"वीरेन्द्र खरे 'अकेला'": अवतरणों में अंतर
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वीरेन्द्र खरे 'अकेला' का (जन्म- [[18 अगस्त]], [[1968]], किशनगढ़, [[छतरपुर]], [[मध्यप्रदेश]]) वर्तमान समय में ग़ज़ल विधा के लोकप्रिय और प्रसिद्ध कवि हैं, जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी ग़ज़लों तथा सरल, सहज गीतों द्वारा हिन्दी कविता की उल्लेखनीय सेवा की है और [[दुष्यन्त कुमार]] जी के बाद के ग़ज़लकारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है और साहित्यप्रेमियों को बहुत प्रभावित किया है। | वीरेन्द्र खरे 'अकेला' का (जन्म- [[18 अगस्त]], [[1968]], किशनगढ़, [[छतरपुर]], [[मध्यप्रदेश]]) वर्तमान समय में ग़ज़ल विधा के लोकप्रिय और प्रसिद्ध कवि हैं, जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी ग़ज़लों तथा सरल, सहज गीतों द्वारा हिन्दी कविता की उल्लेखनीय सेवा की है और [[दुष्यन्त कुमार]] जी के बाद के ग़ज़लकारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है और साहित्यप्रेमियों को बहुत प्रभावित किया है।<ref>{{सृजन पथ,सिलीगुडी-नवम्बर 2003, साप्ताहिक शुक्रवार का 05 दिसम्बर २००९ का अंक}}</ref> | ||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
वीरेन्द्र खरे 'अकेला' (Virendra khare akela) का जन्म 18 अगस्त सन् 1968 को छतरपुर (म.प्र.) के ठेठ देहाती आदिवासी बहुल छोटे से गांव किशनगढ़ में एक मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ, पांच भाइयों में सबसे बड़े वीरेन्द्र बचपन से ही गंभीर स्वभाव और साहित्यिक रूचि के हैं । अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा से इतिहास में एम. ए. एवं बी. एड. करने के बाद वे लम्बे समय तक छतरपुर शहर के अशासकीय विद्यालयों में अध्यापन कार्य करते रहे साथ ही निःशक्तजनों की शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए समर्पित एन. जी. ओ. ‘प्रगतिशील विकलांग संसार, छतरपुर के संचालन एवं व्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाते रहे । रोज़गार को लेकर वे लम्बे समय भ्रमित और संघर्षरत रहे तथा अभावों से जूझते रहे । वर्तमान में ‘अकेला’ जी एक अध्यापक के रूप में शासन को अपनी सेवाएं दे रहे हैं साथ ही निःशक्तजनों की सेवा एवं लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं । ‘अकेला’ जी को लेखन की प्रेरणा अपने पिता स्व. श्री पुरूषोत्तम दास जी से मिली । जो भजन-कीर्तन लिखने में काफी रूचि रखते थे यद्यपि उनकी कोई कृति प्रकाशित नहीं हुई । माता श्रीमती कमला देवी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक रूचि की हैं। ‘अकेला’ जी ने सन्-1990 से ग़ज़ल-गीत लेखन की यात्रा शुरू की जो अनवरत जारी है । ग़ज़ल संग्रह ‘शेष बची चौथाई रात’-1999 के प्रकाशन ने ग़ज़ल के क्षेत्र में उन्हें स्थापित किया और राष्ट्रीय ख्याति दिलाई । दूसरे ग़ज़ल-गीत संग्रह सुब्ह की दस्तक’-2006 एवं तीसरे ग़ज़ल संग्रह ‘अंगारों पर शबनम’-2012 ने उनकी साहित्यिक पहचान को और पुख़्तगी देते हुए उन्हें देश के प्रथम पंक्ति के हिन्दी ग़ज़लकारों के बीच खड़ा कर दिया है । | '''वीरेन्द्र खरे 'अकेला' '''(Virendra khare akela) का जन्म 18 अगस्त सन् 1968 को छतरपुर (म.प्र.) के ठेठ देहाती आदिवासी बहुल छोटे से गांव किशनगढ़ में एक मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ, पांच भाइयों में सबसे बड़े वीरेन्द्र बचपन से ही गंभीर स्वभाव और साहित्यिक रूचि के हैं । अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा से इतिहास में एम. ए. एवं बी. एड. करने के बाद वे लम्बे समय तक छतरपुर शहर के अशासकीय विद्यालयों में अध्यापन कार्य करते रहे साथ ही निःशक्तजनों की शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए समर्पित एन. जी. ओ. ‘प्रगतिशील विकलांग संसार, छतरपुर के संचालन एवं व्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाते रहे । रोज़गार को लेकर वे लम्बे समय भ्रमित और संघर्षरत रहे तथा अभावों से जूझते रहे । वर्तमान में ‘अकेला’ जी एक अध्यापक के रूप में शासन को अपनी सेवाएं दे रहे हैं साथ ही निःशक्तजनों की सेवा एवं लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं । | ||
==कार्यक्षेत्र== | |||
‘अकेला’ जी को लेखन की प्रेरणा अपने पिता स्व. श्री पुरूषोत्तम दास जी से मिली । जो भजन-कीर्तन लिखने में काफी रूचि रखते थे यद्यपि उनकी कोई कृति प्रकाशित नहीं हुई । माता श्रीमती कमला देवी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक रूचि की हैं। ‘अकेला’ जी ने सन्-1990 से ग़ज़ल-गीत लेखन की यात्रा शुरू की जो अनवरत जारी है । ग़ज़ल संग्रह ‘शेष बची चौथाई रात’-1999 के प्रकाशन ने ग़ज़ल के क्षेत्र में उन्हें स्थापित किया और राष्ट्रीय ख्याति दिलाई । दूसरे ग़ज़ल-गीत संग्रह सुब्ह की दस्तक’-2006 एवं तीसरे ग़ज़ल संग्रह ‘अंगारों पर शबनम’-2012 ने उनकी साहित्यिक पहचान को और पुख़्तगी देते हुए उन्हें देश के प्रथम पंक्ति के हिन्दी ग़ज़लकारों के बीच खड़ा कर दिया है । ‘अकेला’ जी की ग़ज़लों में जीवन की सच्ची-तपती-सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है । वे देश और समाज में व्याप्त दुख-दर्दों, अभावों, असफलताओं, विसंगतियों और छल-छद्मों को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भर देते हैं ‘अकेला‘ जी की ग़ज़लों की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध कवि डॉ. कुंअर बेचैन लिखते हैं-“ ‘अकेला’ जी की ग़ज़लें विविध विषयों पर होने के साथ साथ बहर आदि की दृष्टि से निष्कलंक हैं, उनमें सहज प्रवाह भी है और अमिट प्रभाव भी । ये ग़ज़लें ग़ज़ल की यशस्वी परम्परा में रहकर नए विषयों तथा नए प्रतीकों की खोज करती हैं । इनमें यथार्थ की सच्चाई और कल्पना की ऊँचाई दोनों के दर्शन होते हैं ।” इसी प्रकार ’अकेला’ जी की ग़ज़ल के प्रभाव का उद्घाटन करते हुए इस दौर के शहंशाहे ग़ज़ल डॉ. बशीर बद्र कहते हैं-“अकेला की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समन्दर में नई हलचल पैदा करेगी ।” पद्मश्री डॉ. गोपालदास ‘नीरज’ कहते हैं कि-“ अकेला के शेरों में यह ख़ूबी है कि वे खुद-ब-खुद होठों पर आ जाते हैं । ” चर्चित व्यंग्यकार माणिक वर्मा एवं प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. देवव्रत जोशी ने भी अपनी अपनी टिप्पणियों में ‘अकेला’ को दुष्यत कुमार के बाद को उल्लेखनीय शायर निरूपित किया है। स्पष्ट है कि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ ने हिन्दी ग़ज़ल को नए विषय, नई सोच, नए प्रतीक और सम्यक शिल्पगत कसावट देकर इस विधा की उल्लेखनीय सेवा की है और इस क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान क़ायम की है । लेखन के अलावा ‘अकेला’ जी एक रंगकर्मी के रूप में भी सक्रिय रहे हैं । वे भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की जिला इकाई-छतरपुर के लम्बे समय से पदाधिकारी हैं और क़िस्सा कल्पनापुर का, खूबसूरत बहू तथा बाजीराव मस्तानी आदि नाटकों में महत्वपूर्ण भूमिकाएं अभिनीत कर चुके हैं । | |||
==रचनाएँ== | ==रचनाएँ== | ||
#शेष बची चौथाई रात (ग़ज़ल संग्रह) | #शेष बची चौथाई रात (ग़ज़ल संग्रह) | ||
#सुबह की दस्तक (ग़ज़ल-गीत संग्रह) | #सुबह की दस्तक (ग़ज़ल-गीत संग्रह) | ||
#अंगारों पर शबनम (ग़ज़ल संग्रह) | #अंगारों पर शबनम (ग़ज़ल संग्रह) | ||
*इसके अतिरिक्त ‘अकेला’ जी ने कई कहानियां, बाल कवितायें, समीक्षा आलेख और व्यंग्य लेख भी लिखे हैं | *इसके अतिरिक्त ‘अकेला’ जी ने कई कहानियां, बाल कवितायें, समीक्षा आलेख और व्यंग्य लेख भी लिखे हैं <ref>{{दैनिक भास्कर भोपाल,अंक-22 सितम्बर 1995 ,राष्ट्रधर्मं अंक-सितम्बर-1999, जनवरी-2000, फरवरी-2001 दिसंबर-2001 मार्च-2003 जून-2003 }}</ref> | ||
==हिन्दी ग़ज़ल और ‘अकेला’== | |||
ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें शायर अपनी बात कम से कम शब्दों में ज़्यादा से ज़्यादा प्रभावशाली ढंग से कहता है । ग़ज़ल के सभी शेर एक दूसरे से मुक्त (स्वतंत्र) होते हैं । यानी एक ग़ज़ल में अगर सात शेर हैं तो ये मान कर चलिए कि उसमें सात अलग अलग बयान, सात अलग अलग भावनाएँ या सात अलग अलग कविताएँ हैं । ग़ज़ल फारसी से उर्दू में आई और उर्दू से हिन्दी में । जब ग़ज़ल उर्दू से हिन्दी में आई तो हिन्दी में बहुत से कवि ग़ज़ल लेखन की ओर आकृष्ट हुये लेकिन ज़्यादातर ग़ज़लकार चूंकि उर्दू की ग़ज़ल परम्परा और ग़ज़ल के व्याकरण से अनभिज्ञ थे इसलिए उनकी ग़ज़लें ग़ज़ल की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं और नकार दी गईं । लेकिन कुछ ऐसे हिन्दी ग़ज़लकार भी सामने आये जो ग़ालिबो-मीर की ज़बान से परिचित थे । ग़ज़ल जिनकी आत्मा में बसी हुई थी और जो अमीर खुसरो से लेकर बशीर बद्र तक के ग़ज़ल के सफ़र से परिचित थे । जब ऐसे ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल कही तो उर्दू वाले भी आश्यर्च चकित रह गये और इस तरह हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा शुरू हुई । उर्दू से हिन्दी के इस खूबसूरत मोड़ पर जो चंद लोग खड़े हैं जिनकी शायरी के आधार पर आने वाली साहित्यिक नस्लें हिन्दी ग़ज़ल का अपना पैमाना बनायेंगी उनमें दुष्यंत कुमार, गोपालदास ‘नीरज’, बालस्वरूप राही, कुंअर बेचैन, मुनव्वर राना, राजेश रेड्डी, सूर्यभानु गुप्त आदि के साथ एक नाम और आता है-वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ अना क़ासमी लिखते हैं ‘उर्दू से हिन्दी ग़ज़ल के जिस खूबसूरत मोड़ पर वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ खड़े हैं सिर्फ़ यही बात इनके नाम को सदियों तक ज़िन्दा रखने के लिए काफ़ी है मगर इनके इस बस्फ़ के साथ एक और जो सिफ़त मौजूद है कि वो अपने दौर के तमाम हालात को इतने क़रीब से देख रहे हैं जैसे आज का युग उन्हें घूर रहा हो और वो खड़े उसे आँख दिखा रहे हों । अकेला साहब शायरी के साथ तकल्लुफ़ात नहीं बरतते बल्कि हर वो सच्ची बात जे़रे क़लम ले आते हैं जो आज के समाज की सही मंज़रकशी कर सके । ’ | |||
अकेला जी की शायरी में आज की कड़वी सच्चाईयों के साथ साथ बहुत से ऐसे पहलू भी हैं जो कभी आँखों को नम करते हैं, कभी होंठों पर मुस्कुराहट लाते हैं कभी दिलो-दिमाग़ को झकझोरते हैं और कभी कठिन परिस्थितियों के बीच हौसला बंधाते हैं । अर्द्धवाषिक उर्दू पत्रिका ‘अस्बाक़’ (पुणे) के एडीटर नज़ीर फतेहपुरी लिखते हैं-‘अकेला की ग़ज़ल मायूसी, नाकामी और अंधेरों की शिकायतों तक महदूद नहीं बल्कि उसमें हिम्मत और हौसले की एक दुनिया भी आबाद है ।<ref>{{नवभारत,ग्वालियर-01अप्रैल-2004 गज़ल दुष्यन्त के बाद भाग-3}}</ref> | |||
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[[प्रो. डॉ. देवव्रत जोशी]] | [[प्रो. डॉ. देवव्रत जोशी]]<ref>{{शेष बची चौथाई रात,अयन प्रकाशन नई दिल्ली-1999, सुबह की दस्तक,सार्थक प्रकाशन नई दिल्ली-2006 अंगारों पर शबनम,अयन प्रकाशन नई दिल्ली-2012}}</ref> | ||
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15:47, 3 जून 2013 का अवतरण
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वीरेन्द्र खरे 'अकेला' का (जन्म- 18 अगस्त, 1968, किशनगढ़, छतरपुर, मध्यप्रदेश) वर्तमान समय में ग़ज़ल विधा के लोकप्रिय और प्रसिद्ध कवि हैं, जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी ग़ज़लों तथा सरल, सहज गीतों द्वारा हिन्दी कविता की उल्लेखनीय सेवा की है और दुष्यन्त कुमार जी के बाद के ग़ज़लकारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है और साहित्यप्रेमियों को बहुत प्रभावित किया है।[1]
जीवन परिचय
वीरेन्द्र खरे 'अकेला' (Virendra khare akela) का जन्म 18 अगस्त सन् 1968 को छतरपुर (म.प्र.) के ठेठ देहाती आदिवासी बहुल छोटे से गांव किशनगढ़ में एक मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ, पांच भाइयों में सबसे बड़े वीरेन्द्र बचपन से ही गंभीर स्वभाव और साहित्यिक रूचि के हैं । अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा से इतिहास में एम. ए. एवं बी. एड. करने के बाद वे लम्बे समय तक छतरपुर शहर के अशासकीय विद्यालयों में अध्यापन कार्य करते रहे साथ ही निःशक्तजनों की शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए समर्पित एन. जी. ओ. ‘प्रगतिशील विकलांग संसार, छतरपुर के संचालन एवं व्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाते रहे । रोज़गार को लेकर वे लम्बे समय भ्रमित और संघर्षरत रहे तथा अभावों से जूझते रहे । वर्तमान में ‘अकेला’ जी एक अध्यापक के रूप में शासन को अपनी सेवाएं दे रहे हैं साथ ही निःशक्तजनों की सेवा एवं लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं ।
कार्यक्षेत्र
‘अकेला’ जी को लेखन की प्रेरणा अपने पिता स्व. श्री पुरूषोत्तम दास जी से मिली । जो भजन-कीर्तन लिखने में काफी रूचि रखते थे यद्यपि उनकी कोई कृति प्रकाशित नहीं हुई । माता श्रीमती कमला देवी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक रूचि की हैं। ‘अकेला’ जी ने सन्-1990 से ग़ज़ल-गीत लेखन की यात्रा शुरू की जो अनवरत जारी है । ग़ज़ल संग्रह ‘शेष बची चौथाई रात’-1999 के प्रकाशन ने ग़ज़ल के क्षेत्र में उन्हें स्थापित किया और राष्ट्रीय ख्याति दिलाई । दूसरे ग़ज़ल-गीत संग्रह सुब्ह की दस्तक’-2006 एवं तीसरे ग़ज़ल संग्रह ‘अंगारों पर शबनम’-2012 ने उनकी साहित्यिक पहचान को और पुख़्तगी देते हुए उन्हें देश के प्रथम पंक्ति के हिन्दी ग़ज़लकारों के बीच खड़ा कर दिया है । ‘अकेला’ जी की ग़ज़लों में जीवन की सच्ची-तपती-सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है । वे देश और समाज में व्याप्त दुख-दर्दों, अभावों, असफलताओं, विसंगतियों और छल-छद्मों को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भर देते हैं ‘अकेला‘ जी की ग़ज़लों की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध कवि डॉ. कुंअर बेचैन लिखते हैं-“ ‘अकेला’ जी की ग़ज़लें विविध विषयों पर होने के साथ साथ बहर आदि की दृष्टि से निष्कलंक हैं, उनमें सहज प्रवाह भी है और अमिट प्रभाव भी । ये ग़ज़लें ग़ज़ल की यशस्वी परम्परा में रहकर नए विषयों तथा नए प्रतीकों की खोज करती हैं । इनमें यथार्थ की सच्चाई और कल्पना की ऊँचाई दोनों के दर्शन होते हैं ।” इसी प्रकार ’अकेला’ जी की ग़ज़ल के प्रभाव का उद्घाटन करते हुए इस दौर के शहंशाहे ग़ज़ल डॉ. बशीर बद्र कहते हैं-“अकेला की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समन्दर में नई हलचल पैदा करेगी ।” पद्मश्री डॉ. गोपालदास ‘नीरज’ कहते हैं कि-“ अकेला के शेरों में यह ख़ूबी है कि वे खुद-ब-खुद होठों पर आ जाते हैं । ” चर्चित व्यंग्यकार माणिक वर्मा एवं प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. देवव्रत जोशी ने भी अपनी अपनी टिप्पणियों में ‘अकेला’ को दुष्यत कुमार के बाद को उल्लेखनीय शायर निरूपित किया है। स्पष्ट है कि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ ने हिन्दी ग़ज़ल को नए विषय, नई सोच, नए प्रतीक और सम्यक शिल्पगत कसावट देकर इस विधा की उल्लेखनीय सेवा की है और इस क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान क़ायम की है । लेखन के अलावा ‘अकेला’ जी एक रंगकर्मी के रूप में भी सक्रिय रहे हैं । वे भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की जिला इकाई-छतरपुर के लम्बे समय से पदाधिकारी हैं और क़िस्सा कल्पनापुर का, खूबसूरत बहू तथा बाजीराव मस्तानी आदि नाटकों में महत्वपूर्ण भूमिकाएं अभिनीत कर चुके हैं ।
रचनाएँ
- शेष बची चौथाई रात (ग़ज़ल संग्रह)
- सुबह की दस्तक (ग़ज़ल-गीत संग्रह)
- अंगारों पर शबनम (ग़ज़ल संग्रह)
- इसके अतिरिक्त ‘अकेला’ जी ने कई कहानियां, बाल कवितायें, समीक्षा आलेख और व्यंग्य लेख भी लिखे हैं [2]
हिन्दी ग़ज़ल और ‘अकेला’
ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें शायर अपनी बात कम से कम शब्दों में ज़्यादा से ज़्यादा प्रभावशाली ढंग से कहता है । ग़ज़ल के सभी शेर एक दूसरे से मुक्त (स्वतंत्र) होते हैं । यानी एक ग़ज़ल में अगर सात शेर हैं तो ये मान कर चलिए कि उसमें सात अलग अलग बयान, सात अलग अलग भावनाएँ या सात अलग अलग कविताएँ हैं । ग़ज़ल फारसी से उर्दू में आई और उर्दू से हिन्दी में । जब ग़ज़ल उर्दू से हिन्दी में आई तो हिन्दी में बहुत से कवि ग़ज़ल लेखन की ओर आकृष्ट हुये लेकिन ज़्यादातर ग़ज़लकार चूंकि उर्दू की ग़ज़ल परम्परा और ग़ज़ल के व्याकरण से अनभिज्ञ थे इसलिए उनकी ग़ज़लें ग़ज़ल की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं और नकार दी गईं । लेकिन कुछ ऐसे हिन्दी ग़ज़लकार भी सामने आये जो ग़ालिबो-मीर की ज़बान से परिचित थे । ग़ज़ल जिनकी आत्मा में बसी हुई थी और जो अमीर खुसरो से लेकर बशीर बद्र तक के ग़ज़ल के सफ़र से परिचित थे । जब ऐसे ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल कही तो उर्दू वाले भी आश्यर्च चकित रह गये और इस तरह हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा शुरू हुई । उर्दू से हिन्दी के इस खूबसूरत मोड़ पर जो चंद लोग खड़े हैं जिनकी शायरी के आधार पर आने वाली साहित्यिक नस्लें हिन्दी ग़ज़ल का अपना पैमाना बनायेंगी उनमें दुष्यंत कुमार, गोपालदास ‘नीरज’, बालस्वरूप राही, कुंअर बेचैन, मुनव्वर राना, राजेश रेड्डी, सूर्यभानु गुप्त आदि के साथ एक नाम और आता है-वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ अना क़ासमी लिखते हैं ‘उर्दू से हिन्दी ग़ज़ल के जिस खूबसूरत मोड़ पर वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ खड़े हैं सिर्फ़ यही बात इनके नाम को सदियों तक ज़िन्दा रखने के लिए काफ़ी है मगर इनके इस बस्फ़ के साथ एक और जो सिफ़त मौजूद है कि वो अपने दौर के तमाम हालात को इतने क़रीब से देख रहे हैं जैसे आज का युग उन्हें घूर रहा हो और वो खड़े उसे आँख दिखा रहे हों । अकेला साहब शायरी के साथ तकल्लुफ़ात नहीं बरतते बल्कि हर वो सच्ची बात जे़रे क़लम ले आते हैं जो आज के समाज की सही मंज़रकशी कर सके । ’ अकेला जी की शायरी में आज की कड़वी सच्चाईयों के साथ साथ बहुत से ऐसे पहलू भी हैं जो कभी आँखों को नम करते हैं, कभी होंठों पर मुस्कुराहट लाते हैं कभी दिलो-दिमाग़ को झकझोरते हैं और कभी कठिन परिस्थितियों के बीच हौसला बंधाते हैं । अर्द्धवाषिक उर्दू पत्रिका ‘अस्बाक़’ (पुणे) के एडीटर नज़ीर फतेहपुरी लिखते हैं-‘अकेला की ग़ज़ल मायूसी, नाकामी और अंधेरों की शिकायतों तक महदूद नहीं बल्कि उसमें हिम्मत और हौसले की एक दुनिया भी आबाद है ।[3]
संस्तुतियां
'अकेला' की ग़ज़लों में भरपूर शेरियत और तग़ज़्जुल है । छोटी बड़ी सभी प्रकार की बहरों मे उन्होंने नए नए प्रयोग किए हैं और वे खूब सफल भी हुए हैं । उनके शेरों में यह ख़ूबी है कि वे ख़ुद-ब-ख़ुद होठों पर आ जाते हैं जैसे कि यह शेर-
इक रूपये की तीन अठन्नी माँगेगी
इस दुनिया से लेना-देना कम रखना
पद्मश्री डॉ० गोपाल दास 'नीरज'
'अकेला' की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समुन्दर में नई हलचल पैदा करेगी ।
डॉ. बशीर बद्र
अगर परिमाण की दृष्टि से देखा जाये तो आज की हिन्दी कविता की प्रमुख धारा ग़ज़ल ही है । हिन्दी कविता के क्षेत्र में इन दिनों जितने भी रेखांकित करने योग्य कवि हैं उनमें से अधिकतर कवियों ने ग़ज़लें कही हैं और जिन्होंने ग़ज़लें कही हैं उनमें जो प्रमुख ग़ज़लकार हैं उनमें श्री वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का नाम बिना किसी हिचक के लिया जा सकता है । इसका बड़ा कारण यह है कि ‘अकेला’ जी की ग़ज़लें विविध विषयों पर होने के साथ-साथ बहर आदि की दृष्टि से भी निष्कलंक हैं । उनमें सहज प्रवाह भी है और अमिट प्रभाव भी । ये ग़ज़लें ग़ज़ल की यशस्वी परंपरा में रहकर नए विषयों तथा नए प्रतीकों की खोज भी करती दिखाई देती हैं । इनमें यथार्थ की सच्चाई और कल्पना की ऊँचाई दोनों के ही दर्शन होते हैं । ग़ज़ल का शेर अगर एकदम दिल में न उतर जाये तो वह शेर ही क्या। मिसाल के तौर पर एक ग़ज़ल के मतले का यह शेर ही देखें -
“अदावत दिल में रखते हैं मगर यारी दिखाते हैं
न जाने लोग भी क्या-क्या अदाकारी दिखाते हैं ।”
डॉ कुंअर बेचैन
ग़ज़ल की पहली और अहम शर्त है शेरों का वज़न में होना, उसके बाद रदीफ़ क़ाफ़ियों का सही इस्तेमाल तथा अल्फ़ाज़ों की नशिस्तो-बरखास्त, जिसमें बड़े-बड़े उस्तादों तक से चूक हो जाती है, परन्तु भाई ‘अकेला’ की किसी भी ग़ज़ल में उपरोक्त ख़ामियाँ ढूँढ़े से भी नहीं मिलतीं । उन्होंने आज के सम्पूर्ण परिवेश को अपनी ग़ज़लों में जिस खूबसूरती से ढाला है, वो देखते ही बनता है । उनकी विहंगम काव्य-दृष्टि कल, आज और कल का ऐसा चमकदार आईना है जिसमें जीवन का हर प्रतिबिंब बोलता है, न सिर्फ़ बोलता है वरन् परत-दर-परत आज ही नहीं कल की हक़ीक़तों का पर्दा भी खोलता है ।
माणिक वर्मा
हिन्दी के प्रतिष्ठापित होते ग़ज़लकार भाई वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ की ग़ज़लें भीड़ भरे ग़ज़लकारों में अकेली, अद्वितीय आवाज़ है । लगभग त्रुटिशून्य और सन्नाटे के अंधेरे को शब्दों की रश्मियों से चीरती -
“हमको ऐ जनतंत्र तेरे नाम पर
उस्तरे थामे हुए बंदर मिले”
इस तरह के तल्ख तेवर नागार्जुन, हरिशंकर परसाई के गद्य में भी
मिलते हैं । गद्य को पद्य में विलीन करती उनकी लय आश्वस्त करती है कि यदि कवि ठान ले तो वह जन की, अवाम की प्रतिनिधि आवाज़ बन सकता है।
आज के भीषण, निर्लज्ज घोटालों के कुहासे में ये ग़ज़लें ज्योति-किरण हैं । यद्यपि कविता से क्रान्ति नहीं होती, लेकिन वह अपने अग्नि-स्फुर्लिंग तो वातावरण में बिखरा सकती है । वे दुष्यन्त के आगे के ग़ज़लकार हैं । अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए दृढ़संकल्पी किन्तु संकोची कवि का शब्द-निनाद शब्दों के पत्थरों से रगड़कर चिन्गारी पैदा करता है, उसका दाव उसे मालूम है । आज की दलबंदी और तुकबंदी के माहौल में ‘अकेला’ आश्वस्त करता है । ग़ज़ल और जन से उसके सरोकार घने होते चले जाएंगे।
मुझे पूरा भरोसा है, हिन्दी के सुधी समीक्षक इस आवाज़ को नज़र अंदाज़ करने की स्थिति में नहीं होंगे । उनकी रचना किसी ऊपरी वाह-वाही की मोहताज़ नहीं, क्योंकि दिल की कमान से निकले उनके अशआर सीधे दिल में उतरने की कोशिश हैं । ‘अंगारों पर शबनम’ की ग़ज़लें सारे देश में लोकप्रिय होंगी, यह मेरा दृढ़ अनुमान है ।
प्रो. डॉ. देवव्रत जोशी[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ साँचा:सृजन पथ,सिलीगुडी-नवम्बर 2003, साप्ताहिक शुक्रवार का 05 दिसम्बर २००९ का अंक
- ↑ {{दैनिक भास्कर भोपाल,अंक-22 सितम्बर 1995 ,राष्ट्रधर्मं अंक-सितम्बर-1999, जनवरी-2000, फरवरी-2001 दिसंबर-2001 मार्च-2003 जून-2003 }}
- ↑ साँचा:नवभारत,ग्वालियर-01अप्रैल-2004 गज़ल दुष्यन्त के बाद भाग-3
- ↑ {{शेष बची चौथाई रात,अयन प्रकाशन नई दिल्ली-1999, सुबह की दस्तक,सार्थक प्रकाशन नई दिल्ली-2006 अंगारों पर शबनम,अयन प्रकाशन नई दिल्ली-2012}}
बाहरी कड़ियाँ
- वीरेन्द्र खरे 'अकेला' की कविताएँ तथा ग़जलें - कविता कोश पर
- वीरेन्द्र खरे 'अकेला' की कविताएँ http://kavysanklan.blogspot.in/ काव्य संकलन में]