एक्स्प्रेशन त्रुटि: अनपेक्षित उद्गार चिन्ह "०"।

"गुनाहों का देवता -धर्मवीर भारती (समीक्षा-2)" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 8 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{सूचना बक्सा पुस्तक
 
{{सूचना बक्सा पुस्तक
|चित्र=  
+
|चित्र=Gunaho_ka_dewata.png
|चित्र का नाम=गुनाहों का देवता से जुडे आलेख
+
|चित्र का नाम=गुनाहों का देवता  
| लेखक=  
+
| लेखक=[[धर्मवीर भारती]]
 
| कवि=  
 
| कवि=  
| मूल_शीर्षक =  
+
| मूल_शीर्षक =[[गुनाहों का देवता -धर्मवीर भारती|गुनाहों का देवता]]
 
| अनुवादक =
 
| अनुवादक =
| संपादक =[[अशोक कुमार शुक्ला]]
+
| संपादक =
 
| प्रकाशक =भारतकोश पर संकलित  
 
| प्रकाशक =भारतकोश पर संकलित  
 
| प्रकाशन_तिथि =
 
| प्रकाशन_तिथि =
 
| भाषा = [[हिन्दी]]  
 
| भाषा = [[हिन्दी]]  
 
| देश = [[भारत]]
 
| देश = [[भारत]]
| विषय =गुनाहों का देवता समीक्षा से जुडे आलेख
+
| विषय =गुनाहों का देवता की समीक्षा से जुड़े आलेख
 
| शैली =
 
| शैली =
| मुखपृष्ठ_रचना =[[गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती-समीक्षा-3|गुनाहों का देवता]]  
+
| मुखपृष्ठ_रचना =  
 
| प्रकार =  
 
| प्रकार =  
 
| पृष्ठ = 80
 
| पृष्ठ = 80
 
| ISBN =  
 
| ISBN =  
 
| भाग =
 
| भाग =
| टिप्पणियाँ =[[गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती-समीक्षा-3|गुनाहों का देवता]  
+
| टिप्पणियाँ =आलेख संकलक: [[अशोक कुमार शुक्ला]
 
}}
 
}}
=='''गुनाहों का देवता'''==
+
==गुनाहों का देवता==
<poem style="background:#fbf8df; padding:15px; font-size:14px; border:1px solid #003333; border-radius:5px">
+
बड़ा अद्भुत है ये! एक माँ अच्छे से जानती है बच्चे को कब क्या खुराक देनी है वैसे ही भगवान् जानते होंगे कि मन को कब किस खुराक कि जरुरत होती है. इस महीने दो अद्भुत  पुस्तकें पढ़ी. एक, बाणभट्ट कि आत्मकथा, जिसने ये बताया कि , स्वयं को निःशेष भाव से दे देना ही वशीकरण है. दूसरी, गुनाहों का देवता, जिसने ये बताया को स्वयं को निःशेष भाव से कैसे दिया जाता है. मन में कब से इच्छा थी धर्मवीर भारती कि , गुनाहों का देवता पढ़ने कि, पर पढ़ने के बाद मन अजीब सा हो गया है. मैं यह तय नहीं कर पा रही हूँ कि ऐसा क्या था इसमें जिसने मुझे छू लिया हो या मुझसे कुछ मेरी ही भूली कहानी कह दी हो. हाँ! इसे पढ़ते समय कुछ ऐसा लगा - जब स्वयं का ही जीवन एक प्रेत कि गुफा जैसा हो, मन ने कभी देवता कि प्रतिमा खंडित कर मंदिर को अपवित्र कर दिया हो,और  गुनाहों का देवता जब खुद में कहीं ही बसा हो तो उसे अक्षरों में पढ़ने कि क्या जरुरत.  खैर! उपन्यास पड़ने का बाद अब मुझे लेश मात्र भी आश्चर्य नहीं कि क्यूँ यह इतना प्रसिद्द है.
'''आलेख:प्रेमचन्द गांधी'''
 
  
बड़ा अद्भुत है ये! एक माँ अच्छे से जानती है बच्चे को कब क्या खुराक देनी है वैसे ही भगवान् जानते होंगे कि मन को कब किस खुराक कि जरुरत होती है. इस महीने दो अद्भुत  पुस्तकें पढ़ी. एक, बाणभट्ट कि आत्मकथा, जिसने ये बताया कि , स्वयं को निःशेष भाव से दे देना ही वशीकरण है. दूसरी, गुनाहों का देवता, जिसने ये बताया को स्वयं को निःशेष भाव से कैसे दिया जाता है. मन में कब से इच्छा थी धर्मवीर भारती कि , गुनाहों का देवता पढने कि, पर पढने के बाद मन अजीब सा हो गया है. मैं यह तय नहीं कर पा रही हूँ कि ऐसा क्या था इसमें जिसने मुझे छू लिया हो या मुझसे कुछ मेरी ही भूली कहानी कह दी हो. हाँ! इसे पढ़ते समय कुछ ऐसा लगा -  जब स्वयं का ही जीवन एक प्रेत कि गुफा जैसा हो, मन ने कभी देवता कि प्रतिमा खंडित कर मंदिर को अपवित्र कर दिया हो,और  गुनाहों का देवता जब खुद में कहीं ही बसा हो तो उसे अक्षरों में पढने कि क्या जरुरत.  खैर! उपन्यास पड़ने का बाद अब मुझे लेश मात्र भी आश्चर्य नहीं कि क्यूँ यह इतना प्रसिद्द है.
+
'''ये आज फिजा खामोश है क्यूँ, हर ज़र्र को आखिर होश है क्यूँ?
 
+
या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई तुम्हारा हो न सका'''
" ये आज फिजा खामोश है क्यूँ, हर ज़र्र को आखिर होश है क्यूँ?
 
या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई तुम्हारा हो न सका."
 
  
 
ये कोई और समय होता तो मन कहता - यही तुम्हारा भी रास्ता है. तुम्हे भी खुद को मिटा देना है. जो रौशनी तुम्हे मिली है उसे लुटा देना है. पर कोई रौशनी मिली ही कहाँ है? और मन पहले ही संभल भी गया है, अब वह कहता है कि वो लेखक का सच है या किरदारों का पर तुम्हारा नहीं. तुम्हे अपना सच स्वयं ढूँढना है. अभी कुछ ही समय में तुम्हे भी घर से विदा लेनी है. अपनी आँखे वक़्त पर खोल लो कहीं ऐसा न हो कोई सपना धीरे धीरे टूट रहा हो और तुम उसके बिखरने से पहले अपना होश भी न संभाल पाओ. मुझे गेसू कि याद हमेशा आती रहेगी.  
 
ये कोई और समय होता तो मन कहता - यही तुम्हारा भी रास्ता है. तुम्हे भी खुद को मिटा देना है. जो रौशनी तुम्हे मिली है उसे लुटा देना है. पर कोई रौशनी मिली ही कहाँ है? और मन पहले ही संभल भी गया है, अब वह कहता है कि वो लेखक का सच है या किरदारों का पर तुम्हारा नहीं. तुम्हे अपना सच स्वयं ढूँढना है. अभी कुछ ही समय में तुम्हे भी घर से विदा लेनी है. अपनी आँखे वक़्त पर खोल लो कहीं ऐसा न हो कोई सपना धीरे धीरे टूट रहा हो और तुम उसके बिखरने से पहले अपना होश भी न संभाल पाओ. मुझे गेसू कि याद हमेशा आती रहेगी.  
पंक्ति 35: पंक्ति 32:
 
" हर एक कि ज़िन्दगी का एक लक्ष्य होता है. और वह लक्ष्य होता है सत्य को , चरम सत्य को जान लेना. वह सत्य जान लेने के बाद आदमी अगर जिंदा रहता है तो उसकी यह असीम बेहयाई है. ... मसलन तुम अगर किसी औरत के पास जा रहे हो या किसी औरत कि पास से आ रहे हो और संभव है उसने तुम्हारी आत्मा कि हत्या कर डाली हो..."
 
" हर एक कि ज़िन्दगी का एक लक्ष्य होता है. और वह लक्ष्य होता है सत्य को , चरम सत्य को जान लेना. वह सत्य जान लेने के बाद आदमी अगर जिंदा रहता है तो उसकी यह असीम बेहयाई है. ... मसलन तुम अगर किसी औरत के पास जा रहे हो या किसी औरत कि पास से आ रहे हो और संभव है उसने तुम्हारी आत्मा कि हत्या कर डाली हो..."
  
... आत्मा कि हत्या... इससे सुधा का एक और उदबोधन याद आता है , " चंदर, मैं तुम्हारी आत्मा थी. तुम मेरे शरीर थे. पता नहीं हम लोग कैसे अलग हो गए. तुम्हारे बिना मैं सूक्ष्म आत्मा रह गयी. शरीर कि प्यास, रंगीनियाँ मेरे लिए अपरिचित हो गयी...और मेरे बिना तुम केवल शरीर रह गए. शरीर में डूब गए... पाप का जितना हिस्सा तुम्हारा उतना ही मेरा है.. पाप कि वैतरणी के इस किनारे जब तक तुम तडपुंगी,तभी तक मैं भी तडपुंगी  ..."  
+
... आत्मा कि हत्या... इससे सुधा का एक और उदबोधन याद आता है ,  
 +
 
 +
" चंदर, मैं तुम्हारी आत्मा थी. तुम मेरे शरीर थे. पता नहीं हम लोग कैसे अलग हो गए. तुम्हारे बिना मैं सूक्ष्म आत्मा रह गयी. शरीर कि प्यास, रंगीनियाँ मेरे लिए अपरिचित हो गयी...और मेरे बिना तुम केवल शरीर रह गए. शरीर में डूब गए... पाप का जितना हिस्सा तुम्हारा उतना ही मेरा है.. पाप कि वैतरणी के इस किनारे जब तक तुम तडपुंगी,तभी तक मैं भी तडपुंगी  ..."  
  
 
देवता तो तुम रहे पर कुछ गुनाह तुमसे हो गए. पर भक्त को देवता का हर गुनाह क्षम्य होता है. वरना कौन राम को पूजता और कौन कृष्ण को. आज मुझे जाने क्यूँ वेन गोघ भी याद आ रहे हैं. अंतर्द्वंद्व भले ही जीवन में कितने भी हो और भिन्न हों सभी कि राहें अंत में एक सत्य के प्रकाश स्तम्भ तक जाती हैं. पता नहीं क्यूँ, उपन्यास खत्म होने पर भी इसके अधूरे होने का आभास सा लग रहा है , लग रहा है जैसे एक कहानी कहीं कोई अभी भी अधूरी है...
 
देवता तो तुम रहे पर कुछ गुनाह तुमसे हो गए. पर भक्त को देवता का हर गुनाह क्षम्य होता है. वरना कौन राम को पूजता और कौन कृष्ण को. आज मुझे जाने क्यूँ वेन गोघ भी याद आ रहे हैं. अंतर्द्वंद्व भले ही जीवन में कितने भी हो और भिन्न हों सभी कि राहें अंत में एक सत्य के प्रकाश स्तम्भ तक जाती हैं. पता नहीं क्यूँ, उपन्यास खत्म होने पर भी इसके अधूरे होने का आभास सा लग रहा है , लग रहा है जैसे एक कहानी कहीं कोई अभी भी अधूरी है...
;आगे पढ़ने के लिए[[गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती-समीक्षा-3|गुनाहों का देवता] पर जाएँ
+
;आगे पढ़ने के लिए [[गुनाहों का देवता -धर्मवीर भारती (समीक्षा-3)|गुनाहों का देवता-3]] पर जाएँ
</poem>
+
 
 +
 
 +
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>
 
==बाहरी कड़ियाँ==
 
==बाहरी कड़ियाँ==
]
 
{{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
 
==बाहरी कड़ियाँ==
 
 
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
+
{{धर्मवीर भारती}}
[[Category:नया पन्ना मार्च-2013]]
+
[[Category:धर्मवीर भारती]]
 
+
[[Category:गद्य साहित्य]]
 +
[[Category:साहित्य कोश]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__
 +
__NOTOC__

08:08, 21 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण

गुनाहों का देवता -धर्मवीर भारती (समीक्षा-2)
गुनाहों का देवता
लेखक धर्मवीर भारती
मूल शीर्षक गुनाहों का देवता
प्रकाशक भारतकोश पर संकलित
देश भारत
पृष्ठ: 80
भाषा हिन्दी
विषय गुनाहों का देवता की समीक्षा से जुड़े आलेख
टिप्पणी आलेख संकलक: अशोक कुमार शुक्ला

गुनाहों का देवता

बड़ा अद्भुत है ये! एक माँ अच्छे से जानती है बच्चे को कब क्या खुराक देनी है वैसे ही भगवान् जानते होंगे कि मन को कब किस खुराक कि जरुरत होती है. इस महीने दो अद्भुत पुस्तकें पढ़ी. एक, बाणभट्ट कि आत्मकथा, जिसने ये बताया कि , स्वयं को निःशेष भाव से दे देना ही वशीकरण है. दूसरी, गुनाहों का देवता, जिसने ये बताया को स्वयं को निःशेष भाव से कैसे दिया जाता है. मन में कब से इच्छा थी धर्मवीर भारती कि , गुनाहों का देवता पढ़ने कि, पर पढ़ने के बाद मन अजीब सा हो गया है. मैं यह तय नहीं कर पा रही हूँ कि ऐसा क्या था इसमें जिसने मुझे छू लिया हो या मुझसे कुछ मेरी ही भूली कहानी कह दी हो. हाँ! इसे पढ़ते समय कुछ ऐसा लगा - जब स्वयं का ही जीवन एक प्रेत कि गुफा जैसा हो, मन ने कभी देवता कि प्रतिमा खंडित कर मंदिर को अपवित्र कर दिया हो,और गुनाहों का देवता जब खुद में कहीं ही बसा हो तो उसे अक्षरों में पढ़ने कि क्या जरुरत. खैर! उपन्यास पड़ने का बाद अब मुझे लेश मात्र भी आश्चर्य नहीं कि क्यूँ यह इतना प्रसिद्द है.

ये आज फिजा खामोश है क्यूँ, हर ज़र्र को आखिर होश है क्यूँ? या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई तुम्हारा हो न सका

ये कोई और समय होता तो मन कहता - यही तुम्हारा भी रास्ता है. तुम्हे भी खुद को मिटा देना है. जो रौशनी तुम्हे मिली है उसे लुटा देना है. पर कोई रौशनी मिली ही कहाँ है? और मन पहले ही संभल भी गया है, अब वह कहता है कि वो लेखक का सच है या किरदारों का पर तुम्हारा नहीं. तुम्हे अपना सच स्वयं ढूँढना है. अभी कुछ ही समय में तुम्हे भी घर से विदा लेनी है. अपनी आँखे वक़्त पर खोल लो कहीं ऐसा न हो कोई सपना धीरे धीरे टूट रहा हो और तुम उसके बिखरने से पहले अपना होश भी न संभाल पाओ. मुझे गेसू कि याद हमेशा आती रहेगी.

उपन्यास में मेरा सबसे प्रिय प्रसंग शायद वह है जब बर्टी अपने तोते को मार देता है. तीन गोलियां चलती हैं और तीसरी गोली से आखिर तोता मर ही जाता है. दरअसल यह सांकेतिक प्रसंग है. तीन गोलियां , सुधा, बिनती और प्रमीला है, और तोता चंदर. बर्टी इसके बाद दर्शन कि गूढ़ बातें करने लगता है पर वह जो उदाहरण देता है उससे इस संकेत का प्रमाण मिल जाता है -

" हर एक कि ज़िन्दगी का एक लक्ष्य होता है. और वह लक्ष्य होता है सत्य को , चरम सत्य को जान लेना. वह सत्य जान लेने के बाद आदमी अगर जिंदा रहता है तो उसकी यह असीम बेहयाई है. ... मसलन तुम अगर किसी औरत के पास जा रहे हो या किसी औरत कि पास से आ रहे हो और संभव है उसने तुम्हारी आत्मा कि हत्या कर डाली हो..."

... आत्मा कि हत्या... इससे सुधा का एक और उदबोधन याद आता है ,

" चंदर, मैं तुम्हारी आत्मा थी. तुम मेरे शरीर थे. पता नहीं हम लोग कैसे अलग हो गए. तुम्हारे बिना मैं सूक्ष्म आत्मा रह गयी. शरीर कि प्यास, रंगीनियाँ मेरे लिए अपरिचित हो गयी...और मेरे बिना तुम केवल शरीर रह गए. शरीर में डूब गए... पाप का जितना हिस्सा तुम्हारा उतना ही मेरा है.. पाप कि वैतरणी के इस किनारे जब तक तुम तडपुंगी,तभी तक मैं भी तडपुंगी ..."

देवता तो तुम रहे पर कुछ गुनाह तुमसे हो गए. पर भक्त को देवता का हर गुनाह क्षम्य होता है. वरना कौन राम को पूजता और कौन कृष्ण को. आज मुझे जाने क्यूँ वेन गोघ भी याद आ रहे हैं. अंतर्द्वंद्व भले ही जीवन में कितने भी हो और भिन्न हों सभी कि राहें अंत में एक सत्य के प्रकाश स्तम्भ तक जाती हैं. पता नहीं क्यूँ, उपन्यास खत्म होने पर भी इसके अधूरे होने का आभास सा लग रहा है , लग रहा है जैसे एक कहानी कहीं कोई अभी भी अधूरी है...

आगे पढ़ने के लिए गुनाहों का देवता-3 पर जाएँ


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख