बृहस्पतिस्मृति
बृहस्पतिस्मृति एक स्मृति ग्रन्थ है, जिसके रचनाकार बृहस्पति हैं। बृहस्पति प्राचीन अर्थशास्त्रज्ञ माने जाते हैं। अपरार्क व कात्यायन के ग्रन्थों में बृहस्पति के उद्धरण मिलते हैं। महाभारत के वनपर्व में ‘बृहस्पतिनीति’ का उल्लेख है। ‘याज्ञवल्क्यस्मृति’ में इन्हें धर्मवक्ता कहा गया है। ‘बृहस्पतिस्मृति’ अभी तक सम्पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं हुई है।
प्राचीन उल्लेख
बृहस्पतिस्मृति का प्रमुख 18 स्मृतियों में अन्तर्भाव होता है। ‘मिताक्षरा’ व अन्य भाष्यों में इनके लगभग 700 श्लोक प्राप्त होते हैं, जो व्यवहार विषयक हैं। कौटिल्य ने इनको प्राचीन अर्थशास्त्री के रूप में वर्णित किया है। ‘महाभारत’ के शान्तिपर्व[1] में बृहस्पति को ब्रह्मा द्वारा रचित धर्म, अर्थ व काम विषयक ग्रन्थों को तीन सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त करने वाला कहा गया है। महाभारत के वनपर्व में ‘बृहस्पतिनीति’ का उल्लेख है।
‘बृहस्पतिस्मृति’ को अभी तक सम्पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं किया जा सका है। डॉ. जोली ने इसके 711 श्लोकों का प्रकाशन किया है। इसमें व्यवहार, विषयक सिद्धान्त का वर्णन है। उपलब्ध ‘बृहस्पतिस्मृति’ पर ‘मनुस्मृति’ का प्रभाव दिखाई पड़ता है। अनेक स्थलों पर तो बृहस्पति मनु के संक्षिप्त विवरणों के व्याख्याता सिद्ध होते हैं। अपरार्क व कात्यायन के ग्रन्थों में बृहस्पति के उद्धरण मिलते हैं। भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे के अनुसार बृहस्पति का समय 200 ई. से 400 ई. के बीच माना जा सकता है। स्मृतिचन्द्रिका, मिताक्षरा, पराशरमाधवीय, निर्णयसिन्धु व संस्कारकौस्तुभ में बृहस्पति के अनेक उद्धरण प्राप्त होते हैं। बृहस्पति के बारे में विद्वान् अभी तक किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं। अपरार्क व हेमाद्रि ने वृद्ध बृहस्पति एवं ज्योति बृहस्पति का भी उल्लेख किया है।
न्याय विषयक विवेचन
बृहस्पति प्रथम धर्मशास्त्रज्ञ हैं। जिन्होंने धन तथा हिंसा के भेद को प्रकट किया है। इसमें भूमिदान, गयाश्राद्ध, व्रषोत्सर्ग, वापीकूपादि का जीर्णोद्वार आदि विषय हैं। इसमें न्यायालयीन व्यवहार विषयक जो विवेचन हुआ है, वह इस स्मृति की विशेषता है। कुछ प्रमुख बातों का विवेचन इस प्रकार है-प्रमाण, गवाह, दस्तावेज तथा भुक्ति (क़ब्ज़ा) न्यायालयीन कार्य के चार अंग हैं। फ़ौजदारी और दीवानी मामले दो प्रकार के होते हैं। लेन-देन के मामले के 14 तथा फ़ौजदारी मामले के 4 भेद है। न्यायाधीश को किसी भी मामले का निर्णय केवल शास्त्र के अनुसार नहीं, तो बुद्धि के कारण मीमांसा कर ही देना चाहिए। न्यायालय में मामला दाखिल होने से उसका फैसला होने तक की कार्य पद्धति इसमें विस्तार से दी गई है।
मृच्छकटिक नाटक के न्यायालयीन प्रसंग तथा कार्य पद्धति, इस स्मृति के अनुसार वर्णित है। इस स्मृति का मनुस्मृति से निकट सम्बन्ध है। स्कन्दपुराण में किंवदन्ती है कि मूल मनुस्मृति के भृगु, नारद, बृहस्पति तथा अंगिरस ने चार विभाग किए। मनु ने जिन विषयों की संक्षिप्त चर्चा की उसका बृहस्पति ने विस्तार से विवेचन किया है। बृहस्पति और नारद में अनेक विषयों पर मतैक्य हैं। परन्तु बृहस्पति की न्याय विषयक परिभाषाएँ नारद से अधिक अनिश्चयात्मक हैं।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 545 |
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