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([[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]]: Haemorrhage) रक्तस्राव शब्द का अर्थ है रुधिर वाहिकाओं से रक्त का बाहर निकलना। जब तक रुधिर वाहिकाओं में दरार, या छिद्र न हो, तब तक रक्तस्राव का होना संभव नहीं है। चोट या रोग के कारण ही रुधिरवाहिकाओं में दरार या छिद्र होते हैं। चोट लगने पर तत्काल रक्तस्राव होना '''प्राथमिक रक्तस्राव''' कहलाता है और चोट लगने के कुछ काल पश्चात्‌ रक्तस्राव होना '''गौण रक्तस्राव''' कहलाता है। यदि रक्त धमनी से बाहर निकलता है, तो यह '''धमनीय रक्तस्राव''' कहलाता है। इस रक्तस्राव का रंग चमकीला लाल होता है और यह हृदय के स्पंदन के समकालिक होता है। शिरा से बाहर निकलने वाले [[रक्त]] का रंग कालिमा लिए लाल होता है और घाव से बहता है। केशिका से स्रावित होने वाले रक्तस्राव का रंग उपर्युक्त दोनों स्रावों के रंग के बीच का होता है और त्वचा पर केवल छोटा सा लाल धब्बा पड़ जाता है। वमन, मूत्र तथा थूक में मिला हुआ रक्त निकल सकता है, या नाक से नक्सीर फूटने के कारण रक्तस्राव होता है। [[आमाशय]] या पक्वाशय में व्राण हो जाने पर रक्तस्राव होने लगता है। स्वयं रुधिरवाहिकाओं के रुग्ण होने पर एवं [[रक्तचाप|उच्च रक्तचाप]] के कारण धमनियों में दरार पड़ जाती है और रक्तस्राव होने लगता है। मस्तिष्क के ऊतकों से रक्तस्राव होने पर [[रक्तमूर्च्छा]] हो जाती है।
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([[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]]: Haemorrhage) रक्तस्राव शब्द का अर्थ है रुधिर वाहिकाओं से रक्त का बाहर निकलना। जब तक रुधिर वाहिकाओं में दरार, या छिद्र न हो, तब तक रक्तस्राव का होना संभव नहीं है। चोट या रोग के कारण ही रुधिरवाहिकाओं में दरार या छिद्र होते हैं। चोट लगने पर तत्काल रक्तस्राव होना '''प्राथमिक रक्तस्राव''' कहलाता है और चोट लगने के कुछ काल पश्चात्‌ रक्तस्राव होना '''गौण रक्तस्राव''' कहलाता है। यदि रक्त धमनी से बाहर निकलता है, तो यह '''धमनीय रक्तस्राव''' कहलाता है। इस रक्तस्राव का रंग चमकीला लाल होता है और यह हृदय के स्पंदन के समकालिक होता है। शिरा से बाहर निकलने वाले [[रक्त]] का रंग कालिमा लिए लाल होता है और घाव से बहता है। केशिका से स्रावित होने वाले रक्तस्राव का रंग उपर्युक्त दोनों स्रावों के रंग के बीच का होता है और त्वचा पर केवल छोटा सा लाल धब्बा पड़ जाता है। वमन, मूत्र तथा थूक में मिला हुआ रक्त निकल सकता है, या नाक से नक्सीर फूटने के कारण रक्तस्राव होता है। [[आमाशय]] या पक्वाशय में व्राण हो जाने पर रक्तस्राव होने लगता है। स्वयं रुधिरवाहिकाओं के रुग्ण होने पर एवं [[रक्तचाप|उच्च रक्तचाप]] के कारण धमनियों में दरार पड़ जाती है और रक्तस्राव होने लगता है। [[मस्तिष्क]] के ऊतकों से रक्तस्राव होने पर [[रक्तमूर्च्छा]] हो जाती है।
 
==प्राकृतिक क्षमता==
 
==प्राकृतिक क्षमता==
 
स्वस्थ व्यक्तियों में रक्तस्राव रोकने की प्राकृतिक क्षमता होती है। यदि ऐसा न हो तो त्वचा के कट जाने, अथवा छिल जाने, पर घातक रक्तस्राव होने लगता है। जिन व्यक्तियों में रक्तस्राव को रोकने की प्राकृतिक क्षमता नहीं होती वे पैतृक रक्तस्राव से पीड़ित रहते हैं।<ref>देखें पैतृक रक्तस्राव</ref>
 
स्वस्थ व्यक्तियों में रक्तस्राव रोकने की प्राकृतिक क्षमता होती है। यदि ऐसा न हो तो त्वचा के कट जाने, अथवा छिल जाने, पर घातक रक्तस्राव होने लगता है। जिन व्यक्तियों में रक्तस्राव को रोकने की प्राकृतिक क्षमता नहीं होती वे पैतृक रक्तस्राव से पीड़ित रहते हैं।<ref>देखें पैतृक रक्तस्राव</ref>
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रक्तस्राव की गति और परिमाण पर ही रक्तस्राव से होने वाली हानि निर्भर रहती है। मंद गति से अधिक समय तक होने वाले रक्तस्राव के कारण [[रक्तक्षीणता]] नामक रोग हो जाता है। एकाएक अधिक परिमाण में होने वाला रक्तस्राव घातक होता है और उचित चिकित्सा के अभाव में मृत्यु हो जाती है।
 
रक्तस्राव की गति और परिमाण पर ही रक्तस्राव से होने वाली हानि निर्भर रहती है। मंद गति से अधिक समय तक होने वाले रक्तस्राव के कारण [[रक्तक्षीणता]] नामक रोग हो जाता है। एकाएक अधिक परिमाण में होने वाला रक्तस्राव घातक होता है और उचित चिकित्सा के अभाव में मृत्यु हो जाती है।
 
==विशेष चिकित्सा==
 
==विशेष चिकित्सा==
त्वचा के मामूली छिल जाने, या कट जाने अथवा नक्सीर फूट जाने, पर विशेष चिकित्सा की आवश्यकता नहीं होती, पर अन्य प्रकार के रक्तस्रावों के लिए विशेष चिकित्सा की आवश्यकता होती है। रक्तस्राव को रोकने के मुख्य सिद्धांत हैं-  
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[[त्वचा]] के मामूली छिल जाने, या कट जाने अथवा नक्सीर फूट जाने पर विशेष चिकित्सा की आवश्यकता नहीं होती, पर अन्य प्रकार के रक्तस्रावों के लिए विशेष चिकित्सा की आवश्यकता होती है। रक्तस्राव को रोकने के मुख्य सिद्धांत हैं-  
#रक्तस्राव को रोकने का प्रयास करना,
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*रक्तस्राव को रोकने का प्रयास करना  
#रक्त के परिमाण को रुधिराधान द्वारा सामान्य बनाना तथा रोगी को शांत, सुखद एवं विश्वासपूर्ण स्थिति में रखना।  
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*रक्त के परिमाण को रुधिराधान द्वारा सामान्य बनाना तथा रोगी को शांत, सुखद एवं विश्वासपूर्ण स्थिति में रखना।  
जब अधिक रक्तस्राव हो रहा हो तो उस समय रोगी को बिना तकिया के चित लेटना चाहिए तथा रोगी को गरम रखना चाहिए। यदि रोगी को रक्त वमन न हो रहा हो, तो उसे दूध पिलाना चाहिए। रक्तस्राव वाले स्थान पर सीधे दबाव डालकर रक्त बंद किया जाता है। धमनीय रक्तस्रावों को रोकने के लिए रक्तबंध का उपयोग किया जाता है। शल्यकर्म के समय रक्तवाहिकाओं को बाँधकर रक्तस्राव रोकते हैं, या ऐसे अभिकर्मकों का उपयोग करते हैं जो रक्त का गाढ़ा करते हैं। शिरीय एवं केशिकीय रक्तस्राव को रोकना सहज कार्य है किंतु धमनीय रक्तस्राव को रोकने में कठिनाई होती है। धमनीय रक्तस्राव रोकने के लिए तत्काल डॉक्टर द्वारा उपचार कराना चाहिए, अन्यथा विलंब के कारण अधिक रक्तस्राव हो जाने पर रोगी के मर जाने का भय रहता है।
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(अंग्रेज़ी: Haemorrhage) रक्तस्राव शब्द का अर्थ है रुधिर वाहिकाओं से रक्त का बाहर निकलना। जब तक रुधिर वाहिकाओं में दरार, या छिद्र न हो, तब तक रक्तस्राव का होना संभव नहीं है। चोट या रोग के कारण ही रुधिरवाहिकाओं में दरार या छिद्र होते हैं। चोट लगने पर तत्काल रक्तस्राव होना प्राथमिक रक्तस्राव कहलाता है और चोट लगने के कुछ काल पश्चात्‌ रक्तस्राव होना गौण रक्तस्राव कहलाता है। यदि रक्त धमनी से बाहर निकलता है, तो यह धमनीय रक्तस्राव कहलाता है। इस रक्तस्राव का रंग चमकीला लाल होता है और यह हृदय के स्पंदन के समकालिक होता है। शिरा से बाहर निकलने वाले रक्त का रंग कालिमा लिए लाल होता है और घाव से बहता है। केशिका से स्रावित होने वाले रक्तस्राव का रंग उपर्युक्त दोनों स्रावों के रंग के बीच का होता है और त्वचा पर केवल छोटा सा लाल धब्बा पड़ जाता है। वमन, मूत्र तथा थूक में मिला हुआ रक्त निकल सकता है, या नाक से नक्सीर फूटने के कारण रक्तस्राव होता है। आमाशय या पक्वाशय में व्राण हो जाने पर रक्तस्राव होने लगता है। स्वयं रुधिरवाहिकाओं के रुग्ण होने पर एवं उच्च रक्तचाप के कारण धमनियों में दरार पड़ जाती है और रक्तस्राव होने लगता है। मस्तिष्क के ऊतकों से रक्तस्राव होने पर रक्तमूर्च्छा हो जाती है।

प्राकृतिक क्षमता

स्वस्थ व्यक्तियों में रक्तस्राव रोकने की प्राकृतिक क्षमता होती है। यदि ऐसा न हो तो त्वचा के कट जाने, अथवा छिल जाने, पर घातक रक्तस्राव होने लगता है। जिन व्यक्तियों में रक्तस्राव को रोकने की प्राकृतिक क्षमता नहीं होती वे पैतृक रक्तस्राव से पीड़ित रहते हैं।[1]

हानि

रक्तस्राव की गति और परिमाण पर ही रक्तस्राव से होने वाली हानि निर्भर रहती है। मंद गति से अधिक समय तक होने वाले रक्तस्राव के कारण रक्तक्षीणता नामक रोग हो जाता है। एकाएक अधिक परिमाण में होने वाला रक्तस्राव घातक होता है और उचित चिकित्सा के अभाव में मृत्यु हो जाती है।

विशेष चिकित्सा

त्वचा के मामूली छिल जाने, या कट जाने अथवा नक्सीर फूट जाने पर विशेष चिकित्सा की आवश्यकता नहीं होती, पर अन्य प्रकार के रक्तस्रावों के लिए विशेष चिकित्सा की आवश्यकता होती है। रक्तस्राव को रोकने के मुख्य सिद्धांत हैं-

  • रक्तस्राव को रोकने का प्रयास करना
  • रक्त के परिमाण को रुधिराधान द्वारा सामान्य बनाना तथा रोगी को शांत, सुखद एवं विश्वासपूर्ण स्थिति में रखना।

सावधानियाँ

  • जब अधिक रक्तस्राव हो रहा हो तो उस समय रोगी को बिना तकिया के चित लेटना चाहिए तथा रोगी को गरम रखना चाहिए।
  • यदि रोगी को रक्त वमन न हो रहा हो, तो उसे दूध पिलाना चाहिए।
  • रक्तस्राव वाले स्थान पर सीधे दबाव डालकर रक्त बंद किया जाता है।
  • धमनीय रक्तस्रावों को रोकने के लिए रक्तबंध का उपयोग किया जाता है।
  • शल्यकर्म के समय रक्तवाहिकाओं को बाँधकर रक्तस्राव रोकते हैं, या ऐसे अभिकर्मकों का उपयोग करते हैं जो रक्त का गाढ़ा करते हैं।
  • शिरीय एवं केशिकीय रक्तस्राव को रोकना सहज कार्य है किंतु धमनीय रक्तस्राव को रोकने में कठिनाई होती है।
  • धमनीय रक्तस्राव रोकने के लिए तत्काल डॉक्टर द्वारा उपचार कराना चाहिए, अन्यथा विलम्ब के कारण अधिक रक्तस्राव हो जाने पर रोगी के मर जाने का भय रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

हिन्दी विश्व कोश (खण्ड 10) पेज न., अजित नारायण मेहरोत्रा

  1. देखें पैतृक रक्तस्राव

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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