करौली ज़िला
करौली ज़िला
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राज्य | राजस्थान |
मुख्यालय | करौली |
स्थापना | 1 मार्च, 1997 |
जनसंख्या | 14,58,459 |
क्षेत्रफल | 5070 वर्ग किमी |
भौगोलिक निर्देशांक | 26°3′ से 26°49′ उत्तरी अक्षांश और 76°35′ से 76°26′ पूर्वी देशांतर के मध्य |
तहसील | 6 (करौली, हिण्डौन, टोडाभीम, सपोटरा, मंडरायल, नादौती) |
खण्डों की सँख्या | 6 |
विधान सभा क्षेत्र | 4 (करौली, हिण्डौन, टोडाभीम, सपोटरा) |
लोकसभा | 1 (करौली-धौलपुर) |
नगर पालिका | 3 (करौली, हिण्डौन, टोडाभीम) |
कुल ग्राम | 881 |
विद्युतीकृत ग्राम | 765 |
मुख्य पर्यटन स्थल | कैला देवी, श्री महावीर जी, मदन मोहन जी मन्दिर |
वनक्षेत्र | 1,72,459 हैक्टेयर |
बुआई क्षेत्र | 2,01,819 हैक्टेयर |
सिंचित क्षेत्र | 1,15,076 हैक्टेयर |
राजस्व ग्राम | 878 |
आबाद ग्राम | 836 |
ग्राम पंचायत | 223 |
लिंग अनुपात | 1000/858 ♂/♀ |
साक्षरता | 67.34 % |
· स्त्री | 49.18 % |
· पुरुष | 82.96 % |
ऊँचाई | 400 से 600 मी समुद्रतल से |
तापमान | 2-49 °C |
· ग्रीष्म | 49°C अधिकतम |
· शरद | 2°C न्यूनतम |
वर्षा | 668 मिमि |
वाहन पंजी. | 34 |
प्रमुख नदियाँ | भद्रावती, गम्भीर, बरखेड़ा, चम्बल |
बाहरी कड़ियाँ | आधिकारिक वेबसाइट |
करौली ज़िला भारत के राजस्थान राज्य का प्रमुख ज़िला है जो ऐतिहासिक और धार्मिक दोनों ही दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है।
इतिहास
ज़िला करौली का क्षेत्र पुराने करौली राज्य तथा जयपुर राज्य की गंगापुर एवं हिण्डौन निजामतों में आता है। कल्याणपुरी नामक इस क्षेत्र को वर्तमान स्वरूप प्रदान करने का श्रेय यदुवंशी राजाओं को जाता है। कार्ल मार्क्स और कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक में भी इसका वर्णन किया है। करौली राज्य अप्रैल 1949 को मत्स्य संघ में सम्मिलित हुआ बाद में जयपुर राज्य के साथ मिलकर वृहत संयुक्त राज्य राजस्थान का भाग बना। राजस्थान सरकार द्वारा 1 मार्च 1997 को सवाईमाधोपुर ज़िले की पांच तहसीलों को मिलाकर एक अलग ज़िला करौली का गठन किया। 15 जुलाई 1997 को करौली ज़िला निर्माण की अधिसूचना जारी करते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भैंरोसिंह शेखावत ने 19 जुलाई 1997 को इस ज़िले का उद्घाटन किया। 2011 की जनगणना के अनुसार ज़िले की जनसंख्या 1458459 तथा क्षेत्रफल 5043 वर्ग किलोमीटर है। राज्य की प्रमुख नदी चम्बल इस ज़िले को मध्यप्रदेश राज्य से अलग करती है। इस ज़िले में बहुसंख्या में पाये जाने वाले क़िले एवं गढ इसके पुराने गौरव की ओर संकेत करते है। इनमें से तिमनगढ़, उटगिरी, मण्डरायल के किलों का देश के मध्यकालीन इतिहास में प्रमुख स्थान रहा है।
भौगोलिक स्थिति
करौली अपनी भौगोलिक विशिष्टताओं के लिए भी विख्यात है। यह ज़िला प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर एवं विध्याचंल व अरावली पर्वत मालाओं से आच्छादित है। ज़िले का कुछ भाग समतल एवं कुछ भाग उचा नीचा एवं पहाडियों वाला है। करौली मण्डरायल उपखण्ड को पहाडी इलाका कहा जाता है जबकि बाकी क्षेत्र सामान्यता समतल एवं मैदानी है। मैदानी क्षेत्र उपजाऊ है तथा यहा की मिट्टी हल्की एवं रेतीली है। करौली एवं मण्डरायल उपखण्ड का क्षेत्र, जो स्थानीय भाषा में डांग कहलाता है, पहाडियों एवं नदियों से भरा है। ज़िले की ऊँचाई समुद्र की सतह से 400 से 600 मीटर तक है। ज़िले के पशिचम में दौसा, दक्षिण पश्चिम में सवाई माधोपुर, उत्तर पूर्व में धौलपुर तथा पश्चिम उत्तर में भरतपुर ज़िले की सीमाएं लगती है। यह ज़िला 26 डिग्री 3 सैण्टीग्रेड से 49 डिग्री उत्तर पश्चिम अक्षांश तथा 76 डिग्री 35 से 77 डिग्री 26 पूर्व देशान्तरों के मध्य स्थित है। ज़िले में अल्पकालीन मौसम के अलावा शेष समय जलवायु शुष्क रहती है। सर्दी नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह से मार्च तक रहती है, जबकि गर्मी मार्च के अन्त से जून के तीसरे सप्ताह तक रहती है। ज़िले की सामान्य वार्षिक वर्ष 668.86 मि.मी. है। ज़िले में औसतन 35 दिन वर्षा होती है। ज़िले का दैनिक अधिकतम तापमान का औसत मई माह में 49 डिग्री सेल्सियस रहता है तथा न्यूनतम 2.00 डिग्री सेल्सियस जनवरी में रहता है।
प्रशासनिक व्यवस्था
प्रशासनिक व्यवस्था के अन्तर्गत ज़िला कलेक्टर ज़िले का सर्वोच्च अधिकारी होने के साथ-साथ समस्त प्रशासनिक एवं क़ानून व्यवस्थाओं के लिए उत्तरदायी है। ज़िले को छ: उपखण्डो करौली, हिण्डौन, सपोटरा, मण्डरायल, टोडाभीम एवं नादौती में विभाजित किया हुआ है। इन उपखण्डों को 5 पंचायत समिति एवं 6 तहसीलों में विभाजित कर क्षेत्राधिकारी निर्धारण किया हुआ है। ज़िलें में तीन नगरपालिका क्रमश: करौली, हिण्डौन एवं टोडाभीम है। ज़िले के प्रशासनिक स्वरूप में जनभागीदारी के रूप में एक लोकसभा सदस्य तथा चार विधानसभा सदस्य है।
भूगर्भ एवं खनिज
ज़िला करौली एक तरफ से चम्बल तथा तीन तरफ से मैदानों से घिरा हुआ है। इसके मैदान कैमबिरयन-पूर्व की आग्नेय चट्टानों तथा उनकी तलछट से बनी चट्टानों के रूपान्तरण से बने है। अरावली की पूर्व चट्टानें स्फटिक, अभ्रक, नाइसिस्ट, मिग्मा टाइटस आदि की बनी हुई है। महान् विंध्य श्रेणी की चट्टाने जिनमें कैमूल, रीवा, भाण्डेर प्रमुख है, विभिन्न प्रकार के सलेटी पत्थर, बालू पत्थर तथा चूना पत्थर से परिपूर्ण है। ज़िला अनेक प्रकार के धात्विक एवं अधात्विक खनिजों से परिपूर्ण है। धातुओं में शीशा, तांबा, लोह अयस्क आदि तथा अधातुओं में चूना, पत्थर, चिकनी मिट्टी, सिलिका, सैलरूडा आदि प्रमुख रूप से पाये जाते है। इसके अलावा ज़िले में लेट्राराइट, रेड आक्सार्इड, बैनेटोनार्इट, बेरार्इट, मैगनीज मिट्टी तथा काली मिट्टी पाई जाती है। ज़िले में विभिन्न प्रकार की चट्टानों से मिलने वाले खनिज जैसे इमारत बनाने के पत्थर, सजावट के पत्थर आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। भाण्डेर श्रेणी का गुलाबी पत्थर एवं सफेद निषानों वाला पत्थर करौली एवं हिण्डौन क्षेत्र में काफ़ी मात्रा में पाया जाता है। सीमेन्ट श्रेणी का चूना पत्थर एवं सिलिकासैण्ड सपोटरा, नादौती क्षेत्र मे पाया जाता है। खनिज अभियन्ता करौली के अन्तर्गत इस ज़िले की छ: तहसीलों के अलावा सवाईमाधोपुर ज़िले की दो तहसील गंगापुर एवं बामनवास आती है। इस क्षेत्र में मुख्य रूप से खनिज, सेण्ड स्टोन, मैशनरी स्टेशन, सोप स्टोन, सिलिका सेण्ड इत्यादि का खनन होता है।
वनस्पति एवं वन सम्पदा
ज़िले में पाये जाने वाले महत्त्वपूर्ण पेड़ नीम, बबूल, बेरी, धौंक, रोंझ, तेन्दु, सालर, खैर, सनथा, जामुन, आम, घनेरी, बास, खेजडा, बरगद, पीपल आदि है। इस क्षेत्र में पाई जाने वाली प्रमुख जड़ी बूटिया ओधीझाडा, चीचड़ा, पोलर, कालीलम्प, लपला, आदि है। ज़िले में स्थित वनों से इमारती लकड़ी, ईंधन, लकड़ी का कोयला, पशुओं के लिए चारा, घास-फूस, तेन्दूपत्ता, गोंद, धौक के पत्ते, शहद, मोम, जड़ी बूटिया फल, कत्था, कंरज तथा दूसरी अन्य उपयोगी वस्तुप्राय प्राप्त होती है।
जीव जन्तु
ज़िला करौली वन्य प्राणियों के मामले में सम्पन्न है इसमें विभिन्न प्रकार के वन्य जीव पाये जाते है जिनमें तेन्दुएं, जंगली कुत्ता, सांभर, नील गाय, चीतल, चिंकारा, जंगली सुअर, रीछ प्रमुख हैं। ज़िले में कैलादेवी वन्य अभ्यारण्य सन 1983 में स्थापित किया गया था, जिसको सन 1991 में रणथम्भौर रिजर्व के नजदीक मानते हुए संरक्षित वन क्षेत्र एवं वन्य जीव अभ्यारण्य घोषित किया गया है जिसमे यदा कदा बाघ देखे जा सकते है। अभ्यारण्य का क्षेत्रफल 674 वर्ग कि.मी. है।
फसल पद्धति
करौली ज़िले मे तीनों मौसमों में फसल की बुबाई का कार्य होता है। खरीफ वर्षा पर आधारित है। जो जुलाई माह में प्रारम्भ होता है। इसमें बोई जाने वाली मुख्य फसलें बाजरा, मक्का, तिल, ज्वार, ग्वार आदि हैं। रबी की बुवाई अक्टूबर से प्रारम्भ होती है, जिसमें मुख्यतया जौ, चना, गेहूँ, सरसों की बुवाई होती है। यहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं खनन कार्य है। भूमिगत पानी की कमी एवं सिंचाई सुविधा की कमी के कारण कृषि मुख्यत: वर्षा पर निर्भर है। कृषि विपणन के लिए ज़िले में हिण्डौन में कृषि उपज मण्डी एवं करौली, टोडाभीम में गौण मंडी हैं।
हस्तकला
करौली की हस्तकला में प्रमुख स्थान लाख की चूडियों का है लगभग एक लाख रुपये की चूडियों का प्रतिवर्ष अन्य प्रांतों में निर्यात किया जाता है। चूडियों बनाने का काराबार ज़िले में हिण्डौन एवं करौली शहरों में स्थानीय लखेरा एवं मुसिलम सम्प्रदाय के लोगों द्वारा किया जाता है। इस कार्य में क़रीब पांच सौ लोगों को रोज़गार मिला हुआ है। इसके अलावा करौली ज़िले में लकडी के खिलौने, घरेलू उपयोग की सामग्रियों में चकला-बेलन, दही बिलौने की रई, लकके चम्मच एवं चारपाई व दीवान आदि भी बनाएं जाते हैं। वर्तमान में पत्थर तराशी कर मूर्तियों एवं जाली झरोखे बनाने का कार्य भी रीको क्षेत्र हिण्डौन व करौली में किये जाने लगा है।
सामाजिक एवं सांस्कृतिक जनजीवन
ज़िले मे लोगों के सांस्कृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक जीवन में मेले एवं त्यौहारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अधिकांश मौसमी एवं धार्मिक महत्व के है। इन मेलों का व्यापारिक, पर्यटन एवं सांस्कृतिक दृष्टि से एकता के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। ज़िले के मुख्य मेले कैलादेवी मेला, महावीरजी, मेहन्दीपुर बालाजी एवं मदनमोहन जी के है, जिनमें लाखों की संख्या में दर्शनार्थी आते है। राज्य के अन्य हिस्सों की तरह इस ज़िले में भी हिन्दुओं के रक्षाबन्धन, होली, दीपावली, जन्माष्टमी, दशहरा, गणगौर तथा मुसलमानों के ईद उल ज़ुहा, रमजान, ईद-उल-फ़ितर त्योहार प्रमुख हैं।
पर्यटन स्थल
ऐतिहासिक एवं पुरातातिवक स्थल ज़िले में निम्नलिखित विशेष महत्व के स्थान है। वर्तमान ज़िला मुख्यालय करौली राजपूतानें की प्राचीन रियासतों में से एक प्रमुख रियासत थी। यहां के शासकों का सन 1100 से लेकर सन 1947 तक का गौरवशाली इतिहास रहा है। रियासत के यदुवंशी राजाओं ने अपनी गरिमा की सुरक्षा, प्रजा के संरक्षण व प्राकृतिक आपदाओं के संधारण हेतु अनेक महल, क़िले व गढियों का निर्माण कराया। इन महलों किलों व गढियों में वास्तु विशेषज्ञता, स्थापत्य कला और चित्रकारी के दुर्लभ नमूने देखने को मिलते है। एक प्राचीन राज्य होने के कारण करौली में ऐतिहासिक, धार्मिक व पर्यटक महत्व के स्थानों की बहुलता के साथ क्षेत्र में पुरा वैभव विखरा पडा है।
हिण्डौन सिटी
हिण्डौन नगर करौली ज़िले की सबसे बडी नगरपालिका है। इस पौराणिक एवं ऐतिहासिक नगर की स्थापना किसने की इसके सम्बन्ध में इतिहासकार एकमत नहीं हैं। सम्भवत: यह भूमि हिरण्यकशिपु व भक्त प्रह्लाद की कर्म भूमि रही है। यहां पर आज भी नृसिंह मन्दिर, प्रहलाद कुण्ड, हिरण्यकश्यप के महल, बावडि़यों के अवशेष हैं। यहां से कुछ दूरी पर कुण्डेवा, जगर, दानघाटी पौराणिक स्थान है। जनश्रुतियो के अनुसार महाभारत कालीन हिडिम्बा नामक राक्षसी की कर्मस्थली भी यही क्षेत्र रहा था। हिण्डौन वर्तमान में ज़िले का प्रमुख औद्योगिक वाणिजियक नगर है। यहां से उत्तर-मध्य रेलवे का दिल्ली मुम्बई मार्ग गुजरता है। यहां पर पत्थर तराशी, स्लेट उद्योग का करोबार बड़े स्तर पर किया जाता है।
तिमनगढ़ का क़िला
यह क़िला ज़िला मुख्यालय करौली से 42 किलोमीटर दूर मासलपुर कस्बे के पास स्थित है। यहां बेजोड़ पुरातत्व संबंधी मूर्तियाँ हैं। प्रचलित मान्यता के अनुसार संवत 1244 में यदुवंशी शासक तिमनपाल ने इस क़िले का निर्माण कराया था। कुछ इतिहासकार इस क़िले को 1000 वर्ष से अधिक प्राचीन बताते है क़िले के अन्दर कई शिलालेखों, उपलब्ध प्राचीन कृतियों से पता चलता है कि इसे किसी शिल्पी व कलाप्रेमी ने बसाया था, जो बाद में शासकों के कब्जे में चला गया। क़िले के चारों ओर पांच फीट मोटा तथा क़रीब 30 फीट ऊंचा परकोटा स्थापत्य कला का अनूठा नमूना है। क़िले के भीतर बाज़ार, फर्श, बगीची, मन्दिर, कुंए के अवशेष आज भी मौजूद हैं। पूरा क़िला अपने अन्दर एक पूरा नगर समेटे हुए हैं। प्रवेश द्वार पर अक्सर ब्रह्मा, गणेश की मूर्तियाँ नजर आती हैं, लेकिन यहाँ प्रेत व राक्षसों के चित्र देखने को मिलते है। क़िले में जगह जगह खण्डित मूर्तियों को देखने से ऐसा लगता है कि यहाँ मूर्तियों की बहुत बड़ी मण्डी थी। दुर्ग में छोटे - छोटे कमरे भी हैं, जो संभवत: स्नानघर के काम आते होंगे।
मण्डरायल का क़िला
करौली शहर से 40 किलो मीटर दूर दक्षिण पूर्व में पहाड़ों के मध्य एक आयताकार पहाड़ी के नीचे बसी एक मध्यकालीन बस्ती है, जो दो प्रान्तों को विभक्त करते हुए चम्बल नदी के किनारे मण्डरायल नाम से जानी जाती है। एतिहासिक दृष्टि से एक गजिटयर के अनुसार यह दुर्ग यादवों के इस क्षेत्र में प्रवेश से पूर्व का है। करौली रियासत की गाँव निर्देशिका में इसके निर्माणकर्ता के रूप में बीजाबहादुर को दर्शाया गया है, जिसकी कौम एवं काल का कोई ज़िक्र नहीं है। किवदंतियों के अनुसार पूर्व में इस दुर्ग पर मियां मकन का आधिपत्य होने के कारण उसी के नाम से कालान्तर में अपभ्रंश होकर दुर्ग का नाम मण्डरायल हो गया। यहां मुख्य दरवाज़े के रूप में दो गोलाकार गुबंद है। दूसरा दरवाज़ा सूर्यपोल नाम हैं, जो रानीपुरा इलाके की तरफ उतरता है। इस दरवाज़े की ख़ासियत है कि पौर से प्रात: से सांय तक सूर्य का प्रकाश रहता है। इसके अन्दर एक सुरक्षित टंकी और बाहर दो तालाब है। तालाब के किनारे त्रिदेव भगवान के मन्दिर ओर बारहदारी है। पूर्व में इस क़िले की दीवारों पर उर्दू में कुछ घटनायें लिपिबद्व थी, जो अब नष्ट हो चुकी है।
उंट गिरि दुर्ग
15 वी शताब्दी में स्थापित यह दुर्ग करणपुर के कल्याण पुरा गांव की ऊंची पर्वत श्रृंखला की सुरंगनुमा पहाड़ी पर स्थित है। लगभग 4 कि.मी. क्षेत्र में फेले इस दुर्ग में 100 फुट की ऊंचाई से नीचे शिवलिंगों पर पानी गिरता है। इस पानी में बड़ी मात्रा में शिलाजीत मिलता है। यह दुर्ग भी सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। 1506-07 ई. में सिकन्दर लोदी ने इस पर आक्रमण किया था उस समय इसे ग्वालियर क़िले की कुंजी कहा जाता था। अंतिम मुग़ल सल्तनत तक इस क़िले पर यदुवंशियों का ही आधिपत्य रहा।
देव गिरि
उंट गिरि के पूर्व में चम्बल नदी के किनारे स्थित यह क़िला खण्डहर होते हुए भी अतीत की अनेक घटनाओं का साक्षी है। परकोटे के नाम पर आज कुछ भी नहीं मिलता साथ ही अन्दर के सभी आवासीय भागों को नष्ट किया जा चुका है। सन 1506-07 ई. में सिकन्दर लोदी के आक्रमण के समय इस क़िले को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया गया। वर्तमान में यहां एक बावडी, जर्जर होता शिलालेख तथा कुछ हवेलियों के अवशेष है।
बहादुरपुर का क़िला
करौली ज़िला मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर मण्डरायल मार्ग पर ससेड गांव के पास जंगल और सुनसान वातावरण में अटल योद्वा सा खड़ा बहादुरपुर का क़िला मुग़लकालीन स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। दो मंज़िला नृप गोपाल भवन, सहेली की बाबडी कलात्मक झरोखे 18 फीट लम्बी चीरियों की आमखास कचहरी, पंचवीर, मगधराय की छतरी दर्शनीय है। यदुवंशी राजा तिमनपाल के पुत्र नागराज द्वारा निर्मित इस क़िले का विस्तार सन 1566 से 1644 तक होता रहा। जयपुर के राजा सवाई जयसिंह ने इस क़िले में तीन माह तक प्रवास किया था।
शहर क़िला एवं छतरी
नादौती तहसील के ग्राम शहर में यह क़िला उंची पहाडी पर बना हुआ है तथा आज भी सुरक्षित एवं आबाद है। यहाँ के ठिकानेदार आमेर के राजा पृथ्वीराज के पुत्र पच्चाण के वंशज है। इसमें देवी का प्राचीन मंदिर है।
फतेहपुर क़िला
करौली ज़िला मुख्यालय से लगभग 30 कि.मी. दूर कंचनपुर जाने वाले मार्ग पर स्थित यह क़िला यदु शासकों के एक बडे जागीरदार हरनगर के ठाकुर घासीराम द्वारा 1702 ई. में निर्मित किया गया। यह क़िला सुरक्षित अवस्था में है।
भवरविलास पैलेस
करौली के पूर्व शासक रहे राजा भंवर पाल के नाम से पूर्व नरेशों का यह आवास उत्कृष्ट वास्तु एवं शिल्प समेटे हुए नगर के दक्षिण में मंडरायल रोड पर स्थित है। वर्तमान में इसे होटल का रूप दिया हुआ है।
सुख विलास बाग एवं शाही कुण्ड
ज़िला मुख्यालय स्थित भद्रावती नदी के किनारे एक सुन्दर महलनुमा चारदिवारी के अन्दर बाग लगाया गया था जिसका उपयोग रानियाँ अपने आमोद-प्रमोद के लिए करती थीं। अत: इसे सुख विलास बाग कहते है। शहर के पर कोटे के बहार सुखविलास के पास भव्य शाही कुण्ड बना हुआ है। तीन मंज़िला बावडीनुमा इस कुण्ड की बनावट अद्वितीय है इसमें प्रत्येक मंज़िल पर बरामदे एवं उतरने हेतू चारो तरफ सीढियां बनी है। रियासत काल में इस कुण्ड का उपयोग शहर में पेयजल सप्लाई के लिए किया जाता था।
दरगाह कबीरशाह
करौली पश्चिम द्वार पर वजीरपुर गेट एवं सायनाथ खिड़कियाँ के मध्य आज से लगभग 120 वर्ष पूर्व बनाई गई एक सूफी संत की दरगाह उत्कृष्ट शिल्प का नमूना है। इसकी ख़ासियत यह है कि इसमें दरवाज़े भी पत्थर के बनाये हुए है। पत्थर पर की गई नक्कासी बरबस ही दर्शकों का मन मोह लेती है।
रावल पैलेस (राजमहल)
तेरहवीं शताब्दी में स्थापित राजमहल (रावल पैलेस) लाल व सफेद पत्थर के शिल्प का बेजोड़ नमूना है। नक़्क़ाशी व कलात्मक चितराम से सुसजिजत विशाल द्वार, जालीदार झरोखे, तोपखाना, नाहर कटहरा, सुर्री गुर्ज, गोपालसिंह अखाडा, भवर बैंक, नजर बगीची, मानिक महल, फ़व्वारा कुण्ड, बारह दरी, गोपाल मन्दिर, दीवान ए आम, फौज कचहरी, किरकिरी खाना, ज्ञान बगला, शीश महल, मोतीमहल, हरविलास, रंगलाल, गेंदघर, टेडा कुआ, जनानी डयौढी आदि कुशल स्थापत्य के साथ-साथ यहां की सभ्यता व संस्कृति के परिचायक है।
अन्य
करौली में महाराजा गोपालसिंह जी की छतरी, रणगमा तालाब, सुख विलास कुण्ड, एवं शिकारगंज आदि करौली के पुरा वैभव प्रतीक है। साथ ही ज़िले के सपोटरा में नारौली डांग का क़िला, गढमोरा (नादौती) में राजा मोरध्वज का महल व मन्दिर, शहर सोप का ऊंची पहाड़ी पर निर्मित क़िला, हिण्डौन की पुरानी कचहरी व प्रहलाद कुण्ड जैसे दर्शनीय ऐतिहासिक स्थल हमारी संस्कृति की पहचान है।
धार्मिक स्थल
श्री महावीर जी
दिगम्बर जैन संप्रदाय का भारत में एक प्रमुख स्थान है। यहाँ पर भगवान महावीर की 400 वर्ष पुरानी मूर्ति है। महावीर जी में निर्मित मन्दिर आधुनिक एवं प्राचीन शिल्पकला का बेजोड़ नमूना है। मन्दिर को एक बहुत बडे प्लेटफार्म पर सफेद मार्बल से बनाया गया है। इसकी छतरी दूर से दिखायी देती है, जो लाल बलुआ पत्थर की है। मन्दिर पर नक़्क़ाशी का कार्य भी अति सुन्दर है। मन्दिर के ठीक सामने मान स्तम्भ बना हुआ है। जिसमें जैन तीर्थंकर की प्रतिमा है। मन्दिर के पीछ कटला एवं चरण मन्दिर है, जहां पर दर्शनार्थी श्रद्वापूर्वक दर्शन को जाते है। प्रतिवर्ष चैत्र सुदी 11 से बैशाख सुदी 2 तक (मार्च-अप्रैल) मेला लगता है, जिसमें लाखों लोग विभिन्न क्षेत्रों से यहां आते हैं। मेले के अन्त में रथया़त्रा का आयोजन किया जाता है।
कैलादेवी मन्दिर
करौली से 24 कि.मी. दूर यह प्रसिद्व धार्मिक स्थल है। जहां प्रतिवर्ष मार्च - अप्रॅल माह में एक बहुत बड़ा मेला लगता है। इस मेले में राजस्थान के अलावा दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश के तीर्थ यात्री आते है। मुख्य मन्दिर संगमरमर से बना हुआ है जिसमें कैला (महालक्ष्मी) एवं चामुण्डा देवी की प्रतिमाएँ हैं। कैलादेवी की आठ भुजाऐं एवं सिंह पर सवारी करते हुए बताया है। यहां क्षेत्रीय लांगुरिया के गीत विशेष रूप से गाये जाते है। जिसमें लागुरिया के माध्यम से कैलादेवी को अपनी भक्ति-भाव प्रदर्शित करते है।
बालाजी
यह एक छोटा सा गांव टोडाभीम तहसील से 5 कि.मी. दूर है तथा जयपुर-आगरा राष्ट्रीय राज्यमार्ग से जुडा हुआ है। हिन्दुओ की आस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहां पर पहाडी की तलहटी मे निर्मित हनुमानजी का बहुत पुराना मन्दिर है। लोग काफ़ी दूर-दूर से यहां आते है। ऐसी मान्यता है कि हिस्टीरिया एवं डिलेरियम के रोगी दर्शन लाभ से स्वस्थ होकर लौटते है। होली एवं दीपावली के त्यौहार पर काफ़ी संख्या मे लोग यहां दर्शन के लिए आते है।
मदनमोहन जी
श्री मदन मोहन देवालय मुख्यालय के आंचल में महलों के पास वृहद भव्य परिसर के धेरे मे सिथत है जहां भगवान राधा मदनमोहन के साथ श्रीगोपालजी की मनमोहनी प्रतिमाएं प्रतिष्ठित है। जिनकी सेवा गौड सम्प्रदायी गुसाईयों के माध्यम से बहुत सुन्दर तरीकों से होती आ रही है। मंगला से शयन तक हजारों भक्तों का समुह प्रत्येक झांकी पर उपस्थित रहता है। मदनमोहनजी की कुल आठ झांकी सकल मनोरथ पूर्ण करने वाली हैं। मूलरूप से इन दोनो प्रतिमाओं को ओडिशा और वृंदावन में प्रतिष्ठित कराया गया था। कालान्तर में यही प्रतिमाएं विभिन्न स्रोतों के माध्यम से आज इस पावन नगरी में भक्तों के वास्ते प्रेरणा की स्रोत बनी हुई हैं।
शिल्प एवं उद्योग
करौली ज़िले में शिल्प के उत्कृष्ट नमूने पाये जाते हैं। वास्तुशिल्प के रूप में महाराजा गोपाल सिंह के शासन काल से शिल्प के क्षेत्र में भारी विकास हुआ है। जिसका साक्षात प्रमाण करौली दुर्ग के रूप में है। 14वीं शताब्दी में निर्मित यह महल जहाँ साधारण दिखाई देते हैं। वहीं इस क़िले का बाहरी हिस्सा जो 17वीं शताब्दी में बनाया गया था। शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण है। बैहरदह में बौहरों की हवेली एवं करौली नगर के कई कलापूर्ण एवं भवनों का शिल्प दर्शन अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।
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