कान्यकुब्ज

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Disamb2.jpg कान्यकुब्ज एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- कान्यकुब्ज (बहुविकल्पी)
गौरी शंकर मंदिर, कन्नौज

कान्यकुब्ज उत्तर प्रदेश के प्रमुख नगरों में से एक कन्नौज का प्राचीन नाम है। यह उत्तर प्रदेश राज्य का प्रमुख मुख्यालय एवं नगरपालिका है। कान्यकुब्ज कभी हिन्दू साम्राज्य की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित रहा था। माना जाता है कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण मूल रूप से इसी स्थान के रहने वाले हैं। सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल में कान्यकुब्ज अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था। वर्तमान कन्नौज शहर अपने 'इत्र' व्यवसाय के अलावा तंबाकू के व्यापार के लिए भी मशहूर है। यहाँ मुख्य रूप से कन्नौजी बोली, कनउजी भाषा के रूप में इस्तेमाल की जाती है।

साहित्यिक उल्लेख

साहित्य में कान्यकुब्ज के निम्न नाम उपलब्ध हैं-

  1. 'कन्यापुर' (वराहपुराण)
  2. 'महोदय'
  3. 'कुशिक'
  4. 'कोश'
  5. 'गाधिपुर'
  6. 'कुसुमपुर' (युवानच्वांग)
  7. 'कण्णकुज्ज' (पाली)

कान्यकुब्ज की गणना भारत के प्राचीनतम ख्याति प्राप्त नगरों में की जाती है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार इस नगर का नामकरण कुशनाभ की कुब्जा कन्याओं के नाम पर हुआ था। पुराणों में कथा है कि पुरुरवा के कनिष्ठ पुत्र अमावसु ने कान्यकुब्ज राज्य की स्थापना की थी। कुशनाभ इन्हीं का वंशज था। कान्यकुब्ज का पहला नाम 'महोदय' बताया गया है। महोदय का उल्लेख विष्णुधर्मोत्तर पुराण में भी है-

'पंचालाख्योस्ति विषयो मध्यदेशेमहोदयपुरं तत्र'[1]

महाभारत में कान्यकुब्ज का विश्वामित्र के पिता राजा गाधि की राजधानी के रूप में उल्लेख है। उस समय कान्यकुब्ज की स्थिति दक्षिण पंचाल में रही होगी, किन्तु उसका अधिक महत्व नहीं था, क्योंकि दक्षिण-पंचाल की राजधानी कांपिल्य में थी।

'कन्यातीर्थेऽश्वतीर्थे च गवांतीर्थे च भारत, कालकोट्यां वृषपृस्थे गिरावुष्य च पांडवा:।'[2][3]

इतिहास

दूसरी शती ई. पू. में कान्यकुब्ज का उल्लेख पंतजलि ने महाभाष्य में किया है। प्राचीन ग्रीक लेखकों की भी इस नगर के विषय में जानकारी थी। चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक के शासन काल में यह नगर मौर्य साम्राज्य का अंग ज़रूर ही रहा होगा। इसके पश्चात् शुंग और कुषाण और गुप्त नरेशों का क्रमशः कान्यकुब्ज पर अधिकार रहा। 140 ई. के लगभग लिखे हुए टाल्मी के भूगोल में कन्नौज को कनगौर या कनोगिया लिखा गया है। 405 ई. में चीनी यात्री फाह्यान कन्नौज आया था और उसने यहाँ पर केवल दो हीनयान विहार और एक स्तूप देखा था, जिससे सूचित होता है कि 5वीं शती ई. तक यह नगर अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं था। कान्यकुब्ज के विशेष ऐश्वर्य का युग 7वीं शती से प्रारम्भ हुआ, जब महाराजा हर्षवर्धन ने इसको अपनी राजधानी बनाया। इससे पहले यहाँ मौखरि वंश की राजधानी थी। इस समय कान्यकुब्ज को 'कुशस्थल' भी कहते थे। हर्षचरित के अनुसार हर्ष के भाई राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात् गुप्त नामक व्यक्ति ने कुशस्थल को छीन लिया था, जिसके परिणामस्वरूप हर्ष की बहिन राज्यश्री को विन्ध्याचल पर्वतमाला की ओर चला जाना पड़ा था। कुशस्थल में राज्यश्री के पति गृहवर्मा मौखरि की राजधानी थी।

युवानच्वांग का वर्णन

चीनी यात्री युवानच्वांग के अनुसार कान्यकुब्ज प्रदेश की परिधि 400 ली या 670 मील थी। वास्तव में हर्षवर्धन (606-647 ई.) के समय में कान्यकुब्ज की अभूतपूर्व उन्नति हुई थी और उस समय शायद यह भारत का सबसे बड़ा एवं समृद्धशाली नगर था। युवानच्वांग लिखता है कि नगर के पश्चिमोत्तर में अशोक का बनवाया हुआ एक स्तूप था, जहाँ पर पूर्वकथा के अनुसार गौतम बुद्ध ने सात दिन ठहकर प्रवचन किया था। इस विशाल स्तूप के पास ही अन्य छोटे स्तूप भी थे, और एक विहार में बुद्ध का दाँत भी सुरक्षित था, जिसके दर्शन के लिए सैकड़ों यात्री आते थे।

चीनी यात्री ह्वेनसांग

युवानच्वांग ने नगर के दक्षिणपूर्व में अशोक द्वारा निर्मित एक अन्य स्तूप का भी वर्णन किया है जो कि दो सौ फुट ऊँचा था। किंवदन्ती है कि गौतम बुद्ध इस स्थान पर छह मास तक ठहरे थे।

युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के सौ बौद्ध विहारों और दो सौ देव-मन्दिरों का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि 'नगर लगभग पाँच मील लम्बा और डेढ़ मील चौड़ा है और चतुर्दिक सुरक्षित है। नगर के सौंन्दर्य और उसकी सम्पन्नता का अनुमान उसके विशाल प्रासादों, रमणीय उद्यानों, स्वच्छ जल से पूर्ण तड़ागों और सुदूर देशों से प्राप्त वस्तुओं से सजे हुए संग्रहालयों से किया जा सकता है'। उसके निवासियों की भद्र वेशभूषा, उनके सुन्दर रेशमी वस्त्र, उनका विद्या प्रेम तथा शास्त्रानुराग और कुलीन तथा धनवान कुटुम्बों की अपार संख्या, ये सभी बातें कन्नौज को तत्कालीन नगरों की रानी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थीं। युवानच्वांग ने नगर के देवालयों में महेश्वर शिव और सूर्य के मन्दिरों का भी ज़िक्र किया है। ये दोनों क़ीमती नीले पत्थर के बने थे और उनमें अनेक सुन्दर मूर्तियाँ उत्खनित थीं। युवानच्वांग के अनुसार कन्नौज के देवालय, बौद्ध विहारों के समान ही भव्य और विशाल थे। प्रत्येक देवालय में एक सहस्र व्यक्ति पूजा के लिए नियुक्त थे और मन्दिर दिन-रात नगाड़ों तथा संगीत के घोष से गूँजते रहते थे। युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के भद्रविहार नामक बौद्ध महाविद्यालय का भी उल्लेख किया है, जहाँ पर वह 635 ई. में तीन मास तक रहा था। यहीं रहकर उसने आर्य वीरसेन से बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया था।

अपने उत्कर्ष काल में कान्यकुब्ज जनपद की सीमाएँ कितनी विस्तृत थीं, इसका अनुमान स्कन्दपुराण से और प्रबंधचिंतामणि के उस उल्लेख से होता है जिसमें इस प्रदेश के अंतर्गत छत्तीस लाख गाँव बताए गए हैं। शायद इसी काल में कान्यकुब्ज के कुलीन ब्राह्मणों की कई जातियाँ बंगाल में जाकर बसी थीं। आज के संभ्रांत बंगाली इन्हीं जातियों के वंशज बताए जाते हैं।

यशोवर्मन का अधिकार

हर्षवर्धन के पश्चात् कन्नौज का राज्य तत्कालीन अव्यवस्था के कारण छिन्न-भिन्न हो गया। आठवीं शती में यशोवर्मन कन्नौज का प्रतापी राजा हुआ। गौड़वहो नामक काव्य के अनुसार उसने मगध के गौड़ राजा को पराजित किया। कल्हण के अनुसार कश्मीर के प्रसिद्ध नरेश ललितादित्य मुक्तापीड़ ने यशोवर्मन के राज्य का मूलोच्छेद कर दिया ('समूलमुत्पाटयत्') और कान्यकुब्ज को जीतकर उसे ललितपुर (=लाटपौर) के सूर्यमन्दिर को अर्पित कर दिया। कल्हण लिखता है कि ललितादित्य का कान्यकुब्ज प्रदेश पर उसी प्रकार अधिकार था जैसे अपने राजप्रासाद के प्रांगण पर। राजतरंगिणी में, इस समय के कान्यकुब्ज के जनपद का विस्तार यमुना तट में कालिका नदी (=काली नदी) तक कहा गया है। यशोवर्मन के पश्चात् उसके कई वंशजों के नाम हमें जैन ग्रंथों तथा अन्य सूत्रों से ज्ञात होते हैं—इनमें वज्रायुध, इंद्रायुध और चक्रायुध नामक राजाओं ने यहाँ पर राज्य किया था। वज्रायुध का नाम केवल राजशेखर की कर्पूरमंजरी में है। जैन हरिवंश के अनुसार 783-784 ई. में इंद्रायुध कान्यकुब्ज में राज्य कर रहा था। कल्हण ने कश्मीर नरेश जयापीड विनयादित्य (राज्यकाल, 779-810 ई.) द्वारा कन्नौज पर आक्रमण का उल्लेख किया है।

गुर्जर प्रतिहारों का राज्य

इसके पश्चात् ही राष्ट्रकूट वंश के ध्रुव ने भी कन्नौज के इस राजा को पराजित किया। इन निरन्तर आक्रमणों से कन्नौज का राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो गया। राष्ट्रकूटों की शक्ति क्षीण होने पर राजपूताना मालवा प्रदेश के प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय ने चक्रायुध को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इस वंश में मिहिरभोज, महेन्द्र पाल और महिपाल प्रसिद्ध राजा हुए। इनके समय में कन्नौज के फिर से एक बार दिन फिरे। प्रतिहारकाल में कन्नौज हिन्दू धर्म का प्रमुख केन्द्र था। 8वीं शती से 10वीं शती तक हिन्दू देवताओं के अनेक कलापूर्ण मन्दिर बने, जिनके सैकड़ों अवशेष आज भी कन्नौज के आसपास विद्यमान हैं। इन मन्दिरों में विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, दुर्गा और महिषमर्दिनी की मूर्तियाँ हैं। कुछ समय पूर्व शिव-पार्वती परिणय की एक सुन्दर विशाल मूर्ति यहाँ से प्राप्त हुई थी, जो कि 8वीं शती की है।

मुस्लिमों का आक्रमण

बौद्ध धर्म का इस समय पूर्णतः ह्रास हो गया था। प्रतिहार वंश की अवनति के साथ ही साथ कन्नौज का गौरव भी लुप्त होने लगा। 10वीं शती के अन्त में राज्यपाल कन्नौज का शासक था। यह भी उस महासंघ का सदस्य था, जिसने सम्मिलित रूप से महमूद ग़ज़नवी से पेशावर और लमगान के युद्धों में लोहा लिया था। 1018 ई. में महमूद ने कन्नौज पर ही हमला कर दिया। मुसलमान नगर का वैभव देख कर चकित रह गए। अलउतबी के अनुसार राज्यपाल को किसी पड़ोसी राज्य से सहायता न प्राप्त हो सकी। उसके पास सेना थोड़ी-सी ही थी और इसी कारण वह नगर छोड़कर गंगा पार बारी की ओर चला गया। मुसलमान सैनिकों ने नगर को लूटा, मन्दिरों को ध्वस्त किया और अनेक निर्दोष लोगों का संहार किया। अलबेरूनी लिखता है कि इस आक्रमण के पश्चात् यह विशाल नगर बिल्कुल उजड़ गया। 1019 ई. में महमूद ने दुबारा कन्नौज पर आक्रमण किया और त्रिलोचनपाल से लड़ाई ठानी। त्रिलोचनपाल 1027 ई. तक जीवित था। इस वर्ष का उसका एक दानपत्र प्रयाग के निकट पाया गया है। इसके पश्चात् प्रतिहारों का कन्नौज पर शासन समाप्त हो गया।

जयचंद की पराजय

1085 ई. में फिर एक बार कन्नौज पर चन्द्रदेव गहड़वाल ने सुव्यवस्थित शासन स्थापित किया। उसके समय के अभिलेखों में उसे कुशिक (कन्नौज), काशी, उत्तर कोसल और इंद्रस्थान या इंद्रप्रस्थ का शासक कहा गया है। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा गोविन्द चंद्र हुआ। उसने मुसलमानों के आक्रमणों को विफल किया जैसा कि उसके प्रशस्तिकारों ने लिखा है, 'हम्मीरं (=अमीर) न्यस्तवैरं मुहुरसमरणक्रीडया यो विधते'। गोविन्द चंद्र बड़ा दानी तथा विद्याप्रेमी था। उसकी रानी कुमारदेवी बौद्ध थी और उसने सारनाथ में धर्मचक्रजिनविहार बनवाया था। गोविन्द चंद्र का पुत्र विजय चंद्र था। उसने भी मुसलमानों के आक्रमण से मध्यदेश की रक्षा की जैसा की उसकी प्रशस्ति से सूचित होता है, 'भुवनदलहेलाहर्म्य हम्मीर (=अमीर) नारीनयनजलदधारा धौत भूकोकतापः'। विजयचंद्र का पुत्र जयचंद्र (जयचंद) 1170 ई. के लगभग कन्नौज की गद्दी पर बैठा। पृथ्वीराज रासो के अनुसार उसकी पुत्री संयोगिता का पृथ्वीराज चौहान ने हरण किया था। जयचंद का मुहम्मद ग़ोरी के साथ 1163 में, इटावा के निकट घोर युद्ध हुआ, जिसके पश्चात् कन्नौज से गहड़वाल सत्ता समाप्त हो गई। जयचंद ने इस युद्ध के पहले कई बार मुहम्मद ग़ौरी को बुरी तरह से हराया था, जैसा कि पुरुषपरीक्षा के, 'वारंवारं यवनेश्वरः पराजयी पलायते' और रंभामंजरीनाटक के 'निखिल यवन क्षयकरः' उल्लेखों से सूचित होता है। यह स्वाभाविक ही है कि मुसलमान इतिहास लेखकों ने ग़ौरी की पराजयों का वर्णन नहीं किया है, किन्तु उन्होंने जयचंद की उत्तरभारत के तत्कालीन श्रेष्ठ शासकों में गणना की है।

अंग्रेज़ों का अधिकार

गहड़वालों की अवनति के पश्चात् कन्नौज पर मुसलमानों का आधिपत्य स्थापित हो गया, किन्तु इस प्रदेश में शासकों को निरन्तर विद्रोहों का सामना करना पड़ा। 1540 ई. में कन्नौज शेरशाह के हाथ में आ गया। उस समय यहाँ का हाक़िम बैरक नियाजी था, जिसके कठोर शासन के विषय में प्रसिद्ध था कि उसके लोगों के पास हल के अतिरिक्त लोहे की कोई दूसरी वस्तु नहीं छोड़ी थी। अकबर के समय कन्नौज नगर आगरा के सूबे में आता था और इसे एक सरकार बना दिया गया था, जिसमें 30 महाल थे। जहाँगीर के समय में कन्नौज को रहीम को जागीर के रूप में दिया गया था। 18वीं शती में कन्नौज में बंगश नवाबों का अधिकार रहा, किन्तु अवध के नवाब और रुहेलों से उनकी सदा लड़ाई होती रही, जिसके कारण कन्नौज में बराबर अव्यवस्था बना रही। 1775 ई. में यह प्रदेश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकार में चला गया। 1857 ई. के स्वतंत्रता युद्ध में बंगश-नवाबतफ़ज्जुल हुसैन ने यहाँ स्वतंत्रता की घोषणा की, किन्तु शीघ्र ही अंग्रेज़ों का यहाँ पुनः अधिकार हो गया। इस समय कन्नौज अपने आँचल में सैंकड़ों वर्षों का इतिहास समेटे हुए और कई बार उत्तरी भारत के विशाल राज्यों की राजधानी बनने की गौरवपूर्ण स्मृतियों को अपने अंतस् में संजोए एक छोटा-सा क़स्बा मात्र है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विष्णुधर्मोत्तर पुराण 1,20,2-3.
  2. वन पर्व महाभारत 95, 3
  3. ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 131-132 |

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