गौतमीपुत्र सातकर्णि

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(गौतमीपुत्र शातकर्णी से अनुप्रेषित)
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  • राजा सातकर्णी के उत्तराधिकारियों के केवल नाम ही पुराणों द्वारा ज्ञात होते हैं।
  • ये नाम पूर्णोत्संग (शासन काल 18 वर्ष), स्कन्धस्तम्भि (18 वर्ष), मेघस्वाति (18 वर्ष) और गौतमीपुत्र सातकर्णि (56 वर्ष) हैं।
  • इनमें गौतमीपुत्र सातकर्णी के सम्बन्ध में उसके शिलालेखों से बहुत कुछ परिचय प्राप्त होता है। यह प्रसिद्ध शक महाक्षत्रप 'नहपान' का समकालीन था, और इसने समीपवर्ती प्रदेशों से शक शासन का अन्त किया था। नासिक ज़िले के 'जोगलथम्बी' नामक गाँव से सन् 1906 ई. में 13,250 सिक्कों का एक ढेर प्राप्त हुआ था। ये सब सिक्के एक शक क्षत्रप नहपान के हैं। इनमें से लगभग दो तिहाई सिक्कों पर गौतमीपुत्र का नाम भी अंकित है। जिससे यह सूचित होता है कि गौतमीपुत्र सातकर्णि ने नहपान को परास्त कर उसके सिक्कों पर अपनी छाप लगवाई थी। इसमें सन्देह नहीं, कि शकों के उत्कर्ष के कारण पश्चिमी भारत में सातवाहन राज्य की बहुत क्षीण हो गई थी, और बाद में गौतमीपुत्र सातकर्णि ने अपने वंश की शक्ति और गौरव का पुनरुद्धार किया।
  • गौतमीपुत्र सातकर्णि की माता का नाम 'गौतमी बालश्री' था। उसने नासिक में त्रिरश्मि पर एक गुहा दान की थी, जिसकी दीवार पर एक प्रशस्ति उत्कीर्ण है। इस प्रशस्ति द्वारा गौतमी बालश्री के प्रतापी पुत्र के सम्बन्ध में बहुत सी महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती है। उसमें राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि के जो विशेषण दिए हैं, उसमें से निम्नलिखित विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं -

असिक असक मुलक सुरठ कुकुर अपरान्त अनूप विदभ आकर (और) अवन्ति के राजा, बिझ छवत पारिजात सह्य कण्हगिरि मच सिरिटन मलय महिद सेटगिरि चकोर पर्वतों के पति, जिसके शासन को सब राजाओं का मंडल स्वीकार करता था, क्षत्रियों के दर्प और मान का मर्दन करने वाले, शक यवन पह्लवों के निषूदक, सातवाहन कुल के यश के प्रतिष्ठापक, सब मंडलों से अभिवादितचरण, अनेक समरों में शत्रुसंघ को जीतने वाले, एकशूर, एक ब्राह्मण, शत्रुजनों के लिए दुर्घर्ष सुन्दरपुर के स्वामी आदि।

  • इस लेख से स्पष्ट है कि असक (अश्मक) मूलक (मूलक, राजधानी प्रतिष्ठान), सुरठ (सौराष्ट्र), कुकुर (काठियावाड़ के समीप एक प्राचीन गण-जनपद), उपरान्त (कोंकण), अनूप (नर्मदा की घाटी का प्रदेश), विदर्भ (विदर्भ, बरार), आकर (विदिशा का प्रदेश) और अवन्ति गौतमीपुत्र सातकर्णी के साम्राज्य के अंतर्गत थे। जिन पर्वतों का वह स्वामी था, वे भी उसके साम्राज्य के विस्तार को सूचित करते हैं। विझ (विन्ध्य) छवत (ऋक्षवत् या सतपुड़ा), पारिजात (पश्चिमी विन्ध्याचल), सह्य (सहाद्रि), कण्हगिरि (कान्हेरी या कृष्णगिरि), सिरिटान (श्रीपर्वत), मलय (मलयाद्रि), महिन्द्र (महेन्द्र पर्वत) और चकोर (पुराणों में श्रीपर्वत की अन्यतम पर्वतमाला) उसके राज्य के विस्तार पर अच्छा प्रकाश डालते हैं।
  • इस प्रशस्ति से यह निश्चित हो जाता है कि गौतमीपुत्र सातकर्णि सच्चे अर्थों में दक्षिणापथपति था, और काठियावाड़, महाराष्ट्र और अवन्ति के प्रदेश अवश्य ही उसके साम्राज्य के अंतर्गत थे।

गौतमीपुत्र सातकर्णि जो इतने विशाल साम्राज्य का निर्माण कर सका था, उसका प्रधान कारण 'शक यवन पल्हवों' की पराजय थी। शक, यवन और पार्थियन लोगों ने बाहर से आकर भारत में जो अनेक राज्य क़ायम कर लिए थे, उनके साथ सातकर्णि ने घोर युद्ध किए, और उन्हें परास्त कर सातवाहन कुल की शक्ति और गौरव को प्रतिष्ठापित किया। विदेशी शकों की भारत में बढ़ती हुई शक्ति का दमन करना सातकर्णि का ही कार्य था। अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र आदि जिन अनेक प्रदेशों को सातकर्णि ने अपने अधीन किया था, वे पहले क्षहरात कुल के शक क्षत्रप नहपान के अधीन थे। शकों को परास्त करके ही सातकर्णि ने इन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था।

  • गौतमीपुत्र सातकर्णि के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले अनेक शिलालेख व सिक्के खोज द्वारा प्राप्त हुए हैं। इस प्रतापी राजा से सम्बन्ध रखने वाली एक जैन अनुश्रुति का उल्लेख करना भी इस सम्बन्ध में उपयोगी होगा। जैन ग्रंथ 'आवश्यक सूत्र' पर 'भद्रबाहु स्वामी'-विरचित 'निर्युक्ति' नामक टीका में एक पुरानी गाथी दी गई है, जिसके अनुसार 'भरुकच्छ' का राजा नहवाण कोष का बड़ा धनी था। दूसरी ओर प्रतिष्ठान का राजा सालवाहन सेना का धनी था। सालवाहन ने नहवाण पर चढ़ाई की, किन्तु दो वर्ष तक उसकी पुरी को घेर रहने पर भी वह उसे जीत नहीं सका। भरुकच्छ में कोष की कमी नहीं थी। अतः सालवाहन की सेना का घेरा उसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। अब सालवाहन ने कूटनीति का आश्रय लिया। उसने अपने एक अमात्य से रुष्ट होने का नाटक कर उसे निकाल दिया। यह अमात्य भरुकच्छ गया और शीघ्र ही नहवाण का विश्वासपात्र बन गया। उसकी प्रेरणा से नहवाण ने अपना बहुत सा धन देवमन्दिर, तालाब, बावड़ी आदि बनवाने तथा दान-पुण्य में व्यय कर दिया। अब जब फिर सालवाहन ने भरुकच्छ पर चढ़ाई की, तो नहवाण का कोष ख़ाली था। वह परास्त हो गया, और भरुकच्छ भी सालवाहन के साम्राज्य में शामिल हो गया। शक क्षत्रप नहवाण (नहपान) के दान-पुण्य का कुछ परिचय उसके जामाता उषाउदात के लेखों से मिल सकता है।
  • 'कालकाचार्य' कथानक के अनुसार जिस राजा 'विक्रमादित्य' ने शकों का संहार किया था, वह प्रतिष्ठान का राजा था। सालवाहन या सातवाहन वंश की राजधानी भी प्रतिष्ठान ही थी। इस बात को दृष्टि में रखकर श्री जायसवाल व अन्य अनेक ऐतिहासिकों ने यह स्थापना की है, कि भारत की दन्त-कथाओं और प्राचीन साहित्य का 'शकारि विक्रमादित्य' और सातवाहनवंशी प्रतापी राजा 'गौतमीपुत्र सातकर्णि' एक ही थे, और इस शक निषुदक राजा का शासन काल 99 ई. पू. से 44 ई. पू. तक था।
  • पुराणों के अनुसार इसने 56 साल और जैन अनुश्रुति के अनुसार 55 साल तक राज्य किया था। यदि सातवाहन वंश के प्रथम राजा का शासन काल 210 ई. पू. के लगभग माना जाए तो पुराणों की वंशतालिका के अनुसार सातकर्णि का शासन काल समय यही बनता है। विक्रमी संवत का प्रारम्भ 57 ई. पू. में होता है। यह संवत शकों की पराजय सदृश महत्त्वपूर्ण घटना की स्मृति में ही प्रारम्भ हुआ था, और अनुश्रुति के अनुसार जिस राजा विक्रमादित्य के साथ इसका सम्बन्ध है, वह यदि गौतमीपुत्र सातकर्णि ही हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। पर इससे यह नहीं समझना चाहिए, कि विक्रम संवत का प्रारम्भ गौतमीपुत्र सातकर्णि द्वारा किया गया था। इस संवत का प्रारम्भ मालवगण की स्थिति से हुआ माना जाता है।
  • शक आक्रान्ताओं ने जिस प्रकार सातवाहन के गौरव को क्षीण किया था, वैसे ही गणराज्यों को भी उन्होंने पराभूत किया था। शकों की शक्ति के क्षीण होने पर भारत के प्राचीन गणराज्यों का पुनरुत्थान हुआ। शकों की पराजय की श्रेय केवल सातवाहनीवंशी सातकर्णि को ही नहीं है। मालवगण के वीर योद्धाओं का भी इस सम्बन्ध में बहुत कर्तृत्व था। उनके गण की पुनःस्थिति से एक नए संवत का प्रारम्भ हुआ, जो बाद में विक्रम-संवत कहलाया। पर जायसवाल जी की यह स्थापना भी बड़े महत्त्व की है, कि गौतमीपुत्र सातकर्णि का ही अन्य नाम या उपनाम विक्रमादित्य भी था, और वही भारतीय अनुश्रुति का 'शकारि या शकनिषुदक विक्रमादित्य' था। पर यह मत पूर्णतया निर्विवाद नहीं है। सातकर्णि के काल के सम्बन्ध में भी ऐतिहासिकों में मतभेद है। अनेक इतिहासकार उसे दूसरी ई. पू. का मानते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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