"दादा साहब फाल्के" के अवतरणों में अंतर

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'''दादा साहब फाल्के''' ([[अंग्रेज़ी]]: Dadaaheb Phalke) भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के की सौंवीं जयंती के अवसर पर [[दादा साहब फाल्के पुरस्कार]] की स्थापना वर्ष [[1969]] में की गई थी। दादा साहब फाल्के पुरस्कार भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार है, जो आजीवन योगदान के लिए [[भारत]] की केंद्र सरकार की ओर से दिया जाता है।
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'''दादा साहब फाल्के''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Dada Saheb Phalke'', जन्म: [[30 अप्रैल]], [[1870]] - मृत्यु: [[16 फ़रवरी]], [[1944]]) प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक एवं पटकथा लेखक थे जो [[भारतीय सिनेमा]] के पितामह की तरह माने जाते हैं। दादा साहब फाल्के की सौंवीं जयंती के अवसर पर [[दादा साहब फाल्के पुरस्कार]] की स्थापना वर्ष [[1969]] में की गई थी। दादा साहब फाल्के पुरस्कार भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार है, जो आजीवन योगदान के लिए [[भारत]] की केंद्र सरकार की ओर से दिया जाता है।
==परिचय==
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==जीवन परिचय==
भारतीय फ़िल्म उद्योग के पितामह दादा साहब फालके का पूरा नाम 'धुन्दीराज गोविंद फाल्के' था किंतु वह दादा साहब फालके के नाम से प्रसिद्ध हैं। दादा साहब फाल्के का जन्म [[30 अप्रैल]], [[1870]] को [[नासिक]] के निकट 'त्र्यंबकेश्वर' में हुआ था। उनके पिता [[संस्कृत]] के प्रकाण्ड पंडित और [[मुम्बई]] के 'एलफिंस्टन कॉलेज' के अध्यापक थे। अत: इनकी शिक्षा मुम्बई में ही हुई। वहाँ उन्होंने 'हाई स्कूल' के बाद 'जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट' में कला की शिक्षा ग्रहण की। फिर [[बड़ौदा]] के कलाभवन में रहकर अपनी कला का ज्ञान बढ़ाया।
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भारतीय फ़िल्म उद्योग के पितामह दादा साहब फालके का पूरा नाम 'धुन्दीराज गोविंद फाल्के' था किंतु वह दादा साहब फालके के नाम से प्रसिद्ध हैं। दादा साहब फाल्के का जन्म [[30 अप्रैल]], [[1870]] को [[नासिक]] के निकट '[[त्र्यंबकेश्वर]]' में हुआ था। उनके पिता [[संस्कृत]] के प्रकाण्ड पंडित और [[मुम्बई]] के 'एलफिंस्टन कॉलेज' के अध्यापक थे। अत: इनकी शिक्षा मुम्बई में ही हुई। वहाँ उन्होंने 'हाई स्कूल' के बाद 'जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट' में कला की शिक्षा ग्रहण की। फिर [[बड़ौदा]] के कलाभवन में रहकर अपनी कला का ज्ञान बढ़ाया।[[चित्र:Dadasaheb-Phalke.jpg|thumb|left|दादा साहेब फाल्के के सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]]]
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==कार्यक्षेत्र==
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कुछ समय तक [[भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग]] में काम करने के बाद उन्होंने अपना प्रिटिंग प्रेस खोला। प्रेस के लिए नई मशीनें ख़रीदने के लिए वे [[जर्मनी]] भी गए। उन्होंने एक 'मासिक पत्रिका' का भी प्रकाशन किया। परन्तु इस सबसे दादा साहब फालके को सन्तोष नहीं हुआ। सन् [[1911]] की बात है। दादा साहब को मुम्बई में [[ईसा मसीह]] के जीवन पर बनी एक फ़िल्म देखने का मौक़ा मिला। वह मूक फ़िल्मों का ज़माना था। दादा साहब ने फ़िल्म को देखकर सोचा कि ऐसी फ़िल्में हमें अपने देश के महापुरुषों के जीवन पर भी बनानी चाहिए। यहीं से उनके जीवन की धारा बदल गई। आरम्भिक प्रयोग करने के बाद वे [[लंदन]] गए और वहाँ पर दो [[महीने]] रहकर सिनेमा की तकनीक समझी और फ़िल्म निर्माण का सामान लेकर [[भारत]] लौटे। तत्पश्चात् [[1912]] में ‘दादर’ (मुम्बई) में ‘फालके फ़िल्म’ नाम से अपनी फ़िल्म कम्पनी आरम्भ की।
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धुन्दीराज गोविंद फाल्के (दादा साहब फाल्के) ने फ़िल्म निर्माण, निर्देशन, पटकथा लेखन आदि विविध क्षेत्रों में भारतीय सिनेमा को अपना योगदान दिया था। उन्हें भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाता है। दादा साहेब फाल्के ने [[3 मई]] [[1913]] को [[बंबई]] के 'कोरोनेशन थिएटर' में '[[राजा हरिश्चंद्र]]' नामक अपनी पहली मूक फ़िल्म दर्शकों को दिखाई थी। दादा साहब फाल्के ने [[1913]] में पहली मूक फ़िल्म बनाई थी। 20 वर्षों में उन्होंने कुल 95 फ़िल्में और 26 लघु फ़िल्में बनाई। दादा साहेब फाल्के के फ़िल्म निर्माण की ख़ास बात यह है कि उन्होंने अपनी फ़िल्में बंबई के बजाय नासिक में बनाई। वर्ष 1913 में उनकी फ़िल्म 'भस्मासुर मोहिनी' में पहली बार महिलाओं, दुर्गा गोखले और कमला गोखले, ने महिला किरदार निभाया। इससे पहले पुरुष ही महिला किरदार निभाते थे। [[1917]] तक वे 23 फ़िल्में बना चुके थे। उनकी इस सफलता से कुछ व्यवसायी इस उद्योग की ओर आकृष्ट हुए और दादा साहब की साझेदारी में ‘हिन्दुस्तान सिनेमा कम्पनी’ की स्थापना हुई। दादा साहब ने कुल 125 फ़िल्मों का निर्माण किया। जिसमें से तीन-चौथाई उन्हीं की लिखी और निर्देशित थीं। दादा साहेब की अंतिम मूक फ़िल्म 'सेतुबंधन' [[1932]] थी, जिसे बाद में डब करके आवाज़ दी गई। उस समय डब करना भी एक शुरुआती प्रयोग था। दादा साहब ने जो एकमात्र बोलती फ़िल्म बनाई उसका नाम 'गंगावतरण' है।
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==प्रमुख फ़िल्में==
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*  [[राजा हरिश्चंद्र]] (1913)
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* सावित्री सत्यवान (1914)
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* लंका दहन (1917)
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* कालिया मर्दन (1919)
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* सेतु बंधन (1932)
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कुछ समय तक [[भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग]] में काम करने के बाद उन्होंने अपना प्रिटिंग प्रेस खोला। प्रेस के लिए नई मशीनें ख़रीदने के लिए वे [[जर्मनी]] भी गए। उन्होंने एक 'मासिक पत्रिका' का भी प्रकाशन किया। परन्तु इस सबसे दादा साहब फालके को सन्तोष नहीं हुआ।
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==फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र'==
1911 की बात है। दादा साहब को मुम्बई में [[ईसा मसीह]] के जीवन पर बनी एक फ़िल्म देखने का मौक़ा मिला। वह मूक फ़िल्मों का ज़माना था। दादा साहब ने फ़िल्म को देखकर सोचा कि ऐसी फ़िल्में हमें अपने देश के महापुरुषों के जीवन पर भी बनानी चाहिए। यहीं से उनके जीवन की धारा बदल गई। आरम्भिक प्रयोग करने के बाद वे [[लंदन]] गए और वहाँ पर दो महिने रहकर सिनेमा की तकनीक समझी और फ़िल्म निर्माण का सामान लेकर [[भारत]] लौटे। तत्पश्चात् 1912 में ‘दादर’ (मुम्बई) में ‘'''फालके फ़िल्म'''’ नाम से अपनी फ़िल्म कम्पनी आरम्भ की।
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भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फालके ने जब [[भारत]] की पहली फीचर फ़िल्म बनाने के लिए तैयारी की, तो फ़िल्म की नायिका उनके लिए गंभीर समस्या बन गई। सन् 1913 में बनी फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र' में 'तारामती' की विशेष भूमिका थी। फालके की इच्छा थी कि नायिका की भूमिका कोई युवती ही करे। इसके लिए पहले उन्होंने नाटक मंडली से जुड़ी अभिनेत्रियों से बात की, लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि कोई कैमरे के सामने आने को तैयार नहीं हुई। यहां तक कि दादा साहब ने हीरोइन की खोज के लिए इश्तहार भी बंटवाए, लेकिन उसका भी कोई फ़ायदा नहीं मिला। जब तारामती की भूमिका के लिए अंतत: कोई कलाकार नहीं मिला, तो विवश हो फालके कोठे वालियों के पास पहुंचे। उनसे हीरोइन बनने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने भी टका-सा जवाब दे दिया। हारकर दादा साहब ने फैसला किया कि किसी पुरुष से ही तारामती की भूमिका कराई जाए और उसी पल से कलाकार की तलाश शुरू हो गई। तभी एक दिन उन्हें एक ईरानी के रेस्तरां में एक रसोइया नजर आया। दादा ने रसोइया से बात की। कहने-सुनने के बाद वह काम करने के लिए तैयार हो गया, लेकिन दादा फालके की मुसीबत अभी खत्म नहीं हुई थी। दरअसल, रिहर्सल के बाद जब शूटिंग का समय आया, तो निर्माता निर्देशक फालके ने रसोइये से कहा - 'कल से शूटिंग करेंगे, तुम अपनी मूंछें साफ़ कराके आना।' दादा की यह बात सुनकर रसोइया, जो हीरोइन का रोल करने वाला था, चौंक गया। उन्होंने जवाब दिया - 'मैं मूंछें कैसे साफ़ करा सकता हूं! मूंछें तो मर्द-मराठा की शान हैं!' रसोइये की बातें सुनकर दादा फालके ने समझाया, भला मूंछ वाली तारामती कैसे हो सकती है? वह तो नारी है और नारी की कोई मूंछ नहीं होती। फिर मूंछ का क्या है, शूटिंग पूरी होते ही रख लेना! काफ़ी समझाने के बाद रसोइया मूंछ साफ़ कराने के लिए तैयार हुआ। वह रसोइया, जो [[भारत]] की पहली 'फीचर फ़िल्म' की पहली हीरोइन बन रहा था, उसका नाम 'सालुंके' था।<ref>{{cite web |url=http://in.jagran.yahoo.com/cinemaaza/cinema/memories/201_201_8312.html|title=जब फालके को हीरोइन नहीं मिली|accessmonthday=2मई|accessyear=2011|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
[[महाराष्ट्र]] के [[नासिक]] ज़िले में जन्में धुन्दीराज गोविंद फाल्के (दादा साहब फाल्के) ने फ़िल्म निर्माण, निर्देशन, पटकथा लेखन आदि विविध क्षेत्रों में भारतीय सिनेमा को अपना योगदान दिया था। उन्हें भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाता है। दादा साहेब फाल्के ने [[3 मई]] [[1913]] को [[बंबई]] के 'कोरोनेशन थिएटर' में 'राजा हरिश्चंद्र' नामक अपनी पहली मूक फ़िल्म दर्शकों को दिखाई थी।
 
 
 
==पहली मूक फ़िल्म==
 
दादा साहब फाल्के ने [[1913]] में पहली मूक फ़िल्म बनाई थी। 20 वर्षों में उन्होंने कुल 95 फ़िल्में और 26 लघु फ़िल्में बनाई। दादा साहेब फाल्के के फ़िल्म निर्माण की ख़ास बात यह है कि उन्होंने अपनी फ़िल्में बंबई के बजाय नासिक में बनाई। वर्ष 1913 में उनकी फ़िल्म 'भस्मासुर मोहिनी' में पहली बार महिलाओं, दुर्गा गोखले और कमला गोखले, ने महिला किरदार निभाया। इससे पहले पुरुष ही महिला किरदार निभाते थे।
 
1917 तक वे 23 फ़िल्में बना चुके थे। उनकी इस सफलता से कुछ व्यवसायी इस उद्योग की ओर आकृष्ट हुए और दादा साहब की साझेदारी में ‘हिन्दुस्तान सिनेमा कम्पनी’ की स्थापना हुई। दादा साहब ने कुल 125 फ़िल्मों का निर्माण किया। जिसमें से तीन-चौथाई उन्हीं की लिखी और निर्देशित थीं। दादा साहेब की अंतिम मूक फ़िल्म 'सेतुबंधन' [[1932]] थी, जिसे बाद में डब करके आवाज़ दी गई। उस समय डब करना भी एक शुरुआती प्रयोग था। दादा साहब ने जो एकमात्र बोलती फ़िल्म बनाई उसका नाम 'गंगावतरण' है।
 
==प्रथम पुरस्कार==
 
[[चित्र:Dadasaheb-Phalke.jpg|thumb|दादा साहेब फाल्के के सम्मान में जारी डाक टिकट]]
 
वर्ष 1969 में पहला पुरस्कार [[देविका रानी]] को दिया गया था। अब तक 41 लोगों को इससे सम्मानित किया जा चुका है।
 
 
 
==फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र==
 
भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फालके ने जब भारत की पहली फीचर फ़िल्म बनाने के लिए तैयारी की, तो फ़िल्म की नायिका उनके लिए गंभीर समस्या बन गई। सन् 1913 में बनी फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र' में 'तारामती' की विशेष भूमिका थी। फालके की इच्छा थी कि नायिका की भूमिका कोई युवती ही करे। इसके लिए पहले उन्होंने नाटक मंडली से जुड़ी अभिनेत्रियों से बात की, लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि कोई कैमरे के सामने आने को तैयार नहीं हुई। यहां तक कि दादा साहब ने हीरोइन की खोज के लिए इश्तहार भी बंटवाए, लेकिन उसका भी कोई फ़ायदा नहीं मिला। जब तारामती की भूमिका के लिए अंतत: कोई कलाकार नहीं मिला, तो विवश हो फालके कोठे वालियों के पास पहुंचे। उनसे हीरोइन बनने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने भी टका-सा जवाब दे दिया।  
 
 
 
हारकर दादा साहब ने फैसला किया कि किसी पुरुष से ही तारामती की भूमिका कराई जाए। और उसी पल से कलाकार की तलाश शुरू हो गई। तभी एक दिन उन्हें एक ईरानी के रेस्तरां में एक रसोइया नजर आया। दादा ने रसोइया से बात की। कहने-सुनने के बाद वह काम करने के लिए तैयार हो गया, लेकिन दादा फालके की मुसीबत अभी खत्म नहीं हुई थी। दरअसल, रिहर्सल के बाद जब शूटिंग का समय आया, तो निर्माता निर्देशक फालके ने रसोइये से कहा - 'कल से शूटिंग करेंगे, तुम अपनी मूंछें साफ़ कराके आना।'
 
 
 
दादा की यह बात सुनकर रसोइया, जो हीरोइन का रोल करने वाला था, चौंक गया। उन्होंने जवाब दिया - 'मैं मूंछें कैसे साफ़ करा सकता हूं! मूंछें तो मर्द-मराठा की शान हैं!' रसोइये की बातें सुनकर दादा फालके ने समझाया, भला मूंछ वाली तारामती कैसे हो सकती है? वह तो नारी है और नारी की कोई मूंछ नहीं होती। फिर मूंछ का क्या है, शूटिंग पूरी होते ही रख लेना! काफ़ी समझाने के बाद रसोइया मूंछ साफ़ कराने के लिए तैयार हुआ। वह रसोइया, जो [[भारत]] की पहली 'फीचर फ़िल्म' की पहली हीरोइन बन रहा था, का नाम था '''सालुंके'''।<ref>{{cite web |url=http://in.jagran.yahoo.com/cinemaaza/cinema/memories/201_201_8312.html|title=जब फालके को हीरोइन नहीं मिली|accessmonthday=2मई|accessyear=2011|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
 
 
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06:50, 16 फ़रवरी 2013 का अवतरण

दादा साहब फाल्के
दादा साहब फाल्के
पूरा नाम धुन्दीराज गोविंद फाल्के
प्रसिद्ध नाम दादा साहब फाल्के
जन्म 30 अप्रैल, 1870
जन्म भूमि नासिक, महाराष्ट्र
मृत्यु 16 फ़रवरी, 1944 (उम्र- 73)
कर्म भूमि मुम्बई
कर्म-क्षेत्र फ़िल्म निर्माता-निर्देशक, पटकथा लेखक
मुख्य फ़िल्में राजा हरिश्चंद्र, लंका दहन, श्री कृष्ण जन्म, गंगावतरण, मोहिनी भस्मासुर
विद्यालय जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट, मुम्बई

दादा साहब फाल्के (अंग्रेज़ी: Dada Saheb Phalke, जन्म: 30 अप्रैल, 1870 - मृत्यु: 16 फ़रवरी, 1944) प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक एवं पटकथा लेखक थे जो भारतीय सिनेमा के पितामह की तरह माने जाते हैं। दादा साहब फाल्के की सौंवीं जयंती के अवसर पर दादा साहब फाल्के पुरस्कार की स्थापना वर्ष 1969 में की गई थी। दादा साहब फाल्के पुरस्कार भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार है, जो आजीवन योगदान के लिए भारत की केंद्र सरकार की ओर से दिया जाता है।

जीवन परिचय

भारतीय फ़िल्म उद्योग के पितामह दादा साहब फालके का पूरा नाम 'धुन्दीराज गोविंद फाल्के' था किंतु वह दादा साहब फालके के नाम से प्रसिद्ध हैं। दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल, 1870 को नासिक के निकट 'त्र्यंबकेश्वर' में हुआ था। उनके पिता संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित और मुम्बई के 'एलफिंस्टन कॉलेज' के अध्यापक थे। अत: इनकी शिक्षा मुम्बई में ही हुई। वहाँ उन्होंने 'हाई स्कूल' के बाद 'जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट' में कला की शिक्षा ग्रहण की। फिर बड़ौदा के कलाभवन में रहकर अपनी कला का ज्ञान बढ़ाया।

दादा साहेब फाल्के के सम्मान में जारी डाक टिकट

कार्यक्षेत्र

कुछ समय तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में काम करने के बाद उन्होंने अपना प्रिटिंग प्रेस खोला। प्रेस के लिए नई मशीनें ख़रीदने के लिए वे जर्मनी भी गए। उन्होंने एक 'मासिक पत्रिका' का भी प्रकाशन किया। परन्तु इस सबसे दादा साहब फालके को सन्तोष नहीं हुआ। सन् 1911 की बात है। दादा साहब को मुम्बई में ईसा मसीह के जीवन पर बनी एक फ़िल्म देखने का मौक़ा मिला। वह मूक फ़िल्मों का ज़माना था। दादा साहब ने फ़िल्म को देखकर सोचा कि ऐसी फ़िल्में हमें अपने देश के महापुरुषों के जीवन पर भी बनानी चाहिए। यहीं से उनके जीवन की धारा बदल गई। आरम्भिक प्रयोग करने के बाद वे लंदन गए और वहाँ पर दो महीने रहकर सिनेमा की तकनीक समझी और फ़िल्म निर्माण का सामान लेकर भारत लौटे। तत्पश्चात् 1912 में ‘दादर’ (मुम्बई) में ‘फालके फ़िल्म’ नाम से अपनी फ़िल्म कम्पनी आरम्भ की।

फ़िल्मी कॅरियर

धुन्दीराज गोविंद फाल्के (दादा साहब फाल्के) ने फ़िल्म निर्माण, निर्देशन, पटकथा लेखन आदि विविध क्षेत्रों में भारतीय सिनेमा को अपना योगदान दिया था। उन्हें भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाता है। दादा साहेब फाल्के ने 3 मई 1913 को बंबई के 'कोरोनेशन थिएटर' में 'राजा हरिश्चंद्र' नामक अपनी पहली मूक फ़िल्म दर्शकों को दिखाई थी। दादा साहब फाल्के ने 1913 में पहली मूक फ़िल्म बनाई थी। 20 वर्षों में उन्होंने कुल 95 फ़िल्में और 26 लघु फ़िल्में बनाई। दादा साहेब फाल्के के फ़िल्म निर्माण की ख़ास बात यह है कि उन्होंने अपनी फ़िल्में बंबई के बजाय नासिक में बनाई। वर्ष 1913 में उनकी फ़िल्म 'भस्मासुर मोहिनी' में पहली बार महिलाओं, दुर्गा गोखले और कमला गोखले, ने महिला किरदार निभाया। इससे पहले पुरुष ही महिला किरदार निभाते थे। 1917 तक वे 23 फ़िल्में बना चुके थे। उनकी इस सफलता से कुछ व्यवसायी इस उद्योग की ओर आकृष्ट हुए और दादा साहब की साझेदारी में ‘हिन्दुस्तान सिनेमा कम्पनी’ की स्थापना हुई। दादा साहब ने कुल 125 फ़िल्मों का निर्माण किया। जिसमें से तीन-चौथाई उन्हीं की लिखी और निर्देशित थीं। दादा साहेब की अंतिम मूक फ़िल्म 'सेतुबंधन' 1932 थी, जिसे बाद में डब करके आवाज़ दी गई। उस समय डब करना भी एक शुरुआती प्रयोग था। दादा साहब ने जो एकमात्र बोलती फ़िल्म बनाई उसका नाम 'गंगावतरण' है।

प्रमुख फ़िल्में

  • राजा हरिश्चंद्र (1913)
  • मोहिनी भस्मासुर (1913)
  • सावित्री सत्यवान (1914)
  • लंका दहन (1917)
  • श्री कृष्ण जन्म (1918)
  • कालिया मर्दन (1919)
  • सेतु बंधन (1932)
  • गंगावतरण (1937)

फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र'

फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र का एक दृश्य

भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फालके ने जब भारत की पहली फीचर फ़िल्म बनाने के लिए तैयारी की, तो फ़िल्म की नायिका उनके लिए गंभीर समस्या बन गई। सन् 1913 में बनी फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र' में 'तारामती' की विशेष भूमिका थी। फालके की इच्छा थी कि नायिका की भूमिका कोई युवती ही करे। इसके लिए पहले उन्होंने नाटक मंडली से जुड़ी अभिनेत्रियों से बात की, लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि कोई कैमरे के सामने आने को तैयार नहीं हुई। यहां तक कि दादा साहब ने हीरोइन की खोज के लिए इश्तहार भी बंटवाए, लेकिन उसका भी कोई फ़ायदा नहीं मिला। जब तारामती की भूमिका के लिए अंतत: कोई कलाकार नहीं मिला, तो विवश हो फालके कोठे वालियों के पास पहुंचे। उनसे हीरोइन बनने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने भी टका-सा जवाब दे दिया। हारकर दादा साहब ने फैसला किया कि किसी पुरुष से ही तारामती की भूमिका कराई जाए और उसी पल से कलाकार की तलाश शुरू हो गई। तभी एक दिन उन्हें एक ईरानी के रेस्तरां में एक रसोइया नजर आया। दादा ने रसोइया से बात की। कहने-सुनने के बाद वह काम करने के लिए तैयार हो गया, लेकिन दादा फालके की मुसीबत अभी खत्म नहीं हुई थी। दरअसल, रिहर्सल के बाद जब शूटिंग का समय आया, तो निर्माता निर्देशक फालके ने रसोइये से कहा - 'कल से शूटिंग करेंगे, तुम अपनी मूंछें साफ़ कराके आना।' दादा की यह बात सुनकर रसोइया, जो हीरोइन का रोल करने वाला था, चौंक गया। उन्होंने जवाब दिया - 'मैं मूंछें कैसे साफ़ करा सकता हूं! मूंछें तो मर्द-मराठा की शान हैं!' रसोइये की बातें सुनकर दादा फालके ने समझाया, भला मूंछ वाली तारामती कैसे हो सकती है? वह तो नारी है और नारी की कोई मूंछ नहीं होती। फिर मूंछ का क्या है, शूटिंग पूरी होते ही रख लेना! काफ़ी समझाने के बाद रसोइया मूंछ साफ़ कराने के लिए तैयार हुआ। वह रसोइया, जो भारत की पहली 'फीचर फ़िल्म' की पहली हीरोइन बन रहा था, उसका नाम 'सालुंके' था।[1]

निधन

16 फ़रवरी, 1944 को नासिक में 'दादा साहब फालके' का निधन हुआ। उनकी स्मृति में 'भारतीय सिनेमा जगत' का दादा साहब फालके पुरस्कार प्रतिवर्ष दिया जाता है।


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जब फालके को हीरोइन नहीं मिली (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2मई, 2011।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख