अभिनय

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अभिनय एक कला है जिसे सीखने और अभ्यास करने की ज़रूरत होती है यह जीवन के अनुभव का काव्यात्मक प्रतिरूप है। जैसे- किसी अभिनेता या अभिनेत्री के द्वारा किया जाने वाला वह कार्य है जिसके द्वारा वे किसी कथा को दर्शाते हैं।

अभिनय के प्रकार

अभिनय मुख्य रूप से चार प्रकार का होता है-

  1. आंगिक
  2. वाचिक
  3. आहार्य और
  4. सात्त्विक।
आंगिक अभिनय

आंगिक अभिनय का अर्थ है- "शरीर, मुख और चेष्टाओं से कोई भाव या अर्थ प्रकट करना, जिसमें पूरे शरीर की विशेष चेष्टा के द्वारा अभिनय किया जाता है।" अभिनय विशेष रस, भाव तथा संचारी भाव के अनुसार किए जाते हैं। आंगिक अभिनय में तेरह प्रकार का संयुक्त हस्त अभिनय, चौबीस प्रकार का असंयुक्त हस्त अभिनय, चौंसठ प्रकार का नृत्त हस्त का अभिनय और चार प्रकार का हाथ के कारण का अभिनय बताया गया है। इसके अतिरिक्त वक्ष के पाँच, पार्श्व के पाँच, उदर के तीन, कटि के पाँच, उरु के पाँच, जंघा के पाँच और पैर के पाँच प्रकार के अभिनय बताए गए हैं। भरत ने सोलह भूमिचारियों और सोलह आकाशचारियों का वर्णन करके दस आकाशमंडल और उस भौम मंडल के अभिनय का परिचय देते हुए गति के अभिनय का विस्तार से वर्णन किया है कि किस भूमिका के व्यक्ति की मंच पर किस रस में, कैसी गति होनी चाहिए, किस जाती, आश्रम, वर्ण और व्यवसाय वाले को रंगमंच पर कैसे चलना चाहिए तथा रथ, विमान, आरोहण, अवरोहण, आकाशगमन आदि का अभिनय किस गति से करना चाहिए। गति के ही समान आसन या बैठने की विधि भी भरत ने विस्तार से समझाई है। जिस प्रकार यूरोप में घनवादियों (क्यूब्रिस्ट्स) ने अभिनयकौशल के लिए व्यायाम का विधान किया है वैसे ही भरत ने भी अभिनय का ऐसा विस्तृत विवरण दिया है कि अभिनय के संबंध में संसार में किसी देश में अभिनय कला का वैसा सांगोपांग निरूपण नहीं हुआ।

वाचिक अभिनय

अभिनेता रंगमंच पर जो कुछ मुख से कहता है वह सबका सब वाचिक अभिनय कहलाता है। साहित्य में तो हम लोग व्याकृता वाणी ही ग्रहण करते हैं, किंतु नाटक में अव्याकृता वाणी का भी प्रयोग किया जा सकता है। सीटी देना या ढोरों को हाँकते हुए चटकारी देना आदि सब प्रकार की ध्वनियों को मुख से निकालना वाचिक अभिनय के अंतर्गत आता है। भरत ने वाचिक अभिनय के लिए 63 लक्षणों का और उनके दोष-गुण का भी विवेचन किया है। वाचिक अभिनय का सबसे बड़ा गुण है अपनी वाणी के आरोह-अवरोह को इस प्रकार साध लेना कि कहा हुआ शब्द या वाक्य अपने भाव और प्रभाव को बनाए रखे। वाचिक अभिनय की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यदि कोई जवनिका के पीछे से भी बोलता हो तो केवल उसकी वाणी सुनकर ही उसकी मुखमुद्रा, भावभंगिमा और आकांक्षा का ज्ञान किया जा सके।

आहार्य अभिनय

वास्तव में अभिनय का अंग न होकर नेपथ्यकर्म का अंग है आहार्य अभिनय और इसका संबंध अभिनेता से उतना नहीं है जितना नेपथ्यसज्जा करने वाले से। किंतु आज के सभी प्रमुख अभिनेता और नाट्य प्रयोक्ता यह मानने लगे हैं कि प्रत्येक अभिनेता को अपनी मुखसज्जा और रूपसज्जा स्वयं करनी चाहिए।

सात्त्विक

सात्विक अभिनय तो उन भावों का वास्तविक और हार्दिक अभिनय है जिन्हें रस सिद्धांत वाले सात्विक भाव कहते हैं और जिसके अंतर्गत, स्वेद, स्तंभ, कंप, अश्रु, वैवर्ण्य, रोमांच, स्वरभंग और प्रलय की गणना होती है। इनमें से स्वेद और रोमांच को छोड़कर शेष सबका सात्विक अभिनय किया जा सकता है। अश्रु के लिए तो विशेष साधना आवश्यक है, क्योंकि भाव मग्न होने पर ही उसकी सिद्धि हो सकती है। भरत के नाट्यशास्त्र में सबसे विचित्र प्रकरण है चित्राभिनय का, जिसमें उन्होंने ऋतुओं, भावों, अनेक प्रकार के जीवों, देवताओं, पर्वत, नदी, सागर आदि का, अनेक अवस्थाओं तथा प्रात:, साायं, चंदज्योत्स्ना आदि के अभिनय का विवरण दिया है। यह समूचा अभिनयविधान प्रतीकात्मक ही है, किंतु ये प्रतीक उस प्रकार के नहीं हैं जिस प्रकार के यूरोपीय प्रतीकाभिनयवादियों ने ग्रहण किए हैं।

अभिनय करने की प्रवृत्ति बचपन से ही मनुष्य में तथा अन्य अनेक जीवों में होती है। हाथ, पैर, आँख, मुंह, सिर चलाकर अपने भाव प्रकट करने की प्रवृत्ति सभ्य और असभ्य जातियों में समान रूप से पाई जाती है। उनके अनुकरण कृत्यों का एक उद्देश्य तो यह रहता है कि इससे उन्हें वास्तविक अनुभव जैसा आनंद मिलता है और दूसरा यह कि इससे उन्हें दूसरों को अपना भाव बताने में सहायता मिलती है। इसी दूसरे उद्देश्य के कारण शारीरिक या आंगिक चेष्टाओं और मुखमुद्राओं का विकास हुआ जो जंगली जातियों में बोली हुई भाषा के बदले या उसकी सहायक होकर अभिनय प्रयोग में आती है।

यूनान में देवताओं की पूजा के साथ जो नृत्य प्रारंभ हुआ वही वहाँ का अभिनयकला का प्रथम रूप था जिसमें नृत्य के द्वारा कथा के भाव की अभिव्यक्ति की जाती थी। यूनान में प्रारंभ में धार्मिक वेदी के चारों ओर जाए नाटकीय नृत्य होते थे उनमें सभी लोग समान रूप से भाग लेते थे, किंतु पीछे चलकर समवेत गायकों में से कुछ चुने हुए समर्थ अभिनेता ही मुख्य भूमिकाओं के लिए चुन लिए जाते थे जाए एक का ही नहीं, कई की भूमिकाओं का अभिनय करते थे क्योंकि मुखौटा पहनने की रीति के कारण यह संभव हो गया था। मुखौटे के प्रयोग के कारण वहाँ वाचिक अभिनय तो बहुत समुन्नत हुआ किंतु मुख मुद्राओं से अभिनय करने की रीति पल्लवित न हो सकी।

इटली वासियों में अभिनय की रुचि बड़ी स्वाभाविक है। नाटक लिखे जाने से बहुत पहले से ही वहाँ यह साधारण प्रवृत्ति रही है कि किसी दल को जहाँ कोई विषय दिया गया कि वह झट उसका अभिनय प्रस्तुत कर देता था। संगीत, नृत्य और दृश्य के इस प्रेम ने वहाँ के राजनैतिक और धार्मिक संघर्ष में भी अभिनयकला को जीवित रखने में बड़ी सहायता दी है।

यूरोप में अभिनय कला को सबसे अधिक महत्व दिया शेक्सपियर ने। उसने स्वयं मानव स्वभाव के सभी चरित्रों का चित्रण किया है। उसने हैमलेट के संवाद में श्रेष्ठ अभिनय के मूल तत्वों का समावेश करते हुए बताया है कि अभिनय में वाणी और शरीर के अंगों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से करना चाहिए, अतिरंजित रूप से नहीं।

18वीं शताब्दी में ही यूरोप में अभिनय के संबंध में विभिन्न सिद्धांतों और प्रणालियों का प्रादुर्भाव हुआ। फ्रांसीसी विश्वकोशकार देनी दिदरो ने उदात्तवादी (क्लासिकल) फ्रांसीसी नाटक और उसकी रूढ़ अभिनय पद्धति से ऊबकर वास्तविक जीवन के नाटक का सिद्धांत प्रतिपादित किया और बताया कि नाटक को फ्रांस के बुर्जुवा (मध्यवर्गीय) जीवन की वास्तविक प्रतिच्छाया बनना चाहिए। उसने अभिनेता को यह सुझाया कि प्रयोग के समय अपने पर ध्यान देना चाहिए, अपनी वाणी सुननी चाहिए और अपने आवेगों की स्मृतियाँ ही प्रस्तुत करनी चाहिए। किंतु 'मास्को स्टेज ऐंड इंपीरियल थिएटर' के भूतपूर्व प्रयोक्ता और कला संचालक थियोदोर कौमिसारजेवस्की ने इस सिद्धांत का खंडन करते हुए लिख था: 'अब यह सिद्ध हो चुका है कि यदि अभिनेता अपने अभिनय पर सावधानी से ध्यान रखता रहे तो वह न दर्शकों को प्रभावित कर सकता है और न रंगमंच पर किसी भी प्रकार की रचानात्मक सृष्टि कर सकता है, क्योंकि उसे अपने आंतरिक स्वात्म पर जो प्रतिबिंब प्रस्तुत करते हैं उनपर एकाग्र होने के बदले वह अपने बाह्य स्वात्म पर एकाग्र हो जाता है जिससे वह इतना अधिक आत्मचेतन हो जाता है कि उसकी अपनी कल्पना शक्ति नष्ट हो जाती है। अत:, श्रेष्ठतर उपाय यह है कि वह कल्पना के आश्रय पर अभिनय करे, नवनिर्माण करे, नयापन लाए और केवल अपने जीवन के अनुभवों का अनुकरण या प्रतिरूपण न करे। जब कोई अभिनेता किसी भूमिका का अभिनय करते हुए अपनी स्वयं की उत्पादित कल्पना के विश्व में विचरण करने लगता है उस समय उसे न तो अपने ऊपर ध्यान देना चाहिए, न नियंत्रण रखना चाहिए और न तो वह ऐसा कर ही सकता है, क्योंकि अभिनेता की अपनी भावना से उद्भुत और उसकी आज्ञा के अनुसार काम करनेवाली कल्पना अभिनय के समय उसके आवेग और अभिनय को नियंत्रित करती, पथ दिखलाती और संचालन करती है।

20वीं शताब्दी में अनेक नाट्यविद्यालयों, नाट्यसंस्थाओं और रंगशालाओं ने अभिनय के संबंध में अनेक नए और स्पष्ट सिद्धांत प्रतिपादित किए। मार्क्स रीनहार्ट ने जर्मनी में और फ़िर्मी गेमिए ने पेरिस में उस प्रकृतिवादी नाट्यपद्धति का प्रचलन किया जिसका प्रतिपादन फ्रांस में आंदे आंत्वाँ ने और जर्मनी में क्रोनेग ने किया था और जिसका विकास बर्लिन में ओटोब्राह्म ने और मास्को में स्तानिस्लवस्की ने किया। इन प्रयोक्ताओं ने बीच-बीच में प्रकृतिवादी अभिनय में या तो रीतिवादी (फोर्मलिस्ट्स) लोगों के विचारों का सन्निवेश किया या सन्‌ 1910 के पश्चात्‌ क्रोमिसारजेवस्की ने अभिनय के संश्लेषणात्मक सिद्धांतों का जो प्रवर्त्तन किया था उनका भी थोड़ा बहुत समावेश किया; किंतु अधिकांश फ्रांसीसी अभिनेता 18वीं शताब्दी की प्राचीन रोमांसवादी (रोमांटिक) पद्धति का अर्धोदात्त (सूडो-क्लासिकल) अभिनयपद्धति का ही प्रयोग करते रहे।

सन्‌ 1910 के पश्चात्‌ जितने अभिनयसिद्धांत प्रसिद्ध हुए उनमें सर्वप्रसिद्ध मास्को आर्ट थिएटर के प्रयोक्ता स्तानिसलवस्की की प्रणाली है जिसका सिद्धांत यह है कि कोई भी अभिनेता रंगमंच पर तभी स्वाभाविक और सच्चा हो सकता है जब वह उन आवेगों का प्रदर्शन करे जिनका उसने अपने जीवन में अनुभव किया हो। अभिनय में यह आंतरिक प्रकृतिवाद स्तानिसलवस्की की कोई नई सूझी नहीं थी क्योंकि कुछ फ्रांसीसी नाट्यज्ञों ने 18वीं शताब्दी में इन्हीं विचारों के आधार पर अपनी अभिनय पद्धतियाँ प्रवर्तित की थीं। स्तानिसलवस्की के अनुसार वे ही अभिनेता प्रेम के दृश्य का प्रदर्शन भली-भाँति कर सकते हैं जो वास्तविक जीवन में प्रेम कर रहे हों।

स्तानसिलवस्की के सिद्धांत के विरुद्ध प्रतीकवादियों (सिंबोलिस्ट्स), रीतिवादियों (फ़ार्मालिस्ट्स) और अभिव्यंजनावादियों (एक्स्प्रेशनिस्ट्स) ने नई रीति चलाई जिसमें सत्यता और जीवनतुल्यता का पूर्ण बहिष्कार करके कहा गया कि अभिनय जितना ही कम, वास्तविक और कम जीवनतुल्य होगा उतना ही अच्छा होगा। अभिनेता को निश्चित चरित्र निर्माण करने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे गूढ़ विचारों का रूढ़ रीति से अपनी वाणी, अपनी चेष्टा और मुद्राओं द्वारा प्रस्तुत करना चाहिए और वह अभिनय रूढ़, जीवन-साम्य-हीन, चित्रमय और कठपुतली--नृत्य--शैली में प्रस्तुत करना चाहिए।

रूढ़िवादी लोग आगे चलकर मेयरहोल्द, तायरोफ़ और अरविन पिस्काटर के नेतृत्व में अभिनय में इतनी उछल-कूद, नटविद्या और लयगति का प्रयोग करने लगे कि रंगमंच पर उनका अभिनय ऐसा प्रतीत होने लगा मानों कोई सरकस हो रहा हो जिसमें उछल-कूद, शरीर का कलात्मक संतुलन और इसी प्रकार की गतियों की प्रधानता हो। यह अभिनय ही घनवादी (क्यूबिस्टिक) अभिनय कहलाने लगा। इन लयवादियों में से मेयरहोल्द तो आगे चलकर कुछ प्रकृतिवादी हो गया किंतु लियोपोल्ड जेस्सवर, निकोलसऐवरेनोव आदि अभिव्यंजनावादी, या यों कहिए कि अतिरंजित अभिनयवादी लोग कुछ तो रूढ़िवादियों की प्रणालियों का अनुसरण करते रहे और कुछ मनोवैज्ञानिक प्रकृतिवादी पद्धति का।

इस प्रकार अभिनय की दृष्टि से यूरोप में पाँच प्रकार की अभिनय पद्धतियाँ चलीं: (1) रूढ़िवादी या स्थिर रीतिवादी (फ़ार्मलिस्ट), (2) प्रकृतिवादी (नेचुरलिस्ट), (3) अभिव्यंजनावादी (एक्स्पेशनिस्ट) जो अतिरंजित अभिनय करते थे, (4) घनवादी (क्यूबिस्ट) जो संतुलित व्यायाम पूर्ण गतियों द्वारा यंत्रात्मक अभिनय करते थे और (5) प्रतीकवादी (सिबोलिस्ट्स), जिन्होंने अपने अभिनय में प्रत्येक भाव के अनुसार कुछ निश्चित मुख मुद्राएँ और आंगिक गतियाँ प्रतीक के रूप में मान ली थीं और उन सब भावों की अवस्थाओं में से लोग उन्हीं प्रतीकों का अभिनय करते थे। किंतु ये प्रतीक भारतीय मुद्राप्रतीकों से पूर्णत: भिन्न थे। यह प्रतीकवाद यूरोप में सफल नहीं हो सका।

20वीं शताब्दी के चौथे दशक से, अर्थात्‌ द्वितीय महायुद्ध के आसपास, यूरोप की अभिनयप्रणाली में परिवर्तन हुआ और प्राय: सभी यूरोपीय तथा अमरीकी रंगशालाओं में प्रत्येक अभिनेता से यह आशा की जाने लगी कि वह अपने अभिनय में कोई नवीनता और मौलिकता दिखाकर अत्यंत अप्रत्याशित ढंग का अभिनय करके लोगों को संतुष्ट करे। आजकल अभिनेता के लिए यह आवश्यक माना जाने लगा है कि वह अपनी कल्पना का प्रयोग करके नाटक के भाव की प्रत्येक परिस्थिति में अपने अभिनय का ऐसा संश्लिष्ट संयोजन करे कि उससे नाटक में कुछ विशेष चेतना और सजीवता उत्पन्न हो। उसका धर्म है कि वह रंगशाला के व्यावहारिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर अपनी प्रतिभा के बल से नाटककार की भावना का उचित और स्पष्ट संरक्षण करता हुआ नाटक का प्रवाह और प्रभाव बनाए रखे।

आजकल के प्रसिद्ध अभिनेताओं का कथन है कि अभिनेता को किसी विशेष पद्धति का अनुसरण नहीं करना चाहिए और न किसी अभिनेता का अनुसरण करना चाहिए। वास्तव में अभिनय का कोई एक सिद्धांत नहीं है, जो दो नाटकों के लिए या दो अभिनेताओं के लिए किसी एक परिस्थिति में समान कहा जा सके। आजकल के अभिनेता संचालक (ऐक्टर-मैनेजर) इसी मत के हैं कि अच्छे अभिनेता को संसार के सब नाटकों की सब भूमिकाओं के लिए कोई निश्चित प्रणाली ढूँढ निकालनी चाहिए और तदनुसार अपने को स्वयं शिक्षित करते चलना चाहिए। आजकल के अधिकांश नाट्यघरों का मत है कि नाटक को प्रभावशाली बनाने के लिए अभिनेता को न तो बहुत अधिक प्रकृतिवादी होना चाहिए और न अधिक अभिव्यंजनावादी या लयवादी। अतिरंजित अभिनय तो कभी करना ही नहीं चाहिए।

आजकल की अभिनयप्रणाली में एक चरित्राभिनय (कैरेक्टर ऐक्टिंग) की रीति चली है जिसमें एक अभिनेता किसी विशेष प्रकार के चरित्र में विशेषता प्राप्त करके सद सब नाटकों में उसी प्रकार की भूमिका ग्रहण करता है। चलचित्रों के कारण इस प्रकार के चरित्र अभिनेता बहुत बढ़ते जा रहे हैं।[1]

भूमिका में स्वीकृत पद, प्रकृति, रस और भाव के अनुसार छह प्रकार की गतियों में अभिनय होता है---अत्यंत करुण में स्तब्ध गति, शांत में मंद गति, श्रृंगार, हास और बीभत्स में साधारण गति, वीर में द्रुत गति, रौद्र में वेगपूर्ण गति और भय में अतिवेगपूर्ण गति। इन सबका विधान विभिन्न भावों, व्यक्तियों, अवस्थाओं और परिस्थितियें पर अवलंबित होता है। अभिनय का क्षेत्र बहुत व्यापक है। संक्षेप में यही कहा जाए सकता है कि अभिनेता को मौलिक होना चाहिए और किसी पद्धति का अनुसरण न करके यह प्रयत्न करना चाहिए कि अपनी रचना के द्वारा नाटककार जो प्रभाव दर्शकों पर डालना चाहता है उसका उचित विभाजन हो सके।[2]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 175 |
  2. सं.गं.-भरत: नाट्यशास्त्र; के. ऐंब्रोस: क्लैसिकल डान्सेज ऐंड कॉस्ट्यूम्स ऑव इंडिया (1952); नंदिकेश्वर: अभिनयदर्पण (1934); सीताराम चतुर्वेदी: अभिनव नाट्यशास्त्र (1950); शारदातनय: भावप्रकाशन (1930); लाडिंस निकल: वर्ल्ड ड्रामा (1951); सिडनी डब्ल्यू. कैरोल: ऐक्टिंग आन दि स्टेज (1947); एन. डिंडसे: दि थिएटर (1948); एन. चेरकासोव: नोट्स ऑव ए सोवियत ऐक्टर (1956); सारा वर्नहाट: दि आर्ट ऑव दि थिएटर (1930)।

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