"प्रयोग:सिद्धार्थ" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
[[चित्र:Pindadaan-2.jpg|thumb|250px|[[श्राद्ध]] के समय पिण्डदान करते श्रद्धालु]]
+
{{सूचना बक्सा राजनीतिज्ञ
====श्राद्ध के प्रकार====
+
|चित्र=Najma-Heptullah.jpg
श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं-
+
|चित्र का नाम=नजमा हेपतुल्ला
*नित्य-  यह श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की [[तिथि]] पर किया जाता है।
+
|पूरा नाम=नजमा हेपतुल्ला
*नैमित्तिक- किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, जैसे - पुत्र जन्म पर मृतक को याद कर किया जाता है।
+
|अन्य नाम=
*काम्य-  यह श्राद्ध किसी विशेष मनौती के लिए [[कृत्तिका नक्षत्र|कृत्तिका ]] या [[रोहिणी नक्षत्र]] में किया जाता है।
+
|जन्म=[[13 अप्रैल]], [[1940]]
====श्राद्ध क्यों अनुपयोगी====
+
|जन्म भूमि=[[भोपाल]], [[मध्य प्रदेश]]
नन्द पंण्डित कृत 'श्राद्धकल्प' (लगभग 1600 ई.) ने विरोधियों (जिन्हें वे नास्तिक कहते हैं) को विस्तृत प्रत्युत्तर दिया है। विरोधियों का कथन है कि [[पिता]] आदि के लिए, जो अपने विशिष्ट कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक को जाते हैं या अन्य प्रकार का जीवन धारण करते हैं, श्राद्ध सम्पादन कोई अर्थ नहीं रखता। नन्द पंण्डित ने पूछा है – 'श्राद्ध क्यों अनुपयोगी है?' क्या इसीलिए कि इसके सम्पादन की अपरिहार्यता के लिए कोई व्यवस्थित विधान नहीं है? या इसीलिए कि श्राद्ध से फलों की प्राप्ति नहीं होती? या इसीलिए कि यह सिद्ध नहीं हुआ है कि पितृगण श्राद्ध से संतुष्टि पाते हैं? प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि 'विज्ञ लोगों को पूरी शक्ति भर श्राद्ध अवश्य करना चाहिए'– ऐसे वचन हैं जो श्राद्ध की अनिवार्यता घोषित करते हैं। इसी प्रकार से दूसरा विरोध भी अनुचित है, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति (1|269</ref> ने श्राद्ध के फल भी घोषित किये हैं, यथा दीर्घ जीवन आदि। इसी प्रकार तीसरा विकल्प भी स्वीकार करने योग्य नहीं है।
+
|मृत्यु=
[[चित्र:Shraddh-2.jpg|thumb|250px|[[ब्राह्मण]]]]
+
|मृत्यु स्थान=
 +
|मृत्यु कारण=
 +
|अभिभावक=
 +
|पति/पत्नी=अकबर अली ए. हेपतुल्ला
 +
|संतान=तीन बेटियाँ
 +
|स्मारक=  
 +
|क़ब्र=  
 +
|नागरिकता=भारतीय
 +
|प्रसिद्धि=राजनीतिज्ञ और लेखिका
 +
|पार्टी=[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] और '[[भारतीय जनता पार्टी]]'(वर्तमान)
 +
|पद=वर्तमान- कैबिनेट मंत्री (अल्पसंख्यक मंत्रालय)
 +
|भाषा=[[हिंदी]]
 +
|जेल यात्रा=
 +
|कार्य काल=
 +
|विद्यालय=
 +
|शिक्षा=एमएससी, हृदय रोग विज्ञान में पीएचडी
 +
|पुरस्कार-उपाधि=
 +
|विशेष योगदान=
 +
|संबंधित लेख=
 +
|शीर्षक 1=
 +
|पाठ 1=
 +
|शीर्षक 2=
 +
|पाठ 2=
 +
|अन्य जानकारी=
 +
|बाहरी कड़ियाँ=
 +
|अद्यतन=
 +
}}
 +
'''डॉ. नजमा हेपतुल्ला''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Najma Heptulla'', जन्म- [[13 अप्रैल]], [[1940]], [[भोपाल]], [[मध्य प्रदेश]]) सौम्य, मृदुल एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली डॉ. हेपतुल्ला भारतीय राजनीति में उन चंद महिला राजनीतिज्ञों में से हैं जिन्होंने योग्यता के बल पर अपना एक मुकाम बनाया है। 74 वर्षीय नजमा हेपतुल्ला, मोदी मंत्रिमंडल में सब से अधिक उम्र की और एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्या हैं, उन्हें अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री बनाया गया है।
  
====भाद्रपद में ही श्राद्ध क्यों====
+
==जन्म तथा शिक्षा==
हमारा एक [[माह]] [[चंद्रमा]] का एक अहोरात्र होता है। इसीलिए ऊर्ध्व भाग पर रह रहे पितरों के लिए [[कृष्ण पक्ष]] उत्तम होता है। [[कृष्ण पक्ष]] की [[अष्टमी]] को उनके दिनों का उदय होता है। [[अमावस्या]] उनका मध्याह्न है तथा [[शुक्ल पक्ष]] की अष्टमी अंतिम [[दिवस|दिन]] होता है। धार्मिक मान्यता है कि अमावस्या को किया गया श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान उन्हें संतुष्टि व ऊर्जा प्रदान करते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार [[पृथ्वी]] लोक में [[देवता]] उत्तर गोल में विचरण करते हैं और दक्षिण गोल [[भाद्रपद]] मास की [[पूर्णिमा]] को चंद्रलोक के साथ-साथ [[पृथ्वी]] के नज़दीक से गुजरता है। इस [[मास]] की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे [[वर्ष]] भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाज़े पर पहुँच जाते है और वहाँ अपना सम्मान पाकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी नई पीढ़ी को आर्शीवाद देकर चले जाते हैं। ऐसा वर्णन 'श्राद्ध मीमांसा' में मिलता है। इस तरह पितृ ॠण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध काल में पितरों का तर्पण और पूजन किया जाता है। [[भारतीय संस्कृति]] एवं समाज में अपने पूर्वजों एवं दिवंगत माता-पिता के स्मरण श्राद्ध पक्ष में करके उनके प्रति असीम श्रद्धा के साथ [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]], [[पिंडदान]], [[यक्ष]] तथा [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के लिए भोजन का प्रावधान किया गया है। [[पितर|पितरों]] के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा [[पितृ पक्ष]] में। जिस मास और तिथि को पितृ की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उनका दाह संस्कार हुआ है, [[वर्ष]] में उम्र उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है।  
+
13 अप्रैल 1940 को मध्यप्रदेश के भोपाल मे जन्मी डॉ. हेपतुल्ला को राजनीति बिरासत में मिली है। रिश्ते में मौलाना अबुल कलाम आजाद की नातिन हेपतुल्ला ने एमएससी करने के बाद हृदय रोग विज्ञान में पीएचडी प्राप्त की पर राजनीति में दिलचस्पी के कारण वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी रहीं और जमीनी स्तर पर काम करती रहीं।
 +
==राजनैतिक जीवन==
 +
मुंबई प्रदेश कांग्रेस कमेटी की महासचिव और उपाध्यक्ष रहीं हेपतुल्ला 1980 से राज्यसभा की सदस्य हैं। वह 1985 से 1986 तथा 1988 से जुलाई 2007 तक राज्यसभा की उपसभापति रहीं इस दौरान उन्होंने सदन की कार्यवाही का कुशल संचालन किया और वह सत्तापक्ष तथा विपक्ष में भी लोकप्रिय बनी रहीं। लेकिन श्रीमती सोनिया गाँधी से उनके रिश्तों में आई खटास के बाद वह भाजपा में शामिल हो गई। इस समय वह राज्यसभा में भाजपा की सांसद है।
  
एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिण्ड का दान और एक [[ब्राह्मण]] को भोजन कराया जाता है। यदि किसी को अपने पूर्वजों की मृत्यु की तिथियाँ याद नहीं है, तो वह [[अमावस्या]] के दिन ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का विधि-विधान से पिंडदान तर्पण, श्राद्ध कर सकता है। इस दिन किया गया तर्पण करके 15 [[दिन]] के बराबर का पुण्य फल मिलता है और [[परिवार|घर परिवार]], व्यवसाय तथा आजीविका में विशेष उन्नति होती है। यदि [[परिवार]] के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई है, तो पितृदोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्मशांति के लिए किसी पवित्र [[तीर्थ]] स्थान पर श्राद्ध करना चाहिए। सामर्थ्यनुसार किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ ब्राह्मण से [[भागवत पुराण|श्रीमद्‌ भागवत पुराण]] की कथा अपने पितरों की आत्मशांति के लिए करवा सकते हैं। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश वृद्धि में रुकावट, आकस्मिक बीमारी, धन से बरकत न होना सारी सुख सुविधाओं के होते भी मन असंतुष्ट रहना आदि परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है।
+
तीन बेटियों की माँ और सफल वैवाहिक जीवन बिता रही डॉ. हेपतुल्ला भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की अध्यक्ष भी रहीं। सन 2002 में उन्हें उपराष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस का उम्मीदवार बनाए जाने की भी चर्चा चली, पर वह उम्मीदवार नहीं बनाई गईं। उसके बाद वह कांग्रेस के भीतर असंतुष्ट रहने लगी और धीरे-धीरे राजग के निकट आने लगीं।
====मातामह श्राद्ध====
 
[[चित्र:Shraddh-3.jpg|thumb|250px|श्रद्धालु]]
 
{{Main|मातामह श्राद्ध}}
 
*मातामह श्राद्ध अपने आप में एक ऐसा श्राद्ध है जो एक [[पुत्री]] द्वारा अपने [[पिता]] को व एक नाती द्वारा अपने [[नाना]] को तर्पण किया जाता है।
 
*इस श्राद्ध को सुख शांति का प्रतीक माना जाता है क्योंकि यह श्राद्ध करने के लिए कुछ आवश्यक शर्तें है अगर वो पूरी न हो तो यह श्राद्ध नहीं निकाला जाता।
 
*शर्त यह है कि मातामह श्राद्ध उसी औरत के पिता का निकाला जाता है जिसका पति व पुत्र ज़िन्दा हो अगर ऐसा नहीं है और दोनों में से किसी एक का निधन हो चुका है या है ही नहीं तो मातामह श्राद्ध का तर्पण नहीं किया जाता।
 
====श्राद्ध में कुश और तिल का महत्त्व====
 
दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि कुश और [[तिल]] दोनों [[विष्णु]] के शरीर से निकले हैं। [[गरुड़ पुराण]] के अनुसार, तीनों [[देवता]] [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]], [[महेश]] कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। मान्यता है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाये तो दुष्टात्मायें [[हवि]] को ग्रहण कर लेती हैं।<ref name="LH"/>
 
====कम ख़र्च में श्राद्ध====
 
[[विष्णु पुराण]] के अनुसार दरिद्र व्यक्ति केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी ना हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर [[ब्राह्मण]] को देना चाहिए या किसी [[गाय]] को दिन भर घास खिला देनी चाहिए अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और [[सूर्य देवता|सूर्य]] से याचना करनी चाहिए कि हे! प्रभु मैंने हाथ [[वायु देव|वायु]] में फैला दिये हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।
 
====कौओं का महत्त्व====
 
[[चित्र:Crow.jpg|thumb|[[कौआ]]|250px]]
 
ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति मर कर सबसे पहले [[कौए]] का जन्म लेता है और ऐसी मान्यता है कि कौओं को खाना खिलाने से पितरों को खाना मिलता है। इसी कारण श्राद्ध पक्ष में कौओं का विशेष महत्त्व है और प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म कर रहा है वह एक थाली में सारा खाना परोसकर अपने घर की छत पर जाता है और ज़ोर ज़ोर से 'कोबस कोबस' कहते हुए कौओं को आवाज़ देता है। थोड़ी देर बाद जब कोई कौआ आ जाता है तो उसको वह खाना परोसा जाता है। पास में पानी से भरा पात्र भी रखा जाता है। जब कौआ घर की छत पर खाना खाने के लिए आता है तो यह माना जाता है कि जिस पूर्वज का श्राद्ध है वह प्रसन्न है और खाना खाने आ गया है। कौए की देरी व आकर खाना न खाने पर माना जाता है कि वह पितर नाराज़ है और फिर उसको राजी करने के उपाय किए जाते हैं। इस दौरान हाथ जोड़कर किसी भी ग़लती के लिए माफ़ी माँग ली जाती है और फिर कौए को खाना खाने के लिए कहा जाता है। जब तक कौआ खाना नहीं खाता, व्यक्ति के मन को प्रसन्नता नहीं मिलती। इस तरह श्राद्ध पक्ष में कौओं की भी पौ बारह है।
 
==पिण्ड का अर्थ==
 
{{मुख्य|पिण्ड (श्राद्ध)}}
 
श्राद्ध-कर्म में पके हुए [[चावल]], [[दूध]] और [[तिल]] को मिश्रित करके पिण्ड बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।
 
  
==श्राद्ध के नियम==
+
सन 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा का दामन पकड़ लिया। वे जुलाई 2004 में दोबारा राज्यसभा के लिए भाजपा की टिकट पर चुनी गईं। वे भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य भी बनाई गईं।
{{Main|श्राद्ध के नियम}}
 
दैनिक पंच [[यज्ञ|यज्ञों]] में पितृ यज्ञ को ख़ास बताया गया है। इसमें तर्पण और समय-समय पर पिण्डदान भी सम्मिलित है। पूरे पितृपक्ष भर तर्पण आदि करना चाहिए। इस दौरान कोई अन्य शुभ कार्य या नया कार्य अथवा पूजा-पाठ अनुष्ठान सम्बन्धी नया काम नहीं किया जाता। साथ ही श्राद्ध नियमों का विशेष पालन करना चाहिए। परन्तु नित्य कर्म तथा [[देवता|देवताओं]] की नित्य पूजा जो पहले से होती आ रही है, उसको बन्द नहीं करना चाहिए।
 
====अनुष्ठान का अर्थ====
 
अपने दिवंगत बुजुर्गों को हम दो प्रकार से याद करते हैं-
 
# स्थूल शरीर के रूप में
 
# भावनात्मक रूप से।
 
स्थूल शरीर तो मरने के बाद [[अग्नि]] को या जलप्रवाह को भेंट कर देते हैं, इसलिए श्राद्ध करते समय हम पितरों की स्मृति कर उनके भावनात्मक शरीर की पूजा करते हैं ताकि वे तृप्त हों और हमें सपरिवार अपना स्नेहपूर्ण आर्शीवाद दें। 
 
  
====श्राद्ध में खीर-पूरी का महत्त्व====
+
राजनीतिक गलियारों में यह कहा जाता रहा है कि अगर डॉ. हेपतुल्ला कांग्रेस में होती तो वे अपनी योग्यता के आधार पर उपराष्ट्रपति पद के लिए स्वाभाविक उम्मीदवार होती। भाजपा में शामिल होने के बाद यह भी माना जाने लगा था कि उपराष्ट्रपति पद के लिए वही पार्टी की स्वाभाविक प्रत्याशी होंगी।
श्राद्ध के दौरान पंडितों को खीर-पूरी खिलाने का महत्त्व होता है। माना जाता है कि इससे स्वर्गीय पूर्वजों की आत्मा तृप्त होती है। पुरुष के श्राद्ध में [[ब्राह्मण]] को तथा स्त्री के श्राद्ध में ब्राह्मण महिला को भोजन कराया जाता है। लोग अपनी श्रद्धा अनुसार खीर-पूरी तथा सब्जियाँ बनाकर उन्हें भोजन कराते हैं तथा बाद में वस्त्र व दक्षिणा देकर व पान खिलाकर विदा करते हैं। सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर अपने पूर्वज का चित्र रखकर पंडित नियमपूर्वक पूजा व संकल्प कराते हैं। इस दिन बिना प्याज व लहसुन का भोजन तैयार किया जाता है। बाद में पंडित व पंडिताइन के श्रद्धापूर्वक पैर छूकर उन्हें भोजन कराते हैं। भोजन में खीर-पूरी व पनीर, सीताफल, [[अदरक]] व [[मूली]] का लच्छा तैयार किया जाता है। उड़द की दाल के बड़े बनाकर [[दही]] में डाले जाते हैं। पंडित सर्वप्रथम [[गाय]] का नैवेद्य निकलवाते हैं। इसके अलावा कौओं व चिड़िया, कुत्ते के लिए भी ग्रास निकालते हैं। [[पितृ विसर्जन अमावस्या|पितृ अमावस्या]] को आख़िरी श्राद्ध करके पितृ विसर्जन किया जाता है तथा पितरों को विदा किया जाता है। कई जगहों पर [[अमावस्या]] के दिन पंडित बहुत कम मिलते हैं क्योंकि एक धारणा यह है कि श्राद्ध का भोजन या तो कुल पंडित या किसी ख़ास ब्राह्मण को कराया जाता है। कई जगह व्यस्त होने के चलते भी पंडितों की कमी रहती है। मान्यता है कि ब्राह्मणों को खीर-पूरी खिलाने से पितृ तृप्त होते हैं। यही वजह है कि इस दिन खीर-पूरी ही बनाई जाती है। <ref>{{cite web |url=http://gitakibooli.blogspot.com/2010/09/blog-post_23.html |title=श्राद्ध |accessmonthday=3 अक्टूबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
 
  
==श्राद्ध-कर्म की संक्षिप्त विधि==
+
74 वर्षीय नजमा हेपतुल्ला, मोदी मंत्रिमंडल में सब से अधिक उम्र की और एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्या हैं, उन्हें अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री बनाया गया है। नजमा हेपतुल्ला ने मुंबई प्रदेश कांग्रेस कमेटी की महासचिव के तौर पर अपना राष्ट्रीय जीवन शुरू किया. बाद में उपाध्यक्ष का दायित्व भी निभाया. वे 1985 से 1986  और 1988 से 2007 तक राज्यसभा की उपसभापति भी रहीं. इस दौरान उन्होंने सदन की कार्यवाही का कुशल संचालन किया और सत्ता पक्ष तथा विपक्ष में भी लोकप्रिय बनीं।
[[चित्र:Shradha.jpg|thumb|250px|पिण्डदान करते श्रद्धालु]]
 
{{Main|श्राद्ध विधि (संक्षिप्त)}}
 
*श्राद्ध दिवस से पूर्व दिवस को बुद्धिमान पुरुष श्रोत्रिय आदि से विहित ब्राह्मणों को 'पितृ-श्राद्ध' तथा ‘वैश्व-देव-श्राद्ध’ के लिए निमंत्रित करें।
 
*पितृ-श्राद्ध के लिए सामर्थ्यानुसार अयुग्म तथा वैश्व-देव-श्राद्ध के लिए युग्म ब्राह्मणों को निमंत्रित करना चाहिए।
 
*निमंत्रित तथा निमंत्रक क्रोध, स्त्रीगमन तथा परिश्रम आदि से दूर रहे।
 
====प्राचीन प्रथा====
 
प्रतीत होता है कि श्राद्ध द्वारा पूजा-अर्चना प्राचीन प्रथा है और पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन हैं और [[हिन्दू धर्म]] ने, जो कि व्यापक है (अर्थात् अपने में सभी को समेट लेता है) पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्त ग्रहण करते हुए भी श्राद्धों की परम्परा को ज्यों का त्यों रख लिया है। इससे व्यक्ति अपने उन पूर्वजों का स्मरण कर लेता है जो जीवितावस्था में अपने प्रिय थे। [[आर्यसमाज]] श्राद्ध प्रथा का विरोध करता है और [[ऋग्वेद]] में उल्लिखित पितरों को वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले जीवित लोगों के अर्थ में लेता है। यह ज्ञातव्य है कि वैदिक उक्तियाँ दोनों सिद्धान्तों का पालन करती है। [[शतपथ ब्राह्मण]] ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यज्ञकर्ता के पिता को दिया गया भोजन इन शब्दों में कहा जाता है–'यह तुम्हारे लिये है'। [[विष्णु पुराण]]<ref>विष्णु पुराण (75|4</ref> में आया है–'वह, जिसका पिता मृत हो गया हो, अपने पिता के लिए पिण्ड रख सकता है।' मनु स्मृति<ref>मनु स्मृति(3|284</ref> ने कहा है कि पिता वसु, पितामह [[रुद्र]] एवं [[आदित्य देवता|आदित्य]] कहे गये हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति (1|269</ref> ने यह व्यवस्था दी है कि वसु, रुद्र एवं आदित्य पित हैं और श्राद्ध के अधिष्ठाता देवता हैं। इस अन्तिम कथन का उद्देश्य है कि पितरों का ध्यान वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में करना चाहिए।
 
  
====ग्रन्थों के अनुसार====
+
13 अप्रैल 1940 को मध्य प्रदेश के भोपाल में जन्मीं डा. हेपतुल्ला को राजनीति विरासत में मिली है. रिश्ते में मोहम्मद अबुल कलाम आजाद की नातिन, नजमा ने एम.एससी. करने के बाद यूनिवर्सिटी औफ डेनवर से हृदय रोग विज्ञान में पी.एचडी. प्राप्त की पर राजनीति में दिलचस्पी के कारण वे इसी में सक्रिय हो गईं।
पितरों की कल्पित, कल्याणकारी एवं हानिप्रद शक्ति पर ही आदिम अवस्था के लोगों में पूर्वज-पूजा की प्रथा महत्ता को प्राप्त हुई। ऐसा समझा जाता था कि पितर लोग जीवित लोगों को लाभ एवं हानि दोनों दे सकते हैं। आरम्भिक काल में पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए जो आहुतियाँ दी जाती थीं अथवा जो उत्सव किये जाते थे, वे कालान्तर में श्रद्धा एवं स्मरण के चिह्नों के रूप में प्रचलित हो गये हैं। प्राक्-वैदिक साहित्य में पितरों के विषय में कतिपय विश्वास प्रकट किये गये हैं।<ref><poem>वयसा पिण्डं दद्यात्। वयसां हि पितर: प्रतिमया चरन्तीति विज्ञायते। [[बौधायन धर्मसूत्र]] (2|8|14);
 
न च पश्यत काकादीन् पक्षिणस्तु न वारयेत्। तद्रूपा पितरस्तत्र समायान्ति बुभुत्सव:।।
 
औशनस; न चात्र श्येनाकाकादीन् पक्षिण: प्रतिषेधयेत्। तद्रूपा पितरस्तत्र समायान्तीति वैदिकम्।।
 
देवल (कल्पतरु, श्राद्ध, पृष्ठ 17)।</poem></ref> बौधायन धर्मसूत्र<ref>बौधायन धर्मसूत्र (2|8|14</ref> ने एक [[ब्राह्मण ग्रन्थ]] से निष्कर्ष निकाला है कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण करते हैं। यही बात औशनसस्मृति एवं देवल (कल्पतरु) ने भी कही है। वायु पुराण<ref>वायु पुराण (75|13-15=उत्तरार्ध 13|13-15</ref> में ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग (आमंत्रित) ब्राह्मणों में वायु रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों, अन्नों, प्रदानों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों, ग्रामों आदि से सम्पूजित होते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं।<ref><poem>श्राद्धकाले तु सततं वायुभूता: पितामहा:। आविशन्ति द्विजान् दृष्टवा तस्मादेतद् ब्रवीमि ते।।
 
वस्त्रैरन्नै: प्रदानैस्तैर्भक्ष्यपेयैस्तथैव च। गोभिरश्वैस्तथा ग्रामै: पूजयित्वा द्विजोत्तमान।।
 
भवन्ति पितर: प्रीता: पूजितेषु द्विजातिषु। तस्मादन्नेन विधिवत् पूजयेद् द्विजसत्तमान्।। वायृ. (75|13-15);
 
ब्राह्मणांस्ते समायान्ति पितरो ह्यन्तरिक्षगा:। वायुभूताश्च विष्ठन्ति भुक्त्वा यान्ति परां गतिम्।। औशनसस्मृति।</poem></ref> मनु<ref>मनु (3219</ref> एवं औशनस-स्मृति इस स्थापना का अनुमोदन करते हैं कि पितर लोग आमंत्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं। मत्स्यपुराण<ref>[[मत्स्यपुराण]] (18|5-7</ref> ने व्यवस्था दी है कि मृत्यु के उपरान्त को पितर को 12 दिनों तक पिण्ड देने चाहिए, क्योंकि वे उसकी यात्रा में भोजन का कार्य करते हैं और उसे संतोष देते हैं। अत: आत्मा मृत्यु के उपरान्त 12 दिनों तक अपने आवास को नहीं त्यागती। अत: 10 दिनों तक [[दूध]] (और [[जल]]) ऊपर टांग देना चाहिए। जिससे सभी यातनाएँ (मृत के कष्ट) दूर हो सकें और यात्रा की थकान मिट सके (मृतात्मा को निश्चित आवास स्वर्ग या यम के लोक में जाना पड़ता है)। [[विष्णु धर्मसूत्र]]<ref>विष्णु धर्मसूत्र (20|34-36</ref> में आया है–"मृतात्मा श्राद्ध में 'स्वधा' के साथ प्रदत्त भोजन का पितृलोक में रसास्वादन करता है; चाहे मृतात्मा (स्वर्ग में) देव के रूप में हो, या नरक में हो (यातनाओं के लोक में हो), या निम्न पशुओं की योनि में हो, या मानव रूप में हो, सम्बन्धियों के द्वारा श्राद्ध में प्रदत्त भोजन उसके पास पहुँचता है; जब श्राद्ध सम्पादित होता है तो मृतात्मा एवं श्राद्धकर्ता दोनों को तेज़ या सम्पत्ति या समृद्धि प्राप्त होती है।<ref><poem>पितृलोकगतश्चान्नं श्राद्धे भुंक्ते स्वधासमम्। पितृलोकगतस्यास्य प्रयच्छत।।
 
देवत्वे यातनास्थाने तिर्यग्योनी तथैव च। मानुष्ये च तथाप्नोति श्राद्धं दत्तं स्वबान्ध:।।
 
प्रेतस्य श्राद्धकर्तुश्च पुष्टि: श्राद्धे कृते ध्रुवम्। तस्माच्छाद्धं सदा कार्य शोकं त्यक्तवा निरर्थकम्।।
 
विष्णुधर्मसूत्र (20|34-36) और देखिए मार्कण्डेयपुराण (23|49-51)।</poem></ref>
 
====पाँच भाग====
 
[[चित्र:Pindadaan-2.jpg|thumb|250px|पिण्डदान करते श्रद्धालु]]
 
[[ब्रह्म पुराण]]<ref>ब्रह्म पुराण (220|2</ref> के मत से श्राद्ध का वर्णन पाँच भागों में किया जाना चाहिए। कैसे, कहाँ, कब, किसके द्वारा एवं किन सामग्रियों द्वारा। किन्तु इन पाँच प्रकारों के विषय में लिखने के पूर्व में हमें 'पितर' शब्द की अन्तर्निहित आदकालीन विचारधारा पर प्रकाश डाल लेना चाहिए। हमें यह देखना है कि अत्यन्त प्राचीन काल में (जहाँ तक हमें साहित्य प्रकाश मिल पाता है) इस शब्द के विषय में क्या दृष्टिकोण था और इसकी क्या महत्ता थी।
 
==देव-कृत्य एवं पितृ कृत्य==
 
[[चित्र:Pitra-Puja-shradh.jpg|thumb|250px|पूजा अर्चना करते श्रद्धालु]]
 
कौशिकसुत्र<ref>कौशिकसुत्र (1|9-23</ref> ने एक स्थल पर देव-कृत्यों एवं पितृ कृत्यों की विधि के अन्तर को बड़े सुन्दर ढंग से दिया है। देव-कृत्य करने वाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ-कृत्य करने वाला दायें कंधे एवं बायें हाथ के नीचे रखता है। देव-कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके आरम्भ किया जाता है किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता है। देव-कृत्य का उत्तर-पूर्व (या उत्तर या पूर्व) में अन्त किया जाता है और पितृ-कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है। पितरों के लिए एक कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम से कम तीन बार या शास्त्रानुकुल कई बार किया जाता है। [[प्रदक्षिणा]] करने में दक्षिण भाग देवों की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है। देवों को [[हवि]] या आहुतियाँ देते समय 'स्वाहा' एवं 'वषट्' शब्द उच्चारित होते हैं, किन्तु पितरों के लिए इस विषय में 'स्वधा' या 'नमस्कार' शब्द उच्चारित किया जाता है। पितरों के लिए दर्भ जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर। [[बौधायन श्रौतसूत्र]]<ref>बौधायन श्रौतसूत्र (2|2</ref> ने एक स्थल पर इनमें से कुछ का वर्णन किया है।<ref>प्रागपवर्गाण्युदगपवर्गाणि वा प्राडमुख: प्रदक्षिणं यज्ञोपवीती दैवानि कर्माणि करोति। दक्षिणा मुख: प्रसव्यं प्राचीनावीती पित्र्याणि। बौधायन श्रौतसूत्र (2|2</ref> स्वयं ॠग्वेद<ref>ऋग्वेद (10|14|3 'स्वाहयान्ये स्वधयान्ये मदन्ति'</ref> ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। [[शतपथब्राह्मण]]<ref>शतपथब्राह्मण (2|1|3|4 एवं 2|1|4|9</ref> ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है।
 
====देव एवं पितर की पृथक कोटियाँ====
 
यद्यपि देव एवं पितर पृथक कोटियों में रखे गये हैं, तथापि पितर लोग देवों की कुछ विशेषताओं को अपने में रखते हैं। [[ऋग्वेद]]<ref>ऋग्वेद (10|15|8</ref> ने कहा है कि पितर सोम पीते हैं। ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद (10|68|11</ref> में ऐसा कहा गया है कि पितरों ने [[आकाश]] को [[नक्षत्र|नक्षत्रों]] से सुशोभित किया (नक्षत्रेभि: पितरो द्यामपिंशन्) और अंधकार रात्रि में एवं प्रकाश दिन में रखा। पितरों को गुप्त प्रकाश प्राप्त करने वाले कहा गया है और उन्हें 'उषा' को उत्पन्न करने वाले द्योतित किया गया है।<ref>ऋग्वेद 7|76|3</ref> यहाँ पितरों को उच्चतम देवों की शक्तियों से समन्वित माना गया है। भाँति-भाँति के वरदानों की प्राप्ति के लिए पितरों को श्रद्धापूर्वक बुलाया गया है और उनका अनुग्रह कई प्रकार से प्राप्य कहा गया है।<ref>ऋग्वेद (10|14|6</ref> में पितरों से सुमति एवं सौमनस (अनुग्रह) प्राप्त करने की बात कही गयी है। उनसे कष्टरहित आनन्द देने<ref>ऋग्वेद 10|15|4</ref> एवं यजमान (यज्ञकर्ता) को एवं उसके पुत्र को सम्पत्ति देने के लिए प्रार्थना की गयी है।<ref>ऋग्वेद 10|15|7 एवं11</ref> [[ऋग्वेद]]<ref>ऋग्वेद (10|15|11</ref> एवं [[अथर्ववेद]]<ref>अथर्ववेद (18|3|14</ref> ने सम्पत्ति एवं शूर पुत्र देने को कहा है। अथर्ववेद<ref>अथर्ववेद (14|2|73</ref> ने कहा है–'वे पितर जो वधु को देखने के लिए एकत्र होते हैं, उसे सन्ततियुक्त आनन्द दें।' वाजसनेयी संहिता<ref>वाजसनेयी संहिता (2|33</ref> में प्रसिद्ध मंत्र यह है–"हे पितरो, (इस पत्नी के) गर्भ में (आगे चलकर) कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार (पूर्ण विकसित) हो जाए", जो इस समय कहा जाता है, जब कि श्राद्धकर्ता की पत्नी तीन पिण्डों में बीच का पिण्ड खा लेती है।<ref>आधत्त पितरो गर्भ कुमारं पुष्करस्रजम्। यथेह पुरुषोऽसत्।। वाज. सं. (2|33)। खादिरगृह्य. (3|5|30) ने व्यवस्था दी है–'मध्यमं पिण्डं पुत्रकामा प्राशयेदाधत्तेति'; और देखिए गोभिलगृह्य (4|3|27) एवं कौशिकसूत्र (89|6)। आश्वलायन श्रौतसूत्र (2|7|13) में आया है–'पत्नीं प्राशयेदाधत्त पितरो....स्रजम्।' अश्विनौ को पुष्करस्रजौ कहा गया है, अत: 'पुष्करस्रज' शब्द में भावना यह है की पुत्र लम्बी आयु वाला एवं सुन्दर हो। 'यथेह....असत्' को इस प्रकार व्याख्यायित किया गया है–'येन प्रकारेण इहैव क्षितौ पुरुषो देवपितृमनुष्याणमभीष्टपूरयिता भूपात् तथा गर्भमाधत्त।' देखिए हलायुध का ब्राह्मणसर्वस्व। कात्यायन श्रौतसूत्र (4|1|22) ने भी कहा है–'आधत्तेति मध्यमपिण्डं पत्नी प्राश्नाति पुत्रकामा।</ref>
 
====मूल एवं प्रकार====
 
[[वैदिक साहित्य]] के उपरान्त की रचना में, विशेषत: [[पुराण|पुराणों]] में पितरों के मूल एवं प्रकारों के विषय में विशद वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ, [[वायुपुराण]]<ref>वायुपुराण (56|18</ref> ने पितरों की तीन कोटियाँ बताई हैं; काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्। पुन: वायु पुराण<ref>वायुपुराण(अध्याय 73</ref> ने तथा [[वराह पुराण]]<ref>[[वराह पुराण]] (13|16</ref>, [[पद्म पुराण]]<ref>पद्म पुराण (सृष्टि 9|2-4</ref> एवं ब्रह्मण्ड पुराण<ref>ब्रह्मण्ड पुराण (3|10|1</ref> ने सात प्रकार के पितरों के मूल पर प्रकाश डाला है, जो कि स्वर्ग में रहते हैं, जिनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान्। शतातपस्मृति<ref>शतातपस्मृति (6|5|6</ref> ने 12 पितरों के नाम दिये हैं; पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा:।
 
====भय-तत्त्व====
 
इन शब्दों से यह नहीं समझना चाहिए कि पितरों के प्रति लोगों में भय-तत्त्व का सर्वथा अभाव था।<ref>मिलाइए वुलियामीकृत 'इम्मॉर्टल मैन' (पृष्ठ 24-25), जहाँ आदिम अवस्था एवं सुसंस्कृत काल के लोगों के मृतक सम्बन्धी भय स्नेह के भावों के विषय में प्रकाश डाला गया है।</ref> उदाहरणार्थ ॠग्वेद<ref>ऋग्वेद (10|15|6</ref> में आया है–'(त्रुटि करने वाले) मनुष्य होने के नाते यदि हम आप के प्रति कोई अपराध करें तो हमें उसके लिए दण्डित न करें।' ॠग्वेद<ref>ऋग्वेद (3|55|2</ref> में हम पढ़ते हैं–"वे देव एवं प्राचीन पितर, जो इस स्थल (गौओं या मार्ग) को जानते हैं, हमें यहाँ हानि न पहुँचायें।" ॠग्वेद<ref>ऋग्वेद (10|66214</ref> में ऐसा आया है कि–'वसिष्ठों ने देवों की स्तुति करते हुए पितरों एवं ऋषियों के सदृश वाणी (मंत्र) परिमार्जित की या गढ़ी।" यहाँ पितृ एवं ऋषि दो पृथक कोटियाँ हैं और वसिष्ठों की तुलना दोनों से की गई है।<ref><poem>देवा: सौम्याश्च काव्याश्च अयज्वानो ह्ययोनिजा:।
 
देवास्ते पितर: सर्वे देवास्तान्वादयन्त्युत।।
 
मनुष्यपित रश्चैव तेभ्योऽन्ये लौकिका: स्मृता:।
 
पिता पितामहश्चैव तथा य: प्रपितामह:।। [[ब्रह्माण्ड पुराण]] (2|28|70-71);
 
अंगीराश्च ऋतुश्चैव कश्यपश्च महानृषि:।
 
एते कुरुकुलश्रेष्ठ महायेगेश्वरा: स्मृता।।
 
एते च पितरो राजन्नेष श्राद्धविधि: पर:।
 
प्रेतास्तु पिण्डसम्बन्धान्मुच्यन्ते तेन कर्मणा। [[अनुशासन पर्व महाभारत|अनुशासनपर्व]] (92|21-22)।
 
इस उद्धरण से प्रकट होता है कि अंगिरा, ऋतु एवं कश्यप पितर हैं, जिन्हें जल दिया जाता है (पिण्ड नहीं), किन्तु समीपवर्ती मृत पूर्वजों को पिण्ड दिये जाते हैं।</poem></ref>
 
====आवाहन====
 
[[वैदिक साहित्य]] की बहुत सी उक्तियों में पितर शब्द व्यक्ति के समीपवर्ती, मृत पुरुष पूर्वजों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अत: तीन पीढ़ियों तक वे (पूर्वजों को) नाम से विशिष्ट रूप से व्यंजित करते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत से पितर हैं, जिन्हें आहुति दी जाती है।'<ref>[[तैत्तिरीय ब्राह्मण]] 1|6|9|5</ref> [[शतपथ ब्राह्मण]]<ref>शतपथ ब्राह्मण (2|4|2|19</ref> ने पिता, पितामह एवं प्रपितामह को पुरोडाश (रोटी) देते समय के सूक्तों का उल्लेख किया है और कहा है कि कर्ता इन शब्दों को कहता है–"हे पितर लोग, यहाँ आकर आनन्द लो, बैलों के समान अपने-अपने भाग पर स्वयं आओ'।<ref>वाज. सं. 2|31, प्रथम पाद</ref> कुछ<ref>तैत्तिरीय संहिता 1|8|5|1</ref> ने यह सूक्त दिया है–"यह (भात का पिण्ड) तुम्हारे लिये और उनके लिये है जो तुम्हारे पीछे आते हैं।" किन्तु शतपथ ब्राह्मण ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि यह सूक्त नहीं करना चाहिए, प्रत्युत यह विधि अपनानी चाहिए–"यहाँ यह तुम्हारे लिये है।" [[शतपथ ब्राह्मण|शतपथब्राह्मण]]<ref>शतपथब्राह्मण (12|8|1|7</ref> में तीन पूर्व पुरुषों को स्वधाप्रेमी कहा गया है। इन वैदिक उक्तियों एवं मनु<ref>मनु (3|221</ref> तथा [[विष्णु पुराण]]<ref>[[विष्णु पुराण]] (21|3 एवं 75|4</ref> की इस व्यवस्था पर कि नाम एवं गोत्र बोलकर ही पितरों का आवाहन करना चाहिए, निर्भर रहते हुए श्राद्धप्रकाश<ref>पृष्ठ 12</ref> ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पिता एवं अन्य पूर्वजों को ही श्राद्ध का देवता कहा जाता है, न कि वसु, रुद्र एवं आदित्य को, क्योंकि इनके गोत्र नहीं होते और पिता आदि वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में कवल ध्यान के लिए वर्णित हैं। श्राद्धप्रकाश<ref>श्राद्धप्रकाश (पृष्ठ 204</ref> [[ब्रह्म पुराण]] ने इस कथन, जो यह व्यवस्था देता है कि कर्ता को ब्राह्मणों से यह कहना चाहिए की मैं कृत्यों के लिए पितरों को बुलाऊँगा और जब ब्राह्मण ऐसी अनुमति दे देते हैं, तो उसे वैसा करना चाहिए, (अर्थात् पितरों का आहावान करना चाहिए), यह निर्देश देता है कि यहाँ पर पितरों का तात्पर्य है देवों से, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों से तथा मानवों से, यथा–कर्ता के पिता एवं अन्यों से। [[वायु पुराण]]<ref>वायु पुराण (56|65-66</ref>, [[ब्रह्माण्ड पुराण]] एवं अनुशासन पर्व ने उपर्युक्त पितरों एवं लौकिक पितरों ([[पिता]], पितामह एवं प्रपितामह) में अन्दर दर्शाया हैं।<ref>देखिए वायु पुराण (70|34), यहाँ पितर लोग देवता कहे गये हैं।</ref>
 
====तपर्ण====
 
[[चित्र:Pitra-paksh-Shradh.jpg|thumb|250px|पूजा अर्चना करते श्रद्धालु]]
 
{{मुख्य|तर्पण (श्राद्ध)}}
 
आवाहन, पूजन, नमस्कार के उपरान्त तर्पण किया जाता है। [[जल]] में [[दूध]], [[जौ]], [[चावल]], [[चन्दन]] डाल कर तर्पण कार्य में प्रयुक्त करते हैं। मिल सके, तो [[गंगा जल]] भी डाल देना चाहिए। तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है। स्वगर्स्थ आत्माओं की तृप्ति किसी पदार्थ से, खाने-पहनने आदि की वस्तु से नहीं होती, क्योंकि स्थूल शरीर के लिए ही भौतिक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त होकर, केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है। सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी तृप्ति का विषय कोई, खाद्य पदार्थ या हाड़-मांस वाले शरीर के लिए उपयुक्त उपकरण नहीं हो सकते। सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है, इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से बना अन्तःकरण या वातावरण ही शान्तिदायक होता है।
 
  
==श्राद्ध की महत्ता==
+
राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ वे लेखिका भी हैं. उन्होंने ‘एड्स: ऐप्रोचेज टु प्रिवैंशन’ नाम की किताब भी लिखी है. इस के अलावा भी वे कई तरह के विषयों पर लिखती रही हैं।
{{Main|श्राद्ध की महत्ता}}
 
सूत्रकाल (लगभग ई. पू. 600) से लेकर [[मध्यकाल]] के धर्मशास्त्रकारों तक सभी लोगों ने श्राद्ध की महत्ता एवं उससे उत्पन्न कल्याण की प्रशंसा के पुल बाँध दिये हैं। [[आपस्तम्ब धर्मसूत्र]]<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2|7|16|1-3</ref> ने अधोलिखित सूचना दी है- 'पुराने काल में मनुष्य एवं देव इसी लोक में रहते थे। देव लोग यज्ञों के कारण (पुरस्कारस्वरूप) स्वर्ग चले गये, किन्तु मनुष्य यहीं पर रह गये। जो मनुष्य देवों के समान यज्ञ करते हैं वे परलोक (स्वर्ग) में देवों एवं [[ब्रह्मा]] के साथ निवास करते हैं। तब (मनुष्यों को पीछे रहते देखकर) मनु ने उस कृत्य को आरम्भ किया जिसे श्राद्ध की संज्ञा मिली है, जो मानव जाति को श्रेय (मुक्ति या आनन्द) की ओर ले जाता है। इस कृत्य में पितर लोग देवता (अधिष्ठाता) हैं, किन्तु ब्राह्मण लोग (जिन्हें भोजन दिया जाता है) आहवानीय अग्नि (जिसमें [[यज्ञ|यज्ञों]] के समय आहुतियाँ दी जाती हैं) के स्थान पर माने जाते हैं।"
 
====श्राद्ध की प्रशस्तियाँ====
 
श्राद्ध की प्रशस्तियों के कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। [[बौधायन धर्मसूत्र]]<ref>[[बौधायन धर्मसूत्र]] (2|8|1</ref> का कथन है कि पितरों के कृत्यों से दीर्घ आयु, स्वर्ग, यश एवं पुष्टिकर्म (समृद्धि) की प्राप्ति होती है। [[हरिवंश पुराण]]<ref>हरिवंश (1|21|1</ref> में आया है–श्राद्ध से यह लोक प्रतिष्ठित है और इससे योग (मोक्ष) का उदय होता है। सुमन्तु<ref>स्मृतिच., श्राद्ध, पृष्ठ 333</ref> का कथन है–श्राद्ध से बढ़कर श्रेयस्कर कुछ नहीं है।<ref>पित्र्यमायुष्यं स्वर्ग्य यशस्यं पुष्टकिर्म च। बौधायन धर्मसूत्र (2|8|1) श्राद्धे प्रतिष्ठितो लोक: श्राद्धे योग: प्रवर्तते।। हरिवंश (1|21|11)। श्राद्धत्परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाह्रतम्। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद्विचक्षण:।। सुमन्तु (स्मृतिच., श्राद्ध, 333)।</ref> [[वायुपुराण]]<ref>[[वायुपुराण]] (3|14|1-4</ref> का कथन है कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है तो वह [[ब्रह्मा]], [[इन्द्र]], [[रुद्र]] एवं अन्य देवों, ऋषियों, पक्षियों, मानवों, पशुओं, रेंगने वाले जीवों एवं पितरों के समुदाय तथा उन सभी को जो जीव कहे जाते हैं, एवं सम्पूर्ण विश्व को प्रसन्न करता है। यम ने कहा है कि पितृपूजन से आयु, पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि (समृद्धि), बल, श्री, पशु, सौख्य, धन, धान्य की प्राप्ति होती है।<ref>आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्ति पुष्टिं बलं श्रिय:। पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। यम (स्मृतिच., श्राद्ध, पृष्ठ 333 एवं श्राद्धसार पृष्ठ 5)। ऐसा ही श्लोक याज्ञ. (1|270, मार्कण्डपुराण 32|38) एवं शंख (14|33) में भी है। और देखिए याज्ञ. (1|270)।</ref> श्राद्धसार<ref>श्राद्धसार (पृष्ठ 6</ref> एवं श्राद्धप्रकाश<ref>श्राद्धप्रकाश (पृष्ठ 11-12</ref> द्वारा उदधृत विष्णुधर्मोत्तरपुराण में ऐसा कहा गया है कि प्रपितामह को दिया गया पिण्ड स्वयं वासुदेव घोषित है, पितामह को दिया गया पिण्ड संकर्षण तथा पिता को दिया गया पिण्ड प्रद्युम्न घोषित है और पिण्डकर्ता स्वयं अनिरुद्ध कहलाता है। [[शान्ति पर्व महाभारत|शान्तिपर्व]]<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत|शान्तिपर्व]] (345|21</ref> में कहा गया है कि विष्णु को तीनों पिण्डों में अवस्थित समझना चाहिए। [[कूर्म पुराण]] में आया है कि "अमावस्या के दिन पितर लोग वायव्य रूप धारण कर अपने पुराने निवास के द्वार पर आते हैं और देखते हैं कि उनके कुल के लोगों के द्वारा श्राद्ध किया जाता है कि नहीं। ऐसा वे सूर्यास्त तक देखते हैं। जब सूर्यास्त हो जाता है, वे भूख एवं प्यास से व्याकुल हो निराश हो जाते हैं, चिन्तित हो जाते हैं, बहुत देर तक दीर्घ श्वास छोड़ते हैं और अन्त में अपने वंशजों को कोसते (उनकी भर्त्सना करते हुए) चले जाते हैं। जो लोग [[अमावस्या]] को जल या शाक-भाजी से भी श्राद्ध नहीं करते उनके पितर उन्हें अभिशापित कर चले जाते हैं।"
 
====श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध====
 
'श्राद्ध' शब्द की व्युत्पत्ति पर भी कुछ लिख देना आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि यह शब्द "श्रद्धा" से बना है। [[ब्रह्मपुराण]] (उपर्युक्त उद्धृत), [[मरीचि]] एवं [[बृहस्पति]] की परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध है। श्राद्ध में श्राद्धकर्ता का यह अटल विश्वास रहता है कि मृत या पितरों के कल्याण के लिए ब्राह्मणों को जो कुछ भी दिया जाता है वह उसे या उन्हें किसी प्रकार अवश्य ही मिलता है। [[स्कन्द पुराण]]<ref>स्कन्दपुराण (6|218|3</ref> का कथन है कि 'श्राद्ध' नाम इसलिए पड़ा है कि उस कृत्य में श्रद्धा मूल (मूल स्रोत) है। इसका तात्पर्य यह है कि इसमें न केवल विश्वास है, प्रत्युत एक अटल धारणा है कि व्यक्ति को यह करना ही है। ॠग्वेद<ref>ऋग्वेद (10|151|1-5</ref> में श्रद्धा को देवत्व दिया गया है और वह देवता के समान ही सम्बोधित हैं।<ref>ऋग्वेद (2|26|3; 7|32|14; 8|1|31 एवं 9|113|4)।</ref> कुछ स्थलों पर श्रद्धा शब्द के दो भाग (श्रत् एवं धा) बिना किसी अर्थ परिवर्तन के पृथक्-पृथक् रखे गये हैं।<ref>ऋग्वेद (2|12|5), अथर्ववेद (20|34|5) एवं ऋ. (10|147|1=श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवे)।</ref> तैत्तिरीय संहिता<ref>तैत्तिरीय संहिता (7|4|1|1</ref> में आया है–"बृहस्पति ने इच्छा प्रकट की; देव मुझमें विश्वास (श्रद्धा) रखें, मैं उनके पुरोहित का पद प्राप्त करूँ।"<ref>ऋग्वेद (1|103|5)।</ref> निरुक्त<ref>निरुक्त (3|10</ref> में 'श्रत्' एवं 'श्रद्धा' का 'सत्य' के अर्थ में व्यक्त किया गया है। वाज. सं.<ref>वाज. सं. (19|77</ref> में कहा गया है कि प्रजापति ने 'श्रद्धा' को सत्य में और 'अश्रद्धा' को झूठ में रख दिया है, और वाज. सं.<ref>वाज. सं. (19|30</ref> में कहा गया है कि सत्य की प्राप्ति श्रद्धा से होती है।
 
वैदिकोत्तरकालीन साहित्य में [[पाणिनी]]<ref>पाणिनी (5|2|85</ref> ने 'श्राद्धिन्' एवं 'श्राद्धिक' को 'वह जिसने श्राद्ध भोजन कर लिया हो' के अर्थ में निश्चित किया गया है। 'श्राद्ध' शब्द 'श्रद्धा' से निकाला जा सकता है।<ref>पा. 5|1|109</ref> योगसूत्र<ref>योगसूत्र (1|20</ref> के भाष्य में 'श्रद्धा' शब्द कई प्रकार से परिभाषित है-'श्रद्धा चेत्तस: संप्रसाद:। सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति', अर्थात् श्रद्धा को मन का प्रसाद या अक्षोभ (स्थैर्य) कहा गया है। देवल ने श्रद्धा की परिभाषा यों की है-'प्रत्ययो धर्मकार्येषु तथा श्रद्धेत्युदाह्रता। नास्ति ह्यश्रद्धधानस्य धर्मकृत्ये प्रयोजनम्।।'<ref>कृत्यरत्नाकर, पृष्ठ 16 एवं श्राद्धतत्त्व, पृष्ठ 189</ref> अर्थात् धार्मिक कृत्यों में जो प्रत्यय (या विश्वास) होता है, वही श्रद्धा है, जिसे प्रत्यय नहीं है, उसे धार्मिक कर्म करने का प्रयोजन नहीं है। कात्यायन के श्राद्धसूत्र<ref>श्राद्धसूत्र (हेमाद्रि, पृष्ठ 152</ref> में व्यवस्था है- 'श्रद्धायुक्त व्यक्ति शाक से भी श्राद्ध करे (भले ही उसके पास अन्य भोज्य पदार्थ न हों)।' मनु<ref>मनु (3|275</ref> जहाँ पर पितरों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध पर बल दिया गया है। [[मार्कण्डेय पुराण]]<ref>मार्कण्डेय पुराण (29|27</ref> में श्राद्ध का सम्बन्ध श्रद्धा से घोषित किया गया है और कहा गया है कि श्राद्ध में जो कुछ भी दिया जाता है, वह पितरों के द्वारा प्रयुक्त होने वाले उस भोजन में परिवर्तित हो जाता है, जिसे वे कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार नये शरीर के रूप में पाते हैं। इस [[पुराण]] में यह भी आया है कि अनुचित एवं अन्यायपूर्ण ढंग से प्राप्त धन से जो श्राद्ध किया जाता है, वह चाण्डाल, पुक्कस तथा अन्य नीच योनियों में उत्पन्न लोगों की सन्तुष्टि का साधन होता है।<ref>श्रद्धया परया दत्तं पितृणां नामगोत्रत:। यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारत्वमेति तत्।। मार्कण्डेयपुराण (29|27); अन्यायोपार्जितैरर्थेर्यच्छ्राद्धं क्रियते नरै:। तृप्यन्ते तेन चाण्डालपुक्कसाद्यासु योनिषु।। मार्कण्डेय. (28|16) एवं स्कन्द. (7|1|205|22)।</ref>
 
====यज्ञ====
 
{{मुख्य|यज्ञ}}
 
हिन्दू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार प्रत्येक गृहस्थ [[हिन्दू]] को पाँच यज्ञों को अवश्य करना चाहिए-
 
# ब्रह्म-यज्ञ - प्रतिदिन अध्ययन और अध्यापन करना ही ब्रह्म-यज्ञ है।
 
# देव-यज्ञ - देवताओं की प्रसन्नता हेतु पूजन-हवन आदि करना।
 
# पितृ-यज्ञ - 'श्राद्ध' और 'तर्पण' करना ही पितृ-यज्ञ है।
 
# भूत-यज्ञ - 'बलि' और 'वैश्व देव' की प्रसन्नता हेतु जो पूजा की जाती है, उसे 'भूत-यज्ञ' कहते हैं।
 
# मनुष्य-यज्ञ - इसके अन्तर्गत 'अतिथि-सत्कार' आता है।
 
उक्त पाँचों यज्ञों को नित्य करने का निर्देश है।
 
==श्राद्ध की आहुति==
 
{{Main|श्राद्ध की आहुति}}
 
आहुतियों के विषय में भी मत मतान्तर हैं। [[काठक गृह्यसूत्र]]<ref>काठक गृह्यसूत्र (61|3</ref>, जैमिनिय गृह्यसूत्र<ref>जैमिनिय गृह्यसूत्र (2|3</ref> एवं शांखायन गृह्यसूत्र<ref>शांखायन गृह्यसूत्र (3|12|2</ref> ने कहा है कि तीन विभिन्न अष्टकाओं में सिद्ध (पके हुए) शाक, मांस एवं अपूप (पूआ या रोटी) की आहुतियाँ दी जाती हैं। किन्तु पार. गृह्यसूत्र<ref>पार. गृह्यसूत्र (3|3</ref> एवं खादिरगृह्यसूत्र<ref>खादिरगृह्यसूत्र (3|3|29-30</ref> ने प्रथम अष्टका के लिए अपूपों (पूओं) की<ref>इसी से गोभिलगृ. 3|10|9 ने इसे अपूपाष्टका कहा है</ref> एवं अन्तिम के लिए सिद्ध शाकों की व्यवस्था दी है। खादिरगृह्यसूत्र<ref>खादिरगृह्यसूत्र (3|4|1</ref> से गाय की बलि होती हैं आश्वलायन गृह्यसूत्र<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|4|7-10</ref>, गोभिलगृह्यसूत्र<ref>गोभिलगृह्यसूत्र (4|1|18-22</ref>, कौशिक<ref>कौशिक (138|2</ref> एवं बौधायन गृह्यसूत्र<ref>बौधायन गृह्यसूत्र (2|11|51|61</ref> के मत से इसके कई विकल्प भी हैं–गाय या भेंड़ या बकरे की बलि देना; सुलभ जंगली मांस या मुध-तिल युक्त मांस या गेंडा, हिरन, भैंसा, सूअर, शशक, चित्ती वाले हिरन, रोहित हिरन, [[कबूतर]] या तीतर, सारंग एवं अन्य पक्षियों का मांस या किसी बूढ़े लाल बकरे का मांस; मछलियाँ; दूघ में पका हुआ चावल (लपसी के समान), या बिना पके हुए अन्न या फल या मूल, या सोना भी दिया जा सकता है, अथवा गायों या साँड़ों के लिए केवल घास खिलायी जा सकती है। या वेदज्ञ को पानी रखने के लिए घड़े दिये जा सकते हैं, या 'यह मैं अष्टका का सम्पादन करता हूँ' ऐसा कहकर श्राद्धसम्बन्धी मंत्रों का उच्चारण किया जा सकता है।
 
====मृत पूर्वजों के कृत्य====
 
अति प्राचीन काल में मृत पूर्वजों के लिए केवल तीन कृत्य किये जाते थे:-
 
#पिण्डपितृयज्ञ (उनके द्वारा किया गया जो श्रौताग्नियों में यज्ञ करते थे) या मासिक श्राद्ध (उनके द्वारा जो श्रौताग्नियों में यज्ञ नहीं करते थे)<ref>देखिए आश्वलायन गृह्यसूत्र 2|5|10, हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र 2|10|17, आपस्तम्ब गृह्यसूत्र 8|21|1, विष्णुपुराण 3|14|3, आदि</ref>,
 
#महापितृयज्ञ एवं
 
#अष्टकाश्राद्ध।
 
प्रथम दो का वर्णन इस ग्रन्थ के खण्ड 2, अध्याय 30 एवं 31 में हो चुका है। अष्टका श्राद्धों के विषय में अभी तक कुछ नहीं बताया गया है। इनका विशिष्ट महत्त्व है, किन्तु इनके सम्पादन के दिनों एवं मासों, अधिष्ठाता देवों, आहुतियों एवं विधि के विषय में लेखकों में मतैक्य नहीं है।
 
  
[[गौतम]]<ref>गौतम. (8|19</ref> ने अष्टका को सात पाकयज्ञों एवं चालीस संस्कारों में परिगणित किया है। लगता है, 'अष्टका' [[पूर्णिमा]] के पश्चात् किसी मास की [[अष्टमी]] तिथि का द्योतक है।<ref>शतपथ ब्राह्मण 6|4|2|40</ref> शतपथ ब्राह्मण<ref>शतपथ ब्राह्मण (6|2|2|23</ref> में आया है–'पूर्णिमा के पश्चात् आठवें दिन वह (अग्निचयनकर्ता) अग्नि-स्थान (चुल्लि या चुल्ली, चूल्ही या चूल्हे) के लिए सामग्री एकत्र करता है, क्योंकि प्रजापति के लिए (पूर्णिमा के पश्चात्) अष्टमी पवित्र है और प्रजापति के लिए यह कृत्य पवित्र है।' जैमिनिय<ref>जैमिनिय (1|3|2</ref> के भाष्य में [[शबर]] ने [[अथर्ववेद]]<ref>अथर्ववेद (3|10|2</ref> एवं आपस्तम्ब मंत्र पाठ <ref>आपस्तम्ब (20|27</ref> में आये हुए मंत्र को अष्टका का द्योतक माना है। मंत्र यह है–'वह (अष्टका) रात्रि हमारे लिए मंगलकारी हो, जिसका लोग किसी की ओर आती हुई गौ के समान स्वागत करते हैं, और जो वर्ष की पत्नी है।'<ref>अष्टकालिंगाश्च मंत्रा वेदे दृश्यन्ते यां जना: प्रतिनन्दतीत्येवमादय:। शबर (जैमिनि. 1|3|2)। शबर ने इसे जैमिनि. (6|5|35) में इस प्रकार से पढ़ा है–'यां जना: प्रतिनन्दन्ति रात्रि धेनुमिवायतीम्। संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमंगली।।' और उन्होंने जोड़ दिया है–'अष्टकार्य सुराधसे स्वाहा'। अथर्ववेद (3|10|2) में 'जना:' के स्थान पर 'देवा:' एवं धेनुमिवायतीम्' के स्थान पर धेनुमुपायतीम् आया है।</ref> अथर्ववेद<ref>अथर्ववेद (3|10|8</ref> में संवत्सर को एकाष्टका का पति कहा गया है। तैत्तिरीय संहिता<ref>तैत्तिरीय संहिता (7|4|8|1</ref> में आया है कि 'जो लोग संवत्सर सत्र के लिए दीक्षा लेने वाले हैं उन्हें एकाष्टका के दिन दीक्षा लेनी चाहिए, जो एकाष्टका कहलाती है। वह वर्ष की पत्नी है।' जैमिनिय<ref>जैमिनिय (6|5|32-37</ref> ने एकाष्टका को माघ की पूर्णिमा के पश्चात् की अष्टमी कहा है। [[आपस्तम्बगृह्यसूत्र|आपस्तम्ब गृह्यसूत्र]]<ref>आपस्तम्ब गृह्यसूत्र (हरदत्त, गौतम. 8|19</ref> ने भी यही कहा है। किन्तु इतना जोड़ दिया है कि उस तिथि (अष्टमी) में चन्द्र ज्येष्ठा नक्षत्र में होता है।<ref>पाणिनि (7|3|85) के एक वार्तिक के अनुसार 'अष्टका' शब्द 'अष्टन' से बना है। पा. (7|3|45) का 9वाँ वार्तिक हमें बताता है कि 'अष्टन' से 'अष्टका' व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है कि वह कृत्य जिसके अधिष्ठाता देवता पितर लोग हैं, और 'अष्टिका' शब्द का अर्थ कुछ और है, यथा 'अष्टिका खारी'।</ref> इसकी अर्थ यह हुआ कि यदि अष्टमी दो दिनों की हो गयी तो वह दिन जब चन्द्र ज्येष्ठा में है, एकाष्टका कहलायेगा। हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र<ref>हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र (2|15|9</ref> ने भी एकाष्टका को वर्ष की पत्नी कहा है।'<ref>माघ की पूर्णिमा वर्ष का मुख कहलाती है। अर्थात् प्राचीन काल में उसी से वर्ष का आरम्भ माना जाता था। [[पूर्णिमा]] के पश्चात् अष्टका दिन पूर्णिमा के उपरान्त का प्रथम एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पर्व था और यह वर्षारम्भ (वर्ष आरम्भ होने) से छोटा माना जाता था। सम्भवत: इसी कारण यह वर्ष की पत्नी कहा गया है।</ref>
+
नजमा के पति अकबर अली ए. हेपतुल्ला का निधन हो चुका है. उनकी 3 बेटियां हैं, जो अमेरिका में हैं।
====अष्टका कृत्य====
 
{{Main|अष्टका कृत्य (श्राद्ध)}}
 
आश्वलायन गृह्यसूत्र<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|4|1</ref> के मत से अष्टका के दिन (अर्थात् कृत्य) चार थे, हेमन्त एवं शिशिर (अर्थात् [[मार्गशीर्ष]], [[पौष]], [[माघ]] एवं [[फाल्गुन]]) की दो [[ऋतु|ऋतुओं]] के चार मासों के [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण पक्षों]] की आठवीं तिथियाँ। अधिकांश में सभी गृह्यसूत्र, यथा–मानवगृह्यसुत्र<ref>मानवगृह्यसुत्र (218</ref>, शांखायन गृह्यसूत्र<ref>शांखायन गृह्यसूत्र (3|12|1</ref>, खादिरगृह्यसूत्र<ref>खादिरगृह्यसूत्र (3|2|27</ref>, काठकगृह्यसूत्र<ref>काठकगृह्यसूत्र (61|1</ref>, कौषितकि गृह्यसूत्र<ref>कौषितकि गृह्यसूत्र (3|15|1</ref> एवं पार. गृह्यसूत्र<ref>पार. गृह्यसूत्र (3|3</ref> कहते हैं कि केवल तीन ही अष्टका कृत्य होते हैं; [[मार्गशीर्ष]] (आग्रहायण) की [[पूर्णिमा]] के पश्चात् आठवीं तिथि (इसे आग्रहायणी कहा जाता था); अर्थात् [[मार्गशीर्ष]], [[पौष]] (तैष) एवं [[माघ]] के [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण पक्षों]] में। गोभिलगृह्यसूत्र<ref>गोभिलगृह्यसूत्र (3|10|48</ref> ने लिखा है कि कौत्स के मत से अष्टकाएँ चार हैं और सभी में मास दिया जाता है, किन्तु गौतम, औदगाहमानि एवं वार्कखण्डि ने केवल तीन की व्यवस्था दी है। बौधायन गृह्यसूत्र<ref>बौधायन गृह्यसूत्र (2|11|1</ref> के मत से तैष, माघ एवं [[फाल्गुन]] में तीन अष्टकाहोम किये जाते हैं।
 
====अन्वष्टका कृत्य====
 
{{Main|अन्वष्टका कृत्य (श्राद्ध)}}
 
यद्यपि [[आपस्तम्बगृह्यसूत्र]]<ref>आपस्तम्बगृह्यसूत्र (2|5|3</ref> एवं शांखायन गृह्यसूत्र<ref>शांखायन गृह्यसूत्र (3|13|7</ref> का कथन है कि अन्वष्टका कृत्य में पिण्डपितृयज्ञ की विधि मानी जाती है, किन्तु कुछ गृह्यसूत्र<ref>यथा खादिरगृह्यसूत्र 3|5 एवं गोभिलगृह्यसूत्र 4|2-3</ref> इस कृत्य का विशद वर्णन करते हैं। आश्वलायन गृह्यसूत्र एवं [[विष्णु धर्मसूत्र]]<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र एवं [[विष्णु धर्मसूत्र]] (74</ref> ने मध्यम मार्ग अपनाया है। आश्वलायन गृह्यसूत्र का वर्णन अपेक्षाकृत संक्षिप्त है। यह ज्ञातव्य है कि कुछ गृह्यसूत्रों का कथन है कि अन्वष्टका कृत्य कृष्ण पक्ष की [[नवमी]] या [[दशमी]] को किया जाता है।<ref>खादिरगृह्यसूत्र 3|5|1</ref> इसे पारस्कर गृह्यसूत्र<ref>पारस्कर गृह्यसूत्र (3|3|30</ref>, [[मनुस्मृति|मनु]]<ref>मनु (4|150</ref> एवं [[विष्णु धर्मसूत्र]]<ref>विष्णु धर्मसूत्र (74|1 एवं 76|10</ref> ने अन्वष्टका की संज्ञा दी है। अत्यन्त विशिष्ट बात यह है कि इस कृत्य में स्त्री पितरों का आहावान किया जाता है और इसमें जो आहुतियाँ दी जाती हैं, उनमें सुरा, माँड़, अंजन, लेप एवं मालाएँ भी सम्मिलित रहती हैं। यद्यपि आश्वलायन गृह्यसूत्र<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|5</ref> आदि ने घोषित किया है कि अष्टका एवं अन्वष्टक्य मासिक श्राद्ध या पिण्डपितृयज्ञ पर आधारित हैं तथापि बौधायन गृह्यसूत्र<ref>बौधायन गृह्यसूत्र (3|12|1</ref>, गोभिलगृह्यसूत्र<ref>गोभिलगृह्यसूत्र (4|4</ref> एवं खादिर गृह्यसूत्र<ref>खादिर गृह्यसूत्र (3|5|35</ref> ने कहा है कि अष्टका या अन्वष्टक्य के आधार पर ही पिण्डपितृयज्ञ एवं अन्य श्राद्ध किये जाते हैं। काठक गृह्यसूत्र<ref>काठक गृह्यसूत्र (66|1|68, 68|1 एवं 69|1</ref> का कथन है कि प्रथम श्राद्ध, सपिण्डिकरण जैसे अन्य श्राद्ध, पशुश्राद्ध (जिसमें पशु का मांस अर्पित किया जाता है) एवं मासिक श्राद्ध अष्टका की विधि का ही अनुसरण करते हैं।
 
====माध्यावर्ष कृत्य====
 
{{Main|माध्यावर्ष कृत्य (श्राद्ध)}}
 
आश्वलायन गृह्यसूत्र<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|5|9</ref> में माध्यावर्ष नामक कृत्य के विषय में दो मत प्रकाशित किये गये हैं। नारायण के मत से यह कृत्य [[भाद्रपद]] [[कृष्ण पक्ष]] की तीन तिथियों में, अर्थात् [[सप्तमी]], [[अष्टमी]] एवं [[नवमी]] को किया जाता है। दूसरा मत यह है कि यह कृत्य अष्टकाओं के समान ही है जो [[भाद्रपद]] की [[त्रयोदशी]] को सम्पादित होता है। जबकि सामान्यत: चन्द्र [[मघा नक्षत्र]] में होता है। इस कृत्य के नाम में संदेह है, क्योंकि पाण्डुलिपियों में बहुत से रूप प्रस्तुत किये गये हैं।
 
====अन्वाहार्य श्राद्ध====
 
{{Main|अन्वाहार्य श्राद्ध}}
 
*गोभिलगृह्यसूत्र<ref>गोभिलगृह्यसूत्र (4|4|3</ref> में अन्वाहार्य नामक एक अन्य श्राद्ध का उल्लेख हुआ है जो कि पिण्डपितृयज्ञ उपरान्त उसी दिन सम्पादित होता है।
 
*शांखायन गृह्यसूत्र<ref>शांखायन गृह्यसूत्र (4|1|13</ref> ने पिण्डपितृयज्ञ से पृथक् मासिक श्राद्ध की चर्चा की है।
 
*[[मनु]]<ref>मनु (3|122-123</ref> का कथन है–'पितृयज्ञ (अर्थात् पिण्डपितृयज्ञ) के सम्पादन के उपरान्त वह ब्राह्मण जो अग्निहोत्री अर्थात् आहिताग्नि है, प्रति मास उसे अमावास्या के दिन पिण्डान्वाहार्यक श्राद्ध करना चाहिए।
 
====आह्विक यज्ञ====
 
[[शतपथ ब्राह्मण]] एवं तैत्तिरीय आरण्यक<ref>तैत्तिरीय आरण्यक (2|10</ref> ने आगे कहा है कि वह आह्विक यज्ञ जिसमें पितरों को स्वधा (भोजन) एवं जल दिया जाता है, पितृयज्ञ कहलाता है। मनु<ref>मनु (3|70</ref> ने पितृयज्ञ को तर्पण (जल से पूर्वजों की संतुष्टि) करना कहा है। [[मनु]]<ref>मनु (3|83</ref> ने व्यवस्था दी है कि प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन भोजन या जल या दूध, मूल एवं फल के साथ श्राद्ध करना चाहिए और पितरों को संतोष देना चाहिए। प्रारम्भिक रूप में श्राद्ध पितरों के लिए अमावस्या के दिन किया जाता था।<ref>गौतम 15|1-2</ref> अमावस्या दो प्रकार की होती है; विनोवाली एवं कुहू। आहिताग्नि (अग्निहोत्री) सिनीवाली में श्राद्ध करते हैं, तथा इनसे भिन्न एवं [[शूद्र]] लोग कुहू [[अमावस्या]] में श्राद्ध करते हैं।  
 
  
====तीन कोटियाँ====
+
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{Main|श्राद्ध की कोटियाँ}}
 
श्राद्ध (या सभी कृत्य) तीन कोटियों में विभाजित किये गये हैं; नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य।
 
*वह श्राद्ध नित्य कहलाता है, जिसके लिए ऐसी व्यवस्था दी हुई हो कि वह किसी निश्चित अवसर पर किया जाए (यथा–आह्विक, अमावास्या के दिन वाला या अष्टका के दिन वाला)।
 
*जो ऐसे अवसर पर किया जाए जो कि अनिश्चित सा हो, यथा–पुत्रोत्पत्ति आदि पर, उसे नैमित्तिक कहा जाता है।
 
*जो किसी विशिष्ट फल के लिए किया जाए उसे काम्य कहते हैं; यथा–स्वर्ग, संतति आदि की प्राप्ति के लिए। कृत्तिका या रोहिणी पर किया गया श्राद्ध।
 
पंचमहायज्ञ कृत्य, जिनमें पितृयज्ञ भी सम्मिलित है, नित्य कहे जाते हैं, अर्थात् उन्हें बिना किसी फल की आशा के करना चाहिए, उनके न करने से पाप लगता है। नित्य कर्मों को करने से प्राप्त फल की जो चर्चा धर्मशास्त्रों में मिलती है, वह केवल प्रशंसा मात्र ही है। उससे केवल यही व्यक्त होता है कि कर्मों के सम्पादन से व्यक्ति पवित्र हो जाता है। किन्तु ऐसा नहीं है कि वे अपरिहार्य नहीं है और उनका सम्पादन तभी होता है, जब व्यक्ति किसी विशिष्ट फल की आशा रखता है (अर्थात् इन कर्मों का सम्पादन काम्य अथवा इच्छाजनित नहीं है)। आपस्तम्ब धर्मसूत्र<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2|7|16|4-7</ref> ने श्राद्ध के लिए निश्चित कालों की व्यवस्था दी है, यथा–इसका सम्पादन प्रत्येक मास के अन्तिम पक्ष में होना चाहिए,  दोपहर को श्रेष्ठता मिलनी चाहिए और पक्ष के आरम्भिक दिनों की अपेक्षा अन्तिम दिनों को अधिक महत्त्व देना चाहिए। [[गौतमस्मृति|गौतम]]<ref>गौतम (15|3</ref> एवं [[वसिष्ठ स्मृति|वसिष्ठ]]<ref>वसिष्ठ (11|16</ref> का कथन है कि श्राद्ध प्रत्येक मास के [[कृष्ण पक्ष]] में चतुर्थी को छोड़कर किसी भी दिन किया जा सकता है और गौतम<ref>गौतम (15|5</ref> ने पुन: कहा है कि यदि विशिष्ट रूप में उचित सामग्रियों या पवित्र ब्राह्मण उपलब्ध हो या कर्ता किसी पवित्र स्थान (यथा–गया) में हो तो श्राद्ध किसी भी दिन किया जा सकता है। यही बात [[कूर्म पुराण]]<ref>कूर्म पुराण (2|20|23</ref> ने भी कही है। [[अग्नि पुराण]]<ref>[[अग्नि पुराण]] (115|8</ref> का कथन है कि गया में किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है। <ref>(न कालादि गया तीर्थे दद्यात् पिण्डाश्च नित्यश:)।</ref>
 
 
 
====श्राद्धों की फलसूचियाँ====
 
{{Main|श्राद्ध फलसूची}}
 
[[संक्रान्ति]] पर किया गया श्राद्ध अनन्त काल तक के लिए स्थायी होता है, इसी प्रकार जन्म के दिन एवं कतिपय नक्षत्रों में श्राद्ध करना चाहिए। [[आपस्तम्ब धर्मसूत्र]]<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2|7|16|8-22</ref>, [[अनुशासन पर्व महाभारत|अनुशासन पर्व]]<ref>अनुशासन पर्व (87</ref>, [[वायु पुराण]]<ref>वायु पुराण (99|10-19</ref>, [[याज्ञवल्क्य]]<ref>याज्ञवल्क्य (1|262-263</ref>, [[ब्रह्म पुराण]]<ref>ब्रह्म पुराण (220|15|21</ref>, विष्णु धर्मसूत्र<ref>विष्णु धर्मसूत्र (78|36-50</ref>, [[कूर्म पुराण]]<ref>कूर्म पुराण (2|20|17-22</ref>, [[ब्रह्माण्ड पुराण]]<ref>ब्रह्माण्ड पुराण(3|17|10-22</ref> ने कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक किये गये श्राद्धों के फलों का उल्लेख किया है।
 
 
 
====वर्णित दिनों में होने वाले श्राद्ध====
 
[[विष्णु धर्मसूत्र]]<ref>विष्णुधर्मसूत्र (77|1-6</ref> द्वारा वर्णित दिनों में किये जाने वाले श्राद्ध नैमित्तिक हैं और जो विशिष्ट तिथियों एवं सप्ताह के दिनों में कुछ निश्चित इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये जाते हैं, वे काम्य श्राद्ध कहे जाते हैं। परा. मा.<ref>परा. मा. (1|1, पृष्ठ 63</ref> के मत से नित्य कर्मों का सम्पादन संस्कारक (जो कि मन को पवित्र बना दे और उसे शुभ कर्मों की ओर प्रेरित करे) कहा जाता है, किन्तु कुछ परिस्थितियों में यह अप्रत्यक्ष अन्तर्हित रहस्य (परम तत्त्व) की जानकारी की अभिकांक्षा भी उत्पन्न करता है।<ref>अर्थात् यह 'विविदिषाजनक' है, जैसा की [[गीता 9:27|गीता 9|27]] में संकेत किया गया है</ref> जैमिनिय<ref>जैमिनिय (6|3|1-7</ref> ने सिद्ध किया है कि नित्य कर्म (यथा, अग्निहोत्र, दर्श पूर्णमास याग) अवश्य करने चाहिए, भले ही कर्ता उनके कुछ उपकृत्यों को करने में असमर्थ हो; उन्होंने<ref>जैमिनिय 6|3|8-10</ref> पुन: व्यवस्था दी है कि काम्य कृत्यों के सभी भाग सम्पादित होने चाहिए और यदि कर्ता सोचता है कि वह सबका सम्पादन करने में असमर्थ है तो उसे काम्य कृत्य करने ही नहीं चाहिए।
 
====सप्ताह का श्राद्ध====
 
[[विष्णु धर्मसूत्र]]<ref>विष्णुधर्मसूत्र (78|1-7</ref> का कथन है कि [[रविवार]] को श्राद्ध करने वाला रोगों से सदा के लिए छुटकारा पा जाता है और वे जो [[सोमवार|सोम]], [[मंगलवार|मंगल]], [[बुधवार|बुध]], [[बृहस्पतिवार|बृहस्पति]], [[शुक्रवार|शुक्र]] एवं [[शनिवार|शनि]] को श्राद्ध करते हैं, क्रम से सौख्य (या प्रशंसा), युद्ध में विजय, सभी इच्छाओं की पूर्ति, अभीष्ट ज्ञान, धन एवं लम्बी आयु प्राप्त करते हैं। [[कूर्म पुराण]]<ref>कूर्म पुराण (2|20, 16-17</ref> ने भी सप्ताह के कतिपय दिनों में सम्पादित श्रोद्धों से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है। विष्णुधर्मसूत्र<ref>विष्णुधर्मसूत्र (78|8-15</ref> ने [[कृत्तिका नक्षत्र|कृत्तिका]] से [[भरणी नक्षत्र|भरणी]] ([[अभिजित नक्षत्र|अभिजित]] को भी सम्मिलित करते हुए) तक के 28 नक्षत्रों में सम्पादित श्राद्धों से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है।<ref>और देखिए [[याज्ञवलक्य]] (1|265-268), वायु पुराण (82), मार्कण्डेय पुराण (30|8-16), कूर्म पुराण (2|20|9-15), ब्रह्म पुराण (220|33-42) एवं ब्रह्माण्ड पुराण (उपोदघातपाद 18|1)।</ref>
 
 
 
====युगादि एवं मन्वादि====
 
[[अग्नि पुराण]]<ref>अग्नि पुराण (117|61</ref> में आया है कि वे श्राद्ध जो किसी तीर्थ या युगादि एवं मन्वादि दिनों में किये जाते हैं (पितरों को) अक्षय संतुष्टि देते हैं। [[विष्णु पुराण]]<ref>विष्णुपुराण (3|14|12-13</ref>, [[मत्स्य पुराण]]<ref>मत्स्य पुराण (17|4-5</ref>, [[पद्म पुराण]]<ref>पद्म पुराण (5|9|130-131</ref>, [[वराह पुराण]]<ref>वराह पुराण (13|40-41</ref>, प्रजापतिस्मृति<ref>प्रजापतिस्मृति (22</ref> एवं [[स्कन्द पुराण]]<ref>स्कन्द पुराण (7|2|205|33-34</ref> का कथन है कि [[वैशाख]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] [[तृतीया]], [[कार्तिक]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] [[नवमी]], [[भाद्रपद]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[त्रयोदशी]] एवं माघ की [[अमावास्या]] युगादि तिथियाँ (अर्थात् चारों युगों के प्रथम दिन) कही जाती है। [[मत्स्य पुराण]]<ref>मत्स्य पुराण (17|6-8</ref>, [[अग्नि पुराण]]<ref>अग्नि पुराण (117|162-164 एवं 209|16-18</ref>, सौर पुराण<ref>सौरपुराण (51|33-36</ref>, [[पद्म पुराण]]<ref>पद्म पुराण (सृष्टि. 9|132-136</ref> ने 14 मनुओं (या मन्वन्तरों) की प्रथम तिथियाँ इस प्रकार दी हैं–[[आश्विन]] शुक्ल [[नवमी]], [[कार्तिक]] शुक्ल [[द्वादशी]], [[चैत्र]] एवं [[भाद्रपद]] शुक्ल [[तृतीया]], [[फाल्गुन]] की अमावास्या, [[पौष]] शुक्ल [[एकादशी]], [[आषाढ़]] शुक्ल [[दशमी]] एवं [[माघ]] शुक्ल [[सप्तमी]], [[श्रावण]] कृष्ण [[अष्टमी]], [[आषाढ़]], [[कार्तिक]], [[फाल्गुन]], [[चैत्र]] एवं [[ज्येष्ठ]] की [[पूर्णिमा]]। [[मत्स्यपुराण]] की सूची स्मृतिच.<ref>1, पृष्ठ 58</ref>, कृत्यरत्नाकर<ref>कृत्यरत्नाकर (पृष्ठ 543</ref>, परा. मा.<ref>परा. मा. (1|1, पृष्ठ 156 एवं 1|2, पृष्ठ 311</ref> एवं मदनपारिजात<ref>मदनपारिजात (पृष्ठ 540</ref> में उद्धृत हैं। [[स्कन्द पुराण]]<ref>स्कन्द पुराण (7|1|205-36-39</ref> एवं स्मृत्यर्थसार<ref>स्मृत्यर्थसार (पृष्ठ 9</ref> में क्रम कुछ भिन्न है। स्कन्दपुराण (नागर खण्ड) में श्वेत से लेकर तीन कल्पों की प्रथम तिथियाँ श्राद्ध के लिए उपयुक्त ठहरायी गयी हैं।
 
==ग्रहण के समय छूट==
 
{{Main|श्राद्ध और ग्रहण}}
 
[[आपस्तम्ब धर्मसूत्र]]<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र (7|17|23-25</ref>, मनु<ref>मनु (3|280</ref>, विष्णुधर्मसूत्र<ref>विष्णुधर्मसूत्र (77|8-9</ref>, [[कूर्म पुराण]]<ref>कूर्म पुराण (2|16|3-4</ref>, [[ब्रह्माण्ड पुराण]]<ref>ब्रह्माण्ड पुराण (3|14|3</ref>, [[भविष्य पुराण]]<ref>भविष्य पुराण (1|185|1</ref> ने रात्रि, संध्या ([[गोधूलि]] काल) या जब सूर्य का तुरत उदय हुआ हो तब–ऐसे कालों में श्राद्ध सम्पादन मना किया है। किन्तु चन्द्रग्रहण के समय छूट दी है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र ने इतना जोड़ दिया है कि यदि श्राद्ध सम्पादन अपरान्ह्न में आरम्भ हुआ हो और किसी कारण से देर हो जाए तथा [[सूर्य]] डूब जाए तो कर्ता को श्राद्ध सम्पादन के शेष कृत्य दूसरे दिन ही करने चाहिए और उसे दर्भों पर पिण्ड रखने तक उपवास करना चाहिए।
 
====अपरान्ह्न का अर्थ====
 
श्राद्धकाल के लिए मनु<ref>मनु (3|278</ref> द्वारा व्यवस्थित अपरान्ह्न के अर्थ के विषय में अपरार्क<ref>पृष्ठ 465</ref>, [[हेमाद्रि]]<ref>हेमाद्रि (पृष्ठ 313</ref> एवं अन्य लेखकों तथा निबन्धों में विद्वत्तापूर्ण विवेचन उपस्थित किया गया है। कई मत प्रकाशित किये गये हैं। कुछ लोगों के मत से मध्यान्ह्न के उपरान्त दिन का शेषान्त अपरान्ह्न है। पूर्वाह्न शब्द ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद (10|34|11</ref> में आया है। इस कथन के आधार पर कहा है कि दिन को तीन भागों में बांट देने पर अन्तिम भाग अपरान्ह्न कहा जाता है। तीसरा मत यह है कि पाँच भागों में विभक्त दिन का चौथा भाग अपरान्ह्न है। इस मत को मानने वाले शतपथ ब्राह्मण<ref>शतपथ ब्राह्मण (2|2|3|9</ref> पर निर्भर हैं। दिन के पाँच भाग ये हैं–प्रात:, संगव, मध्यन्दिन (मध्यान्ह्न), अपरान्ह्न एवं सायाह्न (सांय या अस्तगमन)। इनमें प्रथम तीन स्पष्ट रूप से ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद (5|76|3</ref> में उल्लिखित हैं। प्रजापतिस्मृति<ref>प्रजापतिस्मृति (156-157</ref> में आया है कि इनमें प्रत्येक भाग तीन मुहूर्तों तक रहता है।<ref>दिन 15 मुहूर्तों में बाँटा जाता है</ref> इसने आगे कहा है कि कुतप सूर्योदय के उपरान्त आठवाँ मुहूर्त है और श्राद्ध को कुतप में आरम्भ करना चाहिए तथा उसे रौहिण मुहूर्त के आगे नहीं ले जाना चाहिए। श्राद्ध के लिए पाँच मुहूर्त (आठवें से बारहवें तक) अधिकतम योग्य काल हैं।
 
====कुतप====
 
कुतप शब्द के आठ अर्थ हैं, जैसा कि स्मृतिच.<ref>स्मृतिच. (श्राद्ध पृष्ठ 433</ref> एवं हेमाद्रि<ref>हेमाद्रि (श्राद्ध, पृष्ठ 320</ref> ने कहा है। यह शब्द 'कु' (निन्दित अर्थात् पाप) एवं 'तप' (जलाना) से बना है। 'कुतप' के आठ अर्थ ये हैं–मध्याह्न, खड्गपात्र (गेंडे के सींग का बना पात्र), नेपाल का कम्बल, रूपा (चाँदी), दर्भ, [[तिल]], [[गाय]] एवं दौहित्र (कन्या का पुत्र)। सामान्य नियम यह है कि श्राद्ध अपरान्ह्न में किया जाता है (किन्तु यह नियम अमावास्या, महालय, अष्टका एवं अन्वष्टका के श्राद्धों के लिए प्रयुक्त होता है), किन्तु वृद्धिश्राद्ध और आमश्राद्ध (जिनमें केवल अन्न का ही अर्पण होता है) प्रात: काल में किये जाते हैं। इस विषय में मेधा तिथि<ref>मनु 3|254</ref> ने एक स्मृतिवचन उद्धृत किया है।<ref>पूर्वाह्ने दैविकं कार्यमपराह्ने तु पैतृकम्। एकोद्दिष्टं तु मध्याह्ने प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम्।। मेधातिथि (मनु 3|243)। दीपकलिका (याज्ञ. 1|226) ने इस श्लोक को वायुपुराण के एक श्लोक के रूप में उद्धृत किया है।</ref> त्रिकाण्डमण्डन<ref>त्रिकाण्डमण्डन (2|150 एवं 162</ref> में आया है कि यदि मुख्य काल में श्राद्ध करना सम्भव: न हो तो उसके पश्चात् वाले गौण काल में उसे करना चाहिए, किन्तु कृत्य के मुख्य काल एवं सामग्री संग्रहण के काम में प्रथम को ही वरीयता देनी चाहिए और सभी मुख्य द्रव्यों को एकत्र करने के लिए गौण काल के अतिरिक्त अन्य कार्यों में उसकी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।
 
 
 
==श्राद्ध करने का स्थान==
 
[[चित्र:Vishnupadh-Temple-Gaya-Bihar.jpg|thumb|विष्णुपद मंदिर, गया]]
 
{{Main|श्राद्ध करने का स्थान}}
 
मनु<ref>मनु (2|206-207</ref> ने व्यवस्था दी है कि कर्ता को प्रयास करके दक्षिण की ओर ढालू भूमि खोजनी चाहिए, जो कि पवित्र हो और जहाँ पर मनुष्य अधिकतर न जाते हों। उस भूमि को गोबर से लीप देना चाहिए, क्योंकि पितर लोग वास्तविक स्वच्छ स्थलों, नदी-तटों एवं उस स्थान पर किये गए श्राद्ध से प्रसन्न होते हैं, जहाँ पर लोग बहुधा कम ही जाते हैं। [[याज्ञवल्क्य]]<ref>याज्ञवल्क्य (1|227</ref> ने संक्षिप्त रूप से कहा है कि श्राद्ध स्थल चतुर्दिक से आवृत, पवित्र एवं दक्षिण की ओर ढालू होना चाहिए। शंख<ref>शंख (परा. मा. 1|2, पृष्ठ 303; श्रा. प्र. पृष्ठ 140; स्मृतिच., श्रा., पृष्ठ 385</ref> का कथन है–'बैलों, [[हाथी|हाथियों]] एवं घोड़ों की पाठ पर, ऊँची भूमि या दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए।' [[कूर्म पुराण]]<ref>कूर्म पुराण (2|22|17</ref> में आया है–वन, पुण्य पर्वत, तीर्थस्थान, मन्दिर–इनके निश्चित स्वामी नहीं होते और ये किसी की वैयक्तिक सम्पत्ति नहीं हैं।
 
====गया====
 
{{Main|गया}}
 
[[गया]], [[बिहार]] के महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थानों में से एक है। यह शहर ख़ासकर [[हिन्दू]] तीर्थयात्रियों के लिए काफ़ी मशहूर है। यहाँ का 'विष्णुपद मंदिर' पर्यटकों के बीच लोकप्रिय है। दंतकथाओं के अनुसार भगवान [[विष्णु]] के पांव के निशान पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। [[हिन्दू धर्म]] में इस मंदिर को अहम स्थान प्राप्त है। गया पितृदान के लिए भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहाँ [[फल्गु नदी]] के तट पर पिंडदान करने से मृत व्यक्ति को बैकुंठ की प्राप्ति होती है। आधुनिक काल में भी सभी धार्मिक [[हिन्दू|हिन्दुओं]] की दृष्टि में गया का विलक्षण महत्त्व है। इसके इतिहास प्राचीनता, [[पुरातत्त्व]]-सम्बन्धी [[अवशेष|अवशेषों]], इसके चतुर्दिक पवित्र स्थलों, इसमें किये जाने वाले श्राद्ध-कर्मों तथा गया वालों के विषय में बहुत-से मतों का उद्घोष किया गया है। गया के विषय में सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है 'गयामाहात्मय'।<ref> [[वायुपुराण]], अध्याय 105-112</ref> विद्वानों ने गयामाहात्मय के अध्यायों की प्राचीनता पर सन्देह प्रकट किया है। विष्णुधर्मसूत्र<ref>विष्णुधर्मसूत्र (85।65-67)</ref> ने श्राद्ध योग्य जिन 55 तीर्थों के नाम दिये हैं, उनमें गया-सम्बन्धी तीर्थ हैं- गयाशीर्ष, अक्षयवट, फल्गु, उत्तर मानस, मतंग-वापी, विष्णुपद। गया में व्यक्ति जो कुछ दान करता है उससे अक्षय फल मिलता है। अत्रि-स्मृति (55-58) में पितरों के लिए गया जाना, फल्गु-स्नान करना पितृतर्पण करना, गया में गदाधर (विष्णु) एवं गयाशीर्ष का दर्शन करना वर्णित है। शंख<ref>शंख 14।27-28</ref> ने भी गयातीर्थ में किये गये श्राद्ध से उत्पन्न अक्षय फल का उल्लेख किया है।<ref> यह कुछ आश्चर्यजनक है कि डॉ. बरूआ (गया एवं बुद्धगया, जिल्द 1, पृ. 66) ने शंख के श्लोक 'तीर्थे वामरकण्टके ' में 'वामरकण्टक' तीर्थ पढ़ा है न कि 'वा' को पृथक् कर 'अमरकण्टक'!</ref>
 
====नासिक====
 
{{Main|नासिक}}
 
'[[त्रयंबकेश्वर]]' [[गौतम ऋषि]] की तपोभूमि है। यह स्थान नासिक से लगभग 28 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मान्यता है कि गौतम ऋषि ने [[शिव]] की तपस्या करके [[गंगा]] को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगा था, जिसके फलस्वरूप यहाँ [[गोदावरी नदी]] की धारा प्रवाहित हुई। इसलिए गोदवरी को '''दक्षिण भारत की गंगा''' भी कहा जाता है। इस स्थान पर किया [[श्राद्ध]] और [[पिण्डदान]] सीधा पितरों तक पहुँचता है। इससे पितरों को प्रेत योनी से मुक्ति मिलती है और वह उत्तम लोक में स्थान प्राप्त करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहाँ श्राद्ध, [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]], पिण्डदान एवं पितरों की संतुष्टि हेतु [[ब्राह्मण]] भोजन करवाने से पितर तृप्त होकर अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद प्रदान करते हैं।<ref>{{cite web |url=http://www.amarujala.com/feature/spirituality/holy-shradh-place-prevents-birth-as-evil-spirit/?page=4|title=श्राद्ध स्थल जहाँ मिलती है प्रेतयोनी से मुक्ति|accessmonthday=19 सितम्बर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
 
[[चित्र:Ram-Kund-Nasik.jpg|thumb| रामकुण्ड, [[नासिक]]]]
 
====श्राद्ध वर्जना====
 
{{Main|श्राद्ध वर्जना}}
 
[[विष्णु धर्मसूत्र]]<ref>विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय 84</ref> ने व्यवस्था दी है कि म्लेच्छदेश में न तो श्राद्ध करना चाहिए और न ही जाना चाहिए; उसमें पुन: कहा गया है कि म्लेच्छदेश वह है जिसमें चार वर्णों की परम्परा नहीं पायी जाती है। [[वायु पुराण]] ने व्यवस्था दी है कि त्रिशंकु देश, जिसका बारह योजन विस्तार है, जो कि [[महानदी]] के उत्तर और कीकट (मगध) के दक्षिण में है, श्राद्ध के लिए योग्य नहीं हैं। इसी प्रकार कारस्कर, कलिंग, सिंधु के उत्तर का देश और वे सभी देश जहाँ वर्णाश्रम की व्यवस्था नहीं पायी जाती है, श्राद्ध के लिए यथासाध्य त्याग देने चाहिए। [[ब्रह्मपुराण]]<ref>ब्रह्मपुराण (220|8-10</ref> ने कुछ सीमा तक एक विचित्र बात कही है कि निम्नलिखित देशों में श्राद्ध कर्म का यथासम्भव परिहार करना चाहिए–किरात देश, कलिंग, [[कोंकण]], क्रिमि (क्रिवि?), दशार्ण, कुमार्य (कुमारी अन्तरीप), तंगण, क्रथ, [[सिंधु नदी]] के उत्तरी तट, नर्मदा का दक्षिणी तट एवं करतोया का पूर्वी भाग।
 
 
 
==विसजर्न==
 
{{मुख्य|विसर्जन (श्राद्ध)}}
 
विसर्जन में तीन प्रकार के विसर्जन किये जाते हैं, जिनके नाम इस प्रकार है:-
 
*पिण्ड विसर्जन
 
*पितृ विसर्जन
 
*देव विसर्जन।
 
====उदककर्म====
 
{{मुख्य|उदककर्म}}
 
*मृतक के लिए जल दान की क्रिया को उदककर्म कहते हैं।
 
*यह कई प्रकार से सम्पन्न होती है। 
 
 
 
{{Top}}
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= |माध्यमिक=माध्यमिक3 |पूर्णता= |शोध= }}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
{{Refbox}}
+
<references/>
 
==बाहरी कड़ियाँ==
 
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://hariomgroup.net/hariombooks/satsang/Hindi/ShraadhMahima.htm#_Toc208636921 श्राद्ध महिमा]
 
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{हिन्दू कर्मकाण्ड}}{{संस्कृत साहित्य}}
+
{{नरेन्द्र मोदी का मंत्रिमण्डल}}
[[Category:हिन्दू कर्मकाण्ड]][[Category:श्राद्ध]] [[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]]
+
[[Category:राजनीतिज्ञ]][[Category:राजनीति कोश]]
[[Category:संस्कृति कोश]]
+
[[Category:गणराज्य संरचना कोश]]
[[Category:चयनित लेख]]
+
[[Category:कैबिनेट मंत्री]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__
 
__NOTOC__
 
__NOTOC__
[[चित्र:Pindadaan-2.jpg|thumb|250px|[[श्राद्ध]] के समय पिण्डदान करते श्रद्धालु]]
 

10:48, 6 मार्च 2016 का अवतरण

सिद्धार्थ
नजमा हेपतुल्ला
पूरा नाम नजमा हेपतुल्ला
जन्म 13 अप्रैल, 1940
जन्म भूमि भोपाल, मध्य प्रदेश
पति/पत्नी अकबर अली ए. हेपतुल्ला
संतान तीन बेटियाँ
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि राजनीतिज्ञ और लेखिका
पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और 'भारतीय जनता पार्टी'(वर्तमान)
पद वर्तमान- कैबिनेट मंत्री (अल्पसंख्यक मंत्रालय)
शिक्षा एमएससी, हृदय रोग विज्ञान में पीएचडी
भाषा हिंदी

डॉ. नजमा हेपतुल्ला (अंग्रेज़ी: Najma Heptulla, जन्म- 13 अप्रैल, 1940, भोपाल, मध्य प्रदेश) सौम्य, मृदुल एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली डॉ. हेपतुल्ला भारतीय राजनीति में उन चंद महिला राजनीतिज्ञों में से हैं जिन्होंने योग्यता के बल पर अपना एक मुकाम बनाया है। 74 वर्षीय नजमा हेपतुल्ला, मोदी मंत्रिमंडल में सब से अधिक उम्र की और एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्या हैं, उन्हें अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री बनाया गया है।

जन्म तथा शिक्षा

13 अप्रैल 1940 को मध्यप्रदेश के भोपाल मे जन्मी डॉ. हेपतुल्ला को राजनीति बिरासत में मिली है। रिश्ते में मौलाना अबुल कलाम आजाद की नातिन हेपतुल्ला ने एमएससी करने के बाद हृदय रोग विज्ञान में पीएचडी प्राप्त की पर राजनीति में दिलचस्पी के कारण वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी रहीं और जमीनी स्तर पर काम करती रहीं।

राजनैतिक जीवन

मुंबई प्रदेश कांग्रेस कमेटी की महासचिव और उपाध्यक्ष रहीं हेपतुल्ला 1980 से राज्यसभा की सदस्य हैं। वह 1985 से 1986 तथा 1988 से जुलाई 2007 तक राज्यसभा की उपसभापति रहीं इस दौरान उन्होंने सदन की कार्यवाही का कुशल संचालन किया और वह सत्तापक्ष तथा विपक्ष में भी लोकप्रिय बनी रहीं। लेकिन श्रीमती सोनिया गाँधी से उनके रिश्तों में आई खटास के बाद वह भाजपा में शामिल हो गई। इस समय वह राज्यसभा में भाजपा की सांसद है।

तीन बेटियों की माँ और सफल वैवाहिक जीवन बिता रही डॉ. हेपतुल्ला भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की अध्यक्ष भी रहीं। सन 2002 में उन्हें उपराष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस का उम्मीदवार बनाए जाने की भी चर्चा चली, पर वह उम्मीदवार नहीं बनाई गईं। उसके बाद वह कांग्रेस के भीतर असंतुष्ट रहने लगी और धीरे-धीरे राजग के निकट आने लगीं।

सन 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा का दामन पकड़ लिया। वे जुलाई 2004 में दोबारा राज्यसभा के लिए भाजपा की टिकट पर चुनी गईं। वे भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य भी बनाई गईं।

राजनीतिक गलियारों में यह कहा जाता रहा है कि अगर डॉ. हेपतुल्ला कांग्रेस में होती तो वे अपनी योग्यता के आधार पर उपराष्ट्रपति पद के लिए स्वाभाविक उम्मीदवार होती। भाजपा में शामिल होने के बाद यह भी माना जाने लगा था कि उपराष्ट्रपति पद के लिए वही पार्टी की स्वाभाविक प्रत्याशी होंगी।

74 वर्षीय नजमा हेपतुल्ला, मोदी मंत्रिमंडल में सब से अधिक उम्र की और एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्या हैं, उन्हें अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री बनाया गया है। नजमा हेपतुल्ला ने मुंबई प्रदेश कांग्रेस कमेटी की महासचिव के तौर पर अपना राष्ट्रीय जीवन शुरू किया. बाद में उपाध्यक्ष का दायित्व भी निभाया. वे 1985 से 1986 और 1988 से 2007 तक राज्यसभा की उपसभापति भी रहीं. इस दौरान उन्होंने सदन की कार्यवाही का कुशल संचालन किया और सत्ता पक्ष तथा विपक्ष में भी लोकप्रिय बनीं।

13 अप्रैल 1940 को मध्य प्रदेश के भोपाल में जन्मीं डा. हेपतुल्ला को राजनीति विरासत में मिली है. रिश्ते में मोहम्मद अबुल कलाम आजाद की नातिन, नजमा ने एम.एससी. करने के बाद यूनिवर्सिटी औफ डेनवर से हृदय रोग विज्ञान में पी.एचडी. प्राप्त की पर राजनीति में दिलचस्पी के कारण वे इसी में सक्रिय हो गईं।

राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ वे लेखिका भी हैं. उन्होंने ‘एड्स: ऐप्रोचेज टु प्रिवैंशन’ नाम की किताब भी लिखी है. इस के अलावा भी वे कई तरह के विषयों पर लिखती रही हैं।

नजमा के पति अकबर अली ए. हेपतुल्ला का निधन हो चुका है. उनकी 3 बेटियां हैं, जो अमेरिका में हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

नरेन्द्र मोदी का कैबिनेट मंत्रिमण्डल

क्रमांक मंत्री नाम मंत्रालय
प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी 1. कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय

2. परमाणु ऊर्जा विभाग
3. अंतरिक्ष विभाग
4. सभी महत्वपूर्ण नीतिगत मुद्दे और अन्य सभी विभाग जो किसी मंत्री को आवंटित नहीं किए गए हैं।

कैबिनेट मंत्री
1. राजनाथ सिंह रक्षा मंत्रालय
2. अमित शाह 1. गृह मंत्रालय

2. सहकारिता मंत्रालय

3. नितिन जयराम गडकरी सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय
4. निर्मला सीतारमण 1. वित्त मंत्रालय

2. कारपोरेट कार्य मंत्रालय

5. नरेन्द्र सिंह तोमर कृषि एवं कृषक कल्याण मंत्रालय
6. सुब्रह्मण्यम जयशंकर विदेश मंत्री
7. अर्जुन मुंडा जनजातीय कार्य मंत्री
8. स्मृति जुबिन ईरानी महिला एवं बाल विकास मंत्री
9. पीयूष गोयल 1. कपड़ा मंत्रालय

2. वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय
3. उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय

10. धर्मेन्द्र प्रधान 1. शिक्षा मंत्रालय

2. कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय

11. प्रह्लाद जोशी 1. संसदीय मामलों के मंत्री

2. कोयला मंत्रालय
3. खान मंत्रालय

12. नारायण तातू राणे सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्री
13. सर्बानन्द सोनोवाल 1. बंदरगाह, नौवहन और जलमार्ग मंत्रालय

2. आयुष मंत्रालय

14. मुख़्तार अब्बास नक़वी अल्पसंख्यक मंत्रालय
15. वीरेन्द्र कुमार खटीक सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय
16. गिरिराज सिंह 1. ग्रामीण विकास मंत्रालय

2. पंचायती राज मंत्रालय

17. ज्योतिरादित्य एम. सिंधिया नागरिक उड्डयन मंत्रालय
18. रामचंद्र प्रसाद सिंह इस्पात मंत्रालय
19. अश्विनी वैष्णव 1. रेल मंत्रालय

2. संचार मंत्रालय
3. इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय

20. पशुपति कुमार पारस खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय
21. गजेंद्र सिंह शेखावत जल शक्ति मंत्रालय
22. किरण रिजिजू कानून और न्याय मंत्रालय
23. राजकुमार सिंह 1. विद्युत मंत्रालय

2. नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय

24. हरदीप सिंह पुरी 1. पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय

2. आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय

25. मनसुख मंडाविया 1. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय

2. रासायनिक उर्वरक मंत्रालय

26. भूपेन्द्र यादव 1. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय

2. श्रम और रोजगार मंत्रालय

27. महेंद्र नाथ पाण्डेय भारी उद्योग मंत्रालय
28. पुरुषोत्तम रूपाला मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय
29. जी. किशन रेड्डी 1. संस्कृति मंत्रालय

2. पर्यटन मंत्रालय
3. पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास मंत्रालय

30. अनुराग ठाकुर 1.सूचना और प्रसारण मंत्रालय

2. युवा मामले और खेल मंत्रालय

राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार)
1. राव इन्द्रजीत सिंह 1. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार)

2. योजना मंत्रालय
3. कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय में राज्य मंत्रालय

2. जितेन्द्र सिंह (भाजपा) 1. विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार)

2. पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार)
3. प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री
4. कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय में राज्य मंत्री
5. परमाणु ऊर्जा विभाग में राज्य मंत्री
6. अंतरिक्ष विभाग में राज्य मंत्री

राज्य मंत्री
1. श्रीपद येस्सो नायक 1. बंदरगाह, जहाजरानी और जलमार्ग मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. पर्यटन मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. फग्गन सिंह कुलस्ते 1. इस्पात मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. ग्रामीण विकास मंत्रालय में राज्य मंत्री

3. प्रहलाद सिंह पटेल 1. जल शक्ति मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री

4. अश्विनी कुमार चौबे 1. उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय में राज्य मंत्री

5. अर्जुन राम मेघवाल 1. संसदीय कार्य मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. संस्कृति मंत्रालय में राज्य मंत्री

6. जनरल (सेवानिवृत्त) वी. के. सिंह 1. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. नागर विमानन मंत्रालय में राज्य मंत्री

7. कृष्ण पाल गुर्जर 1. विद्युत मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. भारी उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री

8. रावसाहेब दानवे 1. रेल मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. कोयला मंत्रालय में राज्य मंत्री
3. खान मंत्रालय में राज्य मंत्री

9. रामदास अठावले सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में राज्य मंत्री
10. साध्वी निरंजन ज्योति 1. उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. ग्रामीण विकास मंत्रालय में राज्य मंत्री

11. डॉ. संजीव कुमार बालयान पशुपालन, मत्स्य पालन और दुग्ध उत्पादन मंत्रालय में राज्य मंत्री
12. नित्यानंद राय गृह मंत्रालय में राज्य मंत्री
13. पंकज चौधरी वित्त मंत्रालय में राज्य मंत्री
14. अनुप्रिया सिंह पटेल उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय में राज्य मंत्री
15. एस. पी. सिंह बघेल न्याय और कानून मंत्रालय में राज्य मंत्री
16. राजीव चंद्रशेखर 1. कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय में राज्य मंत्री

17. शोभा करंदलाजे कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय में राज्य मंत्री
18. भानु प्रताप सिंह वर्मा लघु, मध्यम और सूक्ष्म उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री
19. दर्शना जरदोश 1. कपड़ा मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. रेल मंत्रालय में राज्य मंत्री

20. वी. मुरलीधरन 1. विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. संसदीय कार्य मंत्रालय में राज्य मंत्री

21. मीनाक्षी लेखी 1. विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. संस्कृति मंत्रालय में राज्य मंत्री

22. सोम प्रकाश वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री
23. रेणुका सिंह सरुता आदिवासी मंत्रालय में राज्य मंत्री
24. रामेश्वर तेली 1. पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. श्रम और रोजगार मंत्रालय में राज्य मंत्री

25. कैलाश चौधरी कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय में राज्य मंत्री
26. अन्नपूर्णा देवी यादव शिक्षा मंत्रालय में राज्य मंत्री
27. ए. नारायणस्वामी सामाजिक न्याय मंत्रालय में राज्य मंत्री
28. कौशल किशोर शहरी विकास एवं आवास मंत्रालय में राज्य मंत्री
29. अजय भट्ट 1. रक्षा मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. पर्यटन मंत्रालय में राज्य मंत्री

30. बी. एल. वर्मा 1. उत्तर पूर्वी क्षेत्र के विकास मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. सहकारिता मंत्रालय में राज्य मंत्री

31. अजय कुमार मिश्रा गृह मंत्रालय में राज्य मंत्री
32. देवुसिंह चौहान संचार मंत्रालय में राज्य मंत्री
33. भगवंत खुबा 1. नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. रसायन और उर्वरक मंत्रालय में राज्य मंत्री

34. कपिल पाटिल पंचायती राज मंत्रालय में राज्य मंत्री
35. प्रतिमा भौमिक सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में राज्य मंत्री
36. सुभाष सरकार शिक्षा मंत्रालय में राज्य मंत्री
37. डॉ. भागवत किशनराव कराड वित्त मंत्रालय में राज्य मंत्री
38. राजकुमार रंजन सिंह 1. विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. शिक्षा मंत्रालय में राज्य मंत्री

39. डॉ. भारती प्रवीण पवार स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में राज्य मंत्री
40. बिश्वेश्वर टुडू 1. जनजातीय मामलों के मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. जल शक्ति मंत्रालय में राज्य मंत्री

41. शांतनु ठाकुर बंदरगाह, जहाजरानी और जलमार्ग मंत्रालय में राज्य मंत्री
42. डॉ. मुंजापारा महेंद्रभाई 1. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. आयुष मंत्रालय में राज्य मंत्री

43. जॉन बारला अल्पसंख्यक मंत्रालय में राज्य मंत्री
44. एल. मुरुगन 1. मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में राज्य मंत्री

45. निसिथ प्रमाणिक 1. गृह मंत्रालय में राज्य मंत्री

2. युवा मामले और खेल मंत्रालय में राज्य मंत्री