प्रतिज्ञा उपन्यास भाग-5

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पूर्णा को अपने घर से निकलते समय बड़ा दुःख होने लगा। जीवन के तीन वर्ष इसी घर में काटे थे। यहीं सौभाग्य के सुख देखे, यहीं वैधव्य के दुःख भी देखे। अब उसे छोड़ते हुए हृदय फट जाता था। जिस समय चारों कहार उसका असबाब उठाने के लिए घर आए, वह सहसा रो पड़ी। उसके मन में कुछ वैसे ही भाव जाग्रत हो गए, जैसे शव को उठाते समय शोकातुर प्राणियों के मन में आ जाते हैं। यह जानते हुए भी कि लाश घर में नहीं रह सकती, जितनी जल्द उसका दाहसंस्कार क्रिया हो जाए उतना ही अच्छा है। वे एक क्षण के लिए मोह के आवेश में आ कर पाँव से चिमट जाते हैं, और शोक से विह्वल हो कर करूण स्वर में रूदन करने लगते हैं, वह आत्म-प्रवंचना, जिसमें अब तक उन्होंने अपने को डाल रखा था कि कदाचित अब भी जीवन के कुछ चिह्न प्रकट हो जाएँ, एक परदे के समान आँखों के सामने से हट जाती है और मोह का अंतिम बंधन टूट जाता है, उसी भाँति पूर्णा भी घर के एक कोने में दीवार से मुँह छिपा कर रोने लगी। अपने प्राणेश की स्मृति का यह आधार भी शोक के अपार सागर में विलीन हो रहा था। उस घर का एक-एक कोना उसके लिए मधुर-स्मृतियों से रंजित था, सौभाग्य-सूर्य के अस्त हो जाने पर भी यहाँ उसकी कुछ झलक दिखाई देती थी। सौभाग्य-संगीत का अंत हो जाने पर भी यहाँ उसकी प्रतिध्वनि आती रहती थी। घर में विचरते हुए उसे अपने सौभाग्य का विषादमय गर्व होता रहता था। आज सौभाग्य-सूर्य का वह अंतिम प्रकाश मिटा जा रहा था, सौभाग्य-संगीत की प्रतिध्वनि एक अनंत शून्य में डूबी जाती थी, वह विषादमय गर्व हृदय को चीर कर निकला जाता था।

पड़ोस की स्त्रियों को जब मालूम हुआ कि पूर्णा यहाँ से जा रही है, तो सब उसे विदा करने आईं। पूर्णा के शील और विनय ने भी सभी को मुग्ध कर लिया था। पूर्णा के पास धन न था, पर मीठी बातें थीं, प्रसन्न मुख था, सहानुभूति थी, सेवा-भाव था, जो धन की अपेक्षा कहीं मूल्यवान रत्न हैं, और जिसकी प्राणियों को धन से कहीं अधिक आवश्यकता होती है। पूर्णा उन सभी से गले मिल कर विदा हुई मानो लड़की ससुराल जाती हो।

संध्या समय वह अपनी महरी बिल्लो के साथ रोती हुई इस भाँति चली मानो कोई निर्वासित हो। पीछे फिर-फिर कर अपने प्यारे घर को देखती जाती थी, मानो उसका हृदय वहीं रह गया हो।

प्रेमा अपने द्वार पर खड़ी उसकी बाट देख रही थी। पूर्णा को देखते ही दौड़ कर उसके गले से लिपट गई। इस घर में पूर्णा प्रायः नित्य ही आया करती थी। तब यहाँ आते ही उसका चित्त प्रसन्न हो जाता था, आमोद-प्रमोद में समय कट जाता था, पर आज इस घर में क़दम रखते उसे संकोचमय ग्लानि हो रही थी। शायद वह पछता रही थी कि व्यर्थ ही आई। प्रेमा के गले मिल कर भी उसका चित्त प्रसन्न नहीं हुआ। तब वह सखी-भाव से आती थी, आज वह आश्रिता बन कर आई थी। तब उसका आना साधारण बात था, उसका विशेष आदर-सम्मान न होता था, लोग उसका स्वागत करने को न दौड़ते थे। आज उसके आते ही देवकी भंडार का द्वार खुला छोड़ कर निकल आई। सुमित्रा अपने बाल गुँथवा रही थी, अधगुंथी चोटी पर आँचल डाल कर भागी, महरियाँ अपने-अपने काम छोड़ कर निकल आईं, कमलाप्रसाद तो पहले ही से आँगन में खड़े थे। लाला बदरीप्रसाद संध्या करने जा रहे थे, उसे स्थगित करके आँगन में आ पहुँचे। यह समारोह देख कर पूर्णा का हृदय विदीर्ण हुआ जाता था। यह स्वागत सम्मान का सूचक नहीं दया का सूचक था।

देवकी को सुमित्रा की कोई बात न भाती थी। उसका हँसना-बोलना, चलना-फिरना, उठना-बैठना, पहनना-ओढ़ना सभी उन्हें फूहड़पन की चरम सीमा का अतिक्रमण करता हुआ जान पड़ता था, और वह नित्य उसकी प्रचंड आलोचना करती रहती थी। उसकी आलोचना में प्रेम और सद्भाव का आधिक्य था या द्वेष का, इसका निर्णय करना कठिन था। सुमित्रा तो द्वेष ही समझती थी। इसीलिए वह उन्हें और भी चिढ़ाती रहती थी - देवकी सबेरे उठने का उपदेश करती थी, सुमित्रा पहर दिन चढ़े उठती थी, देवकी घूँघट निकालने को कहती थी, सुमित्रा इसके जवाब में आधा सिर खुला रखती थी। देवकी महरियों से अलग रहने की शिक्षा देती थी, सुमित्रा महरियों से हँसी-दिल्लगी करती रहती थी। सुमित्रा को पूर्णा का यहाँ आना अच्छा नहीं लग रहा है, यह उससे छिपा न रह सका, पहले ही से उसने पति के इस प्रस्ताव पर नाक सिकोड़ी थी। पर, यह जानते हुए कि इनके मन में जो इच्छा है उसे यह पूरा ही करके छोड़ेंगे, उसने विरोध करके अपयश लेना उचित न समझा था। सुमित्रा सास के मन के भाव ताड़ रही थी। और यह भी जानती थी कि पूर्णा भी अवश्य ही ताड़ रही है। इसलिए पूर्णा के प्रति उसके मन में स्नेह और सहानुभूति उत्पन्न हो गई। अब तक देवकी पूर्णा को आदर्श गृहिणी कह कर बखान करती रहती थी। उसको दिखा कर सुमित्रा को लज्जित करना चाहती थी। इसलिए सुमित्रा पूर्णा से जलती थी। आज देवकी के मन में वह भाव न था, इसलिए सुमित्रा के मन में भी वह भाव न रहा।

पूर्णा आज बहुत देर तक प्रेमा के पास न बैठी। चित्त बहुत उदास था। आज उसे अपनी दशा की हीनता का यथार्थ ज्ञान हुआ था। इतनी जल्द उसकी दशा क्या-से-क्या हो गई थी, वह आज उसकी समझ में आ रहा था। यह घर उसके खपरैलवाले घर से कहीं सुंदर था। उसके कमरे में फर्श थी, सुंदर चारपाई थी, आल्मारियाँ थीं। बिजली की रोशनी थी, पंखा भी था, पर इस समय बिजली का प्रकाश उसकी आँखों में चुभ रहा था और पंखे की हवा देह को ज्वाला की भाँति झुलसा रही थी। प्रेमा के बहुत आग्रह करने पर भी आज वह कुछ भोजन न कर सकी। आ कर अपने कमरे में चारपाई पर लेट कर रोती रही। विधि उसके साथ कैसी क्रीड़ा कर रही थी। उसके जीवन-सर्वस्व का अपहरण करके वह उसको खिलौनों से संतुष्ट करना चाहती थी। उसकी दोनों आँखें फोड़ कर उसे सुरम्य उपवन की शोभा दिखा रही थी, उसके दोनों हाथ काट कर उसे जलक्रीड़ा करने के लिए सागर में ढकेल रही थी।

ग्यारह बजे थे। पूर्णा प्रकाश में आँखें हटा कर खिड़की के बाहर अंधकार की ओर देख रही थी। उस गहरे अँधेरे में उसे कितने सुंदर दृश्य दिखाई दे रहे थे - वही अपना खपरैल का घर था, वही पुरानी खाट थी, वही छोटा-सा आँगन था, और उसके पतिदेव दफ़्तर से आ कर उसकी ओर साहस मुख और सप्रेम नेत्रों से ताकते हुए जेब से कोई चीज़ निकाल कर उसे दिखाते और फिर छिपा लेते थे। वह बैठी पान लगा रही थी, झपट कर उठी और पति के दोनों हाथ पकड़ कर बोली - 'दिखा दो क्या है? पति ने मुट्ठी बंद कर ली। उसकी उत्सुकता और बढ़ी उसने खूब ज़ोर लगा कर मुट्ठी खोली, पर उसमें कुछ न था। वह केवल कौतुक था। आह! उस कौतुक, उस क्रीड़ा में उसे अपने जीवन की व्याख्या छिपी हुई मालूम हो रही थी।'

सहसा सुमित्रा ने आ कर पूछा- 'अरे तुम तो यहाँ खिड़की के सामने खड़ी हो। मैंने समझा था, तुम्हें नींद आ गई होगी।'

पूर्णा ने आँसू पोंछ डाले और आवाज़ सँभाल कर बोली - 'यह तो तुम झूठ कहती हो बहन। यह सोचती तो तुम आती क्यों?'

सुमित्रा ने चारपाई पर बैठते हुए कहा - 'सोचा तो यही था, सच कहती हूँ, पर न जाने क्यों चली आई। शायद तुम्हें सोते देख कर लौट जाने के लिए ही आई थी। सच कहती हूँ अब लेटो न, रात तो बहुत गई।'

पूर्णा ने कुछ आशंकित हो कर पूछा - 'तुम अब तक कैसे जाग रही हो?'

सुमित्रा - 'सारे दिन सोया जो करती हूँ।'

पूर्णा - 'तो क्यों सोती हो सारे दिन?'

सुमित्रा - 'यही रात को जागने के लिए।'

सुमित्रा हँसने लगी। एक क्षण में सहसा उसका मुख गंभीर हो गया। बोली - 'अपने माता-पिता की धन-लिप्सा का प्रायश्चित कर रही हूँ, बहन और क्या।' यह कहते-कहते उसकी आँखें सजल हो गई।

पूर्णा यह वाक्य सुन कर चकित हो गई। इस जीवन के मधुर संगीत में यह कर्कश स्वर क्यों?

सुमित्रा किसी अंतर्वेदना से विकल हो कर बोली - 'तुम देख लेना बहन, एक दिन यह महल ढह जाएगा। यही अभिशाप मेरे मुँह से बार-बार निकलता है।' पूर्णा ने विस्मित हो कर कहा - 'ऐसा क्यों कहती हो बहन? फिर उसे एक बात याद हो गई। पूछा - 'क्या अभी भैयाजी नहीं आए?'

सुमित्रा द्वार की ओर भयभीत नेत्रों से देखती हुई बोली - 'अभी नहीं, बारह ही तो बजे हैं इतनी जल्दी क्यों आएँगे? न एक, न दो, न तीन। मेरा विवाह तो इस महल से हुआ है। लाला बदरीप्रसाद की बहू हूँ, इससे बड़े सुख की कल्पना कौन कर सकता है? भगवान ने किसलिए मुझे जन्म दिया, समझ में नहीं आता। इस घर में मेरा कोई अपना नहीं है, बहन! मैं जबरदस्ती पड़ी हुई हूँ, मेरे मरने-जीने की किसी को परवाह नहीं है। तुमसे यही प्रार्थना है कि मुझ पर दया रखना। टूटे हुए तारों से मीठे स्वर नहीं निकलते। तुमसे न जाने क्या-क्या कहूँगी! किसी से कह न देना कि और भी विपत्ति में पड़ जाऊँ। हम दोनों दुखिया हैं। तुम्हारे हृदय में सुखद स्मृतियाँ हैं, मेरे में वह भी नहीं। मैंने सुख देखा ही नहीं और न देखने की आशा ही रखती हूँ।'

पूर्णा ने एक लंबी साँस खींच कर कहा - 'मेरे भाग्य से अपने भाग्य की तुलना न करो, बहन पराश्रय से बड़ी विपत्ति दुर्भाग्य के कोश में नहीं है।'

सुमित्रा सूखी हँसी हँस कर बोली - 'वह विपत्ति क्या मेरे सिर नहीं है, बहन? अगर मुझे कहीं आश्रय होता, तो इस घर में एक क्षण भर भी न रहती। सैकड़ों बार माता-पिता को लिख चुकी हूँ कि मुझे बुला लो, मैं आजीवन तुम्हारे चरणों में पड़ी रहूँगी, पर उन्होंने भी मेरी ओर से अपना हृदय कठोर कर लिया। जवाब में उपदेशों का एक पोथा रँगा हुआ आता है, जिसे मैं कभी नहीं पढ़ती। इस घर में एक ससुर जी हैं, जिन्हें ईश्वर ने हृदय दिया है और सब-के-सब पाषाण हैं। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, बहन, मुझे इसका दुःख नहीं है कि यह महाशय क्यों इतनी रात गए आते हैं, या उनका मन और किसी से अटका हुआ है। अगर आज मुझे मालूम हो जाए कि यह किसी रमणी पर लट्टू हो गए हैं, तो मेरा आधा क्लेश मिट जाए। मैं मूसरों से ढोल बजाऊँ। मुझे तो यह रोना है कि इनके हृदय नहीं हृदय की जगह स्वार्थ का एक रोड़ा रखा हुआ है। न पुस्तकों से प्रेम, न संगीत से प्रेम, न विनोद से प्रेम, प्रेम है पैसे से। मुझे तो विश्वास नहीं कि इन्हें सिनेमा में आनंद आता हो। वहाँ भी कोई-न-कोई स्वार्थ है। लेन-देन, सवाए-डयोढ़े, घाटे-नफे में इनके प्राण बसते हैं और मुझे इन बातों से घृणा है। कमरे में आते हैं तो पहली बात जो उनके मुँह से निकलती है, वह यह कि अभी तक बत्ती क्यों नहीं बुझाई। वह देखो, सवारी आ गई अब घंटे-दो घंटे किफायत का उपदेश सुनना पड़ेगा। यों मैं धन को तुच्छ नहीं समझती। संचय करना अच्छी बात है, पर यह क्या कि आदमी धन का दास हो जाए। केवल इन्हें चिढ़ाने के लिए कुछ-न-कुछ फिजूल खर्च किया करती हूँ। मजा तो यह है कि इन्हें अपने ही पैसों की अखर नहीं होती, मैं अपने पास से भी कुछ नहीं खर्चा कर सकती। पिता जी महीने में चालीस-पचास रुपए भेज देते हैं, इस घर में तो कानी कौड़ी भी न मिले। मेरी जो इच्छा होती है, करती हूँ वह भी आपसे नहीं देखा जाता। इस पर भी कई बार तकरार हो चुकी है। सोने लगना तो बत्ती बुझा देना बहन, जाती हूँ।'

सुमित्रा चली गई। पूर्णा ने बत्ती बुझा दी और लेटी, पर नींद कहाँ? आज ही उसने इस घर में क़दम रखा था और आज ही उसे अपनी जल्दबाजी पर खेद हो रहा था। यह निश्चय था कि वह बहुत दिन यहाँ न रह सकेगी।

प्रतिज्ञा उपन्यास
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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