छायावादी युग

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छायावादी युग (1918-1937) प्राय: 'द्विवेदी युग' के बाद के समय को कहा जाता है। 'द्विवेदी युग' की प्रतिक्रिया का परिणाम ही 'छायावाद' है। इस युग में हिन्दी साहित्य में गद्य गीतों, भाव तरलता, रहस्यात्मक और मर्मस्पर्शी कल्पना, राष्ट्रीयता और स्वतंत्र चिन्तन आदि का समावेश होता चला गया। सन 1916 ई. के आस-पास हिन्दी में कल्पनापूर्ण, स्वच्छंद और भावुकता की एक लहर उमड़ पड़ी। भाषा, भाव, शैली, छंद, अलंकार इन सब दृष्टियों से पुरानी कविता से इसका कोई मेल नहीं था। आलोचकों ने इसे 'छायावाद' या 'छायावादी कविता' का नाम दिया।

प्रारम्भ

'छायावाद' का प्रारम्भ सामान्यतः 1918 ई. के आसपास से माना जाता है। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं से पता चलता है कि 1920 तक छायावाद संज्ञा का प्रचलन हो चुका था। मुकुटधर पांडेय ने 1920 की जुलाई, सितंबर, नवंबर और दिसंबर की 'श्रीशारदा' (जबलपुर) में 'हिन्दी में छायावाद' नामक शीर्षक से चार निबंधों की एक लेखमाला छपवाई थी। जब तक किसी प्राचीनतर सामग्री का पता नहीं चलता, इसी को छायावाद-संबंधी सर्वप्रथम निबंध कहा जा सकता है। हिन्दी में उसका नितांत अभाव देखकर मुकुटधर जी ने इधर-उधर की कुछ टीका-टिप्पणियों के सहारे वह निबंध प्रस्तुत किया था। इससे स्पष्ट है कि उस निबंध से पहले भी छायावाद पर कुछ टीका-टिप्पणियाँ हो चुकी थीं। लेखमाला का प्रथम निबंध 'कवि स्वातंत्र्य' में मुकुटधर जी ने रीति-ग्रंथों की परतंत्रता से मुक्त होकर कविता में व्यक्तिव तथा भाव भाषा छंद प्रकाशन-रीति आदि में मौलिकता की आवश्यकता पर जोर दिया है। दूसरा निबंध 'छायावाद क्या है?' सबसे महत्त्वपूर्ण है। आरंभ में ही लेखक कहता है- "अंग्रेज़ी या किसी पाश्चात्य साहित्य अथवा बंग साहित्य की वर्तमान स्थिति की कुछ भी जानकारी रखने वाले तो सुनते ही समझ जाएँगे कि यह शब्द मिस्टिसिज्म’ के लिए आया है फिर भी छायावाद एक ऐसी मायामय सूक्ष्म वस्तु है कि शब्दों द्वारा इसका ठीक-ठीक वर्णन करना असंभव है, क्योंकि ऐसी रचनाओं में शब्द अपने स्वाभाविक मूल्य को खोकर सांकेतिक चिह्न मात्र हुआ करते हैं।"[1]

'छायावाद' शब्द का प्रयोग

'छायावाद' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए-

  • एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्यवस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। रहस्यवाद के अंतर्भूत रचनाएँ पहुँचे हुए पुराने संतों या साधकों की उसी वाणी के अनुकरण पर होती हैं, जो तुरीयावस्था या समाधि दशा में नाना रूपकों के रूप में उपलब्ध आध्यात्मिक ज्ञान का आभास देती हुई मानी जाती थी। इस रूपात्मक आभास को यूरोप में 'छाया'[2] कहते थे। इसी से बंगाल में 'ब्रह्मसमाज' के बीच उक्त वाणी के अनुकरण पर जो आध्यात्मिक गीत या भजन बनते थे, वे 'छायावाद' कहलाने लगे। धीरे-धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र से वहाँ के साहित्य क्षेत्र में आया और फिर रवींद्र बाबू की धूम मचने पर हिन्दी के साहित्य क्षेत्र में भी प्रकट हुआ।
  • 'छायावाद' शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्ध तिविशेष के व्यापक अर्थ में है। सन 1885 में फ़्राँस में रहस्यवादी कवियों का एक दल खड़ा हुआ, जो प्रतीकवाद कहलाया। वे अपनी रचनाओं में प्रस्तुतों के स्थान पर अधिकतर अप्रस्तुत प्रतीकों को लेकर चलते थे। इसी से उनकी शैली की ओर लक्ष्य करके 'प्रतीकवाद' शब्द का व्यवहार होने लगा। आध्यात्मिक या ईश्वर प्रेम संबंधी कविताओं के अतिरिक्त और सब प्रकार की कविताओं के लिए भी प्रतीक शैली की ओर वहाँ प्रवृत्ति रही। हिन्दी में 'छायावाद' शब्द का जो व्यापक अर्थ में, रहस्यवादी रचनाओं के अतिरिक्त और प्रकार की रचनाओं के संबंध में भी, ग्रहण हुआ, वह इसी प्रतीक शैली के अर्थ में। छायावाद का सामान्यत: अर्थ हुआ "प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन"। इस शैली के भीतर किसी वस्तु या विषय का वर्णन किया जा सकता है।[3]

कविता

आधुनिक हिन्दी कविता की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि छायावादी काल की कविता में मिलती है। लाक्षणिकता, चित्रमयता, नूतन प्रतीक विधान, व्यंग्यात्मकता, मधुरता तथा सरसता आदि गुणों के कारण छायावादी कविता ने धीरे-धीरे अपना एक प्रशंसक वर्ग खड़ा कर दिया। मुकुटधर पांडेय ने सर्वप्रथम 'छायावाद' शब्द का प्रयोग किया था। शब्द चयन और कोमलकांत पदावली के कारण 'इतिवृत्तात्मक'[4] युग की खुरदरी खड़ी बोली सौंदर्य, प्रेम और वेदना के गहन भावों को वहन करने योग्य बनी। हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रमुखता मिली। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश कविता में आया। 'द्विवेदी युग' में राष्ट्रीयता के प्रबल स्वर में प्रेम और सौन्दर्य की कोमल भावनाएँ दब-सी गयी थीं। इन सरस कोमल मनोवृतियों को व्यक्त करने के लिए कवि-हृदय विद्रोह कर उठा। हृदय की अनुभूतियों तथा दार्शनिक विचारों की मार्मिक अभिव्यक्ति के परिणामस्वरूप ही 'छायावाद' का जन्म हुआ। छायावाद काव्यधारा ने हिंदी को शुष्क प्रचार से बचाया। हिंदी की खड़ी बोली की कविता को सौन्दर्य और सरसता प्रदान की। छायावाद ने हिन्दी को जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त और सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जैसे महाकवि दिए। 'पल्लव', 'कामायनी' और 'राम की शक्तिपूजा' छायावाद की महान उपलब्धि हैं।[5]

मुख्य कवि

'छायावाद' का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली महादेवी वर्मा ही हैं। जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त और सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' इत्यादि और सब कवि प्रतीक पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए। छायावादी युग के प्रमुख साहित्यकार हैं-

  1. रायकृष्ण दास
  2. वियोगी हरि
  3. डॉ. रघुवीर सहाय
  4. माखनलाल चतुर्वेदी
  5. जयशंकर प्रसाद
  6. महादेवी वर्मा
  7. नन्द दुलारे वाजपेयी
  8. डॉ. शिवपूजन सहाय
  9. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
  10. रामचन्द्र शुक्ल
  11. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
  12. बाबू गुलाबराय

"छायावाद के कवि वस्तुओं को असाधारण दृष्टि से देखते हैं। उनकी रचना की संपूर्ण विशेषताएँ उनकी इस ‘दृष्टि’ पर ही अवलंबित रहती हैं।...वह क्षण-भर में बिजली की तरह वस्तु को स्पर्श करती हुई निकल जाती है।...अस्थिरता और क्षीणता के साथ उसमें एक तरह की विचित्र उन्मादकता और अंतरंगता होती है, जिसके कारण वस्तु उसके प्रकृत रूप में नहीं किंतु एक अन्य रूप में दीख पड़ती है। उसके इस अन्य रूप का संबंध कवि के अंतर्जगत से रहता है।...यह अंतरंग दृष्टि ही ‘छायावाद’ की विचित्र प्रकाशन रीति का मूल है।" इस प्रकार मुकुटधर पांडेय की सूक्ष्म दृष्टि ने ‘छायावाद’ की मूल भावना ‘आत्मनिष्ठ अंतर्दृष्टि’ को पहचान लिया था। जब उन्होंने कहा कि "चित्र दृश्य वस्तु की आत्मा का ही उतारा जाता है," तो छायावाद की मौलिक विशेषता की ओर संकेत किया। छायावादी कवियों की कल्पनाप्रियता पर प्रकाश डालते हुए मुकुटधर जी कहते हैं- "उनकी कविता देवी की आँखें सदैव ऊपर की ही ओर उठी रहती हैं; मर्त्यलोक से उसका बहुत कम संबंध रहता है; वह बुद्धि और ज्ञान की सामर्थ्य-सीमा को अतिक्रम करके मन-प्राण के अतीत लोक में ही विचरण करती रहती है।"[1] यहीं छायावादिता से आध्यात्मिकता तथा धर्म-भावुकता का मेल होता है, यथार्थ में उसके जीवन के ये दो मुख्य अवलंब हैं।

मुकुटधर पांडेय का निबंध

'छायावाद' में प्रकृति का उपयोग प्रायः प्रतीक की तरह होता है, इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए मुकुटधर जी कहते हैं कि "प्राकृतिक दृश्य और घटनाएँ सांकेतिक रूप में अदृश्य तथा अव्यक्त के प्रकाशन में साहाय्य पहुँचाती हैं।" 'छायावाद' के कलापक्ष पर विचार करते हुए मुकुटधर जी काव्य में चित्रकारी और संगीत का अपूर्व एकीकरण उसका आदर्श मानते हैं। लेखमाला के शेष दो निबंधों का एक ही शीर्षक है- 'हिंदी में छायावाद'। इनमें छायावाद पर लगाए गए ‘अस्पष्टता’ आदि आरोपों का स्पष्टीकरण करते हुए अंत में मुकुटधर पांडेय ने लिखा है- "छायावाद की आवश्यकता हम इसीलिए समझते हैं कि उससे कवियों को भाव-प्रकाशन का एक नया मार्ग मिलेगा। इस प्रकार के अनेक मार्गों-अनेक रीतियों का होना ही उन्नत साहित्य का लक्षण है।" मुकुटधर पांडेय का निबंध 'छायावाद' पर पहला निबंध होने के साथ ही अत्यंत सूझ-बूझ भरी गंभीर समीक्षा भी है। इस निबंध का ऐतिहासिक महत्त्व ही नहीं, बल्कि स्थायी महत्त्व भी है।

प्रथम उल्लेख

उस युग की प्रतिनिधि पत्रिका 'सरस्वती' में 'छायावाद' का सर्वप्रथम उल्लेख जून 1921 के अंक में मिलता है। किसी सुशील कुमार ने ‘हिंदी में छायावाद’ शीर्षक से एक संवादात्मक निबंध लिखा है। संवाद में भाग लेने वाले कुल चार व्यक्ति हैं- ब्राह्म कन्या विद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त सुशीला देवी, उनके अरसिक किंतु लक्ष्मी के कृपापात्र पति हरिकिशोर बाबू, चित्रकार रामनरेश जोशी और कवि-सम्राट सुमित्रानन्दन पंत। पहले केवल प्रथम तीन व्यक्तियों में जोशी जी के एक ‘छाया-चित्र’ पर बातचीत होती है, जिसे उन्होंने पंत जी की एक कविता के आधार पर बनाया है। चित्र के नाम पर बढ़िया फ्रेम में मढ़ा कोरा काग़ज़ है और उसके नीचे लिखा है ‘छाया’। हरिकिशोर बाबू के अनुसार वह निर्मल ब्रह्मा की विशद छाया है। स्वयं जोशी जी ने भी उसमें किसी प्रकार अनंत की अस्पष्टता को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया था। अंत में पंत जी आते हैं और वे भी कविता के नाम पर एक ‘कोरा काग़ज़' प्रस्तुत करते हैं, जिसका आधार जोशी जी का वही चित्र है। हरिकिशोर बाबू के शब्दों में "यह तो वाणी की नीरवता है, निस्तब्धता का उच्छ्वास है, प्रतिभा का विलास है, और अनंत का विलास है।" कवि सम्राट अपने वक्तव्य में कहते हैं- "छायावाद का प्रधान गुण है अस्पष्टता। भाव इतने स्पष्ट हो जाएँ कि वे कल्पना के अनंत गर्भ में लीन हो जाएँ। मेरी यह सम्मति है कि शब्द अक्षरों से बनते हैं और अक्षर, अविनाशी है। वह तो अज्ञेय है, अनंत है। अतएव हमें भाषा को वह रूप देना चाहिए, जिससे वह नीरव हो जाए। वह कर्णश्रुत न होकर हृदयगम्य हो, इंद्रियगोचर न होकर आत्मा से ग्राह्य हो।"[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 छायावाद (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 01 अक्टूबर, 2013।
  2. फैंटसमाटा
  3. छायावाद (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 01 अक्टूबर, 2013।
  4. महाकाव्य और प्रबंध काव्य, जिनमें किसी कथा का वर्णन होता है।
  5. छायावाद- राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक और भावनात्मक दौर (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 01 अक्टूबर, 2013।

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