"प्रयोग:कविता बघेल 9": अवतरणों में अंतर
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+हेराल्ड लैसवेल तथा अब्राहम कैपलन | +हेराल्ड लैसवेल तथा अब्राहम कैपलन | ||
{उदारवाद का मूल तत्व है | {उदारवाद का मूल तत्व क्या है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-37,प्रश्न-8 | ||
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+वैयक्तिक स्वतंत्रता | +वैयक्तिक स्वतंत्रता | ||
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-पंथ निरपेक्षता | -पंथ निरपेक्षता | ||
-समानता | -समानता | ||
||उदारवाद व्यक्तिगत को सबसे महत्त्वपूर्ण मानता है। इसके अनुसार, व्यक्ति के उन कार्यों पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए, जिनका संबंध केवल उसके ही अस्तित्व से हो। व्यक्तिवादी विचारकों ने इस स्वतंत्रता का समर्थन किया है। मिल ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए कहा है कि "मानव समाज को केवल आत्मरक्षा के उद्देश्य से ही, किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता में व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हस्तक्षेप करने का अधिकार हो सकता है। अपने ऊपर, अपने शरी, मस्तिष्क और [[आत्मा]] पर व्यक्ति संप्रभु है।" उदारवाद का मूल तत्त्व वैयक्तिक स्वतंत्रता है। इससे सम्बधित अन्य महत्त्वपूर्ण उदारवाद की मुख्य मान्यताएं निम्न हैं- (!) मनुष्य विवेकशील प्राणी है। (2) व्यक्ति के हित एवं सामान्य हित में कोई बुनियादी टकराव नहीं है। (3) व्यक्ति को कुछ प्राकृतिक अधिकार प्राप्त हैं। (4) नागरिक समाज एक कृत्रिम उपकरण है जिसका ध्येय मनुष्यों का हित साधन है। (5) उदारवाद केवल सांविधानिक शासन को ही मान्यता देता है। इसके अनुसार, व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई भी प्रतिबंध केवल इस आधार पर लगाया जा सकता है कि वह दूसरों को वैसी ही स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए आवश्यक हो। (7) उदारवाद अनुबंध की स्वतंत्रता में विश्वास करता है। इसके अनुसार, सार्वजनिक नीति व्यक्तियों और समूहों की स्वतंत्र सौदेबाजी का परिणाम होना चाहिए। इस प्रकार उदारवाद की संपूर्ण अवधारणा में वैयक्तिक स्वतंत्रता का महत्त्वपूर्ण स्थान है। | |||
{'मतों को गिना नहीं, तौला जाना चाहिए"- यह कथन किसका है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-45,प्रश्न-9 | {'मतों को गिना नहीं, तौला जाना चाहिए"- यह कथन किसका है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-45,प्रश्न-9 | ||
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+जे.एस. मिल | +जे.एस. मिल | ||
-फाइनर | -फाइनर | ||
||मिल का कथन है कि "मतो को गिना नहीं तौला जाना चाहिए।" जे.एस. मिल का विचार | ||जे.एस. मिल का कथन है कि "मतो को गिना नहीं तौला जाना चाहिए।" जे.एस. मिल का विचार है कि शिक्षित और योग्य व्यक्तियों को अज्ञानी एवं मूर्ख व्यक्तियों की तुलना में बहुलमत का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। ज्ञातव्य है कि इसी प्रकार का विचार सिजविक ने भी दिया है। इससे सम्बधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न प्रकार है- (1) मिल ने लिंग के आधार पर भेदभाव को स्वीकार नहीं किया और महिला मताधिकार की वकालत की। (2) मिल के अनुसार मताधिकार उन्हीं को प्राप्त होना चाहिए जो निश्चित शैक्षणिक योग्यता रखते हों। (4) मिल ने गुप्त मतदान का विरोध किया तथा खुले मतदान को उचित ठहराया। (4) मिल के अनुसार संसद की तानाशाही प्रवृत्तियों पर अंकुश रखने के लिए द्विसदनीय संसद उपयोगी होती है। (4) ज्ञातव्य है कि बेंथम 'एक व्यक्ति एक मत' का समर्थक था। | ||
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य | |||
{निम्न में विचारकों का कौन-सा युग्म वैज्ञानिक | {निम्न में विचारकों का कौन-सा युग्म वैज्ञानिक समाजवाद के संस्थापकों में माना जाता है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-54,प्रश्न-19 | ||
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-चार्ल्स फूरिये तथा सेंट साइमन | -चार्ल्स फूरिये तथा सेंट साइमन | ||
-सिडनी वेब तथा बिएट्रिस वेब | -सिडनी वेब तथा बिएट्रिस वेब | ||
+मार्क्स तथा ऐंजिल्स | +[[कार्ल मार्क्स]] तथा ऐंजिल्स | ||
-आर. एच. टावनी तथा विलियम एबेंसटीन | -आर. एच. टावनी तथा विलियम एबेंसटीन | ||
||कार्ल मार्क्स एवं ऐंजिल्स को वैज्ञानिक समाजवाद का संस्थापक माना जाता है। इसके अतिरिक्त चार्ल्स फूरिये, सेंट साइमन, थामस मूर, राबर्ट ओवन आदि काल्पनिक समाजवाद के संस्थापक कहे जाते हैं। 'समाजवाद' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 'राबर्ट ओवन' ने किया था। | ||[[कार्ल मार्क्स]] एवं ऐंजिल्स को वैज्ञानिक समाजवाद का संस्थापक माना जाता है। इसके अतिरिक्त चार्ल्स फूरिये, सेंट साइमन, थामस मूर, राबर्ट ओवन आदि काल्पनिक समाजवाद के संस्थापक कहे जाते हैं। 'समाजवाद' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 'राबर्ट ओवन' ने किया था। | ||
{इनमें से कौन यथार्थवादी नहीं था? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-67,प्रश्न-18 | {इनमें से कौन यथार्थवादी नहीं था? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-67,प्रश्न-18 | ||
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-हॉब्स | -हॉब्स | ||
-थूसीडाइड्स | -थूसीडाइड्स | ||
+कांट | +इमानुएल कांट | ||
-मैकियावेली | -मैकियावेली | ||
||कांट एक आदर्शवादी विचारक थे। आदर्शवाद या प्रत्ययवाद उन विचारों और मान्यताओं की समेकित विचारधारा है जिनके अनुसार, इस जगत की समस्त वस्तुएं विचार या चेतना की अभिव्यक्ति है। इसके विपरीत हॉब्स, थूसीडाइड्स तथा मैकियावेली यथार्थवादी विचारक हैं। ये राज्य के यंत्रीय सिद्धांत के समर्थक हैं। | ||इमानुएल कांट एक आदर्शवादी विचारक थे। आदर्शवाद या प्रत्ययवाद उन विचारों और मान्यताओं की समेकित विचारधारा है जिनके अनुसार, इस जगत की समस्त वस्तुएं विचार या चेतना की अभिव्यक्ति है। इसके विपरीत हॉब्स, थूसीडाइड्स तथा मैकियावेली यथार्थवादी विचारक हैं। ये राज्य के यंत्रीय सिद्धांत के समर्थक हैं। | ||
{निम्न में से कौन अंतर्राष्ट्रीय संबंध में राज्य के केंद्रीय महत्त्व पर सहमत नहीं है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-79,प्रश्न-97 | {निम्न में से कौन अंतर्राष्ट्रीय संबंध में राज्य के केंद्रीय महत्त्व पर सहमत नहीं है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-79,प्रश्न-97 | ||
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-नव-यथार्थवादी | -नव-यथार्थवादी | ||
-संरचनात्मक यथार्थवादी | -संरचनात्मक यथार्थवादी | ||
||बहुलवादी विचारक अंतर्राष्ट्रीय संबंध में राज्य के केंद्रीय महत्त्व पर सहमत नहीं हैं। बहुलवादी मानते हैं कि राज्य विभिन्न संघ समूहों में विभाजित है जो गैर-राज्य कर्त्ता (Non-State-Actors) के रूप में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जबकि नव-यथार्थवादी अथवा संरचात्मक | ||बहुलवादी विचारक अंतर्राष्ट्रीय संबंध में राज्य के केंद्रीय महत्त्व पर सहमत नहीं हैं। बहुलवादी मानते हैं कि राज्य विभिन्न संघ समूहों में विभाजित है जो गैर-राज्य कर्त्ता (Non-State-Actors) के रूप में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जबकि नव-यथार्थवादी अथवा संरचात्मक यथार्थवादियों के अनुसार, संरचना के प्रभाव को राज्य के व्यवहार को समझाने के रूप में लिया जाना चाहिए। ये लोग राज्य की पारंपारिक सैन्य शक्ति के बजाय राज्य की संयुक्त क्षमताओं की प्रदर्शनात्मक शक्ति को महत्त्व प्रदान करते हैं। यथार्थवादी राष्ट्र/राज्य को अंतर्राष्ट्रीय संबंध में मुख्य अभिनेता मानते हैं। | ||
{"आर्थिक स्वतंत्रता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता एक भ्रम है।" यह कथन किसका है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-83,प्रश्न-8 | {"आर्थिक स्वतंत्रता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता एक भ्रम है।" यह कथन किसका है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-83,प्रश्न-8 | ||
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-मेटरलैंड | -मेटरलैंड | ||
-बार्कर | -बार्कर | ||
||जी.डी.एच. कोल ने कहा है कि "आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता मिथक है।" दूसरे शब्दों में "आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता केवल एक भ्रम है।" राजनीतिक स्वतंत्रता के आधार के रूप में आर्थिक समानता कार्य करती है, एक व्यक्ति सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति तभी रुचि ले सकता है जब उसके पास अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने के पर्याप्त साधन उपलब्ध हों। इससे सम्बधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न प्रकार है- (1) लास्की के अनुसार, "मुझे स्वादिष्ट भोजन करने का अधिकार नहीं है यदि मेरे पड़ोसी को मेरे इस अधिकार के कारण सूखी रोटी से वंचित रहना पड़े।" (2) [[जवाहरलाल नेहरू]] ने कहा है, "भूखे व्यक्ति के लिए मत का कोई मूल्य नहीं होता।" (3) लास्की के अनुसार, "यदि [[राज्य]] संपत्ति को अधीन नहीं रखता, तो संपत्ति राज्य को वशीभूत कर लेगी।" (4) कोल की तरह लास्की ने भी कहा है कि "आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता कभी भी वास्तविक नहीं हो सकती।" | |||
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{राज्य शब्द का पहली बार प्रयोग किसने किया? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-7,प्रश्न-19 | {राज्य शब्द का पहली बार प्रयोग किसने किया? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-7,प्रश्न-19 | ||
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-प्लेटो | -[[प्लेटो]] | ||
-अरस्तू | -[[अरस्तू]] | ||
+मैकियावेली | +मैकियावेली | ||
-हॉब्स | -हॉब्स | ||
|| | ||राजनीतिक दर्शन के इतिहास में 'राज्य' शब्द के पर्याय 'State' की व्युत्पत्ति ग्रीक शब्द 'स्टेटो' से हुई जिसका सर्वप्रथम प्रयोग मैकियावेली मे अपनी पुस्तक 'द प्रिन्स' में किया था। इससे पूर्व यूनानी दार्शनिक [[अरस्तू]] ने 'राज्य' के अर्थ को व्यक्त करने के लिए 'नगर राज्य' का प्रयोग किया था। | ||
{निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या करता है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-19,प्रश्न-19 | {निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या करता है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-19,प्रश्न-19 | ||
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-समझौता सिद्धांत | -समझौता सिद्धांत | ||
-विकासवादी सिद्धांत | -विकासवादी सिद्धांत | ||
+ | +उपर्युक्त सभी | ||
||राजनीति विज्ञान में राज्य की उत्पत्ति एवं विकास की व्याख्या करने के लिए विभिन्न सिद्धांत यथा रक्त संबंध, दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत, सामाजिक समझौता सिद्धांत तथा विकासवादी सिद्धांत आए। रक्त संबंध संगठन का मूल आधार है यह परिवार एवं राज्य के विकास का मूल कारक रहा है। राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत ने राज्य की सर्वोच्च तथा जनता में आज्ञापालन का पाठ पढ़ाया, सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने राज्य को मानवृत संस्था | ||राजनीति विज्ञान में राज्य की उत्पत्ति एवं विकास की व्याख्या करने के लिए विभिन्न सिद्धांत यथा रक्त संबंध, दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत, सामाजिक समझौता सिद्धांत तथा विकासवादी सिद्धांत आए। रक्त संबंध संगठन का मूल आधार है यह परिवार एवं राज्य के विकास का मूल कारक रहा है। राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत ने राज्य की सर्वोच्च तथा जनता में आज्ञापालन का पाठ पढ़ाया, सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने राज्य को मानवृत संस्था बतला कर इसका उद्देश्य मानव सुरक्षा तथा कल्याण बताया। राज्य के ऐतिहासिक विकासवादी सिद्धांत ने राज्य को क्रमिक रूप से विकास का परिणाम बताया। इस प्रकार सभी सिद्धांत अपने सीमिति रूप में राज्य की उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं। | ||
{"यदि न्याय को पृथक कर दिया जाए तो राज्य एक लुटेरे की संपत्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।" यह कथन है | {"यदि न्याय को पृथक कर दिया जाए तो राज्य एक लुटेरे की संपत्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।" यह कथन किसका है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-29,प्रश्न-9 | ||
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-सालमंड | -सालमंड | ||
+ऑगस्टाइन | +सेंट ऑगस्टाइन | ||
-कांट | -कांट | ||
-बेंथम का | -बेंथम | ||
||सेंट ऑगस्टाइन (354-430) पांचवी शताब्दी के प्रारंभ का राजनीतिक दार्शनिक है। यह पहला राजनीतिक दार्शनिक है जिसने लौकिक और धार्मिक क्षेत्रों के बीच सीमा रेखा खींच कर राजनीतिक दर्शन की उपयुक्त सीमाओं की समस्या सामने रखी ये क्रमश: राज्य और चर्च के क्षेत्र थे। इनके अनुसार राज्य स्वतंत्र मनुष्यों पर स्वतंत्र मनुष्यों का शासन है। ऑगस्टाइन न्याय को राज्य का सर्व प्रमुख तत्त्व मानता है। इसके अनुसार जिन राज्यों में न्याय नहीं रह जाता वे डाकुओं के झुण्ड मात्र कहे जा सकते हैं। एक अन्य स्थान पर ये कहते है" न्याय एक व्यवस्थित और अनुशासित जीवन व्यतीत करने तथा उन कर्त्तव्यों का पालन करने में है जिनकी व्यवस्था मांग करती है। अन्य दार्शनिको के अनुसार न्याय की परिभाषा- (1) 'थॉमस एक्वीनास-प्रत्येक व्यक्ति को उसके अपने अधिकार देने की निश्चित और सनातम इच्छा न्याय है। (2) प्लेटो-न्याय मानव आत्मा की उचित अवस्था और मानवीय स्वभाव की प्राकृतिक मांग है। | |||
{आधुनिक राजनीति विज्ञान में 'प्रक्रिया' की संकल्पना किसने दी थी? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-33,प्रश्न-19 | {आधुनिक राजनीति विज्ञान में 'प्रक्रिया' की संकल्पना किसने दी थी? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-33,प्रश्न-19 | ||
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-लासवेल | -लासवेल | ||
+आर्थर बेंटलें | +आर्थर बेंटलें | ||
||आधुनिक राजनीति विज्ञान में 'प्रक्रिया' की संकल्पना आर्थर बेंटले ने अपनी पुस्तक (The Process of Government | ||आधुनिक राजनीति विज्ञान में 'प्रक्रिया' की संकल्पना आर्थर बेंटले ने अपनी पुस्तक (The Process of Government) नामक पुस्तक में सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत की। बेंटले परम्परागत राजनीति विज्ञान का कड़ा आलोचक था। वह उसे बंजर, औपचारिकतापूर्ण, प्राणहीन, बंधिया और स्थैतिक मानता था। क्योंकि उसमें प्रक्रिया के अध्ययन पर पर्याप्त जोर नहीं दिया था। बेंटले के प्रयास से प्रक्रिया के अध्ययन को व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान में अपना लिया गया। अब व्यवस्थापिका तथा न्याय प्रक्रियाएं, निर्णय-निर्माण प्रक्रिया तथा राजनीतिक प्रक्रिया के अध्ययन पर विशेष बल दिया गया। | ||
{उदारवाद किसका हित चाहता है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-37,प्रश्न-10 | {उदारवाद किसका हित चाहता है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-37,प्रश्न-10 | ||
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-निर्धनों का | -निर्धनों का | ||
-सब का | -सब का | ||
||उदारवाद के प्रेणेता लॉक ने व्यक्तियों के प्राकृतिक अधिकारों में से सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार 'संपत्ति के अधिकार' को माना। लॉक प्रारंभिक उदारवादी विचारक के रूप में संपत्ति का उत्पादन करने, संरक्षित करने, व्यापार- व्यवसाय करने का अधिकार व्यक्ति को देता है। उदारवाद की इस प्रवृत्ति से धनवानों का हित होता है क्योंकि लॉक के अनुसार, राज्य को व्यक्ति की 'सपत्ति के अधिकार' में आने वाली बाधाओं को खत्म करना चाहिए। | ||उदारवाद के प्रेणेता जॉन लॉक ने व्यक्तियों के प्राकृतिक अधिकारों में से सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार 'संपत्ति के अधिकार' को माना। लॉक प्रारंभिक उदारवादी विचारक के रूप में संपत्ति का उत्पादन करने, संरक्षित करने, व्यापार- व्यवसाय करने का अधिकार व्यक्ति को देता है। उदारवाद की इस प्रवृत्ति से धनवानों का हित होता है क्योंकि लॉक के अनुसार, राज्य को व्यक्ति की 'सपत्ति के अधिकार' में आने वाली बाधाओं को खत्म करना चाहिए। | ||
{किसने कहा "प्रजातंत्र ऐसा शासन है जिसमें प्रत्येक शक्ति की हिस्सेदारी होती है?" (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-45,प्रश्न-10 | {किसने कहा "प्रजातंत्र ऐसा शासन है जिसमें प्रत्येक शक्ति की हिस्सेदारी होती है?" (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-45,प्रश्न-10 | ||
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-डायसी | -डायसी | ||
+सीले | +सीले | ||
-बेनी प्रसाद | -डा. बेनी प्रसाद | ||
||सीले के अनुसार, "प्रजातंत्र ऐसा शासन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की हिस्सेदारी होती है।" लोकतंत्र के विषय में सीले की यह परिभाषा डायसी की लोकतंत्र संबंधी परिभाषा से इस अर्थ में भिन्न है कि डायसी 'लोकतंत्र को बहुमत की भागीदारी के रूप में ''परिभाषित करते हैं जबकि सीले प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी को लोकतंत्र की विशेषता मानते हैं। | ||सीले के अनुसार, "प्रजातंत्र ऐसा शासन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की हिस्सेदारी होती है।" लोकतंत्र के विषय में सीले की यह परिभाषा डायसी की लोकतंत्र संबंधी परिभाषा से इस अर्थ में भिन्न है कि डायसी 'लोकतंत्र को बहुमत की भागीदारी के रूप में ''परिभाषित करते हैं जबकि सीले प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी को लोकतंत्र की विशेषता मानते हैं। इससे सम्बधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न प्रकार है- (1) ब्राइस के अनुसार- "लोकतंत्र शासन का वह प्रकार है जिसमें राज्य के शासन की शक्ति किसी विशेष वर्गों के हाथ में निहित न होकर संपूर्ण जनसमुदाय में निहित होती है।" (2) डा. बेनी प्रसाद के अनुसार- "लोकतंत्र जीने का ढंग है। यह इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति के सुख का महत्त्व उतना ही है जितना कि अन्य किसी के सुख का महत्त्व हो सकता है तथा किसी को भी अन्य किसी के सुख का साधन मात्र नहीं समझा जा सकता।'' | ||
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य | |||
{"हरेक से अपनी क्षमता के अनुसार, हरेक को अपनी आवश्यकता के अनुसार।" यह सूत्र किस व्यवस्था का है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं- | {"हरेक से अपनी क्षमता के अनुसार, हरेक को अपनी आवश्यकता के अनुसार।" यह सूत्र किस व्यवस्था का है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-54,प्रश्न-20 | ||
|type="()"} | |type="()"} | ||
-पूंजीवादी | -पूंजीवादी | ||
पंक्ति 740: | पंक्ति 733: | ||
+साम्यवादी | +साम्यवादी | ||
-राष्ट्रवादी | -राष्ट्रवादी | ||
||लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'स्टेट एंड रिवोल्यूशन' (राज्य और क्रांति) के अंतर्गत 'समाजवदी और साम्यवादी व्यवस्थाओं में अंतर करते हुए लिखा है: समाजवादी दौर में व्यक्तियों के अधिकार इस सूत्र से निर्धारित किए जाते हैं- "प्रत्येक से अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार, प्रत्येक को अपने-अपने कार्य के अनुसार"। परंतु साम्यवाद के उन्नत दौर के अंतर्गत, जब उत्पादन की शतियां पूर्णत: विकसित हो जाती हैं, व्यक्तियों के अधिकार इस सूत्र से निर्धारित किए जाते है- "प्रत्येक से अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार, प्रत्येक को अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार"। | ||लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'स्टेट एंड रिवोल्यूशन' (राज्य और क्रांति) के अंतर्गत 'समाजवदी और साम्यवादी व्यवस्थाओं में अंतर करते हुए लिखा है: समाजवादी दौर में व्यक्तियों के अधिकार इस सूत्र से निर्धारित किए जाते हैं- "प्रत्येक से अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार, प्रत्येक को अपने-अपने कार्य के अनुसार"। परंतु साम्यवाद के उन्नत दौर के अंतर्गत, जब उत्पादन की शतियां पूर्णत: विकसित हो जाती हैं, व्यक्तियों के अधिकार इस सूत्र से निर्धारित किए जाते है- "प्रत्येक से अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार, प्रत्येक को अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार"। इससे सम्बधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न प्रकार है- (1) साम्यवाद के दौर में सभी लोग कामगार होते हैं, इसलिए समाज वर्गहीन हो जाता है। (2) साम्यवाद के युग में उत्पादन की नीतियां। संपूर्ण समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, किसी वर्ग के निजी लाभ के लिए नहीं बनाई जातीं। (3) साम्यवाद के दौर में सब कामगारों की सारी आवश्यकताएं पूरी करना संभव हो जाता है, और प्रतिस्पर्धा की भावना बिल्कुल समाप्त हो जाती है। | ||
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य | |||
{इनमें से किसने कहा था कि 'ज्ञान शक्ति है'? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-67,प्रश्न-19 | {इनमें से किसने कहा था कि 'ज्ञान शक्ति है'? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-67,प्रश्न-19 | ||
|type="()"} | |type="()"} | ||
-अरस्तू | -[[अरस्तू]] | ||
+ | +फ़्रांसिस बेकन | ||
-मिल | -मिल | ||
-हीगल | -हीगल | ||
||'ज्ञान शक्ति है" यह सूक्ति फ्रांसिस बेकन की है। फ्रांसिस बेकन | ||'ज्ञान शक्ति है" यह सूक्ति फ्रांसिस बेकन की है। फ्रांसिस बेकन अंग्रेज़ दार्शनिक और न्यायविद हैं, जिसे वैज्ञानिक पद्धति का उन्नायक माना जाता है। यह ब्रिटिश अनुभववादी परंपरा का प्रथम सिद्धांतकार था जिसे जॉन लॉक, डेविड ह्यूम, मिल तथा रसेल ने आगे वढ़ाया। बेकन का विचार है कि विज्ञान को मानवता के हित और लाभ का साधन बनाना चाहिये। बेकन ने तर्क दिया कि प्रकृति के बारे में हम जो ज्ञान प्राप्त करते हैं उससे हमें प्रकृति पर नियंत्रण स्थापित करने की शक्ति प्राप्त होती है। इसी विचार को बेकन ने 'ज्ञान ही शक्ति है' की सूक्ति के रूप में व्यक्त किया। यद्यपि हीगल ने कहा कि 'राज्य चेतना का विराट रूप है' तथापि उसका चेतना (Spirit) आत्मीय तत्त्व है न कि ज्ञान। | ||
{अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में यर्थाथवादी सिद्धांत तीन मान्यताओं पर आधारित है। निम्न में से कौन-सी एक आधारभूत मान्यता नहीं है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-79,प्रश्न-98 | {अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में यर्थाथवादी सिद्धांत तीन मान्यताओं पर आधारित है। निम्न में से कौन-सी एक आधारभूत मान्यता नहीं है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-79,प्रश्न-98 | ||
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||यथार्थवाद के अनुसार, राष्ट्र की शक्ति का विकास की उनके दिलों को पूर्ण करने का एकमात्र साधन है। प्रत्येक राज्य और राजनेता सत्ता और शक्ति के विकास से ही अपने हित-पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। यथार्थवादी दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि विदेश नीति संबंधी निर्णय राष्ट्रीय हित के आधार पर लिए जाने चाहिए, न कि नैतिक सिद्धांतों और भावनात्मक मान्यताओं के आधार पर। | ||यथार्थवाद के अनुसार, राष्ट्र की शक्ति का विकास की उनके दिलों को पूर्ण करने का एकमात्र साधन है। प्रत्येक राज्य और राजनेता सत्ता और शक्ति के विकास से ही अपने हित-पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। यथार्थवादी दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि विदेश नीति संबंधी निर्णय राष्ट्रीय हित के आधार पर लिए जाने चाहिए, न कि नैतिक सिद्धांतों और भावनात्मक मान्यताओं के आधार पर। | ||
{निम्नलिखित में से किस एक विचारक ने स्वतंत्रता तथा समानता को | {निम्नलिखित में से किस एक विचारक ने स्वतंत्रता तथा समानता को एक-दूसरे का पूरक बताया? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-84,प्रश्न-9 | ||
|type="()"} | |type="()"} | ||
-लॉर्ड | -लॉर्ड एक्टन | ||
+मैकाइवर | +मैकाइवर | ||
-मैकियावेली | -मैकियावेली | ||
-डी. टाकविल | -डी. टाकविल | ||
||मैकाइवर, आर.एच. टॉनी, एच.जे लास्की, टी.एच.ग्रीन, सी.बी. मैक्फर्सन आदि विचारक स्वतंत्रता एवं समानता को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं। | ||मैकाइवर, आर.एच. टॉनी, एच.जे लास्की, टी.एच.ग्रीन, सी.बी. मैक्फर्सन आदि विचारक स्वतंत्रता एवं समानता को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं। इससे सम्बधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न प्रकार है- (1) समानता का सबसे व्यवस्थित विश्लेषण आर.एच. टॉनी ने अपनी कृति 'इक्वैलिटी' में किया है। (2) उपर्युक्त विचारकों के अलावा ह्यूम, बार्कर, रूसो भी स्वतंत्रता व समानता को एक दूसरे का पूरक मानते हैं। (3) एच.जे लास्की के अनुसार, "यदि स्वतंत्रता का अर्थ मानवीय [[आत्मा]] में लगातार विकास की शक्ति से है, तो यह समान लोगों के समाज के अतिरिक्त शायद ही कहीं संभव है। जहां ग़रीब और साहूकार हों, शिक्षित और अशिक्षित हों, वहां मालिक और नौकर जरूर मिलेंगे।" (4) समानता के द्वारा स्वतंत्रता के आधार के रूप में कार्य किया जाता है। एक ऐसे राज्य में जिसमें समानता नहीं है, स्वतंत्रता हो ही नहीं सकती। | ||
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य | |||
.लास्की के अनुसार, "यदि स्वतंत्रता का अर्थ मानवीय आत्मा में लगातार विकास की शक्ति से है, तो यह समान | |||
पंक्ति 782: | पंक्ति 766: | ||
{किस राजनीतिक विचारक ने आधुनिक काल में 'राज्य' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-7,प्रश्न-20 | {किस राजनीतिक विचारक ने आधुनिक काल में 'राज्य' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-7,प्रश्न-20 | ||
|type="()"} | |type="()"} | ||
-प्लेटो | -[[प्लेटो]] | ||
-बोदां | -बोदां | ||
+मैकियावेली | +मैकियावेली | ||
-हॉब्स | -हॉब्स | ||
||मैकियावेली सबसे पहला राजनीतिक विचारक है जिसने 'राज्य' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया और इसकी महत्त्वपूर्ण स्थिति का निरूपण किया इसके अनुसार राज्य एक | ||मैकियावेली सबसे पहला राजनीतिक विचारक है जिसने 'राज्य' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया और इसकी महत्त्वपूर्ण स्थिति का निरूपण किया इसके अनुसार राज्य एक ऐसी संस्था है, जो अपने क्षेत्र में सर्वोच्च शक्ति का प्रयोगी करती है। मैकियावेली ने इस बात पर सबसे अधिक ज़ोर दिया है कि मानव जीवन की पूर्णता के लिए एक सुदृढ़ और संगठित राज्य की परम आवश्यकता है। सेबाइन के अनुसार, " 'राज्य' एक सर्वोच्च राजनीतिक संस्था के रूप में मैकियावेली की लेखनी से ही पहली बार अभिव्यक्त हुआ और तब से उसे 'संप्रभु' कहा जाने लगा, बाद में यहीं से संप्रभुता प्रतिपादित किया गया जो आधुनिक राज्य का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है"। | ||
{'सामाजिक संविदा' का लेखक था | {'सामाजिक संविदा' का लेखक कौन था? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-20,प्रश्न-20 | ||
|type="()"} | |type="()"} | ||
-बोदां | -बोदां | ||
-गार्नर | -गार्नर | ||
-जवाहरलाल नेहरू | -[[जवाहरलाल नेहरू]] | ||
+रूसो | +रूसो | ||
||'सामाजिक संविदा' की रचना वर्ष 1762 में तत्कालीन | ||'सामाजिक संविदा' की रचना वर्ष 1762 में तत्कालीन फ़्रासीसी लेखक रूसों ने फ्रेंच भाषा में की थी। इस पुस्तक का एक दूसरा नाम 'प्रिंसिपल ऑफ़ पॉलिटिकल राइट' भी है। इस पुस्तक में रूसो ने राज्य की उत्पत्ति की व्याख्या की है। इस पुस्तक की शुरुआत ही ''मनुष्य जन्म से स्वतंत्र किंतु बेड़ियों से जकड़ा हुआ है" शब्दों से हुई है। 'सोशल कांट्रैक्ट' पुस्तक ने [[फ्रांस]] में राजनीतिक सुधारों के लिए हुई क्रांति में लोगों को प्रेरणा का कार्य किया था। | ||
{"जिन राज्यों में न्याय नहीं होता, वह डाकुओं का समूह है।" यह शब्द निम्न में से किनके हैं? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-29,प्रश्न-10 | {"जिन राज्यों में न्याय नहीं होता, वह डाकुओं का समूह है।" यह शब्द निम्न में से किनके हैं? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-29,प्रश्न-10 | ||
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-प्लेटो | -[[प्लेटो]] | ||
-अरस्तू | -[[अरस्तू]] | ||
-सुकरात | -[[सुकरात]] | ||
+ऑगस्टाइन | +सेंट ऑगस्टाइन | ||
||सेंट ऑगस्टाइन (354-430) पांचवी शताब्दी के प्रारंभ का राजनीतिक दार्शनिक है। यह पहला राजनीतिक दार्शनिक है जिसने लौकिक और धार्मिक क्षेत्रों के बीच सीमा रेखा खींच कर राजनीतिक दर्शन की उपयुक्त सीमाओं की समस्या सामने रखी ये क्रमश: राज्य और चर्च के क्षेत्र थे। इनके अनुसार राज्य स्वतंत्र मनुष्यों पर स्वतंत्र मनुष्यों का शासन है। ऑगस्टाइन न्याय को राज्य का सर्व प्रमुख तत्त्व मानता है। इसके अनुसार जिन राज्यों में न्याय नहीं रह जाता वे डाकुओं के झुण्ड मात्र कहे जा सकते हैं। एक अन्य स्थान पर ये कहते है" न्याय एक व्यवस्थित और अनुशासित जीवन व्यतीत करने तथा उन कर्त्तव्यों का पालन करने में है जिनकी व्यवस्था मांग करती है। अन्य दार्शनिको के अनुसार न्याय की परिभाषा- (1) 'थॉमस एक्वीनास-प्रत्येक व्यक्ति को उसके अपने अधिकार देने की निश्चित और सनातम इच्छा न्याय है। (2) प्लेटो-न्याय मानव आत्मा की उचित अवस्था और मानवीय स्वभाव की प्राकृतिक मांग है। | |||
{कैटलिन के अनुसार, राजनीति विज्ञान का विषय-क्षेत्र क्या है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-34,प्रश्न-20 | {कैटलिन के अनुसार, राजनीति विज्ञान का विषय-क्षेत्र क्या है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-34,प्रश्न-20 | ||
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-संघर्ष का तनाव का अध्ययन | -संघर्ष का तनाव का अध्ययन | ||
-मानव-स्वभाव का अध्ययन | -मानव-स्वभाव का अध्ययन | ||
||कैटलिन राजनीति शास्त्र को 'शक्ति का विज्ञान' कहते हैं। वे लिखते हैं, "शक्ति की संकल्पना संभवत: समस्त राजनीति शास्त्र की मूल संकल्पना है"। कैटलिन के अनुसार, राजनीति शास्त्र नियंत्रण की उस स्थिति का अध्ययन है जो शक्ति प्राप्त करने के लिए एक मूलभूत अज्ञात | ||कैटलिन राजनीति शास्त्र को 'शक्ति का विज्ञान' कहते हैं। वे लिखते हैं, "शक्ति की संकल्पना संभवत: समस्त राजनीति शास्त्र की मूल संकल्पना है"। कैटलिन के अनुसार, राजनीति शास्त्र नियंत्रण की उस स्थिति का अध्ययन है जो शक्ति प्राप्त करने के लिए एक मूलभूत अज्ञात प्रेरणा के द्वारा निर्धारित होती है। | ||
{निम्नलिखित में से कौन-सा सही सुमेलित है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-37,प्रश्न-11 | {निम्नलिखित में से कौन-सा सही सुमेलित है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-37,प्रश्न-11 | ||
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-मान्टेस्क्यू | -मान्टेस्क्यू | ||
+ | +[[अरस्तू]] | ||
-मैकियावेली | -मैकियावेली | ||
-जे.एस. मिल | -जे.एस. मिल | ||
||अरस्तू ने कहा है कि "यदि अतिसमानता से प्रजातंत्र भ्रष्ट होता है तो साथ ही अतिसमानता की भावना से भी वह नष्ट हो जाएगा।" | ||अरस्तू ने कहा है कि "यदि अतिसमानता से प्रजातंत्र भ्रष्ट होता है तो साथ ही अतिसमानता की भावना से भी वह नष्ट हो जाएगा।" इससे सम्बधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न प्रकार है- (1) गैटल का कथन है, "क्योंकि लोकतंत्र समानता के सामान्य सिद्धांत पर आधारित है, अत: इससे न्याय की वृद्धि होना संभव है जो कि राज्य के अस्तित्व के प्रधान लक्ष्यों में से एक है।" (2) जे.एस. मिल ने कहा है कि" लोकतंत्र लोगों की देशभक्ति को बढ़ाता है क्योंकि नागरिक यह अनुभव करते हैं कि सरकार उन्हीं की उत्पन्न की हुई वस्तु है और अधिकारी उनके स्वामी न होकर सेवक हैं।" (4) लावेल का कथन है, "अंत में, वही सरकार सर्वश्रेष्ट है, जो मनुष्य की नैतिकता, उद्योग, साहस, आत्मबोध पवित्रता को दृढ़ बनाए। क्योंकि प्रजातंत्र इन बातों को पूरा करता है, इसलिए वह सबसे अच्छा शासन है। | ||
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य | |||
{"राज्य के लुप्त हो जाने का विचार" संबंधित है | {"राज्य के लुप्त हो जाने का विचार" निम्न में से किससे संबंधित है?(नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-54,प्रश्न-21 | ||
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-उदारवाद | -उदारवाद | ||
-समाजवाद | -समाजवाद | ||
+साम्यवाद | +साम्यवाद | ||
-श्रेणी समाजवाद | -श्रेणी समाजवाद | ||
||राज्य के लुप्त हो जाने का विचार" साम्यवाद से संबंधित है। मार्क्स के अनुसार, सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के बाद जब विरोधी वर्गों का अंत हो जाएगा तो राज्य की सत्ता का भी अंत हो जाएगा और राज्यहीन व वर्ग विहीन समाज की स्थापना होगी। | ||राज्य के लुप्त हो जाने का विचार" साम्यवाद से संबंधित है। [[कार्ल मार्क्स]] के अनुसार, सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के बाद जब विरोधी वर्गों का अंत हो जाएगा तो राज्य की सत्ता का भी अंत हो जाएगा और राज्यहीन व वर्ग विहीन समाज की स्थापना होगी। | ||
{'शासकीय विचारधारा' की संकल्पना इनमें से किसकी है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-67,प्रश्न-20 | {'शासकीय विचारधारा' की संकल्पना इनमें से किसकी है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-67,प्रश्न-20 | ||
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+मोस्का | +मोस्का | ||
-रॉबर्ट डाहल | -रॉबर्ट डाहल | ||
||मोस्का अभिजन वर्गवादी विचारक है। इसने अपनी चर्चित कृति 'द रुलिंग क्लास' (शासक वर्ग) के अंतर्गत माना है कि सब समाजों में दो वर्ग पाये जाते है- शासक वर्ग तथा शासित | ||मोस्का अभिजन वर्गवादी विचारक है। इसने अपनी चर्चित कृति 'द रुलिंग क्लास' (शासक वर्ग) के अंतर्गत माना है कि सब समाजों में दो वर्ग पाये जाते है- शासक वर्ग तथा शासित वर्ग। समाज के इस विभाजन को विशिष्ट वर्गवाद की संज्ञा दी जाती है। मोस्का ने तर्क दिया कि शासन प्रणाली में परिवर्तन होने पर राजनीतिक प्रणाली की इस बुनियादी प्रकृति में बदलाव नहीं आता। अत: लोकतंत्र को अपना लेने पर भी 'बहुमत का शासन अस्तित्व में नहीं आता' बल्कि इसमें अल्पमत के शासन को कायम रखने के गूढ़ तरीके अपनाये जाते हैं। इसने लोकतंत्र में स्वतंत्र चुनावों की व्यवस्था को झूठी परिकल्पना कहा है। | ||
{'सामुदायिकतावाद' एक प्रमुख धारा है | {'सामुदायिकतावाद' एक किसकी प्रमुख धारा है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-80,प्रश्न-100 | ||
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-उदारवाद | -उदारवाद | ||
-मार्क्सवाद | -मार्क्सवाद | ||
-सर्वाधिकारवाद | -सर्वाधिकारवाद | ||
+प्रत्ययवाद | +प्रत्ययवाद | ||
||'सामुदायिकतावाद' प्रत्ययवाद की एक प्रमुख धारा है क्योंकि | ||'सामुदायिकतावाद' प्रत्ययवाद की एक प्रमुख धारा है क्योंकि यह व्यक्ति के अस्तित्व व्यक्ति को समाज की देन मानता है। इसलिए समाज की प्रति प्रतिबद्धता व्यक्ति के व्यक्तित्व का आवश्यक अंग है। जहां उदारवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता, हितों और अधिकारों पर बल देता है, वहीं समुदायवद उसके दायित्वों और कर्त्तव्यों तथा समाज के सामान्य हित पर अपना ध्यान केंद्रित करता है। समुदायवाद के समकालीन विचारक मैंकिटायर, सैंडल, माइकेल वाल्जर हैं जिनके आरंभिक चिंतन की जड़े ग्रीन व हीगल के विचारों मे मिलती हैं। | ||
{जॉन स्टुअर्ड मिल के स्वतंत्रता के सिद्धांत के बारे में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा एक सही है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं- | {जॉन स्टुअर्ड मिल के स्वतंत्रता के सिद्धांत के बारे में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा एक सही है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-84,प्रश्न-10 | ||
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-मिल की स्वतंत्रता की अवधारणा उपयोगितावाद से तार्किक रूप से सुसंगत है। | -जॉन स्टुअर्ड मिल की स्वतंत्रता की अवधारणा उपयोगितावाद से तार्किक रूप से सुसंगत है। | ||
-मिल की स्वतंत्रता की अवधारणा उपयोगितावाद से विसंगत है। | -मिल की स्वतंत्रता की अवधारणा उपयोगितावाद से विसंगत है। | ||
-अधिकतम लोगों के अधिकतम हित की प्राप्ति में मिल स्वतंत्रता को अपरिहार्य साधन मानता है। | -अधिकतम लोगों के अधिकतम हित की प्राप्ति में मिल स्वतंत्रता को अपरिहार्य साधन मानता है। | ||
+मिल का विचार है कि स्वतंत्रता के बिना मनुष्य वौद्धिक और नैतिक पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता तथा विकास और एक आदर्श मनुष्य नहीं बन सकता। | +जॉन स्टुअर्ड मिल का विचार है कि स्वतंत्रता के बिना मनुष्य वौद्धिक और नैतिक पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता तथा विकास और एक आदर्श मनुष्य नहीं बन सकता। | ||
||जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने स्वतंत्रता संबंधी विचार वर्ष 1859 में प्रकाशित ग्रंथ 'स्वतंत्रता पर' (On Liderty) में दिए हैं। मिल ने स्वतंत्रता के नकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया। मिल के अनुसार, व्यक्ति का उद्देश्य अपने | ||जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने स्वतंत्रता संबंधी विचार वर्ष [[1859]] में प्रकाशित ग्रंथ 'स्वतंत्रता पर' (On Liderty) में दिए हैं। मिल ने स्वतंत्रता के नकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया। मिल के अनुसार, व्यक्ति का उद्देश्य अपने व्यक्तित्त्व का उच्चतम एवं अधिकतम विकास है और यह विकास केवल स्वतंत्रता के वातावरण में ही संभव है। मिल का विचार है कि स्वतंत्रता के द्वारा ही मनुष्य बौद्धिक व नैतिक पूर्णता प्राप्त करके एक आदर्श मनुष्य बन सकता है। इससे सम्बधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न प्रकार है- (1) मिल के अनुसार, "व्यक्ति के जीवन में राज्य का न्यूनतम हस्तक्षेप और अधिकतम संभव सीमा तक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करने की छूट ही स्वतंत्रता है और वह इसे अपनाने पर बल देता है।" (2) मिल ने व्यक्ति की स्वतंत्रता को दो भागों में बांटा है- प्रथम विचारों की स्वतंत्रता, द्वितीय कार्य संबंधी स्वतंत्रता। (3) मिल के अनुसार, व्यक्ति को विचारों की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए, मिल स्थापित परंपरा व धारणा के विरुद्ध विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता देता है तथा सनकी व्यक्ति को भी स्वतंत्रता दिए जाने का पक्षधर है। (4) मिल, कार्य संबंधी स्वतंत्रता को स्व-विषयक तथा पर-विषयक दो भागों में विभाजित करता है। उसके अनुसार स्व-विकास कार्यों में व्यक्ति को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त होनी चाहिए, लेकिन पर-विषयक | ||
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य | कार्यों में व्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित होती है, विशेष कर जब उसके कार्यों से समाज के अन्य व्यक्तियों की स्वतंत्रता में बाधा पहुंचती हो। | ||
कार्यों में व्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित होती है, | |||
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12:12, 7 अप्रैल 2017 का अवतरण
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