अब बज़्मे-सुख़न, सोहबते-लब-सोख़्तगाँ है अब हल्क़-ए-मय तायफ़ए-बे तलबाँ है घर रहिए तो वीरानिए-दिल खाने को आवे रह चलिए तो हर गाम पे गोग़ा-ए-सगाँ है पैबंद-ए-रहे-कूचए-ज़र चश्मे-ग़ज़ालाँ पाबोसे-हवस अफ़्सरे-शमशाद-कदाँ है याँ अहले-जुनूँ यक ब दिगर दस्त-ओ-गिरेबाँ वाँ जैशे हवस तेग़ बकफ़ दर पयेजाँ है अब साहिबे इंसाफ़ है ख़ुद तालिबे-इंसाफ़ मुहर उसकी है मीज़ान बदस्ते-दिगराँ है हम सहल तलब कौन से फ़र्हाद थे लेकिन अब शहर में तेरे कोई हम सा भी कहाँ है