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ह्वेनसांग

ह्वेन त्सांग / युवानच्वांग / Huen Sang / Xuanzang

ह्वेन त्सांग
Xuanzang

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संस्कृत मोक्षदेव, या युआन-त्यांग, बाद मेम त्रिपिटक के रूप में ज्ञात (ज़-602, चेन-लू, चीन; मृ-चीन), ह्वेन त्सांग एक प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षु का जन्म चीन के लुओयंग स्थान पर सन 602 ई॰ में हुआ था। इसके साथ ही वह एक स्कॉलर, घुमक्कड़ और अनुवादक भी था। उनका मूल नाम चेन आई था। ह्वेन त्सांग, जिन्हें मानद उपाधि सान-त्सांग से सुशोभित किया गया। उन्हें मू-चा ति-पो भी कहा जाता है। जिन्होंने बौद्ध धर्मग्रंथों का संस्कृत से चीनी अनुवाद किया और चीन में बौद्ध चेतना मत की स्थापना की। इसने ही भारत और चीन के बीच आरम्भिक तंग वंश काल में समन्वय किया था।

ह्वेन त्सांग चार बच्चों में सबसे छोटा था। इसके प्रपितामह राजधानी के शाही महाविद्यालय में 'निरीक्षक' थे, और पितामह प्राध्यापक थे। इसके पिता एक कन्फ़्यूशस वादी थे, जिन्होंने अपनी राजसी नौकरी त्याग कर राजनैतिक उठापलट, जो कि चीन में कुछ समय बाद होने वाला था, से अपने को बचाया।

शिक्षा व अध्ययन

विद्वानों की पीढ़ियों वाले परिवार में जन्मे ह्वेनसांग ने प्राचीन कन्फ़्यूशियाई शिक्षा प्राप्त की। इसकी जीवनियों के अनुसार, यह प्रतिभाशाली छात्र रहा। इसके पिता के कन्फ़्यूशस वादी होने के बावजूद भी शुरुआती काल से ही इसने बौद्ध भिक्षु बनने की इच्छा व्यक्त की थी। इसके एक बड़े भ्राता ने ऐसा ही किया था। यहीं एक बुद्धिमान प्रज्ञावान बौद्ध भिक्षु के साथ दो वर्ष व्यतीत किये। लेकिन अपने एक बड़े भाई के प्रभाव में बौद्ध धर्मग्रंथों के प्रति उनकी रूचि जागी और उन्होंने शीघ्र ही बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। चीन में उस समय जारी राजनीतिक उथल-पुथल से बचने के लिए अपने भाई के साथ उन्होंने चांग-अन बाद में सू-चूआन (आधुनिक सेच्वान) की यात्रा की। सू-चूआन में ह्वेनसांग ने बौद्ध दर्शन का अध्ययन शुरू किया, लेकिन शीघ्र ही मूल ग्रंथ में कई विसंगतियों एवं विरोधाभासों से परेशान हो गए। अपने चीनी गुरूओं से कोई समाधान न मिलने पर उन्होंने बौद्ध धर्म के स्त्रोत भारत में जाकर अध्ययन करने का फ़ैसला किया। यात्रा अनुमति पत्र हासिल न कर पाने के कारण उन्होंने चोरी-छिपे सू-चुआन छोड़ दिया।

उसने यहाँ थेरवड़ा लेखों का अध्ययन किया।

यात्रा

इसने भारत की सत्रह वर्ष यात्रा की और वापस चीन गया, और अपनी आत्मकथा और अन्य पुस्तकों में यहाँ के ब्यौरे दिये हैं, जो काफ़ी रोचक, और ऐतिहासिक दृष्टि से शिक्षाप्रद है। इसके कई नाम प्रचलित हैं, जो कि चीन के अलग अलग प्रांतों की बोली के अनुसार हैं।

इसी काल में चौथी बौद्ध सम्मेलन हुआ, कुषाण राजा कनिष्क की देख रेख में। सन् 633 में ह्वेन त्सांग ने कश्मीर से दक्षिण की ओर चिनाभुक्ति जिसे वर्तमान में फ़िरोज़पुर कहते हैं, को प्रस्थान किया। वहां भिक्षु विनीतप्रभा के साथ एक वर्ष तक अध्ययन किया। सन् 634 में पूर्व मे जालंधर पहुंचा। इससे पूर्व उसने कुल्लू घाटी में हीनयान के मठ भी भ्रमण किये। फिर वहां से दक्षिण में बैरत, मेरठ और मथुरा की यात्रा की।

अपनी यात्रा के दौरान वह तकला माकान रेगिस्तान के उत्तर से गुज़रे, तुरफ़ान, काराशर, कुच, ताराकंद और समरक़ंद जैसे नख़लिस्तान केंद्रों से होते हुए लौह दरवाज़े(आयरन गेट) से आगे बैक्ट्रिया में, फिर हिंदकुश पार करते हुए कपिशा, गांधार और अंततः पश्चिमोत्तर भारत से कश्मीर पहुंचे। वहां से वह गंगा नदी में नौका से मथुरा पहुंचे और उसके बाद गंगा के पूर्वी इलाक़े में बौद्ध धर्म की पवित्र भूमि में 633 में पहुंचे। फिर गंगा नदी पार करके दक्षिण में संकस्य (कपित्थ) पहुंचा, जहां कहते हैं, कि गौतम बुद्ध स्वर्ग से अवतरित हुए थे। यमुना के तीरे चलते-चलते मथुरा पहुँचा। मथुरा में 2000 भिक्षु मिले, और हिन्दू बहुल क्षेत्र होने के बाद भी, दोनों ही बौद्ध शाखाएं वहां थीं। उसने श्रुघ्न नदी तक यात्रा की, और फिर पूर्ववत मतिपुर के लिये नदी पार की। यह सन् 635 की बात है।

वहां से उत्तरी भारत के महासम्राट हर्षवर्धन की राजधानी कान्यकुब्ज (वर्तमान कन्नौज) पहुंचा। यहाँ सन् 636 में उसने सौ मठ और 10,000 भिक्षु देखे (महायन और हीनयान, दोनों ही)। वह सम्राट की बौद्ध धर्म की संरक्षण और पालन से अतीव प्रभावित हुआ।

भारत में ह्वेनसांग ने बुद्ध के जीवन से जुड़े सभी पवित्र स्थलों का भ्रमण किया और उपमहाद्वीप के पूर्व एवं पश्चिम से लगे इलाक़ो की भी यात्रा की। उन्होंने अपना अधिकांश समय नालंदा मठ में बिताया, जो बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जहां उन्होंने संस्कृत, बौद्ध दर्शन एवं भारतीय चिंतन में दक्षता हासिल की।

भारत में सम्मान

जब वह भारत में थे, तो एक विद्वान के रूप में ह्वेनसांग की ख्याति इतनी फैली की उत्तर भारत के शासक शक्तिशाली राजा हर्षवर्द्धन ने भी उनसे मिलना एवं उन्हें सम्मानित करना चाहा। इस राजा के संरक्षण के कारण, 643 में ह्वेनसांग की वापसी चीन यात्रा काफ़ी सुविधाजनक रही। उनकी ख्याति मुख्य रूप से बौद्ध सूत्रों के अनुवाद की व्यापकता एवं भिन्नता तथा मध्य एशिया और भारत की यात्रा के दस्तावेज़ों के कारण है, जो विस्तृत एवं सटीक आकंड़ों के कारण इतिहासकारों एवं पुरातत्वविदोम के लिए अमूल्य हैं।

राजधानी में वापसी

ह्वेनसांग, तांग की राजधानी चांग-अन में 16 साल के बाद 645 में लौटे। राजधानी में उनका भव्य स्वागत हुआ और कुछ दिनों बाद शहंशाह ने उन्हें दरबार में बुलाया, जो विदेशी भूमि के उनके वृतांत से इतने रोमांचित हुए कि उन्होंने इस बौद्ध भिक्षु को मंत्री पद का प्रस्ताव दिया। लेकिन ह्वेनसांग ने धर्म की सेवा को प्राथमिकता दी, इसलिए उन्होंने सम्मानपूर्वक शाही प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

बौद्ध धर्म का प्रचार

ह्वेनसांग ने अपना शेष जीवन बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुवाद में लगा दिया जो 657 ग्रंथ थे और 520 पेटियों में भारत से लाए गए थे। वह इस विशाल खंड के केवल छोटे से हिस्से (1330 अध्यायों में क़रीब 73 ग्रंथ) का ही अनुवाद में महायान के कुछ अत्यधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ शामिल हैं।

मृत्यु

ह्वेनसांग की मृत्यु 5 फ़रवरी, 664 में हुई थी।

योगाचार में रुचि

ह्वेनसांग की रूचि मुख्यतः योगाचार (विज्ञानवाद) दर्शन पर केंद्रित थी तथा वह और उनके शिष्य क्वी-ची (632-682) ने चीन में वी-शिह (एकमात्र चेतना मत) की स्थापना की। इसका सिद्धांत ह्वेनसांग के चेंग-वे-शिह लुन (चेतना मात्र सिद्धांत की स्थापना पर शोध निबंध) में प्रतिपादित है, जो मुख्य योगाचार लेखों का अनुवाद एवं क्वी-ची की व्याख्या है। इस मत की मुख्य अवधारणा है:-

  • पूरा विश्व केवल मन की प्रतिच्छवि है।

जब ह्वेनसांग एवं क्वी-ची जीवित रहे, इस मत को कुछ प्रतिष्ठा और लोकप्रियता मिली, लेकिन इसका जटिल प्रदर्शन, गूढ़ शब्दावली तथा मन और इंद्रियों का बाल की खाल निकालने वाला विश्लेषण, चीनी परंपरा के लिए नया था। इसलिए इन दोनों हस्तियों की मृत्यु के बाद इस मत का तेजी से ह्रास हुआ। लेकिन ऐसा होने से पहले जापान के एक भिक्षु दोशो, ह्वेनसांग से शिक्षा के लिए 653 में चीन आए और अध्ययन पूरा करने के बाद जापान लौटने के बाद उन्होंने ‘मात्र उद्-भावना’ मत की स्थापना की। सातवीं और आठवीं सदी के दौरान यह मत, जापानी जिसे होसो कहते थे, जापान के सभी बौद्ध मतों में सबसे प्रभावशाली बन गया।

अन्य शिक्षा

अनुवाद के अलावा ह्वेनसांग ने ता-तांग सी-यू-ची ( महान तांग राजवंश के पश्चिमी क्षेत्र का दस्तावेज़) भी लिखा। यह उन देशों का व्यापक वृत्तांत है, जहां से वह अपनी यात्रा के दौरान गुज़रे थे। इस निर्भीक एवं समर्पित बौद्ध भिक्षु और तीर्थयात्री के सम्मान में तांग सम्राट ने ह्वेनसांग की मृत्यु के बाद तीन दिन तक सभी सभाएं रद्द कर दीं।

ह्वेनसांग के बारे में दो अध्ययन हैं:-

  • आर्थर वेली का द रियल त्रिपिटिक पृष्ठ 11-130 (1952),
  • एक जीवंत और रोचक शैली में लिखी जीवनी तथा रेने ग्रुसेट द्वारा लिखी अपेक्षाकृत व्यापक जीवनी सर लेस ट्रेसेज़ दु बुद्धा (1929; इन द फुटस्टेप्स ऑफ़ द बुद्धा), जिसमें तांग इतिहास और बौद्ध दर्शन की पृष्ठभूमि में इस चीनी तीर्थयात्री के जीवन की चर्चा की गई हैं।