"शंकर शेष": अवतरणों में अंतर

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==नाट्य विषय==
==नाट्य विषय==
डॉ. शंकर शेष के नाटकों में जाति व्यवस्था के नाम पर होने वाले अत्याचारों का यथार्थ चित्रण हुआ है। भारतीय समाज की छुआछूत जैसी कुप्रथा से संबंधित कई प्रश्न उन्होंने उठाए हैं। सभ्य समाज में जाति व्यवस्था आज भी विद्यमान है। आज भी सवर्ण जाति के लोग मंदिर पर अपना ही वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं और मंदिरों में [[शूद्र]] का प्रवेश मना है। यदि कोई मंदिर में प्रवेश करने का साहस करता है तो उसे [[गाँव]] से बहिष्कृत करने का दंड दिया जाता है। इस कथन का प्रमाण "बाढ़ का पानी" में पंडित और छीतू के संवाद से स्पष्ट होता है- "तुम्हारे बेटे ने धरम का नाश किया। पच्चीस हरिजनों को लेकर जो भगवान के मंदिर में घुस गया और भगवान को छू लिया।" गाँव में बाढ़ आने पर चमार जाति का नवल ठाकुर को बचाने जाता है, फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ा रहता है। इसका प्रमाण "बाढ़ का पानी" [[नाटक]] में गणपत के संवाद में मिलता है। जातीय विषमता [[आधुनिक काल]] में ही नहीं, महाभारत काल में भी देखने को मिलती है। इसका प्रमाण "कोमल गांधार" में [[भीष्म]] और [[संजय]] के कथन से स्पष्ट होता है। "अरे मायावी सरोवर" में राजा और [[ऋषि]] के कथन से [[ब्राह्मण]] और क्षत्रिय जाति के आपस के वर्चस्व का स्पष्ट होता है, और "एक और द्रोणाचार्य" में [[द्रोणाचार्य]] द्वारा [[एकलव्य]] से अंगूठे की माँग, इसी जाती-पाँति व्यवस्था की अगली कड़ी है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के प्रति परिवर्तित दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। "पढ़ना ठाकुरों का काम है भौजी, हम चमारों का नहीं। हमरी कुण्डली में तो बस जूते बनाना और जूते खाना ही लिखा है।" इस संवाद में एक हरिजन या चमार जाति के व्यक्ति की पढ़ने या शिक्षित होने की कठिनाइयों को यथार्थ चित्रण किया गया है।<ref>{{cite web |url=http://www.apnimaati.com/2014/08/blog-post_14.html |title= आलेख:डॉ.शंकर शेष के नाटकों में सामाजिक यथार्थ|accessmonthday=05 मार्च |accessyear=2017 |last= बाबू|first=डॉ. पी. थामस |authorlink= |format= |publisher=apnimaati.com |language=हिन्दी }}</ref>
डॉ. शंकर शेष के नाटकों में जाति व्यवस्था के नाम पर होने वाले अत्याचारों का यथार्थ चित्रण हुआ है। भारतीय समाज की छुआछूत जैसी कुप्रथा से संबंधित कई प्रश्न उन्होंने उठाए हैं। सभ्य समाज में जाति व्यवस्था आज भी विद्यमान है। आज भी सवर्ण जाति के लोग मंदिर पर अपना ही वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं और मंदिरों में [[शूद्र]] का प्रवेश मना है। यदि कोई मंदिर में प्रवेश करने का साहस करता है तो उसे [[गाँव]] से बहिष्कृत करने का दंड दिया जाता है। इस कथन का प्रमाण "बाढ़ का पानी" में पंडित और छीतू के संवाद से स्पष्ट होता है- "तुम्हारे बेटे ने धरम का नाश किया। पच्चीस हरिजनों को लेकर जो भगवान के मंदिर में घुस गया और भगवान को छू लिया।" गाँव में बाढ़ आने पर चमार जाति का नवल ठाकुर को बचाने जाता है, फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ा रहता है। इसका प्रमाण "बाढ़ का पानी" [[नाटक]] में गणपत के संवाद में मिलता है। जातीय विषमता [[आधुनिक काल]] में ही नहीं, महाभारत काल में भी देखने को मिलती है। इसका प्रमाण "कोमल गांधार" में [[भीष्म]] और [[संजय]] के कथन से स्पष्ट होता है। "अरे मायावी सरोवर" में राजा और [[ऋषि]] के कथन से [[ब्राह्मण]] और क्षत्रिय जाति के आपस के वर्चस्व का स्पष्ट होता है, और "एक और द्रोणाचार्य" में [[द्रोणाचार्य]] द्वारा [[एकलव्य]] से अंगूठे की माँग, इसी जाती-पाँति व्यवस्था की अगली कड़ी है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के प्रति परिवर्तित दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। "पढ़ना ठाकुरों का काम है भौजी, हम चमारों का नहीं। हमरी कुण्डली में तो बस जूते बनाना और जूते खाना ही लिखा है।" इस संवाद में एक हरिजन या चमार जाति के व्यक्ति की पढ़ने या शिक्षित होने की कठिनाइयों को यथार्थ चित्रण किया गया है।<ref>{{cite web |url=http://www.apnimaati.com/2014/08/blog-post_14.html |title= आलेख:डॉ.शंकर शेष के नाटकों में सामाजिक यथार्थ|accessmonthday=05 मार्च |accessyear=2017 |last= बाबू|first=डॉ. पी. थामस |authorlink= |format= |publisher=apnimaati.com |language=हिन्दी }}</ref>
'फंदी' [[नाटक]] के माध्यम से नाटककार डॉ. शंकर शेष न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य करते नज़र आते हैं। फन्दी नाटक का नायक है और अंत तक संघर्षशील और जूझता नज़र आता है। लेकिन उसकी नियति अनिर्णयात्मक संशय में स्थगित हो जाती है। अपने कैंसर पीडित बाप के दर्द के मारे माँगने पर वह उनका गला घोंट देता है। इस कथन के माध्यम से नाटककार ने पुरानी क़ानूनी व्यवस्था को बदलने की घोषणा की है- "क़ानून यदि स्थिर और पत्थर के समान जड़ हो जाय तो समाज की बदलती हुई परिस्थितियों में वह न्याय नहीं दे सकता है।" क़ानून मनुष्य के लिए है, मनुष्य क़ानून के लिए नहीं है। इसीलिए क़ानून हमेशा नई चुनौतियों को स्वीकरते हुए आगे बढ़ना चाहिए। यहाँ फन्दी का मुक़दमा भी इसी तरह की एक नई चुनौती है।
==एक और द्रोणाचार्य==
आधुनिक शिक्षा जगत में फैले भ्रष्टाचार का भी शंकर शेष ने अपने नाटकों मे ज़िक्र किया है। [[गाँव]] के लोग आज भी मूलभूत शिक्षा से कोसो दूर है। आज के राजनेताओं के साथ धनाढ्य वर्ग के लोगों ने भी आम जनता को शिक्षा से दूर रखने हेतु कई षडयंत्र रचते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा के अभाव में आम आदमी सामाजिक तथा राजनीति दोनों स्तरों पर पिछड़ता चला गया। शंकर शेष ने ‘एक और द्रोणाचार्य’ नामक [[नाटक]] में शिक्षा जगत में बढ़ते राजनैतिक दबाव का वर्णन किया है, जिसके चलते नौजवान पीढ़ी का भविष्य अधंकारमय हो गया। नाटककार ने शिक्षकों की उदासीनता पर तीखा कटाक्ष किया है। वह शिक्षक आर्थिक राजनैतिक दबावों के चलते हार मान लेते हैं। पौराणिक कथा का सहारा लेकर वह आज की व्यवस्था के चारण बन जाने वाले अध्यापक की त्रासदी को नाटक के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की है। नाटक में आज की व्यवस्था में शिक्षक वर्ग में तेजी से पनप रही सुविधिजीवी प्रवृति के कारण व्यवस्था से जुड़ने की विसंगति, जिससे जाने-अनजाने देश की भावी पीढ़ी का भविष्य अन्धकारग्रस्त हो जाता है, का अकंन किया गया है। शिक्षा जगत में पक्षपातपूर्ण रवैये का उजागर किया गया है।<ref>{{cite web |url=https://www.sahityakunj.net/LEKHAK/P/PushpaMeena/Shankar_Shesh_ke_naaTkon_mein_saamaajik_ShodhAlekh.htm |title= शंकर शेष के नाटकों में राजनीतिक चेतना|accessmonthday=05 मार्च |accessyear=2017 |last= मीना|first=पुष्पा|authorlink= |format= |publisher=apnimaati.com |language=हिन्दी }}</ref>
==युग चेतना के कलाकार==
शंकर शेष युग चेतना के कलाकार हैं, इसलिए उनकी रचनाओं में सामाजिक असंगतियों का खुला चित्रण हुआ है। 'रत्नगर्भ', 'रक्तबीज', 'बाढ़ का पानी', 'पोस्टर', 'चेहरे', 'राक्षस', 'मूर्तिकार', 'घरौंदा' जैसे [[नाटक]] सामाजिक यथार्थ को यथाकथित अनावृत्त करने वाली रचनाएँ हैं। इन नाटकों में नाटककार ने जहाँ एक ओर समकालीन मानव की त्रासदी, निराशा और घुटन का यथार्थ वर्णन किया है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक दायित्व का निर्वाह करते हुए मानवता को नए मूल्य और प्रतिमान देने का प्रयास भी किया है। नाटक की सफलता और सार्थकता उसके मंचन में देखी जा सकती है।


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==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://marathivishwakosh.in/khandas/khand18/index.php?option=com_content&view=article&id=10380 शंकर शेष (मराठी में)]
*[http://marathivishwakosh.in/khandas/khand18/index.php?option=com_content&view=article&id=10380 शंकर शेष (मराठी में)]
*[http://vufind.uniovi.es/Record/oai:doaj.orgarticle:612ab7ffdc654fd08b7ccf7348ab5057/Description#tabnav डॉ. शंकर शेष के नाटकों में रंगमंचीय सम्भावनाएं]
*[http://www.jagran.com/himachal-pradesh/shimla-10365247.html 'एक और द्रोणाचार्य' से किया व्यवस्था पर प्रहार]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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09:23, 5 मार्च 2017 का अवतरण

शंकर शेष (अंग्रेज़ी: Shankar Shesh, जन्म: 2 अक्टूबर, 1933, बिलासपुर; मृत्यु- 28 नवम्बर, 1981) हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार तथा सिनेमा कथा लेखक थे। वे नाटक साहित्य क्षेत्र के महत्वपूर्ण नाटककारों में से एक थे। समकालीन परिवेश और युगीन परिस्थितियों से उनके व्यक्तित्त्व की संवेदनशील का निर्माण हुआ था। शंकर शेष बहुआयामी प्रतिभाशाली लेखक के रूप में पहचाने जाते थे। वे मुम्बई में एक बैंक में हिन्दी अधिकारी थे।

परिचय

शंकर शेष का जन्म 2 अक्टूबर, 1933 को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ था। उनके ‘फन्दी’, ‘एक था द्रोणाचार्य’, ‘रक्तबीज’ आदि नाटकों से उनकी ख्याति बढ़ी थी। उनका शोध-प्रबंध ‘हिन्दी मराठी’ कहानीकारों के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित था। शंकर शेष अत्यन्त सहृदय और गुट-निरपेक्ष लेखक थे। उनके द्वारा रचित ‘घरोंदा’ कथा पर हिन्दी में एक प्रसिद्ध फ़िल्म भी बनी थी।

नाट्य विषय

डॉ. शंकर शेष के नाटकों में जाति व्यवस्था के नाम पर होने वाले अत्याचारों का यथार्थ चित्रण हुआ है। भारतीय समाज की छुआछूत जैसी कुप्रथा से संबंधित कई प्रश्न उन्होंने उठाए हैं। सभ्य समाज में जाति व्यवस्था आज भी विद्यमान है। आज भी सवर्ण जाति के लोग मंदिर पर अपना ही वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं और मंदिरों में शूद्र का प्रवेश मना है। यदि कोई मंदिर में प्रवेश करने का साहस करता है तो उसे गाँव से बहिष्कृत करने का दंड दिया जाता है। इस कथन का प्रमाण "बाढ़ का पानी" में पंडित और छीतू के संवाद से स्पष्ट होता है- "तुम्हारे बेटे ने धरम का नाश किया। पच्चीस हरिजनों को लेकर जो भगवान के मंदिर में घुस गया और भगवान को छू लिया।" गाँव में बाढ़ आने पर चमार जाति का नवल ठाकुर को बचाने जाता है, फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ा रहता है। इसका प्रमाण "बाढ़ का पानी" नाटक में गणपत के संवाद में मिलता है। जातीय विषमता आधुनिक काल में ही नहीं, महाभारत काल में भी देखने को मिलती है। इसका प्रमाण "कोमल गांधार" में भीष्म और संजय के कथन से स्पष्ट होता है। "अरे मायावी सरोवर" में राजा और ऋषि के कथन से ब्राह्मण और क्षत्रिय जाति के आपस के वर्चस्व का स्पष्ट होता है, और "एक और द्रोणाचार्य" में द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य से अंगूठे की माँग, इसी जाती-पाँति व्यवस्था की अगली कड़ी है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के प्रति परिवर्तित दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। "पढ़ना ठाकुरों का काम है भौजी, हम चमारों का नहीं। हमरी कुण्डली में तो बस जूते बनाना और जूते खाना ही लिखा है।" इस संवाद में एक हरिजन या चमार जाति के व्यक्ति की पढ़ने या शिक्षित होने की कठिनाइयों को यथार्थ चित्रण किया गया है।[1]

'फंदी' नाटक के माध्यम से नाटककार डॉ. शंकर शेष न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य करते नज़र आते हैं। फन्दी नाटक का नायक है और अंत तक संघर्षशील और जूझता नज़र आता है। लेकिन उसकी नियति अनिर्णयात्मक संशय में स्थगित हो जाती है। अपने कैंसर पीडित बाप के दर्द के मारे माँगने पर वह उनका गला घोंट देता है। इस कथन के माध्यम से नाटककार ने पुरानी क़ानूनी व्यवस्था को बदलने की घोषणा की है- "क़ानून यदि स्थिर और पत्थर के समान जड़ हो जाय तो समाज की बदलती हुई परिस्थितियों में वह न्याय नहीं दे सकता है।" क़ानून मनुष्य के लिए है, मनुष्य क़ानून के लिए नहीं है। इसीलिए क़ानून हमेशा नई चुनौतियों को स्वीकरते हुए आगे बढ़ना चाहिए। यहाँ फन्दी का मुक़दमा भी इसी तरह की एक नई चुनौती है।

एक और द्रोणाचार्य

आधुनिक शिक्षा जगत में फैले भ्रष्टाचार का भी शंकर शेष ने अपने नाटकों मे ज़िक्र किया है। गाँव के लोग आज भी मूलभूत शिक्षा से कोसो दूर है। आज के राजनेताओं के साथ धनाढ्य वर्ग के लोगों ने भी आम जनता को शिक्षा से दूर रखने हेतु कई षडयंत्र रचते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा के अभाव में आम आदमी सामाजिक तथा राजनीति दोनों स्तरों पर पिछड़ता चला गया। शंकर शेष ने ‘एक और द्रोणाचार्य’ नामक नाटक में शिक्षा जगत में बढ़ते राजनैतिक दबाव का वर्णन किया है, जिसके चलते नौजवान पीढ़ी का भविष्य अधंकारमय हो गया। नाटककार ने शिक्षकों की उदासीनता पर तीखा कटाक्ष किया है। वह शिक्षक आर्थिक राजनैतिक दबावों के चलते हार मान लेते हैं। पौराणिक कथा का सहारा लेकर वह आज की व्यवस्था के चारण बन जाने वाले अध्यापक की त्रासदी को नाटक के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की है। नाटक में आज की व्यवस्था में शिक्षक वर्ग में तेजी से पनप रही सुविधिजीवी प्रवृति के कारण व्यवस्था से जुड़ने की विसंगति, जिससे जाने-अनजाने देश की भावी पीढ़ी का भविष्य अन्धकारग्रस्त हो जाता है, का अकंन किया गया है। शिक्षा जगत में पक्षपातपूर्ण रवैये का उजागर किया गया है।[2]

युग चेतना के कलाकार

शंकर शेष युग चेतना के कलाकार हैं, इसलिए उनकी रचनाओं में सामाजिक असंगतियों का खुला चित्रण हुआ है। 'रत्नगर्भ', 'रक्तबीज', 'बाढ़ का पानी', 'पोस्टर', 'चेहरे', 'राक्षस', 'मूर्तिकार', 'घरौंदा' जैसे नाटक सामाजिक यथार्थ को यथाकथित अनावृत्त करने वाली रचनाएँ हैं। इन नाटकों में नाटककार ने जहाँ एक ओर समकालीन मानव की त्रासदी, निराशा और घुटन का यथार्थ वर्णन किया है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक दायित्व का निर्वाह करते हुए मानवता को नए मूल्य और प्रतिमान देने का प्रयास भी किया है। नाटक की सफलता और सार्थकता उसके मंचन में देखी जा सकती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बाबू, डॉ. पी. थामस। आलेख:डॉ.शंकर शेष के नाटकों में सामाजिक यथार्थ (हिन्दी) apnimaati.com। अभिगमन तिथि: 05 मार्च, 2017।
  2. मीना, पुष्पा। शंकर शेष के नाटकों में राजनीतिक चेतना (हिन्दी) apnimaati.com। अभिगमन तिथि: 05 मार्च, 2017।

बाहरी कड़ियाँ

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