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|पाठ 1=सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है। यहाँ "सु" का अर्थ है- 'शुभ' और "अस्ति" का 'होना'। [[संस्कृत]] व्याकरण के अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"।
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|अन्य जानकारी=[[भारतीय संस्कृति]] में [[स्वस्तिक]] चिह्न को [[विष्णु]], [[सूर्य देव|सूर्य]], सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण [[ब्रह्माण्ड]] का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे [[गणेश]] का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है।
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[[स्वस्तिक]] [[आर्य|आर्यत्व]] का चिह्न माना जाता है। [[वैदिक साहित्य]] में स्वस्तिक की चर्चा नहीं हैं। यह शब्द ई. सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है; जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है। किंतु ओरेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले पहल [[बलूचिस्तान]] स्थित शाही टुम्प की धूसर भांडवाली संस्कृति में मिलता है, जिसे [[हड़प्पा सभ्यता|हड़प्पा]] से पहले का माना जाता है और जिसका सम्बन्ध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है।<ref>एच॰ डी॰ साँकलिया, दि प्रीहिस्ट्री एंड प्रोटोहिस्ट्री ऑव इंडिया एंड पाकिस्तान, दक्कन कॉलेज पोस्टग्रैड्यूएट एंड रिसर्च इनस्टिट्यूट, पूना, 1974, पृ॰ 323-24</ref> स्टाइन की दृष्टि से स्वस्तिक का प्रतीक अनोखा है, किंतु अरनेस्ट मैके के अनुसार यह सबसे पहले-पहल एलम अर्थात् आर्य पूर्व ईरान में प्रकट होता है।<ref>यद्यपि स्वस्तिक कुछ हड़प्पाई मुहरों पर मिलता है, मैके के अनुसार यह सिंधु घाटी की विशेषता नहीं है। उनके अनुसार यह बहुत पहले मिला। अर्ली इंडस सिविलाइज़ेशन, डोरथी मैके के द्वारा परिवर्द्धित एवं संशोधित द्वितीय संस्करण, इंडोलॉजिकल बुक कॉपोरेशन, दिल्ली, 1976, पृ॰ 71-72</ref>
 
[[स्वस्तिक]] [[आर्य|आर्यत्व]] का चिह्न माना जाता है। [[वैदिक साहित्य]] में स्वस्तिक की चर्चा नहीं हैं। यह शब्द ई. सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है; जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है। किंतु ओरेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले पहल [[बलूचिस्तान]] स्थित शाही टुम्प की धूसर भांडवाली संस्कृति में मिलता है, जिसे [[हड़प्पा सभ्यता|हड़प्पा]] से पहले का माना जाता है और जिसका सम्बन्ध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है।<ref>एच॰ डी॰ साँकलिया, दि प्रीहिस्ट्री एंड प्रोटोहिस्ट्री ऑव इंडिया एंड पाकिस्तान, दक्कन कॉलेज पोस्टग्रैड्यूएट एंड रिसर्च इनस्टिट्यूट, पूना, 1974, पृ॰ 323-24</ref> स्टाइन की दृष्टि से स्वस्तिक का प्रतीक अनोखा है, किंतु अरनेस्ट मैके के अनुसार यह सबसे पहले-पहल एलम अर्थात् आर्य पूर्व ईरान में प्रकट होता है।<ref>यद्यपि स्वस्तिक कुछ हड़प्पाई मुहरों पर मिलता है, मैके के अनुसार यह सिंधु घाटी की विशेषता नहीं है। उनके अनुसार यह बहुत पहले मिला। अर्ली इंडस सिविलाइज़ेशन, डोरथी मैके के द्वारा परिवर्द्धित एवं संशोधित द्वितीय संस्करण, इंडोलॉजिकल बुक कॉपोरेशन, दिल्ली, 1976, पृ॰ 71-72</ref>
 
==प्राचीनता==
 
==प्राचीनता==
 
स्वस्तिक वाले ठप्पे हड़प्पाई में और अल्लीन-देपे में पाये गये हैं।<ref name="दानी एंड मैसन">दानी एंड मैसन, सं॰ उदधृत पुस्तक में वी॰ एम॰ मैसन "दि ब्रॉन्ज एज इन खोरासन एंड ट्रांसऑकसियाना", पृ॰ 242</ref> और उनका समय 2300-2000 ई॰ पू॰ है।<ref name="दानी एंड मैसन"/> शाही टुम्प में स्वस्तिक प्रतीक का प्रयोग [[श्राद्ध]] वाले बरतनों पर होता था, और 1200 ई. पू. के लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में जो क़ब्रगाह मिले हैं और उनमें क़ब्र की जगह पर इस प्रकार का चिह्न मिलता है।<ref> दानी एंड मैसन, सं॰, उदधृत पुस्तक में लिटविंस्की एंड पयंकोव "पेस्ट्रॉरल ट्राइब्स ऑव दि ब्रॉन्ज एज इन दि आक्सस वैली (बैक्ट्रिया)", पृ॰ 394</ref> `मैकेंजी' ने इस समस्या का विषद् रूप से विवेचन किया है और बताया है कि विभिन्न देशों में स्वस्तिक अनेक प्रतीकार्यों को निर्देशित करता है। उन्होंने स्वस्तिक को पजनन प्रतीक उर्वरता का प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिह्न अलंकरण का चिह्न एवं अलंकरण का चिह्न माना है।
 
स्वस्तिक वाले ठप्पे हड़प्पाई में और अल्लीन-देपे में पाये गये हैं।<ref name="दानी एंड मैसन">दानी एंड मैसन, सं॰ उदधृत पुस्तक में वी॰ एम॰ मैसन "दि ब्रॉन्ज एज इन खोरासन एंड ट्रांसऑकसियाना", पृ॰ 242</ref> और उनका समय 2300-2000 ई॰ पू॰ है।<ref name="दानी एंड मैसन"/> शाही टुम्प में स्वस्तिक प्रतीक का प्रयोग [[श्राद्ध]] वाले बरतनों पर होता था, और 1200 ई. पू. के लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में जो क़ब्रगाह मिले हैं और उनमें क़ब्र की जगह पर इस प्रकार का चिह्न मिलता है।<ref> दानी एंड मैसन, सं॰, उदधृत पुस्तक में लिटविंस्की एंड पयंकोव "पेस्ट्रॉरल ट्राइब्स ऑव दि ब्रॉन्ज एज इन दि आक्सस वैली (बैक्ट्रिया)", पृ॰ 394</ref> `मैकेंजी' ने इस समस्या का विषद् रूप से विवेचन किया है और बताया है कि विभिन्न देशों में स्वस्तिक अनेक प्रतीकार्यों को निर्देशित करता है। उन्होंने स्वस्तिक को पजनन प्रतीक उर्वरता का प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिह्न अलंकरण का चिह्न एवं अलंकरण का चिह्न माना है।
 
==ऐतिहासिक साक्ष्य==
 
==ऐतिहासिक साक्ष्य==
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[[चित्र:Swastika-3.jpg|उत्तर पश्चिमी बुल्गारिया में 7000 साल पुराने स्वस्तिक|left|300px|thumb]]
 
ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्त्व भरा पड़ा है। [[मोहन जोदड़ो|मोहन जोदड़ों]], [[हड़प्पा संस्कृति]], [[अशोक के शिलालेख|अशोक के शिलालेखों]], [[रामायण]], [[हरिवंश पुराण]], [[महाभारत]] आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है। [[भारत]] में आज तक लगभग जितनी भी पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं, उनसे प्राप्त [[पुरावशेष|पुरावशेषों]] में स्वस्तिक का अंकन बराबर मिलता है। [[सिन्धु घाटी]] सभ्यता की खुदाई में प्राप्त बर्तन और मुद्राओं पर हमें स्वस्तिक की आकृतियाँ खुदी मिली हैं, जो इसकी प्राचीनता का ज्वलन्त प्रमाण है तथा जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि लगभग 2-4 हज़ार वर्ष पूर्व में भी मानव सभ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिह्न का प्रयोग करती थी। [[सिन्धु घाटी सभ्यता|सिन्धु-घाटी सभ्यता]] के लोग सूर्य-पूजक थे और स्वस्तिक चिह्व, सूर्य का भी प्रतीक माना जाता रहा है। मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से ऐसी अनेक मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर स्वस्तिक अंकित है। मोहन-जोदड़ों की एक मुद्रा में [[हाथी]] स्वस्तिक के सम्मुख झुका हुआ दिखलाया गया है। अशोक के शिला-लेखों में स्वस्तिक का प्रयोग अधिकता से हुआ है। पालि अभिलेखों में भी इस प्रतीक का अंकन है।
 
ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्त्व भरा पड़ा है। [[मोहन जोदड़ो|मोहन जोदड़ों]], [[हड़प्पा संस्कृति]], [[अशोक के शिलालेख|अशोक के शिलालेखों]], [[रामायण]], [[हरिवंश पुराण]], [[महाभारत]] आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है। [[भारत]] में आज तक लगभग जितनी भी पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं, उनसे प्राप्त [[पुरावशेष|पुरावशेषों]] में स्वस्तिक का अंकन बराबर मिलता है। [[सिन्धु घाटी]] सभ्यता की खुदाई में प्राप्त बर्तन और मुद्राओं पर हमें स्वस्तिक की आकृतियाँ खुदी मिली हैं, जो इसकी प्राचीनता का ज्वलन्त प्रमाण है तथा जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि लगभग 2-4 हज़ार वर्ष पूर्व में भी मानव सभ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिह्न का प्रयोग करती थी। [[सिन्धु घाटी सभ्यता|सिन्धु-घाटी सभ्यता]] के लोग सूर्य-पूजक थे और स्वस्तिक चिह्व, सूर्य का भी प्रतीक माना जाता रहा है। मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से ऐसी अनेक मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर स्वस्तिक अंकित है। मोहन-जोदड़ों की एक मुद्रा में [[हाथी]] स्वस्तिक के सम्मुख झुका हुआ दिखलाया गया है। अशोक के शिला-लेखों में स्वस्तिक का प्रयोग अधिकता से हुआ है। पालि अभिलेखों में भी इस प्रतीक का अंकन है।
  
 
[[पश्चिम भारत]] के अनेक गुहा-मंदिरों यथा- कुंडा, [[कार्ले चैत्यगृह|कार्ले]], जूनर और शेलारवाड़ी में यह प्रतीक विशेष अवलोकनीय है। [[साँची]], [[भरहुत]] और [[अमरावती]] के [[स्तूप|स्तूपों]] में यह स्वतंत्र रूप से अंकित नहीं है, पर सांची स्तूप के प्रवेश द्वार पर वृत्ताकार चतुष्पथ के रूप में प्रदर्शित है। ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी की खण्डगिरि, [[उदयगिरि गुफ़ाएँ|उदयगिरि]] की रानी की गुफ़ा में भी स्वस्तिक चिह्न मिले हैं। [[मत्स्य पुराण]] में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वस्तिक की चर्चा की गयी है। [[पाणिनी]] की [[व्याकरण]] में भी स्वस्तिक का उल्लेख है। [[पाली भाषा]] में स्वस्तिक को साक्षियों के नाम से पुकारा गया, जो बाद में साखी या साकी कहलाये जाने लगे। जैन परम्परा में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वीकृत [[अष्टमंगल]] द्रव्यों में स्वस्तिक का स्थान सर्वोपरि है। प्रागैतिहासिक मानव के मूल रूप में गुफा भित्तियों पर चित्रकला के जो बीज उकेरे थे उनमें `सीधी, तिरछी या आड़ी रेखाएँ, त्रिकोणात्मक आकृतियाँ थीं। यही आकृतियाँ उस युग की लिपि थी। मेसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता था।  
 
[[पश्चिम भारत]] के अनेक गुहा-मंदिरों यथा- कुंडा, [[कार्ले चैत्यगृह|कार्ले]], जूनर और शेलारवाड़ी में यह प्रतीक विशेष अवलोकनीय है। [[साँची]], [[भरहुत]] और [[अमरावती]] के [[स्तूप|स्तूपों]] में यह स्वतंत्र रूप से अंकित नहीं है, पर सांची स्तूप के प्रवेश द्वार पर वृत्ताकार चतुष्पथ के रूप में प्रदर्शित है। ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी की खण्डगिरि, [[उदयगिरि गुफ़ाएँ|उदयगिरि]] की रानी की गुफ़ा में भी स्वस्तिक चिह्न मिले हैं। [[मत्स्य पुराण]] में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वस्तिक की चर्चा की गयी है। [[पाणिनी]] की [[व्याकरण]] में भी स्वस्तिक का उल्लेख है। [[पाली भाषा]] में स्वस्तिक को साक्षियों के नाम से पुकारा गया, जो बाद में साखी या साकी कहलाये जाने लगे। जैन परम्परा में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वीकृत [[अष्टमंगल]] द्रव्यों में स्वस्तिक का स्थान सर्वोपरि है। प्रागैतिहासिक मानव के मूल रूप में गुफा भित्तियों पर चित्रकला के जो बीज उकेरे थे उनमें `सीधी, तिरछी या आड़ी रेखाएँ, त्रिकोणात्मक आकृतियाँ थीं। यही आकृतियाँ उस युग की लिपि थी। मेसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता था।  
 
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==बाहरी कड़ियाँ==
 
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*[http://prachinsabyata.blogspot.in/2013/06/mystery-of-swastika-pyramids-and.html स्वस्तिक , पिरामिड और पुनर्जन्म के रहस्य]  
 
*[http://prachinsabyata.blogspot.in/2013/06/mystery-of-swastika-pyramids-and.html स्वस्तिक , पिरामिड और पुनर्जन्म के रहस्य]  
*[http://www.panditastro.com/2009/12/symbol-of-life-and-preservation.html भारतीय संस्कृ्ति का महान प्रतीक चिन्ह- स्वस्तिक]
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*[http://www.panditastro.com/2009/12/symbol-of-life-and-preservation.html भारतीय संस्कृ्ति का महान् प्रतीक चिन्ह- स्वस्तिक]
 
*[http://www.livehindustan.com/news/astronews/vastushastra/article1-vastu-117-120-294761.html स्वास्थ्य व सौभाग्य घर लाते हैं, स्वस्तिक और मंगल कलश]
 
*[http://www.livehindustan.com/news/astronews/vastushastra/article1-vastu-117-120-294761.html स्वास्थ्य व सौभाग्य घर लाते हैं, स्वस्तिक और मंगल कलश]
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==

07:32, 6 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

स्वस्तिक विषय सूची
स्वस्तिक की प्राचीनता
स्वस्तिक
विवरण पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न 'स्वस्तिक' अपने आप में विलक्षण है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है।
स्वस्तिक का अर्थ सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है। यहाँ "सु" का अर्थ है- 'शुभ' और "अस्ति" का 'होना'। संस्कृत व्याकरण के अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"।
स्वस्ति मंत्र ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥
अन्य जानकारी भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्न को विष्णु, सूर्य, सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे गणेश का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है।

स्वस्तिक आर्यत्व का चिह्न माना जाता है। वैदिक साहित्य में स्वस्तिक की चर्चा नहीं हैं। यह शब्द ई. सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है; जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है। किंतु ओरेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले पहल बलूचिस्तान स्थित शाही टुम्प की धूसर भांडवाली संस्कृति में मिलता है, जिसे हड़प्पा से पहले का माना जाता है और जिसका सम्बन्ध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है।[1] स्टाइन की दृष्टि से स्वस्तिक का प्रतीक अनोखा है, किंतु अरनेस्ट मैके के अनुसार यह सबसे पहले-पहल एलम अर्थात् आर्य पूर्व ईरान में प्रकट होता है।[2]

प्राचीनता

स्वस्तिक वाले ठप्पे हड़प्पाई में और अल्लीन-देपे में पाये गये हैं।[3] और उनका समय 2300-2000 ई॰ पू॰ है।[3] शाही टुम्प में स्वस्तिक प्रतीक का प्रयोग श्राद्ध वाले बरतनों पर होता था, और 1200 ई. पू. के लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में जो क़ब्रगाह मिले हैं और उनमें क़ब्र की जगह पर इस प्रकार का चिह्न मिलता है।[4] `मैकेंजी' ने इस समस्या का विषद् रूप से विवेचन किया है और बताया है कि विभिन्न देशों में स्वस्तिक अनेक प्रतीकार्यों को निर्देशित करता है। उन्होंने स्वस्तिक को पजनन प्रतीक उर्वरता का प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिह्न अलंकरण का चिह्न एवं अलंकरण का चिह्न माना है।

ऐतिहासिक साक्ष्य

उत्तर पश्चिमी बुल्गारिया में 7000 साल पुराने स्वस्तिक

ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्त्व भरा पड़ा है। मोहन जोदड़ों, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिलालेखों, रामायण, हरिवंश पुराण, महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है। भारत में आज तक लगभग जितनी भी पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं, उनसे प्राप्त पुरावशेषों में स्वस्तिक का अंकन बराबर मिलता है। सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में प्राप्त बर्तन और मुद्राओं पर हमें स्वस्तिक की आकृतियाँ खुदी मिली हैं, जो इसकी प्राचीनता का ज्वलन्त प्रमाण है तथा जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि लगभग 2-4 हज़ार वर्ष पूर्व में भी मानव सभ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिह्न का प्रयोग करती थी। सिन्धु-घाटी सभ्यता के लोग सूर्य-पूजक थे और स्वस्तिक चिह्व, सूर्य का भी प्रतीक माना जाता रहा है। मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से ऐसी अनेक मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर स्वस्तिक अंकित है। मोहन-जोदड़ों की एक मुद्रा में हाथी स्वस्तिक के सम्मुख झुका हुआ दिखलाया गया है। अशोक के शिला-लेखों में स्वस्तिक का प्रयोग अधिकता से हुआ है। पालि अभिलेखों में भी इस प्रतीक का अंकन है।

पश्चिम भारत के अनेक गुहा-मंदिरों यथा- कुंडा, कार्ले, जूनर और शेलारवाड़ी में यह प्रतीक विशेष अवलोकनीय है। साँची, भरहुत और अमरावती के स्तूपों में यह स्वतंत्र रूप से अंकित नहीं है, पर सांची स्तूप के प्रवेश द्वार पर वृत्ताकार चतुष्पथ के रूप में प्रदर्शित है। ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी की खण्डगिरि, उदयगिरि की रानी की गुफ़ा में भी स्वस्तिक चिह्न मिले हैं। मत्स्य पुराण में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वस्तिक की चर्चा की गयी है। पाणिनी की व्याकरण में भी स्वस्तिक का उल्लेख है। पाली भाषा में स्वस्तिक को साक्षियों के नाम से पुकारा गया, जो बाद में साखी या साकी कहलाये जाने लगे। जैन परम्परा में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वीकृत अष्टमंगल द्रव्यों में स्वस्तिक का स्थान सर्वोपरि है। प्रागैतिहासिक मानव के मूल रूप में गुफा भित्तियों पर चित्रकला के जो बीज उकेरे थे उनमें `सीधी, तिरछी या आड़ी रेखाएँ, त्रिकोणात्मक आकृतियाँ थीं। यही आकृतियाँ उस युग की लिपि थी। मेसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एच॰ डी॰ साँकलिया, दि प्रीहिस्ट्री एंड प्रोटोहिस्ट्री ऑव इंडिया एंड पाकिस्तान, दक्कन कॉलेज पोस्टग्रैड्यूएट एंड रिसर्च इनस्टिट्यूट, पूना, 1974, पृ॰ 323-24
  2. यद्यपि स्वस्तिक कुछ हड़प्पाई मुहरों पर मिलता है, मैके के अनुसार यह सिंधु घाटी की विशेषता नहीं है। उनके अनुसार यह बहुत पहले मिला। अर्ली इंडस सिविलाइज़ेशन, डोरथी मैके के द्वारा परिवर्द्धित एवं संशोधित द्वितीय संस्करण, इंडोलॉजिकल बुक कॉपोरेशन, दिल्ली, 1976, पृ॰ 71-72
  3. 3.0 3.1 दानी एंड मैसन, सं॰ उदधृत पुस्तक में वी॰ एम॰ मैसन "दि ब्रॉन्ज एज इन खोरासन एंड ट्रांसऑकसियाना", पृ॰ 242
  4. दानी एंड मैसन, सं॰, उदधृत पुस्तक में लिटविंस्की एंड पयंकोव "पेस्ट्रॉरल ट्राइब्स ऑव दि ब्रॉन्ज एज इन दि आक्सस वैली (बैक्ट्रिया)", पृ॰ 394

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख