ओंकारेश्वर

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ओंकारश्वर ज्योतिर्लिंग
Omkareshwar Jyotirlinga

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के साथ ही अमलेश्वर ज्येतिर्लिंग भी है। इन दोनों शिवलिंगों की गणना एक ही ज्योतिर्लिंग में की गई है। ओंकारेश्वर स्थान भी मालवा क्षेत्र में ही पड़ता है। स्कन्द पुराण के रेवा खण्ड में श्री ओंकारेश्वर की महिमा का बखान किया गया है-

देवस्थानसमं ह्येतत् मत्प्रसादाद् भविष्यति।
अन्नदानं तप: पूजा तथा प्राणविसर्जनम्।
ये कुर्वन्ति नरास्तेषां शिवलोकनिवासनम्।।[1]

अर्थात् ‘ओंकारेश्वर तीर्थ अलौकिक है। भगवान शंकर की कृपा से यह देवस्थान के समान ही हैं। जो मनुष्य इस तीर्थ में पहुँचकर अन्नदान, तप, पूजा आदि करता है अथवा अपना प्राणोत्सर्ग यानि मृत्यु को प्राप्त होता है, उसे भगवान शिव के लोक में स्थान प्राप्त होता है।’

अमराणां शतैशचैव संवितो हामरेश्वर:।
तथैव ऋषिसंघैशच तेन पुण्यतमो महान्।।[2]

अर्थात् ‘महान पुण्यशाली अमरेश्वर (ओंकारेश्वर) तीर्थ हमेशा सैकड़ों देवताओं तथा ऋषि-महर्षि का अत्यन्त पवित्र तीर्थ है।’

मान्धाता पर्वत

नर्मदा नदी के दो धाराओं के बंटने से एक टापू का निर्माण हो गया है, इसे शिवपुरी भी कहा जाता है। नर्मदा की विभक्त धारा दक्षिण की ओर जाती है। दक्षिण की ओर बहने वाली धारा ही प्रधान मानी जाती है, जिसे नाव (नौका) के द्वारा पार किया जाता है। नर्मदा के इस किनारे पर पक्के घाटों का निर्माण कराया गया है। इसी मान्धाता नामक पर्वत पर भगवान ओंकारेश्वर-महादेव विराजमान हैं। इतिहास प्रसिद्ध भगवान के महान् भक्त अम्बरीष और मुचुकुन्द के पिता सूर्यवंशी राजा मान्धाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था। वे एक महान् तपस्वी और विशाल महायज्ञों के कर्त्ता थे। उस महान् पुरुष मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत हो गया। यहाँ के ज़्यादातर मन्दिरों का निर्माण पेशवा राजाओं द्वारा ही कराया गया था। ऐसा बताया जाता है कि भगवान ओंकारेश्वर का मन्दिर भी उन्हीं पेशवाओं द्वारा ही बनवाया गया है। इस मन्दिर में दो कमरों (कक्षों) के बीच से होकर जाना पडता है। चूँकि भीतर अन्धेरा रहता है, इसलिए वहाँ हमेशा दीपक जलाया जाता है।

शिव पुराण की कथा

इस ओंकारतीर्थ के ज्योतिर्लिंग को शिव महापुराण में ‘परमेश्वर लिंग’ कहा गया है। यह परमेश्वर लिंग इस तीर्थ में कैसे प्रकट हुआ अथवा इसकी स्थापना कैसे हुई, इस सम्बन्ध में शिव पुराण की कथा इस प्रकार है- भगवान शिव के अनेक नाम हैं। एक बार नारद ऋषि परम श्रद्धा और बड़ी लगन के साथ उनकी सेवा करने लगे। कुछ समय सेवा में बिताने के बाद मुनिश्रेष्ठ वहाँ से गिरिराज विन्ध्य पर पहुँच गये। विन्ध्य ने बड़े आदर-सम्मान के साथ उनकी विधिवत पूजा की। 'मैं सर्वगुण सम्पन्न हूँ, मेरे पास हर प्रकार की सम्पदा है, किसी वस्तु की कमी नहीं है'- इस प्रकार के भाव को मन में लिये विन्ध्याचल नारद जी के समक्ष खड़ा हो गया। अहंकारनाशक श्री नारद जी विन्ध्याचल की अभिमान से भरी बातें सुनकर लम्बी साँस खींचते हुए चुपचाप खड़े रहे। उसके बाद विन्ध्यपर्वत ने पूछा- 'आपको मेरे पास कौन-सी कमी दिखाई दी? आपने किस कमी को देखकर लम्बी साँस खींची?’

नारद जी ने विन्ध्याचल को बताया कि तुम्हारे पास सब कुछ है, किन्तु मेरू पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उस पर्वत के शिखरों का विभाग[3]देवताओं के लोकों तक पहुँचा हुआ है। मुझे लगता है कि तुम्हारे शिखर[4] के भाग वहाँ तक कभी नहीं पहुँच पाएंगे। इस प्रकार कहकर ऋषि नारद जी के चले जाने पर विन्ध्याचल को बहुत पछतावा हुआ। वह दु:खी होकर मन ही मन शोक करने लगा। उसने निश्चय किया कि अब वह विश्वनाथ भगवान सदाशिव की आराधना और तपस्या करेगा। इस प्रकार विचार करने के बाद वह भगवान शंकर जी की सेवा में चला गया। जहाँ पर साक्षात ओंकार विद्यमान हैं। उस स्थान पर पहुँचकर उसने प्रसन्नता और प्रेमपूर्वक शिव की पार्थिव मूर्ति (मिट्टी की शिवलिंग) बनाई और छ: महीने तक लगातार उसके पूजन में तन्मय रहा।

वह शम्भू की आराधना-पूजा के बाद निरन्तर उनके ध्यान में तल्लीन हो गया और अपने स्थान से इधर-उधर नहीं हुआ। उसकी कठोर तपस्या को देखकर पार्वतीपति भगवान शिव उस पर प्रसन्न हो गये। उन्होंने विन्ध्याचल को अपना दिव्य स्वरूप प्रकट कर दिखाया, जिसका दर्शन बड़े - बड़े योगियों के लिए भी अत्यन्त दुर्लभ होता है। सदाशिव भगवान प्रसन्नतापूर्वक विन्ध्याचल से बोले- ‘विन्ध्य! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं अपने भक्तों को उनका अभीष्ट[5] वर प्रदान करता हूँ। इसलिए तुम वर माँगो।’ विन्ध्य ने कहा- ‘देवेश्वर महेश! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो भक्तवत्सल! हमारे कार्य की सिद्धि करने वाली वह अभीष्ट बुद्धि हमें प्रदान करें!’ विन्ध्यपर्वत की याचना को पूरा करते हुए भगवान शिव ने उससे कहा कि- ‘पर्वतराज! मैं तुम्हें वह उत्तम वर (बुद्धि) प्रदान करता हूँ। तुम जिस प्रकार का काम करना चाहो, वैसा कर सकते हो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।’

भगवान शिव ने जब विन्ध्य को उत्तम वर दे दिया, उसी समय देवगण तथा शुद्ध बुद्धि और निर्मल चित्त वाले कुछ ऋषिगण भी वहाँ आ गये। उन्होंने भी भगवान शंकर जी की विधिवत पूजा की और उनकी स्तुति करने के बाद उनसे कहा- ‘प्रभो! आप हमेशा के लिए यहाँ स्थिर होकर निवास करें।’ देवताओं की बात से महेश्वर भगवान शिव को बड़ी प्रसन्नता हुई। लोकों को सुख पहुँचाने वाले परमेशवर शिव ने उन ऋषियों तथा देवताओं की बात को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया।

वहाँ स्थित एक ही ओंकारलिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया। प्रणव के अन्तर्गत जो सदाशिव विद्यमान हुए, उन्हें ‘ओंकार’ नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार पार्थिव मूर्ति में जो ज्योति प्रतिष्ठित हुई थी, वह ‘परमेश्वर लिंग’ के नाम से विख्यात हुई। परमेश्वर लिंग को ही ‘अमलेश्वर’ भी कहा जाता है। इस प्रकार भक्तजनों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले ‘ओंकारेश्वर’ और ‘परमेश्वर’ नाम से शिव के ये ज्योतिर्लिंग जगत् में प्रसिद्ध हुए। उस समय देवताओं और ऋषियों ने मिलकर उन ज्योतिर्लिंगों का पूजन किया तथा भगवान वृषभध्वज ने शिव को प्रसन्न कर अनेक वर प्राप्त किये-

ॐकारं चैवं यल्लिंगमेकं तच्च द्विधा गतम्।
प्रणवे चैव ॐकारनामसीत्स सदाशिव:।।
पार्थिवे चैव यज्जातं तदासीत्परमेश्वर:।
भक्तीभष्टप्रदौ चोभौ भुक्तिमुक्तिप्रौ द्विज:।
तत्पूजां च तदा चक्रुर्देवाशच ऋषयस्तथा।
प्रापुर्वराननेकांशच संतोष्य वृषभध्वजम्।।[6]

इस प्रकार भगवान शिव के प्रादुर्भाव और निरन्तर निवास से विन्ध्याचल पर्वत को अतीव प्रसन्नता हुई। अभीष्ट वर की प्राप्ति से उसने अपने कार्य की सिद्धि की और अपने मानसिक परिताप का परित्याग कर दिया। शिव पुराण का ऐसा उद्घोष है कि जो मनुष्य भगवान शंकर का पूजन कर निरन्तर ध्यान करता है, उसे दोबारा माता के गर्भ में नहीं आना पड़ता है अर्थात् उसकी मुक्ति हो जाती है। इस ओंकार में परमेश्वर ज्योतिर्लिंग का पूजन सभी प्रकार का मनोवांछित फल देने वाला है।

ओंकारेश्वर का वास्तुशिल्प

ओंकारश्वर ज्योतिर्लिंग
Omkareshwar Jyotirlinga

ओंकारेश्वर लिंग किसी मनुष्य के द्वारा गढ़ा, तराशा या बनाया हुआ नहीं है, बल्कि यह प्राकृतिक शिवलिंग है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। प्राय: किसी मन्दिर में लिंग की स्थापना गर्भ गृह के मध्य में की जाती है और उसके ठीक ऊपर शिखर होता है, किन्तु यह ओंकारेश्वर लिंग मन्दिर के गुम्बद के नीचे नहीं है। इसकी एक विशेषता यह भी है कि मन्दिर के ऊपरी शिखर पर भगवान महाकालेश्वर की मूर्ति लगी है। कुछ लोगों की मान्यता है कि यह पर्वत ही ओंकाररूप है। वे लोग इस पर्वत की परिक्रिमा भी करते हैं।

प्राचीन सिद्धेश्वर महादेव

यहाँ पर स्थित प्राचीन सिद्धेश्वर महादेव का मन्दिर भी दर्शनीय है। परिक्रमा के अन्तर्गत बहुत से मन्दिरों के विद्यमान होने के कारण भी यह पर्वत ओंकार के स्वरूप में दिखाई पड़ता है। ओंकारेश्वर के मन्दिर ॐकार में बने चन्द्र का स्थानीय ॐ इसमें बने हुए चन्द्रबिन्दु का जो स्थान है, वही स्थान ओंकारपर्वत पर बने ओंकारेश्वर मन्दिर का है। मालूम पड़ता है इस मन्दिर में शिव जी के पास ही माँ पार्वती की भी मूर्ति स्थापित है। यहाँ पर भगवान परमेश्वर महादेव को चने की दाल चढ़ाने की परम्परा है।

धर्म के साथ कुप्रथा भी

इस ओंकारेश्वर मन्दिर में कभी एक भीषण परम्परा भी प्रचलित थी, जो अब समाप्त कर दी गई है। इस मान्धाता पर्वत पर एक खड़ी चढ़ाई वाली पहाड़ी है। इसके सम्बन्ध में एक प्रचलन था कि जो कोई मनुष्य इस पहाड़ी से कूदकर अपना प्राण नर्मदा में विसर्जित कर देता है, उसकी तत्काल मुक्ति हो जाती है। इस कुप्रथा के चलते बहुत सारे लोग सद्योमुक्ति (तत्काल मोक्ष) की कामना से उस पहाड़ी पर से नदी में कूदकर अपनी जान दे देते थे। इस प्रथा को ‘भृगुपतन’ नाम से जाना जाता था। सती प्रथा की तरह इस प्रचलन को भी अँग्रेजी सरकार ने प्रतिबन्धित कर दिया। यह प्राणनाशक अनुष्ठान सन् 1824 ई. में ही बन्द करा दिया। था। इस ओंकारेश्वर-तीर्थ में कार्तिक मास (नवम्बर) की पूर्णिमा तिथि को भारी मेला लगता है। नर्मदा में स्नानकर भगवान अमलेश्वर के दर्शन का बहुत महत्त्व पुराणों में दर्शाया गया है। नर्मदा नदी के स्नान तो क्या, उसके दर्शन मात्र से भी मनुष्य में पवित्रता आती है।

मंदिर और नर्मदा

ओंकारश्वर ज्योतिर्लिंग
Omkareshwar Jyotirlinga

मोरटक्का से ओंकारेश्वर जाते समय नर्मदा के किनारे अगल-बगल में दो छोटी-छोटी पहाड़ियाँ हैं, जिनको ‘विष्णुपुरी’ और ‘ब्रह्मपुरी’ कहा जाता है। इनके बीच से ही कपिल धारा नामक नदी बहती है, जो आगे चलकर नर्मदा नदी में ही मिल जाती है। यहाँ पर पक्के घाट और अनेक मन्दिर विराजमान हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लिंग की जलहरी का सम्बन्ध नीचे नर्मदा के किसी छिद्र (बिल) से है। इसलिए ओंकार लिंग पर चढ़ायी गयी भेंट-पूजा को पुजारी लोग बड़ी सावधानी से शीघ्र ही उठा लेते हैं। वे अपने हाथ को जलहरी के आगे लगाये रहते हैं, जिससे कि चढ़ावा पानी में बहकर नदी में न चला जाय।

प्रतिमा का नौकाविहार

प्रत्येक सोमवार को भगवान ओंकारेश्वर की पाँच मुखों वाली सोने की प्रतिमा को नाव में बैठाकर नर्मदा नदी में जलविहार या नौकाविहार कराया जाता है। वर्तमान में ओंकारेश्वर-मन्दिर का जीर्णोद्धार किया गया है। यहाँ से सरकार द्वारा एक नहर निकाली गयी है, जो कृषि-कार्य अर्थात् सिंचाई के लिए है।

ओंकारेश्वर कैसे पहुँचें

इस नहर का निर्माण करने वाली एक प्राइवेट कम्पनी ने ही ओंकारेश्वर-मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया है। उसने नदी पर पक्का घाट तथा ऊपर मंदिर जाने के लिए सीढ़ियाँ भी बनवायी हैं। दो तरफ से नदी से घिरी यह पहाड़ी इस समय लगभग डेढ़ किलोमीटर लम्बी और एक किलोमीटर चौडी है। मोरटक्का रेलवे स्टेशन से बस, टैम्पों, ताँगा आदि के द्वारा ओंकारेश्वर पहुँचा जाता है। इस टापू (मान्धाता) के दोनों ओर बहने वाली नदी यद्यपि नर्मदा ही है, किन्तु इसकी दूसरी जलधारा को वहाँ कावेरी कहते हैं।

मंदिरों के दर्शन

मान्धाता द्वीप के अन्त में वही कावेरी-धारा पुन: नर्मदा में ही मिल जाती है। इस द्वीप का आकार-प्रकार[7] प्रणव [8]से मिलता-जुलता है। ओंकारेश्वर-मन्दिर के परिसर में ही पाँच मुख वाले गणेश जी की मूर्ति है। ओंकारेश्वर-मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरी मंज़िल में महाकालेश्वर लिंग मूर्ति का दर्शन प्राप्त होता है। उसकी तीसरी मंज़िल पर भगवान वैद्यनाथेश्वर की लिंग मूर्ति विद्यमान है। इस मन्दिर की परिक्रमा में श्री रामेश्वर मन्दिर तथा गौरी-सोमनाथ के भी दर्शन प्राप्त होते हैं। मन्दिर के समीप अविमुक्तेश्वर महादेव, ज्वालेश्वर, केदारेश्वर महादेव, आदि के प्राचीन मन्दिर भी अवस्थित है।

धार्मिक दृष्टि से परिक्रमा

धार्मिक दृष्टि से मान्धाता टापू में ओंकारेश्वर की एक छोटी और एक बड़ी दो परिक्रमाएँ की जाती हैं। ओंकारेश्वर क्षेत्र की सम्पूर्ण तीर्थयात्रा तीन दिनों में पूरी की जा सकती है। मान्धाता द्वीप में कोटि तीर्थ पर स्नान करने के बाद कोटेश्वर महादेव, हाटकेश्वर, त्र्यंबकेश्वर, गायत्रीश्वर, गोविन्देश्वर, तथा सावित्रीश्वर आदि देवों के दर्शन किये जाते हैं। तदनन्तर भूरीश्वर, श्रीकालिका माता और पाँच मुख वाले गणपति सहित नन्दी का दर्शन करने के बाद ओंकारेश्वर-मन्दिर महादेव का दर्शन प्राप्त होता है। ओंकारेश्वर-मन्दिर में शुकदेव जी, मान्धातेश्वर, मनागणेश्वर, श्री द्वारिकाधीश, नर्मदेश्वर भगवान, नर्मदा देवी, महाकालेश्वर, भगवान वैद्यनाथेश्वर, सिद्धेश्वर, रामेश्वर, जालेश्वर आदि का दर्शन करने के बाद विशल्या-संगम तीर्थ पर विशल्येश्वर का दर्शन किया जाता है।

अन्य मंदिरों के दर्शन

इनके अतिरिक्त अन्धकेश्वर, झुमेश्वर, नवग्रहेश्वर नाम से भी बहुत से शिवलिंगों के दर्शनों का अवसर मिलता है। मारूति, साक्षी गणेश, श्री अन्नपूर्णा माता तथा तुलसी जी का भी दर्शन मिलता है। इनके अतिरिक्त भी बहुत से देव हैं, जिनका दर्शन पैदल चलकर ही प्राप्त होता है, उनमें अविमुक्तेश्वर, महात्मा दरियाईनाथ की गद्दी, श्री बटुकभैरव, मंगलेश्वर, नागचन्द्रेश्वर, दत्तात्रेय तथा काले-गोरे भैरव का दर्शन प्रमुख है। वहाँ श्रीराममन्दिर और गुफा के भीतर धृष्णेश्वर का भी दर्शन प्राप्त होता है। इतने देवताओं के दर्शन में पूरा दिन लग जाता है।

दूसरे दिन के दर्शन

दूसरे दिन ओंकारेश्वर अर्थात् मान्धाता पर्वत की पंचकोसी परिक्रमा करने का विधान है। यहाँ देवस्थानों की संख्या बहुत है। श्री चक्रेश्वर, गोदन्तेश्वर और खेड़ापति हनुमान का दर्शन करने के बाद मल्लिकार्जुन, चन्द्रेश्वर, त्रिलोचनेश्वर, गोपेश्वर का दर्शन करते हैं। उसके बाद श्मशान भूमि में पहुँचकर पिशाचमुक्तेश्वर तथा केदारेश्वर का दर्शन कर सावित्रीकुण्ड और यमलार्जुनेश्वर के दर्शन के बाद कावेरी के संगम पर पितरों के लिए तर्पण करने की प्रथा है। वहाँ पर श्री रणछोड़ जी और ऋणमुक्तेश्वर का पूजन किया जाता है। राजा मुचुकुन्द के क़िले से आगे हिडिम्बा संगमतीर्थ मिलता है। वहाँ जाते समय रास्ते में गौरी-सोमनाथ की विशाल लिंगमूर्ति का दर्शन मिलता है, जिन्हें ‘मामा-भांजा’ कहा जाता है। यह तीन मंज़िल का भव्य मन्दिर है, जिसकी प्रत्येक मंज़िल में शिवलिंग स्थापित है। यहाँ पर श्री नन्दी, श्री गणेश तथा श्री हनुमान जी की प्रतिमाएँ भी विद्यमान हैं। इस मन्दिर से जब आगे बढ़ते हैं, तो अन्नपूर्णा, अष्टभुजा, महिषासुरमर्दिनी, सीता-रसोई तथा श्री आनन्दभैरव के दर्शन होते हैं।

मुचुकुन्द क़िले के बाहर अर्जुन और भीम की मूर्तियाँ लगी हैं। उससे नीचे आने पर वीरखला पर भीमाशंकर का दर्शन तथा कुछ और नीचे उतरने पर श्री कालभैरव के दर्शन होते हैं। कावेरी संगम पर जूने कोटितीर्थ तथा सूर्यकुण्ड अवस्थित है। कावेरी के उस पार चौबीस अवतार, पशुपतिनाथ, गयाशिला, एरंडी संगमतीर्थ, पत्रीश्वर तथा गदाधर भगवान के मन्दिर हैं। यहाँ पर पिण्डदान तथा पितरों का श्राद्ध किया जाता है। राजमहल में श्रीराम का दर्शन कर, उसके बाद ओंकारेश्वर का दर्शन करने से परिक्रमा पूरी हो जाती है।

विष्णुपुरी और ब्रह्मपुरी

मान्धाता द्वीप से आगे नर्मदा को पार करके 'विष्णुपुरी' और 'ब्रह्मपुरी' स्थित है। विष्णुपुरी के पास गोमुख है, जहाँ से सर्वदा जल गिरता रहता है। इसे 'कपिला-संगम तीर्थ' कहा जाता है। गोमुख से निकलने वाली जलधारा गोकर्ण और महाबलेश्वर के लिंगों पर गिरती रहती है। इसे 'कपिलाधारा' कहा जाता है, जिसका जल त्रिशूलभेद कुण्ड से आता है। उस स्थान से इन्द्रेश्वर और व्यासेश्वर के दर्शन हेतु जाया जाता है, उसके बाद अमलेश्वर के दर्शन की परम्परा है। अमलेश्वर-मन्दिर का निर्माण अहल्याबाई ने करवाया था। इसे भी ज्योतिर्लिंग ही कहते हैं। यहाँ पर पूर्व गायकवाड़ राज्य की ओर से बहुत से ब्राह्मण नियुक्त थे, जो पार्थिव लिंग की पूजा करते रहते हैं। पार्थिव-पूजन की प्रकिया आज भी चल रही है। अमलेश्वर-मन्दिर की प्रदक्षिणा में वृद्धकालेश्वर, बाणेश्वर, मुक्तेश्वर, कर्दमेश्वर तथा तिलभाण्डेश्वर महादेव के मन्दिर विराजमान हैं। अमलेश्वर के अतिरिक्त बहुत से आश्रम और अखाड़ों में अनेक देवी-देवताओं के मन्दिर स्थापित हैं। उनमें निरंजनी अखाड़े में स्वामी कार्तिक का मन्दिर, अघोरी नाले पर अघोरेश्वर गणपति भगवान का मन्दिर, विष्णुपुरी में विष्णु के अतिरिक्त कपिल जी, वरुण, वरुणेश्वर, नीलकण्ठेश्वर, कर्दमेश्वर आदि के दर्शन प्राप्त होते हैं। मार्कण्डेय आश्रम में मार्कण्डेयशिला तथा मार्कण्डेश्वर का दर्शन किया जाता है।

चौबीस अवतार और पशुपतिनाथ

ओंकारेश्वर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर जहाँ से नर्मदा की एक धारा कावेरी के रूप में विभक्त होती है, वहाँ पर चौबीस अवतार और पशुपतिनाथ का मन्दिर है। यहाँ पर धरती पर लेटी हुई एक रावण की मूर्ति है। इस मन्दिर से डेढ़ किलोमीटर आगे चलकर कुबेर जी का स्थान है, जहाँ कावेरी पुन: नर्मदा में मिल जाती है, वहीं संगम तट पर भगवान शिव का प्राचीन मन्दिर है्। ऐसी लोक मान्यता है कि यहाँ पर कुबेर ने कठोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या के कारण ही इस मन्दिर को कुबेरेश्वर-मन्दिर कहा जाता है।

सीता वाटिका

वहाँ से आगे च्यवन मुनि का आश्रम है और आगे सप्तमातृकाओं के मन्दिर हैं, जिन्हें सातमातृ कहा जाता है। सातमातृ में वाराही, चामुण्डा, ब्रह्माणी, वैष्णवी, इन्द्राणी, कौमारी तथा माहेश्वरी इन सप्तमातृकाओं के मन्दिर बने हुए हैं। ऐसी जनश्रुति है कि नर्मदा के उत्तर तट से लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था। जनकनन्दिनी जानकी इसी आश्रम में निवास करती थीं। वर्तमान में इस स्थान को सीता वाटिका कहा जाता है, जो सातमातृ से सात मील दूर है। सीता वाटिका नामक स्थान में सीताकुण्ड, रामकुण्ड तथा लक्ष्मण कुण्ड हैं। यहाँ चौसठ योगिनियों और बावन भैरवों की विशाल मूर्तियाँ स्थापित हैं। इस क्षेत्र के आसपास भी अनेक धार्मिक स्थल हैं।

य एवं पूजयेच्छम्भुं मातृगर्भं वसेन्न हि।
यदभीष्टं फलं तच्य प्राप्नुयान्नात्र संशय:।।

‘इस प्रकार जो ओंकारेश्वर शिव की पूजा करता है, उसे सम्पूर्ण अभीष्ट मिल जाता है और उसे पुन: माता के गर्भ में आना नहीं पड़ता है।’

कैसे पहुँचे

ओंकारेश्वर-तीर्थ नर्मदा नदी के किनारे विद्यमान है। उज्जैन से खण्डवा जाने वाले रेलमार्ग पर ‘मोरटक्का’ नामक रेलवे स्टेशन है, जहाँ से लगभग बारह किलोमीटर की दूरी पर ‘ओंकारेश्वर-तीर्थ’ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्कन्द पुराण, रेवा खण्ड-अध्याय-22
  2. स्कन्द पुराण, रेवा खण्ड-अध्याय- 28
  3. पर्वत की चोटियाँ
  4. चोटी
  5. उनके द्वारा इच्छा किया गया
  6. शिव महापुराण कोटि रुद्र संहिता, अध्याय 18/22-24
  7. बनावट

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