शैव आगम

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शैव आगम शैव मतावलंबियों (शिव के उपासक) के प्राचीन ग्रंथवेदों के अतिरिक्त अन्य हिन्दू ग्रंथों की भांति यह साहित्य न तो भली-भांति सूचीबद्ध है और न ही इसका व्यापक अध्ययन किया गया है। प्रत्येक मत के अनुरूप अनेक प्रकार के वर्गों के ग्रंथ हैं।

  • आगमवादी शैवों[1] में दोनों सांस्कृतिक शैव सिद्धांतों को स्वीकार किया गया है- अर्थात वे लोग, जो उत्तर में शैवों के दर्शन और निष्कर्षों को मानते हैं, तथा दक्षिण के 'लिंगायत' या 'वीरशैव'।[2]
  • शैव सिद्धांतों में परंपरानुसार 28 आगम और 150 उपआगम हैं। उनके प्रधान ग्रंथ का रचना काल निर्धारित करना कठिन है; अधिक संभावना यही है कि वह अठवीं शताब्दी से पहले के नहीं हैं। उनके मतानुसार शिव ही जगत का मूल चेतन तत्त्व हैं और शेष समूचा जगत जड़ है। भगवान शिव की शक्ति को देवी भी माना गया है, जो बंधन तथा मुक्ति का कारण बनती है। उनका वर्णन शब्दों में भी किया जाता है और इसलिए उनकी प्रकृति को समझा जा सकता है एवं मंत्रों द्वारा उनका ध्यान किया जा सकता है।
  • कश्मीरी शैवमत 'शिवसूत्र' से शिव की नई व्याख्या के रूप में आरंभ होता है। इस प्रणाली में सोमानंद (950) की 'शिवदृष्टि' को अपनाया गया है, जिसमें शिव की शाश्वत सत्ता पर बल दिया जाता है; अर्थात यह जगत शिव की रचना है, जिसे शक्ति ने साकार रूप प्रदान किया। इस व्यवस्था को 'त्रिक' कहते हैं, क्योंकि इसमें शिव, शक्ति और आत्मा, तीन सिद्धांतों को मान्यता प्रदान की गई है।
  • वीरशैव ग्रंथों की रचना लगभग 1150 ई. के आसपास बसव के 'वचनम' से आरंभ हुई। यह मत अतिनैतिकवादी है, केवल शिव की आराधना करता है। अपनी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने के लिए समाज की वर्ण व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता है और इस मत में मठों और गुरुओं की प्रतिष्ठा तथा आधिक्य है।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अपने ही आगम ग्रंथों का पालन करने वाले शिव के उपासक
  2. वीर का अर्थ है- 'नायक' और लिंग शिव का प्रतीक है; मूर्ति की जगह जिनकी पूजा की की जाती है
  3. भारत ज्ञानकोश, खण्ड-5 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 312 |

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