शंकर शेष
शंकर शेष (अंग्रेज़ी: Shankar Shesh, जन्म: 2 अक्टूबर, 1933, बिलासपुर; मृत्यु- 28 नवम्बर, 1981) हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार तथा सिनेमा कथा लेखक थे। वे नाटक साहित्य क्षेत्र के महत्वपूर्ण नाटककारों में से एक थे। समकालीन परिवेश और युगीन परिस्थितियों से उनके व्यक्तित्त्व की संवेदनशील का निर्माण हुआ था। शंकर शेष बहुआयामी प्रतिभाशाली लेखक के रूप में पहचाने जाते थे। वे मुम्बई में एक बैंक में हिन्दी अधिकारी थे।
परिचय
शंकर शेष का जन्म 2 अक्टूबर, 1933 को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ था। उनके ‘फन्दी’, ‘एक था द्रोणाचार्य’, ‘रक्तबीज’ आदि नाटकों से उनकी ख्याति बढ़ी थी। उनका शोध-प्रबंध ‘हिन्दी मराठी’ कहानीकारों के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित था। शंकर शेष अत्यन्त सहृदय और गुट-निरपेक्ष लेखक थे। उनके द्वारा रचित ‘घरोंदा’ कथा पर हिन्दी में एक प्रसिद्ध फ़िल्म भी बनी थी।
नाट्य विषय
डॉ. शंकर शेष के नाटकों में जाति व्यवस्था के नाम पर होने वाले अत्याचारों का यथार्थ चित्रण हुआ है। भारतीय समाज की छुआछूत जैसी कुप्रथा से संबंधित कई प्रश्न उन्होंने उठाए हैं। सभ्य समाज में जाति व्यवस्था आज भी विद्यमान है। आज भी सवर्ण जाति के लोग मंदिर पर अपना ही वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं और मंदिरों में शूद्र का प्रवेश मना है। यदि कोई मंदिर में प्रवेश करने का साहस करता है तो उसे गाँव से बहिष्कृत करने का दंड दिया जाता है। इस कथन का प्रमाण "बाढ़ का पानी" में पंडित और छीतू के संवाद से स्पष्ट होता है- "तुम्हारे बेटे ने धरम का नाश किया। पच्चीस हरिजनों को लेकर जो भगवान के मंदिर में घुस गया और भगवान को छू लिया।" गाँव में बाढ़ आने पर चमार जाति का नवल ठाकुर को बचाने जाता है, फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ा रहता है। इसका प्रमाण "बाढ़ का पानी" नाटक में गणपत के संवाद में मिलता है। जातीय विषमता आधुनिक काल में ही नहीं, महाभारत काल में भी देखने को मिलती है। इसका प्रमाण "कोमल गांधार" में भीष्म और संजय के कथन से स्पष्ट होता है। "अरे मायावी सरोवर" में राजा और ऋषि के कथन से ब्राह्मण और क्षत्रिय जाति के आपस के वर्चस्व का स्पष्ट होता है, और "एक और द्रोणाचार्य" में द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य से अंगूठे की माँग, इसी जाती-पाँति व्यवस्था की अगली कड़ी है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के प्रति परिवर्तित दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। "पढ़ना ठाकुरों का काम है भौजी, हम चमारों का नहीं। हमरी कुण्डली में तो बस जूते बनाना और जूते खाना ही लिखा है।" इस संवाद में एक हरिजन या चमार जाति के व्यक्ति की पढ़ने या शिक्षित होने की कठिनाइयों को यथार्थ चित्रण किया गया है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बाबू, डॉ. पी. थामस। आलेख:डॉ.शंकर शेष के नाटकों में सामाजिक यथार्थ (हिन्दी) apnimaati.com। अभिगमन तिथि: 05 मार्च, 2017।
बाहरी कड़ियाँ
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