गोरिल्ला युद्ध

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गोरिल्ला युद्ध एक प्रकार का छापामार युद्ध। मोटे तौर पर छापामार युद्ध अर्धसैनिकों की टुकड़ियों अथवा अनियमित सैनिकों द्वारा शत्रुसेना के पीछे या पार्श्व में आक्रमण करके लड़े जाते हैं। वास्तविक युद्ध के अतिरिक्त छापामार अंतर्ध्वंस का कार्य और शत्रुदल में आतंक फैलाने का कार्य भी करते हैं। गोरिल्ला युद्ध लड़ने वाले छापामार सैनिकों को पहचानना कठिन होता है। इनकी कोई विशेष वेशभूषा नहीं होती। दिन के समय ये साधारण नागरिकों की भाँति रहते हैं और रात को छिपकर आतंक फैलाते हैं। छापामार नियमित सेना को धोखा देकर विध्वंस कार्य करते हैं। 'गोरिल्ला' या 'गेरिला'[1] शब्द, जो 'छापामार' के अर्थ में प्रयुक्त होता है, स्पैनिश भाषा का है। स्पैनिश भाषा में इसका अर्थ 'लघु युद्ध' है।

इतिहास

साधारण युद्धों के साथ ही छापामार युद्धों का भी प्रचलन हुआ था। सबसे पहला छापामार युद्ध 360 वर्ष ईसवी पूर्व चीन में सम्राट हुआंग ने अपने शत्रु 'सी याओ'[2]के विरुद्ध लड़ा था। इसमें सी याओ हार गया था। इंग्लैंड के इतिहास में छापामार युद्ध का वर्णन मिलता है। केरेक्टकर[3] ने दक्षिणी वेल्स के गढ़ से छापामार युद्ध में रोमन सेना को परेशान किया था।[4]

भारत में प्रयोग

भारत में छापामार युद्ध का अधिक प्रयोग 17वीं शताब्दी के अंत में और 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ। मरहठों के इन छापामार युद्धों ने शक्तिशाली मुग़ल सेना का आत्मविश्वास नष्ट कर दिया था। शांताजी घोरपड़े और धानाजी जाधव नाम के सरदारों ने अपने भ्रमणशाली दस्तों से सारे देश को पदाक्रांत कर डाला। जब मुग़ल सेना आक्रमण की आशा नहीं करती थी, उस समय आक्रमण करके उन्होंने प्रमुख मुग़ल सरदारों को विस्मित और पराजित किया। मरहठों की सफल छापामार युद्धनीति ने मुग़ल सेना के साधनों को ध्वस्त कर दिया और उनके अनुशासन और उत्साह को ऐसा नष्ट कर दिया कि सन 1706 ई. में औरंगज़ेब को अपनी उत्तम सेना को अहमदनगर वापस बुलाना पड़ा और अगले वर्ष औरंगज़ेब की मृत्यु हो गई। छापामार मराठे अपने दृढ़ टट्टुओं पर सवार होकर चारों ओर फैल जाते थे, प्रदाय रोक लेते, अंगरक्षकों के कार्य में बाधा डालते और ऐसे स्थान पर पहुँचकर, जहाँ उनके पहुँचने की सबसे कम आशा होती, लूटमार करते और सारे प्रदेश को आक्रांत कर देते। इस युद्धनीति ने मुग़लों की कमर तोड़ दी, उनके साधनों को नष्ट कर दिया। इनकी फुर्ती के कारण मुग़ल सेना इनको पकड़ न सकी। इसीलिए स्पेन के छापामारों ने प्रायद्वीपीय युद्ध में, और रूस के अनियमित सैनिकों ने मास्को के युद्ध में नैपोलियन की नाक में दम कर दिया। अमरीकी क्रांति में कर्नल जॉन एस. मोसली इत्यादि प्रमुख छापामार थे। इन्होंने अपने शत्रुओं को बड़े प्रभावशाली ढंग से धमकाया और परेशान किया इस क्रांति में छापामार युद्धों ने एक नई दिशा ली। अब तक युद्ध राज्यों द्वारा लड़े जाते थे, किंतु अब यह राष्ट्रीय विषय बन गया और नागरिक भी व्यक्तिगत रूप से इसमें सम्मिलित हो गए थे।

युद्धनीति

छापामार सैनिकों का सिद्धांत है- "मारो और भाग जाओ"। ये सहसा आक्रमण करते हैं, अदृश्य हो जाते हैं और थोड़ी दूर पर ही प्रकट हो जाते हैं। वे अपने पास बहुत कम सामान रखते हैं। इनके लिए कोई नियंत्रणकर्ता भी नहीं रहता, अत: इनकी क्रियाशीलता में बाधा नहीं पड़ती। छापामार सेना साधारणत: अपने से बलवान सेना पर सहसा आक्रमण करके अपनी रक्षा कर लेती है। उन्हें अपनी बुद्धि विशेष पर विश्वास रहता है। अपनी सुरक्षा के लिये ये सूचना देने वाले की व्यवस्था रखते हैं।

उद्देश्य

छापामार युद्ध का उद्देश्य है- "शत्रु की नियमित सेना का प्रभाव घटाना"। इस उद्देश्य की अच्छे ढ़ंग से पूर्ति करने के लिये ये शत्रु के पीछे कार्य करते हैं। साथ ही बड़े पैमाने पर किए जाने वाले नियमित सेना के कार्यों में भी सहायता पहुँचाते हैं। छापामारों का लक्ष्य सैनिक ही नहीं रहते। वे रेल, यातायात, रसद, पुल और इसी के जैसे अन्य साधनों को भी क्षति पहुंचाते हैं, जिससे शत्रुओं की नियमित सेना के कार्यों में बाधा डाल सकें।[4]

प्रमुख वस्तुएँ

छापामार युद्धों के लिए तीन प्रमुख वस्तुएँ हैं-

  1. छापामार के कार्य के लिये उपयुक्त भूभाग
  2. राजनीतिक अवस्था
  3. राष्ट्रीय परिस्थितियाँ

इस प्रकार के कार्य के लिये सबसे अति उपयुक्त पहाड़ी भूमि होती है, जिसमें जंगल हो, अथवा ऐसा ही भूखंड, जो जंगलों और दलदलों से भरा हो। छापामार युद्ध से रक्षा के लिये छापामारों द्वारा प्रयुक्त अनियमित विधियों का ज्ञान आवश्यक है, जिससे सहकारी प्रयत्नों द्वारा उनके प्रयत्नों को तुरंत नष्ट कर दिया जाय। एक और विशेष उपयोगी विधि उस क्षेत्र को घेर लेना है, जिसमें छापामार विश्राम करते हैं।

विश्वयुद्ध

प्रथम विश्वयुद्ध में यूरोप में लंबे मोरचे लगते थे। छापामारों के लिये ये क्षेत्र विशेष आकर्षक नहीं था, किंतु सन 1916-1918 का अरब का विद्रोह तो बिलकुल अनियमित था। कर्नल टी.ई. लारेंस ने अरब की सेना के सहयोग से छापामारी के जो कार्य किए, वे उल्लेखनीय हैं। मध्य पूर्व के तुर्कों की दो दुर्बलताएँ थीं। प्रथम तो जनता अथवा अरबों के बीच की अशांति और द्वितीय तुर्क साम्राज्य को नियंत्रित करने वाली भंजनशील और दुर्बल संचार व्यवस्था। लारेंस और उनके सहायक अरबों ने तुर्क गढ़ों से बचते हुए रेल की लाइनें काट दीं, आक्रमणों से तुर्कों को परेशान किया और उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। अब दूसरी ओर से जार्डन में स्थित नियमित अंग्रेज़ सेना ने प्रमुख तुर्क सेना पर आक्रमण कर दिया। इधर लारेंस ने अपनी सेना की सहायता से इस तुर्की सेना का अन्य सेनाओं से संबंध विच्छेद कर दिया। लारेंस की सफलता के कारण थे, उसकी सेना की गतिशीलता, बाह्य सहायता, समय और जनमत, जिससे नागरिकों की सहायता प्राप्त हो सकी। इस प्रकार छापामारों को विजय मिली।

द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके पश्चात

दूसरे विश्वयुद्ध का प्रारंभ होने के पूर्व छापामार युद्ध का एक उत्कृष्ट उदाहरण देखा गया। जापानियों ने चीनियों पर आक्रमण कर दिया। सन 1937 ई. में चीनी सेनाओं ने नगरों को खाली कर दिया और स्वयं पीछे हट गए। चीन के लोगों को अमरीका से शस्त्र और गोला बारूद मिला, जिसकी सहायता से इन्होंने शत्रु सेना को एक लंबे काल तक बहुत परेशान किया और छोटे-छोटे सैनिक दलों को मुख्य सेना से अलग करके नष्ट कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध में छापामारी के लिये विस्तृत क्षेत्र मिला। यूरोप में जर्मनों की और दक्षिणी-पूर्वी एशिया में जापानियों की विजय इतनी तीव्रता से और इतने विस्तृत क्षेत्र में हुई कि विजित क्षेत्रों में शासन का अच्छा प्रबंध न हो सका। सैनिकों ने जैसे ही एक स्थान पर विजय पाई, उन्हें सहसा आगे बढ़ जाने की आज्ञा मिली। विजित क्षेत्र छोटे-छोटे सैनिक दलों के अधिकार में छोड़ देने पड़े। छापामारी के लिये ये क्षेत्र आदर्श स्थल बन गए और शीघ्र ही शत्रु दलों के बिखरे हुए संचार क्षेत्रों को सफलतापूर्वक नष्ट कर दिया गया।[4]

उत्तरी अफ़्रीका में इटली की सेनाओं ने प्रारंभ में बड़े-बड़े क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया और वहाँ के निवासियों को बुरी तरह कुचल दिया। यहाँ का जनमत इटली के विपरीत हो गया। अंग्रेज़ों ने इस भावना का लाभ उठाया और वहाँ के मूल वासियों की सहायता से सफलतापूर्वक छापामार युद्धों का संचार किया। इटली के फौजी दस्तों की संचार व्यवस्था, हवाई अड्डे, पेट्रोल, गोला बारूद के भंडार, मोटर यातायात आदि बेंगाजी से मिस्त्र की सीमा तक फैले हुए थे। उपयुक्त शस्त्रों से सज्जित पैदल सेना या जीपें इन छापामार सैनिकों के लिये विशेष उपयुक्त थीं। छापामार शत्रु दल के लक्ष्यों पर रात्रि में आक्रमण करते थे।

सन 1941 के वसंत में जर्मनों ने यूगोस्लाविया पर अधिकार कर लिया। देश के अधिकृत होने के पश्चात्‌ ही जोसिपव्राोज़ोविक[5] की अध्यक्षता में वहाँ के लोगों ने एक छापामार दल बनाया, जो शत्रु सेना के विरुद्ध कार्य करता था। शस्त्रों की आवश्यकता की पूर्ति वहाँ की जनता से या शत्रुदल से छीने हुए शस्त्रों से होती थी। जर्मनी और इटली की सैनिक टुकड़ियों ओर उनके अड्डों पर आक्रमण करके इन्होंने युद्ध का सामान प्राप्त किया। सफलता के साथ-साथ इनकी संख्या में भी वृद्धि हुई। सन 1943 ई. के अंत तक यह संख्या लगभग 1,50,000 हो गई। यह शक्ति युगोस्लाविया भर में फैली हुई थी और विशेष रूप से जंगलों और पहाड़ों में स्थित थी। संचार व्यवस्था, जहाँ तक संभव हो सकता था, शत्रु दल से छीने गए रेडियो सेटों से चलती थी। यूगोस्लाविया के इस दल का उद्देश्य शत्रु के उन संपन्न लक्ष्यों पर आक्रमण करना था, जो दुर्बल थे और जहाँ आक्रमण होने की सबसे कम अपेक्षा की जाती थी। इसके अतिरिक्त किसी भी अवस्था में वे ऐसा अवसर नहीं देना चाहते थे कि शत्रु उन पर प्रत्याक्रमण कर सकें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. guerrilla
  2. Tse ayo
  3. Caractacur
  4. 4.0 4.1 4.2 गोरिल्ला युद्ध (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 06 जुलाई, 2014।
  5. टिटो

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