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अटल भूतल में तम-राज्य था। | अटल भूतल में तम-राज्य था। | ||
प्रलय – काल समान प्रसुप्त हो। | प्रलय – काल समान प्रसुप्त हो। | ||
− | प्रकृति निश्चल, नीरव, शांत | + | प्रकृति निश्चल, नीरव, शांत थी॥1॥ |
परम - धीर समीर - प्रवाह था। | परम - धीर समीर - प्रवाह था। | ||
वह मनों कुछ निद्रित था हुआ। | वह मनों कुछ निद्रित था हुआ। | ||
गति हुई अथवा अति - धीर थी। | गति हुई अथवा अति - धीर थी। | ||
− | प्रकृति को सुप्रसुप्त विलोक | + | प्रकृति को सुप्रसुप्त विलोक के॥2॥ |
सकल – पादप नीरव थे खड़े। | सकल – पादप नीरव थे खड़े। | ||
हिल नहीं सकता यक पत्र था। | हिल नहीं सकता यक पत्र था। | ||
च्युत हुए पर भी वह मौन ही। | च्युत हुए पर भी वह मौन ही। | ||
− | पतित था अवनी पर हो | + | पतित था अवनी पर हो रहा॥3॥ |
विविध – शब्द – मयी वन की धरा। | विविध – शब्द – मयी वन की धरा। | ||
अति – प्रशांत हुई इस काल थी। | अति – प्रशांत हुई इस काल थी। | ||
ककुभ औ नभ - मंडल में नहीं। | ककुभ औ नभ - मंडल में नहीं। | ||
− | रह गया रव का लवलेश | + | रह गया रव का लवलेश था॥4॥ |
सकल – तारक भी चुपचाप ही। | सकल – तारक भी चुपचाप ही। | ||
बितरते अवनी पर ज्योति थे। | बितरते अवनी पर ज्योति थे। | ||
बिकटता जिस से तम – तोम की। | बिकटता जिस से तम – तोम की। | ||
− | कियत थी अपसारित हो | + | कियत थी अपसारित हो रही॥5॥ |
अवश तुल्य पड़ा निशि अंक में। | अवश तुल्य पड़ा निशि अंक में। | ||
अखिल – प्राणि – समूह अवाक था। | अखिल – प्राणि – समूह अवाक था। | ||
तरु - लतादिक बीच प्रसुप्ति की। | तरु - लतादिक बीच प्रसुप्ति की। | ||
− | प्रबलता प्रतिबिंबित थी | + | प्रबलता प्रतिबिंबित थी हुई॥6॥ |
रुक गया सब कार्य - कलाप था। | रुक गया सब कार्य - कलाप था। | ||
वसुमती – तल भी अति – मूक था। | वसुमती – तल भी अति – मूक था। | ||
सचलता अपनी तज के मनों। | सचलता अपनी तज के मनों। | ||
− | जगत था थिर होकर सो | + | जगत था थिर होकर सो रहा॥7॥ |
सतत शब्दित गेह समूह में। | सतत शब्दित गेह समूह में। | ||
विजनता परिवर्द्धित थी हुई। | विजनता परिवर्द्धित थी हुई। | ||
कुछ विनिद्रित हो जिनमें कहीं। | कुछ विनिद्रित हो जिनमें कहीं। | ||
− | झनकता यक झींगुर भी न | + | झनकता यक झींगुर भी न था॥8॥ |
बदन से तज के मिष धूम के। | बदन से तज के मिष धूम के। | ||
शयन – सूचक श्वास - समूह को। | शयन – सूचक श्वास - समूह को। | ||
झलमलाहट – हीन – शिखा लिए। | झलमलाहट – हीन – शिखा लिए। | ||
− | परम – निद्रित सा गृह – दीप | + | परम – निद्रित सा गृह – दीप था॥9॥ |
भनक थी निशि-गर्भ तिरोहिता। | भनक थी निशि-गर्भ तिरोहिता। | ||
तम – निमज्जित आहट थी हुई। | तम – निमज्जित आहट थी हुई। | ||
निपट नीरवता सब ओर थी। | निपट नीरवता सब ओर थी। | ||
− | गुण – विहीन हुआ जनु व्योम | + | गुण – विहीन हुआ जनु व्योम था॥10॥ |
इस तमोमय मौन निशीथ की। | इस तमोमय मौन निशीथ की। | ||
सहज – नीरवता क्षिति – व्यापिनी। | सहज – नीरवता क्षिति – व्यापिनी। | ||
कलुपिता ब्रज की महि के लिए। | कलुपिता ब्रज की महि के लिए। | ||
− | तनिक थी न विराम | + | तनिक थी न विराम प्रदायिनी॥11॥ |
दलन थी करती उसको कभी। | दलन थी करती उसको कभी। | ||
रुदन की ध्वनि दूर समागता। | रुदन की ध्वनि दूर समागता। | ||
वह कभी बहु थी प्रतिघातता। | वह कभी बहु थी प्रतिघातता। | ||
− | जन – विवोधक – कर्कश – शब्द | + | जन – विवोधक – कर्कश – शब्द से॥12॥ |
कल प्रयाण निमित्त जहाँ – तहाँ। | कल प्रयाण निमित्त जहाँ – तहाँ। | ||
वहन जो करते बहु वस्तु थे। | वहन जो करते बहु वस्तु थे। | ||
श्रम – सना उनका रव - प्रायश:। | श्रम – सना उनका रव - प्रायश:। | ||
− | कर रहा निशि – शांति विनाश | + | कर रहा निशि – शांति विनाश था॥13॥ |
प्रगटती बहु - भीषण मूर्ति थी। | प्रगटती बहु - भीषण मूर्ति थी। | ||
कर रहा भय तांडव नृत्य था। | कर रहा भय तांडव नृत्य था। | ||
बिकट – दंट भयंकर - प्रेत भी। | बिकट – दंट भयंकर - प्रेत भी। | ||
− | बिचरते तरु – मूल – समीप | + | बिचरते तरु – मूल – समीप थे॥14॥ |
वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी। | वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी। | ||
भय – प्रदर्शन थी करती महा। | भय – प्रदर्शन थी करती महा। | ||
निकलती जिससे अविराम थी। | निकलती जिससे अविराम थी। | ||
− | अनल की अति - त्रासकरी - | + | अनल की अति - त्रासकरी - शिखा॥15॥ |
तिमिर – लीन – कलेवर को लिए। | तिमिर – लीन – कलेवर को लिए। | ||
विकट – दानव पादप थे बने। | विकट – दानव पादप थे बने। | ||
भ्रममयी जिसकी विकरालता। | भ्रममयी जिसकी विकरालता। | ||
− | चलित थी करती पवि – चित्त | + | चलित थी करती पवि – चित्त को॥16॥ |
अति – सशंकित और सभीत हो। | अति – सशंकित और सभीत हो। | ||
मन कभी यह था अनुमानता। | मन कभी यह था अनुमानता। | ||
ब्रज समूल विनाशन को खड़े। | ब्रज समूल विनाशन को खड़े। | ||
− | यह निशाचर हैं नृप – कंस | + | यह निशाचर हैं नृप – कंस के॥17॥ |
अति – भयानक – भूमि मसान की। | अति – भयानक – भूमि मसान की। | ||
बहन थी करती शव – राशि को। | बहन थी करती शव – राशि को। | ||
बहु – विभीषणता जिनकी कभी। | बहु – विभीषणता जिनकी कभी। | ||
− | दृग नहीं सकते अवलोक | + | दृग नहीं सकते अवलोक थे॥18॥ |
बिकट - दंत दिखाकर खोपड़ी। | बिकट - दंत दिखाकर खोपड़ी। | ||
कर रही अति - भैरव - हास थी। | कर रही अति - भैरव - हास थी। | ||
विपुल – अस्थि - समूह विभीषिका। | विपुल – अस्थि - समूह विभीषिका। | ||
− | भर रही भय थी बन | + | भर रही भय थी बन भैरवी॥19॥ |
इस भयंकर - घोर - निशीथ में। | इस भयंकर - घोर - निशीथ में। | ||
विकलता अति – कातरता - मयी। | विकलता अति – कातरता - मयी। | ||
विपुल थी परिवर्द्धित हो रही। | विपुल थी परिवर्द्धित हो रही। | ||
− | निपट – नीरव – नंद – निकेत | + | निपट – नीरव – नंद – निकेत में॥20॥ |
सित हुए अपने मुख - लोम को। | सित हुए अपने मुख - लोम को। | ||
कर गहे दुखव्यंजक भाव से। | कर गहे दुखव्यंजक भाव से। | ||
विषम – संकट बीच पड़े हुए। | विषम – संकट बीच पड़े हुए। | ||
− | बिलखते चुपचाप ब्रजेश | + | बिलखते चुपचाप ब्रजेश थे॥21॥ |
हृदय – निर्गत वाष्प समूह से। | हृदय – निर्गत वाष्प समूह से। | ||
सजल थे युग - लोचन हो रहे। | सजल थे युग - लोचन हो रहे। | ||
बदन से उनके चुपचाप ही। | बदन से उनके चुपचाप ही। | ||
− | निकलती अति - तप्त उसास | + | निकलती अति - तप्त उसास थी॥22॥ |
शयित हो अति - चंचल - नेत्र से। | शयित हो अति - चंचल - नेत्र से। | ||
छत कभी वह थे अवलोकते। | छत कभी वह थे अवलोकते। | ||
टहलते फिरते स - विषाद थे। | टहलते फिरते स - विषाद थे। | ||
− | वह कभी निज निर्जन कक्ष | + | वह कभी निज निर्जन कक्ष में॥23॥ |
जब कभी बढ़ती उर की व्यथा। | जब कभी बढ़ती उर की व्यथा। | ||
निकट जा करके तब द्वार के। | निकट जा करके तब द्वार के। | ||
वह रहे नभ नीरव देखते। | वह रहे नभ नीरव देखते। | ||
− | निशि - घटी अवधारण के | + | निशि - घटी अवधारण के लिए॥24॥ |
सब - प्रबंध प्रभात - प्रयाण के। | सब - प्रबंध प्रभात - प्रयाण के। | ||
यदिच थे रव – वर्जित हो रहे। | यदिच थे रव – वर्जित हो रहे। | ||
तदपि रो पड़ती सहसा रहीं। | तदपि रो पड़ती सहसा रहीं। | ||
− | विविध - कार्य - रता | + | विविध - कार्य - रता गृहदासियाँ॥25॥ |
जब कभी यह रोदन कान में। | जब कभी यह रोदन कान में। | ||
ब्रज – धराधिप के पड़ता रहा। | ब्रज – धराधिप के पड़ता रहा। | ||
तड़पते तब यों वह तल्प पै। | तड़पते तब यों वह तल्प पै। | ||
− | निशित – शायक – विद्धजनो | + | निशित – शायक – विद्धजनो यथा॥26॥ |
ब्रज – धरा – पति कक्ष समीप ही। | ब्रज – धरा – पति कक्ष समीप ही। | ||
निपट – नीरव कक्ष विशेष में। | निपट – नीरव कक्ष विशेष में। | ||
समुद थे ब्रज - वल्लभ सो रहे। | समुद थे ब्रज - वल्लभ सो रहे। | ||
− | अति – प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु | + | अति – प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु था॥27॥ |
निकट कोमल तल्प मुकुंद के। | निकट कोमल तल्प मुकुंद के। | ||
कलपती जननी उपविष्ट थी। | कलपती जननी उपविष्ट थी। | ||
अति – असंयत अश्रु – प्रवाह से। | अति – असंयत अश्रु – प्रवाह से। | ||
− | वदन – मंडल प्लावित था | + | वदन – मंडल प्लावित था हुआ॥28॥ |
हृदय में उनके उठती रही। | हृदय में उनके उठती रही। | ||
भय – भरी अति – कुत्सित – भावना। | भय – भरी अति – कुत्सित – भावना। | ||
विपुल – व्याकुल वे इस काल थीं। | विपुल – व्याकुल वे इस काल थीं। | ||
− | जटिलता – वश कौशल – जाल | + | जटिलता – वश कौशल – जाल की॥29॥ |
परम चिंतित वे बनती कभी। | परम चिंतित वे बनती कभी। | ||
सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से। | सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से। | ||
व्यथित था उनको करता कभी। | व्यथित था उनको करता कभी। | ||
− | परम – त्रास महीपति - कंस | + | परम – त्रास महीपति - कंस का॥30॥ |
पट हटा सुत के मुख कंज की। | पट हटा सुत के मुख कंज की। | ||
विचकता जब थीं अवलोकती। | विचकता जब थीं अवलोकती। | ||
विवश सी जब थीं फिर देखती। | विवश सी जब थीं फिर देखती। | ||
− | सरलता, मृदुता, | + | सरलता, मृदुता, सुकुमारता॥31॥ |
तदुपरांत नृपाधम - नीति की। | तदुपरांत नृपाधम - नीति की। | ||
अति भयंकरता जब सोचतीं। | अति भयंकरता जब सोचतीं। | ||
निपतिता तब होकर भूमि में। | निपतिता तब होकर भूमि में। | ||
− | करुण क्रंदन वे करती | + | करुण क्रंदन वे करती रहीं॥32॥ |
हरि न जाग उठें इस सोच से। | हरि न जाग उठें इस सोच से। | ||
सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं। | सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं। | ||
− | इसलिए उन का | + | इसलिए उन का दु:ख - वेग से। |
− | हृदया था शतधा अब रो | + | हृदया था शतधा अब रो रहा॥33॥ |
महरि का यह कष्ट विलोक के। | महरि का यह कष्ट विलोक के। | ||
धुन रहा सिर गेह – प्रदीप था। | धुन रहा सिर गेह – प्रदीप था। | ||
सदन में परिपूरित दीप्ति भी। | सदन में परिपूरित दीप्ति भी। | ||
− | सतत थी महि – लुंठित हो | + | सतत थी महि – लुंठित हो रही॥34॥ |
पर बिना इस दीपक - दीप्ति के। | पर बिना इस दीपक - दीप्ति के। | ||
इस घड़ी इस नीरव - कक्ष में। | इस घड़ी इस नीरव - कक्ष में। | ||
महरि का न प्रबोधक और था। | महरि का न प्रबोधक और था। | ||
− | इसलिए अति पीड़ित वे | + | इसलिए अति पीड़ित वे रहीं॥35॥ |
− | + | वरन् कंपित – शीश प्रदीप भी। | |
कर रहा उनको बहु – व्यग्र था। | कर रहा उनको बहु – व्यग्र था। | ||
अति - समुज्वल - सुंदर - दीप्ति भी। | अति - समुज्वल - सुंदर - दीप्ति भी। | ||
− | मलिन थी अतिही लगती | + | मलिन थी अतिही लगती उन्हें॥36॥ |
− | जब कभी घटता | + | जब कभी घटता दु:ख - वेग था। |
तब नवा कर वे निज - शीश को। | तब नवा कर वे निज - शीश को। | ||
− | महि | + | महि विलम्बित हो कर जोड़ के। |
− | विनय यों करती चुपचाप | + | विनय यों करती चुपचाप थीं॥37॥ |
सकल – मंगल – मूल कृपानिधे। | सकल – मंगल – मूल कृपानिधे। | ||
कुशलतालय हे कुल - देवता। | कुशलतालय हे कुल - देवता। | ||
विपद संकुल है कुल हो रहा। | विपद संकुल है कुल हो रहा। | ||
− | विपुल वांछित है | + | विपुल वांछित है अनुकूलता॥38॥ |
परम – कोमल-बालक श्याम ही। | परम – कोमल-बालक श्याम ही। | ||
कलपते कुल का यक चिन्ह है। | कलपते कुल का यक चिन्ह है। | ||
पर प्रभो! उसके प्रतिकूल भी। | पर प्रभो! उसके प्रतिकूल भी। | ||
− | अति – प्रचंड समीरण है | + | अति – प्रचंड समीरण है उठा॥39॥ |
यदि हुई न कृपा पद - कंज की। | यदि हुई न कृपा पद - कंज की। | ||
टल नहीं सकती यह आपदा। | टल नहीं सकती यह आपदा। | ||
मुझ सशंकित को सब काल ही। | मुझ सशंकित को सब काल ही। | ||
− | पद – सरोरुह का अवलंब | + | पद – सरोरुह का अवलंब है॥40॥ |
कुल विवर्द्धन पालन ओर ही। | कुल विवर्द्धन पालन ओर ही। | ||
प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। | प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। | ||
यह सुमंगल मूल सुदृष्टि ही। | यह सुमंगल मूल सुदृष्टि ही। | ||
− | अति अपेक्षित है इस काल | + | अति अपेक्षित है इस काल भी॥41॥ |
समझ के पद - पंकज - सेविका। | समझ के पद - पंकज - सेविका। | ||
कर सकी अपराध कभी नहीं। | कर सकी अपराध कभी नहीं। | ||
पर शरीर मिले सब भाँति में। | पर शरीर मिले सब भाँति में। | ||
− | निरपराध कहा सकती | + | निरपराध कहा सकती नहीं॥42॥ |
इस लिये मुझसे अनजान में। | इस लिये मुझसे अनजान में। | ||
यदि हुआ कुछ भी अपराध हो। | यदि हुआ कुछ भी अपराध हो। | ||
वह सभी इस संकट - काल में। | वह सभी इस संकट - काल में। | ||
− | कुलपते! सब ही विधि क्षम्य | + | कुलपते! सब ही विधि क्षम्य है॥43॥ |
प्रथम तो सब काल अबोध की। | प्रथम तो सब काल अबोध की। | ||
सरल चूक उपेक्षित है हुई। | सरल चूक उपेक्षित है हुई। | ||
फिर सदाशय आशय सामने। | फिर सदाशय आशय सामने। | ||
− | परम तुच्छ सभी अपराध | + | परम तुच्छ सभी अपराध हैं॥44॥ |
सरलता-मय-बालक श्याम तो। | सरलता-मय-बालक श्याम तो। | ||
निरपराध, नितांत – निरीह है। | निरपराध, नितांत – निरीह है। | ||
इस लिये इस काल दयानिधे। | इस लिये इस काल दयानिधे। | ||
− | वह अतीव – अनुग्रह – पात्र | + | वह अतीव – अनुग्रह – पात्र है॥45॥ |
'''मालिनी छंद''' | '''मालिनी छंद''' | ||
पंक्ति 210: | पंक्ति 210: | ||
सकुशल रह के औ’ विघ्न बाधा बचा के। | सकुशल रह के औ’ विघ्न बाधा बचा के। | ||
निजप्रिय सुत दोनों साथ लेके सुखी हो। | निजप्रिय सुत दोनों साथ लेके सुखी हो। | ||
− | जिस दिन पलटेंगे गेह स्वामी | + | जिस दिन पलटेंगे गेह स्वामी हमारे॥46॥ |
प्रभु दिवस उसी मैं सत्विकी रीति द्वारा। | प्रभु दिवस उसी मैं सत्विकी रीति द्वारा। | ||
परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से। | परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से। | ||
विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज - पूजा। | विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज - पूजा। | ||
− | उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा | + | उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा से॥47॥ |
− | ''' | + | '''द्रुतविलम्बित छंद''' |
यह प्रलोभन है न कृपानिधे। | यह प्रलोभन है न कृपानिधे। | ||
यह अकोर प्रदान न है प्रभो। | यह अकोर प्रदान न है प्रभो। | ||
− | + | वरन् है यह कातर–चित्त की। | |
− | परम - शांतिमयी - | + | परम - शांतिमयी - अवतारणा॥48॥ |
कलुष - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी। | कलुष - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी। | ||
जगत की जननी भव–वल्लभे। | जगत की जननी भव–वल्लभे। | ||
जननि के जिय की सकला व्यथा। | जननि के जिय की सकला व्यथा। | ||
− | जननि ही जिय है कुछ | + | जननि ही जिय है कुछ जानता॥49॥ |
अवनि में ललना जन जन्म को। | अवनि में ललना जन जन्म को। | ||
विफल है करती अनपत्यता। | विफल है करती अनपत्यता। | ||
सहज जीवन को उसके सदा। | सहज जीवन को उसके सदा। | ||
− | वह सकंटक है करती | + | वह सकंटक है करती नहीं॥50॥ |
उपजती पर जो उर व्याधि है। | उपजती पर जो उर व्याधि है। | ||
सतत संतति संकट - शोच से। | सतत संतति संकट - शोच से। | ||
वह सकंटक ही करती नहीं। | वह सकंटक ही करती नहीं। | ||
− | + | वरन् जीवन है करती वृथा॥51॥ | |
बहुत चिंतित थी पद-सेविका। | बहुत चिंतित थी पद-सेविका। | ||
प्रथम भी यक संतति के लिए। | प्रथम भी यक संतति के लिए। | ||
पर निरंतर संतति - कष्ट से। | पर निरंतर संतति - कष्ट से। | ||
− | हृदय है अब जर्जर हो | + | हृदय है अब जर्जर हो रहा॥52॥ |
जननि जो उपजी उर में दया। | जननि जो उपजी उर में दया। | ||
जरठता अवलोक - स्वदास की। | जरठता अवलोक - स्वदास की। | ||
बन गई यदि मैं बड़भागिनी। | बन गई यदि मैं बड़भागिनी। | ||
− | तब कृपाबल पाकर पुत्र | + | तब कृपाबल पाकर पुत्र को॥53॥ |
किस लिये अब तो यह सेविका। | किस लिये अब तो यह सेविका। | ||
बहु निपीड़ित है नित हो रही। | बहु निपीड़ित है नित हो रही। | ||
किस लिये, तब बालक के लिये। | किस लिये, तब बालक के लिये। | ||
− | उमड़ है पड़ती | + | उमड़ है पड़ती दु:ख की घटा॥54॥ |
‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ||
प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | ||
दलन को उसके भव - वल्लभे। | दलन को उसके भव - वल्लभे। | ||
− | अब न क्या बल है तव बाहु | + | अब न क्या बल है तव बाहु में॥55॥ |
स्वसुत रक्षण औ पर-पुत्र के। | स्वसुत रक्षण औ पर-पुत्र के। | ||
दलन की यह निर्म्मम प्रार्थना। | दलन की यह निर्म्मम प्रार्थना। | ||
बहुत संभव है यदि यों कहें। | बहुत संभव है यदि यों कहें। | ||
− | सुन नहीं सकती | + | सुन नहीं सकती ‘जगदंबिका’॥56॥ |
पर निवेदन है यह ज्ञानदे। | पर निवेदन है यह ज्ञानदे। | ||
अबल का बल केवल न्याय है। | अबल का बल केवल न्याय है। | ||
नियम-शालिनि क्या अवमानना। | नियम-शालिनि क्या अवमानना। | ||
− | उचित है विधि-सम्मत-न्याय | + | उचित है विधि-सम्मत-न्याय की॥57॥ |
परम क्रूर-महीपति – कंस की। | परम क्रूर-महीपति – कंस की। | ||
कुटिलता अब है अति कष्टदा। | कुटिलता अब है अति कष्टदा। | ||
कपट-कौशल से अब नित्य ही। | कपट-कौशल से अब नित्य ही। | ||
− | बहुत-पीड़ित है ब्रज की | + | बहुत-पीड़ित है ब्रज की प्रजा॥58॥ |
सरलता – मय – बालक के लिए। | सरलता – मय – बालक के लिए। | ||
जननि! जो अब कौशल है हुआ। | जननि! जो अब कौशल है हुआ। | ||
सह नहीं सकता उसको कभी। | सह नहीं सकता उसको कभी। | ||
− | पवि विनिर्मित मानव-प्राण | + | पवि विनिर्मित मानव-प्राण भी॥59॥ |
कुबलया सम मत्त – गजेन्द्र से। | कुबलया सम मत्त – गजेन्द्र से। | ||
भिड़ नहीं सकते दनुजात भी। | भिड़ नहीं सकते दनुजात भी। | ||
वह महा सुकुमार कुमार से। | वह महा सुकुमार कुमार से। | ||
− | रण-निमित्त सुसज्जित है | + | रण-निमित्त सुसज्जित है हुआ॥60॥ |
विकट – दर्शन कज्जल – मेरु सा। | विकट – दर्शन कज्जल – मेरु सा। | ||
सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी। | सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी। | ||
द्विरद क्या जननी उपयुक्त है। | द्विरद क्या जननी उपयुक्त है। | ||
− | यक पयो-मुख बालक के | + | यक पयो-मुख बालक के लिये॥61॥ |
व्यथित हो कर क्यों बिलखूँ नहीं। | व्यथित हो कर क्यों बिलखूँ नहीं। | ||
अहह धीरज क्योंकर मै धरूँ। | अहह धीरज क्योंकर मै धरूँ। | ||
मृदु – कुरंगम शावक से कभी। | मृदु – कुरंगम शावक से कभी। | ||
− | पतन हो न सका हिम शैल | + | पतन हो न सका हिम शैल का॥62॥ |
विदित है बल, वज्र-शरीरता। | विदित है बल, वज्र-शरीरता। | ||
बिकटता शल तोशल कूट की। | बिकटता शल तोशल कूट की। | ||
परम है पटु मुष्टि - प्रहार में। | परम है पटु मुष्टि - प्रहार में। | ||
− | प्रबल मुष्टिक संज्ञक मल्ल | + | प्रबल मुष्टिक संज्ञक मल्ल भी॥63॥ |
पृथुल - भीम - शरीर भयावने। | पृथुल - भीम - शरीर भयावने। | ||
अपर हैं जितने मल कंस के। | अपर हैं जितने मल कंस के। | ||
सब नियोजित हैं रण के लिए। | सब नियोजित हैं रण के लिए। | ||
− | यक किशोरवयस्क कुमार | + | यक किशोरवयस्क कुमार से॥64॥ |
विपुल वीर सजे बहु-अस्त्र से। | विपुल वीर सजे बहु-अस्त्र से। | ||
पंक्ति 300: | पंक्ति 300: | ||
शरण है गहता नरनाथ की। | शरण है गहता नरनाथ की। | ||
यदि निपीड़न भूपति ही करे। | यदि निपीड़न भूपति ही करे। | ||
− | + | जगत् में फिर रक्षक कौन है?॥67॥ | |
गगन में उड़ जा सकती नहीं। | गगन में उड़ जा सकती नहीं। | ||
पंक्ति 358: | पंक्ति 358: | ||
यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से। | यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से। | ||
− | + | पृथक् से रहते नित आप हैं। | |
पर कहाँ जन को अवलम्ब है। | पर कहाँ जन को अवलम्ब है। | ||
प्रभु गहे पद-पंकज के बिना॥79॥ | प्रभु गहे पद-पंकज के बिना॥79॥ | ||
पंक्ति 395: | पंक्ति 395: | ||
ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती औ देखती व्योम को। | ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती औ देखती व्योम को। | ||
− | त्यों हीं त्यों उनका प्रगाढ़ | + | त्यों हीं त्यों उनका प्रगाढ़ दु:ख भी दुर्दान्त था हो रहा। |
ऑंखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं। | ऑंखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं। | ||
बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही॥86॥ | बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही॥86॥ |
09:05, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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