गोदान उपन्यास भाग-8

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जब से होरी के घर में गाय आ गई है, घर की श्री ही कुछ और हो गई है। धनिया का घमंड तो उसके सँभाल से बाहर हो-हो जाता है। जब देखो, गाय की चर्चा।

भूसा छिज गया था। ऊख में थोड़ी-सी चरी बो दी गई थी। उसी की कुट्टी काट कर जानवरों को खिलाना पड़ता था। आँखें आकाश की ओर लगी रहती थीं कि पानी बरसे और घास निकले। आधा असाढ़ बीत गया और वर्षा न हुई।

सहसा एक दिन बादल उठे और असाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा। किसान खरीफ बोने के लिए हल ले-ले कर निकले कि रायसाहब के कारकुन ने कहला भेजा, जब तक बाकी न चुक जायगी, किसी को खेत में हल न ले जाने दिया जायगा। किसानों पर जैसे वज्रपात हो गया। और कभी तो इतनी कड़ाई न होती थी, अबकी यह कैसा हुक्म। कोई गाँव छोड़ कर भागा थोड़े ही जाता है, अगर खेतों में हल न चले, तो रुपए कहाँ से आ जाएँगे? निकालेंगे तो खेत ही से। सब मिल कर कारकुन के पास जा कर रोए। कारकुन का नाम था पंडित नोखेराम। आदमी बुरे न थे, मगर मालिक का हुक्म था। उसे कैसे टालें? अभी उस दिन रायसाहब ने होरी से कैसी दया और धर्म की बातें की थीं और आज असामियों पर यह जुल्म। होरी मालिक के पास जाने को तैयार हुआ, लेकिन फिर सोचा, उन्होंने कारकुन को एक बार जो हुक्म दे दिया, उसे क्यों टालने लगे? वह अगुवा बन कर क्यों बुरा बने? जब और कोई कुछ नहीं बोलता, तो वही आग में क्यों कूदे? जो सबके सिर पड़ेगी, वह भी झेल लेगा।

किसानों में खलबली मची हुई थी। सभी गाँव के महाजनों के पास रुपए के लिए दौड़े। गाँव में मँगरू साह की आजकल चढ़ी हुई थी। इस साल सन में उसे अच्छा फ़ायदा हुआ था। गेहूँ और अलसी में भी उसने कुछ कम नहीं कमाया था। पंडित दातादीन और दुलारी सहुआइन भी लेन-देन करती थीं। सबसे बड़े महाजन थे झिंगुरीसिंह। वह शहर के एक बड़े महाजन के एजेंट थे। उनके नीचे कई आदमी और थे, जो आस-पास के देहातों में घूम-घूम कर लेन-देन करते थे। इनके उपरांत और भी कई छोटे-मोटे महाजन थे, जो दो आने रुपए ब्याज पर बिना लिखा-पढ़ी के रुपए देते थे। गाँव वालों को लेन-देन का कुछ ऐसा शौक़ था कि जिसके पास दस-बीस रुपए जमा हो जाते, वही महाजन बन बैठता था। एक समय होरी ने भी महाजनी की थी। उसी का यह प्रभाव था कि लोग अभी तक यही समझते थे कि होरी के पास दबे हुए रुपए हैं। आखिर वह धन गया कहाँ? बँटवारे में निकला नहीं, होरी ने कोई तीर्थ, व्रत, भोज किया नहीं, गया तो कहाँ गया? जूते फट जाने पर भी उनके घट्ठे बने रहते हैं।

किसी ने किसी देवता को सीधा किया, किसी ने किसी को। किसी ने आना रुपया ब्याज देना स्वीकार किया, किसी ने दो आना। होरी में आत्मसम्मान का सर्वथा लोप न हुआ था। जिन लोगों के रुपए उस पर बाकी थे, उनके पास कौन मुँह ले कर जाय? झिंगुरीसिंह के सिवा उसे और कोई न सूझा। वह पक्का काग़ज़ लिखाते थे, नजराना अलग लेते थे, दस्तूरी अलग, स्टांप की लिखाई अलग। उस पर एक साल का ब्याज पेशगी काट कर रुपया देते थे। पच्चीस रुपए का काग़ज़ लिखा तो मुश्किल से सत्रह रुपए हाथ लगते थे; मगर इस गाढ़े समय में और क्या किया जाय? रायसाहब की जबरदस्ती है, नहीं इस समय किसी के सामने क्यों हाथ फैलाना पड़ता?

झिंगुरीसिंह बैठे दतून कर रहे थे। नाटे, मोटे, खल्वाट, काले, लंबी नाक और बड़ी-बड़ी मूँछों वाले आदमी थे, बिलकुल विदूषक-जैसे। और थे भी बड़े हँसोड़। इस गाँव को अपने ससुराल बना कर मर्दों से साले या ससुर और औरतों से साली या सलहज का नाता जोड़ लिया था। रास्ते में लड़के उन्हें चिढ़ाते - पंडित जी पैलगी! और झिंगुरीसिंह उन्हें चटपट आशीर्वाद देते - तुम्हारी आँखें फूटें, घुटना टूटे, मिर्गी आए, घर में आग लग जाय आदि। लड़के इस आशीर्वाद से कभी न अघाते थे, मगर लेन-देन में बड़े कठोर थे। सूद की एक पाई न छोड़ते थे और वादे पर बिना रुपए लिए द्वार से न टलते थे।

होरी ने सलाम करके अपने विपत्ति-कथा सुनाई।

झिंगुरीसिंह ने मुस्करा कर कहा - वह सब पुराना रुपया क्या कर डाला?

'पुराने रुपए होते ठाकुर, तो महाजनों से अपना गला न छुड़ा लेता, कि सूद भरते किसी को अच्छा लगता है?'

गड़े रुपए न निकलें, चाहे सूद कितना ही देना पड़े। तुम लोगों की यही नीति है।'

'कहाँ के गड़े रुपए बाबू साहब, खाने को तो होता नहीं। लड़का जवान हो गया, ब्याह का कहीं ठिकाना नहीं। बड़ी लड़की भी ब्याहने जोग हो गई। रुपए होते, तो किस दिन के लिए गाड़ रखते?'

झिंगुरीसिंह ने जब से उसके द्वार पर गाय देखी थी, उस पर दाँत लगाए हुए थे। गाय का डील-डौल और गठन कह रहा था कि उसमें पाँच सेर से कम दूध नहीं है। मन में सोच लिया था, होरी को किसी अड़दब में डाल कर गाय को उड़ा लेना चाहिए। आज वह अवसर आ गया।

बोले - अच्छा भई, तुम्हारे पास कुछ नहीं है, अब राजी हुए। जितने रुपए चाहो, ले जाओ, लेकिन तुम्हारे भले के लिए कहते हैं, कुछ गहने-गाठे हों, तो गिरो रख कर रुपए ले लो। इसटाम लिखोगे, तो सूद बढ़ेगा और झमेले में पड़ जाओेगे।

होरी ने कसम खाई कि घर में गहने के नाम कच्चा सूत भी नहीं है। धनिया के हाथों में कड़े हैं, वह भी गिलट के।

झिंगुरीसिंह ने सहानुभूति का रंग मुँह पर पोत कर कहा - तो एक बात करो, यह नई गाय जो लाए हो, इसे हमारे हाथ बेच दो। सूद इसटाम सब झगड़ों से बच जाओ, चार आदमी जो दाम कहें, वह हमसे ले लो। हम जानते हैं, तुम उसे अपने शौक़ से लाए हो और बेचना नहीं चाहते, लेकिन यह संकट तो टालना ही पड़ेगा।

होरी पहले तो इस प्रस्ताव पर हँसा, उस पर शांत मन से विचार भी न करना चाहता था, लेकिन ठाकुर ने ऊँच-नीच सुझाया, महाजनी के हथकंडों का ऐसा भीषण रूप दिखाया कि उसके मन में भी यह बात बैठ गई। ठाकुर ठीक ही तो कहते हैं, जब हाथ में रुपए आ जायँ, गाय ले लेना। तीस रुपए का कागद लिखने पर कहीं पच्चीस रुपए मिलेंगे और तीन-चार साल तक न दिए गए, तो पूरे सौ हो जाएँगे। पहले का अनुभव यही बता रहा था कि कर्ज़ वह मेहमान है, जो एक बार आ कर जाने का नाम नहीं लेता।

बोला - मैं घर जा कर सबसे सलाह कर लूँ, तो बताऊँ।

'सलाह नहीं करना है, उनसे कह देना है कि रुपए उधार लेने में अपने बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं।'

'मैं समझ रहा हूँ ठाकुर, अभी आ के जवाब देता हूँ।'

लेकिन घर आ कर उसने ज्यों ही वह प्रस्ताव किया कि कुहराम मच गया। धनिया तो कम चिल्लाई, दोनों लड़कियों ने तो दुनिया सिर पर उठा ली। नहीं देते अपने गाय, रुपए जहाँ से चाहे लाओ। सोना ने तो यहाँ तक कह डाला, इससे तो कहीं अच्छा है, मुझे बेच डालो। गाय से कुछ बेसी ही मिल जायगा। होरी असमंजस में पड़ गया।

दोनों लड़कियाँ सचमुच गाय पर जान देती थीं। रूपा तो उसके गले से लिपट जाती थी और बिना उसे खिलाए कौर मुँह में न डालती थी। गाय कितने प्यार से उसका हाथ चाटती थी, कितनी स्नेहभरी आँखों से उसे देखती थी। उसका बछड़ा कितना सुंदर होगा। अभी से उसका नामकरण हो गया था - मटई। वह उसे अपने साथ ले कर सोएगी। इस गाय के पीछे दोनों बहनों में कई बार लड़ाइयाँ हो चुकी थीं। सोना कहती, मुझे ज़्यादा चाहती है, रूपा कहती, मुझे। इसका निर्णय अभी तक न हो सका था। और दोनों दावे क़ायम थे।

मगर होरी ने आगा-पीछा सुझा कर आखिर धनिया को किसी तरह राजी कर लिया। एक मित्र से गाय उधार ले कर बेच देना भी बहुत ही वैसी बात है, लेकिन बिपत में तो आदमी का धरम तक चला जाता है, यह कौन-बड़ी बात है। ऐसा न हो तो लोग बिपत से इतना डरें क्यों? गोबर ने भी विशेष आपत्ति न की। वह आजकल दूसरी ही धुन में मस्त था। यह तै किया कि जब दोनों लड़कियाँ रात को सो जायँ, तो गाय झिंगुरीसिंह के पास पहुँचा दी जाए।

दिन किसी तरह कट गया। साँझ हुई। दोनों लड़कियाँ आठ बजते-बजते खा-पी कर सो गईं। गोबर इस करुण दृश्य से भाग कर कहीं चला गया। वह गाय को जाते कैसे देख सकेगा? अपने आँसुओं को कैसे रोक सकेगा? होरी भी ऊपर ही से कठोर बना हुआ था। मन उसका भी चंचल था। ऐसा कोई माई का लाल नहीं, जो इस वक्त उसे पच्चीस रुपए उधार दे-दे, चाहे फिर पचास रुपए ही ले-ले। वह गाय के सामने जा कर खड़ा हुआ, तो उसे ऐसा जान पड़ा कि उसकी काली-काली आँखों में आँसू भरे हुए हैं और वह कह रही है - क्या चार दिन में ही तुम्हारा मन मुझसे भर गया? तुमने तो वचन दिया था कि जीते-जी इसे न बेचूँगा। यही वचन था तुम्हारा! मैंने तो तुमसे कभी किसी बात का गिला नहीं किया। जो कुछ रूखा-सूखा तुमने दिया, वही खा कर संतुष्ट हो गई। बोलो।

धनिया ने कहा - लड़कियाँ तो सो गईं। अब इसे ले क्यों नहीं जाते? जब बेचना ही है, तो अभी बेच दो।

होरी काँपते हुए स्वर में कहा - मेरा तो हाथ नहीं उठता धनिया! उसका मुँह नहीं देखती? रहने दो, रुपए सूद पर ले लूँगा। भगवान ने चाहा तो सब अदा हो जाएँगे, तीन-चार सौ होते ही क्या हैं। एक बार ऊख लग जाए।

धनिया ने गर्व-भरे प्रेम से उसकी ओर देखा - और क्या! इतनी तपस्या के बाद तो घर में गऊ आई। उसे भी बेच दो। ले लो कल रुपए। जैसे और सब चुकाए जाएँगे, वैसे इसे भी चुका देंगे।

भीतर बड़ी उमस हो रही थी। हवा बंद थी। एक पत्ती न हिलती थी। बादल छाए हुए थे, पर वर्षा के लक्षण न थे। होरी ने गाय को बाहर बाँध दिया। धनिया ने टोका भी, कहाँ लिए जाते हो? पर होरी ने सुना नहीं, बोला - बाहर हवा में बाँध देता हूँ। आराम से रहेगी, उसके भी तो जान है। गाय बाँध कर वह अपने मंझले भाई सोभा को देखने गया। सोभा को इधर कई महीने से दमे का आरजा हो गया था। दवा-दाई की जुगत नहीं। खाने-पीने का प्रबंध नहीं, और काम करना पड़ता था जी तोड़ कर, इसलिए उसकी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती थी। सोभा सहनशील आदमी था, लड़ाई-झगड़ों से कोसों दूर भागने वाला। किसी से मतलब नहीं। अपने काम से काम। होरी उसे चाहता था और वह भी होरी का अदब करता था। दोनों में रुपए-पैसे की बातें होने लगीं। रायसाहब का यह नया फरमान आलोचनाओं का केंद्र बना हुआ था।

कोई ग्यारह बजते-बजते होरी लौटा और भीतर जा रहा था कि उसे भास हुआ, जैसे गाय के पास कोई आदमी खड़ा है। पूछा - कौन खड़ा है वहाँ?

हीरा बोला - मैं हूँ दादा, तुम्हारे कौड़े में आग लेने आया था।

हीरा उसके कौड़े में आग लेने आया है, इस जरा-सी बात में होरी को भाई की आत्मीयता का परिचय मिला। गाँव में और भी तो कौड़े हैं। कहीं भी आग मिल सकती थी। हीरा उसके कौड़े में आग ले रहा है, तो अपना ही समझ कर तो। सारा गाँव इस कौड़े में आग लेने आता था। गाँव में सबसे संपन्न यही कौड़ा था, मगर हीरा का आना दूसरी बात थी। और उस दिन की लड़ाई के बाद। हीरा के मन में कपट नहीं रहता। गुस्सैल है, लेकिन दिल साफ।

उसने स्नेह-भरे स्वर में पूछा - तमाखू है कि ला दूँ?

'नहीं, तमाखू तो है दादा।'

'सोभा तो आज बहुत बेहाल है।'

'कोई दवाई नहीं खाता, तो क्या किया जाए। उसके लेखे तो सारे बैद, डाक्टर, हकीम अनाड़ी हैं। भगवान के पास जितनी अक्कल थी, वह उसके और उसकी घरवाली के हिस्से पड़ गई।'

होरी ने चिंता से कहा - यही तो बुराई है उसमें। अपने सामने किसी को गिनता ही नहीं। और चिढ़ने तो बीमारी में सभी हो जाते हैं। तुम्हें याद है कि नहीं, जब तुम्हें इंफ़िजा हो गया था, तो दवाई उठा कर फेंक देते थे। मैं तुम्हारे दोनों हाथ पकड़ता था, तब तुम्हारी भाभी तुम्हारे मुँह में दवाई डालती थीं। उस पर तुम उसे हजारों गालियाँ देते थे।

'हाँ दादा, भला वह बात भूल सकता हूँ? तुमने इतना न किया होता, तो तुमसे लड़ने के लिए कैसे बचा रहता।'

होरी को ऐसा मालूम हुआ कि हीरा का स्वर भारी हो गया है। उसका गला भी भर आया।

'बेटा, लड़ाई-झगड़ा तो ज़िंदगी का धरम है। इससे जो अपने हैं, वह पराए थोड़े ही हो जाते हैं, जब घर में चार आदमी रहते हैं, तभी तो लड़ाई-झगड़े भी होते हैं, जिसके कोई है ही नहीं, उससे कौन लड़ाई करेगा?'

दोनों ने साथ चिलम पी। तब हीरा अपने घर गया, होरी अंदर भोजन करने चला।

धनिया रोष से बोली - देखी अपने सपूत की लीला - इतनी रात गई और अभी उसे अपने सैल से छुट्टी नहीं मिली। मैं सब जानती हूँ। मुझको सारा पता मिल गया है। भोला की वह रांड़ लड़की नहीं है, झुनिया। उसी के घर में पड़ा रहता है।

होरी के कानों में भी इस बात की भनक पड़ी थी, पर उसे विश्वास न आया था। गोबर बेचारा इन बातों को क्या जाने।

बोला - किसने कहा? तुमसे?

धनिया प्रचंड हो गई - तुमसे छिपी होगी और तो सभी जगह चर्चा चल रही है। यह है, भुग्गा, वह बहत्तर घाट का पानी पिए हुए। इसे उँगलियों पर नचा रही है, और यह समझता है, वह इस पर जान देती है। तुम उसे समझा दो, नहीं कोई ऐसी-वैसी हो गई, तो कहीं के न रहोगे।

होरी का दिल उमंग पर था। चुहल की सूझी - झुनिया देखने-सुनने में तो बुरी नहीं है। उसी से कर ले सगाई। ऐसी सस्ती मेहरिया और कहाँ मिली जाती है?

धनिया को यह चुहल तीर-सा लगा - झुनिया इस घर में आए, तो मुँह झुलस दूँ रांड़ का। गोबर की चहेती है, तो उसे ले कर जहाँ चाहे रहे।

'और जो गोबर इसी घर में लाए?'

'तो यह दोनों लड़कियाँ किसके गले बाँधोगे? फिर बिरादरी में तुम्हें कौन पूछेगा, कोई द्वार पर खड़ा तक तो होगा नहीं।'

'उसे इसकी क्या परवाह।'

'इस तरह नहीं छोडूँगी लाला को। मर-मर मैंने पाला है और झुनिया आ कर राज करेगी। मुँह में आग लगा दूँगी रांड़ के।'

सहसा गोबर आ के घबड़ाई हुई आवाज़ में बोला - दादा, सुंदरिया को क्या हो गया? क्या काले नाग ने छू लिया? वह तो पड़ी तड़प रही है।

होरी चौके में जा चुका था। थाली सामने छोड़ कर बाहर निकल आया और बोला - क्या असगुन मुँह से निकालते हो। अभी तो मैं देखे आ रहा हूँ। लेटी थी।

तीनों बाहर गए। चिराग ले कर देखा। सुंदरिया के मुँह से फिचकुर निकल रहा था। आँखें पथरा गई थीं, पेट फूल गया था और चारों पाँव फैल गए थे। धनिया सिर पीटने लगी। होरी पंडित दातादीन के पास दौड़ा। गाँव में पशु-चिकित्सा के वही आचार्य थे। पंडित जी सोने जा रहे थे। दौड़े हुए आए। दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो गया। गाय को किसी ने कुछ खिला दिया। लक्षण स्पष्ट थे। साफ़ विष दिया गया है, लेकिन गाँव में कौन ऐसा मुद्दई है, जिसने विष दिया हो, ऐसी वारदात तो इस गाँव में कभी हुई नहीं, लेकिन बाहर का कौन आदमी गाँव में आया। होरी की किसी से दुश्मनी भी न थी कि उस पर संदेह किया जाए। हीरा से कुछ कहा-सुनी हुई थी, मगर वह भाई-भाई का झगड़ा था। सबसे ज़्यादा दु:खी तो हीरा ही था। धामकियाँ दे रहा था कि जिसने यह हत्यारों का काम किया है, उसे पाए तो ख़ून पी जाए। वह लाख गुस्सैल हो, पर नीच काम नहीं कर सकता।

आधी रात तक जमघट रहा। सभी होरी के दु:ख में दु:खी थे और बधिक को गालियाँ देते थे। वह इस समय पकड़ा जा सकता, तो उसके प्राणों की कुशल न थी। जब यह हाल है तो कोई जानवरों को बाहर कैसे बाँधेगा? अभी तक रात-बिरात सभी जानवर बाहर पड़े रहते थे। किसी तरह की चिंता न थी, लेकिन अब तो एक नई विपत्ति आ खड़ी हुई थी। क्या गाय थी कि बस देखता रहे! पूजने जोग। पाँच सेर से कम दूध न था। सौ-सौ का एक-एक बाछा होता। आते देर न हुई और यह वज्र गिर पड़ा।

जब सब लोग अपने-अपने घर चले गए, तो धनिया होरी को कोसने लगी - तुम्हें कोई लाख समझाए, करोगे अपने मन की। तुम गाय खोल कर आँगन से चले, तब तक मैं जूझती रही कि बाहर न ले जाओ। हमारे दिन पतले हैं, न जाने कब क्या हो जाय, लेकिन नहीं, उसे गरमी लग रही है। अब तो खूब ठंडी हो गई और तुम्हारा कलेजा भी ठंडा हो गया! ठाकुर माँगते थे, दे दिया होता, तो एक बोझ सिर से उतर जाता और निहोरे का निहोरा होता, मगर यह तमाचा कैसे पड़ता? कोई बुरी बात होने वाली होती है, तो मति पहले ही हर जाती है। इतने दिन मजे से घर में बँधाती रही, न गरमी लगी, न जूड़ी आई। इतनी जल्दी सबको पहचान गई थी कि मालूम ही न होता था कि बाहर से आई है। बच्चे उसके सींगों से खेलते रहते थे। सिर तक न हिलाती थी। जो कुछ नाँद में डाल दो, चाट-पोंछ कर साफ़ कर देती थी। लच्छमी थी, अभागों के घर क्या रहती? सोना और रूपा भी यह हलचल सुन कर जाग गई थीं और बिलख-बिलख कर रो रही थीं। उसकी सेवा का भार अधिकतर उन्हीं दोनों पर था। उनकी संगिनी हो गई थी। दोनों खा कर उठतीं, तो एक-एक टुकड़ा रोटी उसे अपने हाथों से खिलातीं। कैसा जीभ निकाल कर खा लेती थी, और जब तक उनके हाथ का कौर न पा लेती, खड़ी ताकती रहती। भाग्य फूट गए!

गोबर और दोनों लड़कियाँ रो-धो कर सो गई थीं। होरी भी लेटा। धनिया उसके सिरहाने पानी का लोटा रखने आई, तो होरी ने धीरे से कहा - तेरे पेट में बात पचती नहीं, कुछ सुन पाएगी, तो गाँव भर में ढिंढोरा पीटती फिरेगी।

धनिया ने आपत्ति की - भला सुनूँ, मैंने कौन-सी बात पीट दी कि यों ही नाम बदनाम कर दिया।

'अच्छा, तेरा संदेह किसी पर होता है?'

'मेरा संदेह तो किसी पर नहीं है। कोई बाहरी आदमी था'

'किसी से कहेगी तो नहीं?'

'कहूँगी नहीं, तो गाँव वाले मुझे गहने कैसे गढ़वा देंगे।'

'अगर किसी से कहा तो मार ही डालूँगा।'

'मुझे मार कर सुखी न रहोगे। अब दूसरी मेहरिया नहीं मिली जाती। जब तक हूँ, तुम्हारा घर सँभाले हुए हूँ। जिस दिन मर जाऊँगी, सिर पर हाथ धर कर रोओगे। अभी मुझमें सारी बुराइयाँ ही बुराइयाँ हैं, तब आँखों से आँसू निकलेंगे।'

'मेरा संदेह तो हीरा पर होता है।'

'झूठ, बिलकुल झूठ। हीरा इतना नीच नहीं है। वह मुँह का ही ख़राब है।'

'मैंने अपने आँखों देखा। सच, तेरे सिर की सौंह।'

'तुमने अपने आँखों देखा! कब?'

'वही, मैं सोभा को देख कर आया, तो वह सुंदरिया की नाँद के पास खड़ा था। मैंने पूछा - कौन है, तो बोला, मैं हूँ हीरा, कौड़े में से आग लेने आया था। थोड़ी देर मुझसे बातें करता रहा। मुझे चिलम पिलाई। वह उधर गया, मैं भीतर आया और वहीं गोबर ने पुकार मचाई। मालूम होता है, मैं गाय बाँध कर सोभा के घर गया हूँ, और इसने इधर आ कर कुछ खिला दिया है। साइत फिर यह देखने आया था कि मरी या नहीं।'

धनिया ने लंबी साँस ले कर कहा - इस तरह के होते हैं भाई, जिन्हें भाई का गला काटने में भी हिचक नहीं होती। उफ्फोह! हीरा मन का इतना काला है। और दाढ़ीजार को मैंने पाल-पोस कर बड़ा किया।

'अच्छा, जा सो रह, मगर किसी से भूल कर भी जिकर न करना।'

'कौन, सबेरा होते ही लाला को थाने न पहुँचाऊँ तो अपने असल बाप की नहीं। यह हत्यारा भाई कहने जोग है! यही भाई का काम है! वह बैरी है, पक्का बैरी और बैरी को मारने में पाप नहीं, छोड़ने में पाप है।'

होरी ने धमकी दी - मैं कहे देता हूँ धनिया, अनर्थ हो जायगा।

धनिया आवेश में बोली - अनर्थ नहीं, अनर्थ का बाप हो जाए। मैं लाला को बिना बड़े घर भिजवाए, मानूँगी नहीं। तीन साल चक्की पिसवाऊँगी, तीन साल। वहाँ से छूटेंगे, तो हत्या लगेगी, तीरथ करना पड़ेगा। भोज देना पड़ेगा। इस धोखे में न रहें लाला और गवाही दिलवाऊँगी तुमसे, बेटे के सिर पर हाथ रख कर।

उसने भीतर जा कर किवाड़ बंद कर लिए और होरी बाहर अपने को कोसता पड़ा रहा। जब स्वयं उसके पेट में बात न पची, तो धनिया के पेट में क्या पचेगी? अब यह चुड़ैल मानने वाली नहीं! ज़िद पर आ जाती है, तो किसी की सुनती ही नहीं। आज उसने अपने जीवन में सबसे बड़ी भूल की।

चारों ओर नीरव अंधकार छाया हुआ था। दोनों बैलों के गले की घंटियाँ कभी-कभी बज उठती थीं। दस क़दम पर मृतक गाय पड़ी हुई थी और होरी घोर पश्चाताप में करवटें बदल रहा था। अंधकार में प्रकाश की रेखा कहीं नजर न आती थी।

गोदान उपन्यास
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