्कैवल्य शस्त्र,
  • वैश्वदेव शस्त्र,
  • आग्निमारुत शस्त्र,
  • षोडशी शस्त्र,
  • पर्याय शस्त्र और
  • आश्विन शस्त्र आदि।

याज्या और पुरोऽनुवाक्या को छोड़कर अन्य शस्त्र प्राय: तृच होते हैं जिनमें पहली और अन्तिम (उत्तमा) ॠचा का पाठ तीन-तीन बार होता है। 'उत्तमा' ॠचा को ही 'परिधानीया' भी कहते हैं। पहली ॠचा का ही पारिभाषिक नाम 'प्रतिपद' भी है। इन्हीं के औचित्य का विवेचन वस्तुत: ऐतरेय ब्राह्मणकार का प्रमुख उद्देश्य है।

अग्निष्टोम समस्त सोमयागों का प्रकृतिभूत है, एतएव इसका सर्वप्रथम विधान किया गया है, जो पहली पंचिका से लेकर तीसरी पंचिका के पाँचवें खण्ड तक है। यह एक दिन का प्रयोग है सुत्यादिन की दृष्टि से सामान्यत: इसके अनुष्ठान में कुल पाँच दिन लगते हैं। इसके अनन्तर अग्निष्टोम की विकृतियों उक्थ्य, क्रतु, षोडशी और अतिरात्र का वर्णन चतुर्थ पंचिका के द्वितीय अध्याय के पंचम खण्ड तक है। इसके पश्चात् सत्रयागों का विवरण है, जो ऐतरेय ब्राह्मण में ताण्ड्यादि अन्य ब्राह्मणों की अपेक्षा कुछ कम विस्तार से है। सत्रयागों में ‘गवामयन’ का चतुर्थ पंचिकागत दूसरे अध्याय के षष्ठ खण्ड से तीसरे अध्यायान्तर्गत अष्टम खण्ड तक निरूपण है। 'अङिगरसामयन' और 'आदित्यानामयन' नामक सत्रयाग भी इसी मध्य आ गये हैं। पाँचवीं पंचिका में विभिन्न द्वादशाह संज्ञक सोमयागों का निरूपण है। इसी पंचिका में अग्निहोत्र भी वर्णित है। छठी पंचिका में सोमयागों से सम्बद्ध प्रकीर्ण विषयों का विवेचन है। इसी पंचिका के चतुर्थ और पंचम अध्यायों में बालखिल्यादि सूक्तों की विशद प्ररोचना की गई है, जिनकी गणना खिलों के अन्तर्गत की जाती है। सप्तम पंचिका का प्रारम्भ यद्यपि पशु-अंगों की विभक्ति-प्रक्रिया के विवरण के साथ होता है, किन्तु इसके दूसरे अध्याय में अग्निहोत्री के लिए विभिन्न प्रायश्चित्तों, तीसरे में शुन:-शेप का सुप्रसिद्ध उपाख्यान और चतुर्थ अध्याय में राजसूययाग के प्रारम्भिक कृत्यों का विवरण है। आठवीं पंचिका के प्रथम दो अध्यायों में राजसूययाग का ही निरूपण है, किन्तु अन्तिम तीन अध्याय सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विवरण-ऐन्द्र महभिषेक, पुरोहित की महत्ता तथा ब्रह्मपरिमर[11] का प्रस्तावक है। 'ब्रह्म' का अर्थ यहाँ वायु है। इस वायु के चारों ओर विद्युत, वृष्टि, चन्द्रमा, आदित्य और अग्नि प्रभृति का अन्तर्भाव मरण-प्रकार ही ‘परिमर’ है। यज्ञ की सामान्य प्रक्रिया से हटकर सोचने पर यह कोई विलक्षण वैज्ञानिक कृत्य प्रतीत होता है।

इनमें से 30 अध्यायों तक प्राच्य और प्रतीच्य उभयवुध विद्वानों के मध्य कोई मतभेद नहीं है। यह भाग निर्विवाद रूप से ऐतरेय ब्राह्मण का प्राचीनतम भाग है। इसमें भी प्रथम पाँच अध्याय तैत्तिरीय ब्राह्मण से भी पूर्ववर्त्ती माने जा सकते हैं।[12] कीथ की इस धारणा के विपरीत विचार हार्श (V.G.L.Horch) का है, जो तैत्तिरीय की अपेक्षा इन्हें परवर्ती मानते हैं।[13] कौषीतकि ब्राह्मण के साथ ऐतरेय की तुलनात्मक विवेचना करने के अनन्तर पाश्चात्य विद्वानों का विचार है कि सातवीं और आठवीं पंचिकाएं[14] परवर्ती हैं। इस सन्दर्भ में प्रदत्त तर्क ये हैं:-

  • कौषीतकि ब्राह्मण में मात्र 30 अध्याय हैं- जबकी दोनों ही ॠग्वेदीय ब्राह्मणों का वर्ण्यविषय एक ही सोमयाग है।
  • राजसूययाग में राजा का यागगत पेय सोम नहीं है, जबकि ऐतरेय ब्राह्मण के मुख्य विषय सोमयाग के अन्तर्गत पेयद्रव्य सोम है।
  • ऐतरेय ब्राह्मण की सप्तम पंचिका का आरम्भ 'अथात:'[15] से हुआ है, जो परवर्ती सूत्र-शैली प्रतीत होती है।

उपर्युक्त तर्कों के उत्तर में यहाँ केवल पाणिनि का साक्ष्य ही पर्याप्त है, जिन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण के 40 अध्यायात्मक स्वरूप का संकेत से उल्लेख किया है। वे ऋग्वेद के दूसरे ब्राह्मण कौषीतकि के 30 अध्यायात्मक स्वरूप से भी परिचित थे।[16] वस्तुत: उपर्युक्त शंकाओं[17] का कारण ऐतरेय ब्राह्मण की विवेचन-शैली है, जो विषय को संश्लिष्ट और संहितरूप में न प्रस्तुत कर कुछ फैले-फैले रूप में निरूपित करती है। वास्तव में श्रौतसूत्रों के सदृश समवेत और संहितरूप में विषय-निरूपण की अपेक्षा ब्राह्मण ग्रन्थों से नहीं की जा सकती। यह सुनिश्चित है कि ऐतरेय ब्राह्मण पाणिनि के काल तक अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर चुका था। मूलवेद[18] के अस्तित्व की बात भी उठाई है, किन्तु प्रा. खोंदा जैसे मनीषियों ने उससे असाहमत्य ही प्रकट किया है।[19]

ऐतरेय ब्राह्मण की व्याख्या-सम्पत्ति

इस पर चार प्राचीन भाष्यों का अस्तित्व बतलाया जाता है-

  • गोविन्दस्वामी,
  • भट्टभास्कर,
  • षड्गुरुशिष्य और
  • सायणाचार्य के भाष्य।

इनमें से अभी तक केवल अन्तिम दो का प्रकाशन हुआ है। उनमें भी अध्ययन-अध्यापन का आधार सामान्यतया सायणभाष्य ही है, जिनमें होत्रपक्ष की सभी ज्ञातव्य विशेषताओं का समावेश है।

ऐतरेय ब्राह्मण की रूप-समृद्धि

किसी कृत्यविशेष में विनियोजन मन्त्र के देवता, छन्दस इत्यादि के औचित्य-निरूपण के सन्दर्भ में ऐतरेयकार अन्तिम बिन्दु तक ध्यान रखता है। इसे वह अपनी पारिभाषिक शब्दावली में ‘रूप-समृद्धि’ की आख्या देता है- एतद्वै यज्ञस्य समृद्वं यद्रूप-समृद्वं यत्कर्म क्रियामाणं ॠगभिवदति।[20]

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विवरण

ऐतरेय ब्राह्मण में मध्य प्रदेश का विशेष आदर पूर्वक उल्लेख किया गया है- 'ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि'।[21] पं. सत्यव्रत सामश्रमी के अनुसार इस मध्य प्रदेश में कुरु, पंचाल, शिवि और सौवीर संज्ञक प्रदेश सम्मिलित थे।[22] महिदास का अपना निवास-स्थान भी इरावती नदी के समीपस्थ किसी जनपद में था।[23] ऐतरेय ब्राह्मण[24] के अनुसार उस समय भारत के पूर्व में विदेह आदि जातियों का राज्य था। दक्षिण में भोजराज्य, पश्चिम में नीच्य और अपाच्य का राज्य, उत्तर में उत्तरकुरुओं और उत्तर मद्र का राज्य तथा मध्य भाग में कुरु-पंचाल राज्य थे।

ऐन्द्र-महाभिषेक के प्रसंग में, अन्तिम तीन अध्यायों में जिन ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम आये हैं, वे हैं- परीक्षित-पुत्र जनमेजय, मनु-पुत्र शर्यात, उग्रसेन-पुत्र युधां श्रौष्टि, अविक्षित-पुत्र मरूत्तम, सुदास पैजवन, शतानीक और दुष्यन्त-पुत्र भरत। भरत की विशेष प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि उसके पराक्रम की समानता कोई भी नहीं कर पाया।
महाकर्म भरतस्य न पूर्वे नापरे जना:।
दिवं मर्त्य इव हस्ताभ्यां नोदापु: पञ्च मानवा:॥[25]
इस भरत के पुरोहित थे ममतापुत्र दीर्घतमा

पुरोहित का गौरव

ऐतरेय ब्राह्मण के अन्तिम अध्याय में पुरोहित का विशेष महत्त्व निरूपित है। राजा को पुरोहित की नियुक्ति अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि वह आहवनीयाग्नितुल्य होता है। पुरोहित वस्तुत: प्रजा का प्रतिनिधि है, जो राजा से प्रतिज्ञा कराता है कि वह अपनी प्रजा से कभी द्रोह नहीं करेगा।

आचार-दर्शन

ऐतरेय ब्राह्मण में नैतिक मूल्यों और उदात्त आचार-व्यवहार के सिद्धान्तों पर विशेष बल दिया गया है। प्रथम अध्याय के षष्ठ खण्ड में कहा गया है कि दीक्षित यजमान को सत्य ही बोलना चाहिए[26] इसी प्रकार के अन्य वचन हैं- जो अहंकार से युक्त होकर बोली जाती है, वह राक्षसी वाणी है।[27]

शुन:शेप से सम्बद्ध आख्यान के प्रसंग में कर्मनिष्ठ जीवन और पुरुषार्थ-साधना का महत्त्व बड़े ही काव्यात्मक ढंग से बतलाया गया है। कहा गया है कि बिना थके हुए श्री नहीं मिलती; जो विचरता है, उसके पैर पुष्पयुक्त होते हैं, उसकी आत्मा फल को उगाती और काटती है। भ्रमण के श्रम से उसकी समस्त पापराशि नष्ट हो जाती है। बैठे-ठाले व्यक्ति का भाग भी बैठ जाता है, सोते हुए का सो जाता है और चलते हुए का चलता रहता है। कलि युग का अर्थ है मनुष्य की सुप्तावस्था, जब वह जंभाई लेता है तब द्वापर की स्थिति में होता है, खड़े होने पर त्रेता और कर्मरत होने पर सत युग की अवस्था में आ जाता है। चलते हुए ही मनुष्य फल प्राप्त करता है। सूर्य के श्रम को देखो, जो चलते हुए कभी आलस्य नहीं करता-
कलि: सयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरंश्चरैवेति॥
चरन्वै मधु विन्दति चरन्स्वादुमुदुम्बरम्।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति॥[28]

देवताविषयक विवरण

ऐतरेय ब्राह्मण में कुल देवता 33 माने गए हैं- 'त्रयस्त्रिंशद् वै देवा:'। इनमें अग्नि प्रथम देवता है और विष्णु परम देवता। इन्हीं के मध्य शेष सबका समावेश हो जाता है-[29] यहीं से महत्ता-प्राप्त विष्णु आगे पुराणों में सर्वाधिक वेशिष्ट्यसम्पन्न देवता बन गए। देवों के मध्य इन्द्र अत्यधिक ओजस्वी, बलशाली और दूर तक पार कराने वाले देवता हैं-[30] देवताओं के सामान्यरूप से चार गुण हैं-

  • देवता सत्य से युक्त होते हैं,
  • वे परोक्षप्रिय होते हैं,
  • वे एक दूसरे के घर में रहते और
  • वे मर्त्यों को अमरता प्रदान करते हैं।[31]

शुन:-शेप-आख्यान

ऐतरेय ब्राह्मण में आख्यानों की विशाल थाती संकलित है। इनका प्रयोजन याग से सम्बद्ध देवता और उनके शस्त्रों (स्तुतियों) के छन्दों एवं अन्य उपादानों का कथात्मक ढंग से औचित्य-निरूपण है। इन आख्यानों में शुन:शेप का आख्यान, जिसे हरिश्चन्द्रोपाख्यान भी कहा जाता है, समाजशास्त्र, नेतृत्वशास्त्र एवं धर्मशास्त्र की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। यह 33वें अध्याय में समाविष्ट है। राज्याभिषेक के समय यह राजा को सुनाया जाता था। संक्षिप्त रूप में आख्यान इस प्रकार है: इक्ष्वाकुवंशज राजा हरिश्चन्द्र पुत्ररहित थे। वरुण की उपासना और उनकी प्रसन्नता तथा इस शर्त पर राजा को रोहित नामक पुत्र की प्राप्ति हुई कि वे उसे वरुण को समर्पित कर देंगे; बाद में वे उसे समर्पित करन्र से टालते रहे, जिसके फलस्वरूप वरुण के कोप से वे रोगग्रस्त हो गये। अन्त में राजा ने अजीगर्त ॠषि के पुत्र शुन:-शेप को ख़रीद कर उसकी बलि देने की व्यवस्था की। इस यज्ञ में विश्वामित्र, वसिष्ठ और जमदग्नि ॠत्विक् थे। शुन:-शेप की बलि के लिए इनमें से किसी के भी तैयार न होने पर अन्त में पुन: अजीगर्त्त ही लोभवश उस काम के लिये भी तैयार हो गये। बाद में विभिन्न देवी-देवताओं कि स्तुति से शुन:-शेप बन्धन-मुक्त हो गये। लोभी पिता का उन्होंने परित्याग कर दिया और विश्वामित्र ने उन्हें पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया। शुन:-शेप का नया नामकरण हुआ देवरात विश्वामित्र। इस आख्यायिका के चार प्रयोजन आपातत: प्रतीत होते हैं-

  • वैदिक मन्त्रों की शक्ति और सामार्थ्य का अर्थवाद के रूप में प्रतिपादन, जिनकी सहायता से व्यक्ति वध और बन्धन से भी मुक्त हो सकता है।
  • यज्ञ या किसी भी धार्मिक कृत्य में नर-बलि जैसे घृणित कृत्य की भर्त्सना सम्भव है, बहुत आदिम-प्राकृत-काल में, जब यज्ञ-संस्था विधिवत गठित न हो पाई हो, नर-बलि की छिटपुट घटनाओं की यदा-कदा आवृत्ति हो जाती हो। ऐतरेय ब्राह्मण ने प्रकृत प्रसंग के माध्यम से इसे अमानवीय घोषित कर दिया है।
  • मानव-हृदय की, ज्ञानी होने पर भी लोभमयी प्रवृत्ति का निदर्शन, जिसके उदाहरण ॠषि अजीगर्त हैं।
  • राज-सत्ता द्वारा निजी स्वार्थ के लिए प्रजा का प्रलोभनात्मक उत्पीड़न।

इस आख्यायिका के हृदयावर्जक अंश दो ही हैं-

  • राजा हरिश्चन्द्र के द्वारा प्रारम्भ में पुत्र-लालसा की गाथाओं के माध्यम से मार्मिक अभिव्यक्ति।
  • ‘चरैवेति’ की प्रेरणामयी गाथाएँ।

शैलीगत एवं भाषागत सौष्ठव

ऐतरेय ब्राह्मण में रूपकात्मक और प्रतीकात्मक शैली का आश्रय लिया गया है, जो इसकी अभिव्यक्तिगत सप्राणता में अभिवृद्धि कर देती है। स्त्री-पुरुष के मिथुनभाव के प्रतीक सर्वाधिक हैं। उदाहरण के लिए वाणी और मन देवमिथुन है[32] घृतपक्व चरु में घृत स्त्री-अंश है और तण्डुल पुरुषांश।[33] दीक्षणीया इष्टि में दीक्षित यजमान के समस्त संस्कार गर्भगत शिशु की तरह करने का विधान भी वस्तुत: प्रतीकात्मक ही है। कृत्य-विधान के सन्दर्भ में कहीं-कहीं बड़े सुन्दर लौकिक उदाहरण दिये गये हैं, यथा एकाह और अहीन यागों के कृत्यों से याग का समापन इसलिए करना चाहिए, क्योंकि दूर की यात्रा करने वाले लक्ष्य पर पहुँचकर बैलों को बदल देते हैं।

38वें अध्याय में, ऐन्द्रमहाभिषेक के प्रसंग में मन्त्रों से निर्मित आसन्दी का सुन्दर रूपक प्राप्त होता है, जो इस प्रकार है- इस आसन्दी के अगले दो पाये बृहत् और रथन्तरसामों से तथा पिछले दोनों पाये वैरूप और वैराज सामों से निर्मित हैं। ऊपर के पट्टे का कार्य करते है शाक्वर और रैवत साम। नौधस और कालेय साम पार्श्व फलक स्थानीय है। इस आसन्दी का ताना ॠचाओं से, बाना सामों से तथा मध्यभाग यजुर्षों से निर्मित है। इसका आस्तरण है यश का तथा उपधान श्री का। सवितृ, बृहस्पति और पूषा प्रभृति विभिन्न देवों ने इसके फलकों को सहारा दे रखा है। समस्त छन्दों और तदभिमानी देवों से यह आसन्दी परिवेष्टित है। अभिप्राय यह है कि बहुविध उपमाओं और रूपकों के आलम्बन से विषय-निरूपण अत्यन्त सुग्राह्य हो उठा है। ऐतरेय ब्राह्मण की रचना ब्रह्मवादियों के द्वारा मौखिकरूप में व्यवहृत यज्ञ विवेचनात्मक सरल शब्दावली में हुई है जैसा कि प्रोफेसर खोंदा ने अभिमत व्यक्त किया है।[34] प्रोफेसर कीथ ने अपनी भूमिका में इसकी रूप-रचना, सन्धि और समासगत स्थिति का विशद विश्लेषण किया है।

वैज्ञानिक तथ्यों का समावेश

ऐतरेय-ब्राह्मण में अनेक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक सूचनाएं संकलित हैं, उदाहरण के लिए 30वें अध्याय में, पृथ्वी के प्रारम्भ में गर्मरूप का विवरण प्राप्त होता है- आदित्यों ने अंगिरसों को दक्षिणा में पृथ्वी दी। उन्होंने उसे तपा डाला, तब पृथ्वी सिंहिनी होकर मुँह खोलकर आदमियों को खाने के लिए दौड़ी। पृथ्वी की इस जलती हुई स्थिति में उसमें उच्चावच गर्त बन गए।

ऐतरेय ब्राह्मण के उपलब्ध संस्करण

अद्यावधि अएतरेय-ब्राह्मण के (भाष्य, अनुवाद या वृत्तिसहित अथवा मूलमात्र) जो संस्करण प्रकाशित हुए हैं, उनका विवरण निम्नवत् है-

  • 1863 ई. में अंग्रेज़ी अनुवाद सहित मार्टिन हॉग के द्वारा सम्पादित और बम्बई से मुद्रित संस्करण, दो भागों में।
  • थियोडार आउफ्रेख्ट के द्वारा 1879 में सायण-भाष्यांशों के साथ बोन से प्रकाशित संस्करण्।
  • 1895 से 1906 ई. के मध्य सत्यव्र्त सामश्रमी के द्वारा कलकत्ता से सायण-भाष्यसहित चार भागों में प्रकाशित संस्करण्।
  • ए.बी.कीथ के द्वारा अंग्रेज़ी में अनूदित, 1920 ई. में कैम्ब्रिज से (तथा 1969 ई. में दिल्ली से पुनर्मुद्रित) प्रकाशित संस्करण्।
  • 1925 ई. में निर्णयसागर से मूलमात्र प्रकाशित जिसका भारत सरकार ने अभी-अभी पुनर्मुद्रण कराया है।
  • 1950 ई. में गंगा प्रसाद उपाध्याय का हिन्दी अनुवाद मात्र हिन्दी-साहित्य सम्मेलन प्रयाग से प्रकाशित।
  • 1980 /इ. में सायण-भाष्य और हिन्दी अनुवाद-सहित सुधाकर मालवीय के द्वारा सम्पादित संस्करण, वाराणसी से प्रकाशितअ।
  • अनन्तकृष्ण शास्त्री के द्वारा षड्गुरुशिष्य-कृत सुखप्रदा-वृत्तिसहित, तीन भागों में त्रिवेन्द्रम से 1942 से 52 ई. के मध्य प्रकाशित संस्करण्।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'महिदासैतरैयर्षिसन्दृष्टं ब्राह्मणं तु यत्। आसीद् विप्रो यज्ञवल्को द्विभार्यस्तस्य द्वितीयामितरेति चाहु:।' ऐतरेय ब्राह्मण, सुखप्रदावृत्ति
  2. इतराख्यस्य माताभूत् स्त्रीभ्यो ढक्यैतरेयगी:। ऐतरेयारण्यक, भाष्यभूमिका
  3. ऐतरेय ब्राह्मण सायण-भाष्य, पृष्ठ 8,(आनन्दाश्रम
  4. इतरस्य ॠषेरपत्यमैतरैय:। शुभ्रादिभ्यश्य ढक्।
  5. अस्मिन्नैव मम स्थाने हारीतस्यान्वयेऽभवत्। माण्डूकिरिति विप्राग्र्यो वेदवेदाङगपारग:॥ तस्यासीदितरानाम भार्या साध्वी गुणैर्युता। तस्यामुत्पद्यतसुतस्त्वैतरेय इति स्मृत:॥ स्कन्द पुराण, 1.2.42.26-30
  6. छान्दोग्य उपनिषद 3.16.7
  7. शांखायन गृह्यसूत्र 4.10.3
  8. जे. खोन्दा, हिस्ट्री इण्डियन लिटरेचर वे.लि., भाग 21, पृ. 344
  9. ठीक आहुति-सम्प्रदान के समय पठित मन्त्र
  10. अगीतमन्त्र-साध्य स्तुति
  11. शत्रुक्षयार्थक प्रयोग
  12. कीथ, ऋग्वेद ब्राह्मण, भूमिका
  13. वी.जी.एल.हार्श, डी वेदिशे गाथा उण्ड श्लोक लितरातुर
  14. अन्तिम 10 अध्याय
  15. अथात: पशोर्विभक्तिस्तस्य विभागं वक्ष्याम:
  16. अष्टाध्यायी 5.1.62
  17. जिनमें षष्ठ पंचिका को परिशिष्ट मानने की धारणा भी है, क्योंकि इसमें स्थान-स्थान पर पुनरुक्ति है
  18. भारोपीय काल के वैदिक संहिता-स्वरूप, जिसको जर्मन भाषा में ‘UR-Brahmana
  19. खोन्दा, हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, वे.लि., भाग 1, पृ. 360
  20. ऐतरेय ब्राह्मण 3.2
  21. ऐतरेय ब्राह्मण 8.4
  22. ऐतरेयालोचन, कलकत्ता, 1906 पृष्ठ 42
  23. ऐतरेयालोचन, कलकत्ता, 1906, पृष्ठ 71
  24. ऐतरेय ब्राह्मण (8.3.2
  25. ऐतरेय ब्राह्मण 8.4.9
  26. 'ॠतं वाव दीक्षा सत्यं दीक्षा तस्माद् दीक्षितेन सत्यमेव वदितव्यम्'।
  27. 'विदुषा सत्यमेव वदितव्यम्'(5.2.9)। 'यां वै दृप्तो वदति, यामुन्मत्त: सा वै राक्षसी वाक्'(2.1)।
  28. ऐतरेय ब्राह्मण, 33.1
  29. 'अग्निर्वै देवानामवमो विष्णु: परमस्तदन्तरेण अन्या: सर्वा: देवता:'।
  30. 'स वै देवानामोजिष्ठो बलिष्ठ: सहिष्ठ: सत्तम: पारयिष्णुतम:'(7.16)।
  31. ऐतरेय ब्राह्मण (1.1.6; 3.3.9; 5.2.4; 6.3.4
  32. ‘वाक्च वै मनश्च देवानां मिथुनम्’(24.4) ।
  33. ऐतरेय ब्राह्मण 1.1
  34. खोन्दा, हिस्ट्री इण्डियन लिटरेचर:वे.लि., भाग 1, पृ.410

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