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[[चित्र:Saraswati-Devi.jpg|thumb|[[सरस्वती देवी]]]]
 
<blockquote><span style="color: maroon"><poem>जनक जननि पद्मरज, निज मस्तक पर धरि।
 
<blockquote><span style="color: maroon"><poem>जनक जननि पद्मरज, निज मस्तक पर धरि।
 
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥
 
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥
 
 
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु।
 
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु।
 
दुष्टजनों के पाप को, मातु तु ही अब हन्तु॥
 
दुष्टजनों के पाप को, मातु तु ही अब हन्तु॥
 
+
जय श्री सकल बुद्धि बलरासी। जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी॥
जय श्री सकल बुद्धि बलरासी।
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जय जय जय वीणाकर धारी। करती सदा सुहंस सवारी॥
जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी॥
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रूप चतुर्भुज धारी माता। सकल विश्व अन्दर विख्याता॥
 
+
जग में पाप बुद्धि जब होती। तब ही धर्म की फीकी ज्योति॥
जय जय जय वीणाकर धारी।
+
तब ही मातु का निज अवतारी। पाप हीन करती महतारी॥
करती सदा सुहंस सवारी॥
+
वाल्मीकिजी थे हत्यारा। तव प्रसाद जानै संसारा॥
 
+
रामचरित जो रचे बनाई। आदि कवि की पदवी पाई॥
रूप चतुर्भुज धारी माता।
+
कालिदास जो भये विख्याता। तेरी कृपा दृष्टि से माता॥
सकल विश्व अन्दर विख्याता॥
+
तुलसी सूर आदि विद्वाना। भये और जो ज्ञानी नाना॥
 
+
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा। केवल कृपा आपकी अम्बा॥
जग में पाप बुद्धि जब होती।
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करहु कृपा सोइ मातु भवानी। दुखित दीन निज दासहि जानी॥
तब ही धर्म की फीकी ज्योति॥
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पुत्र करहिं अपराध बहूता। तेहि न धरई चित माता॥
 
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राखु लाज जननि अब मेरी। विनय करउं भांति बहु तेरी॥
तब ही मातु का निज अवतारी।
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मैं अनाथ तेरी अवलंबा। कृपा करउ जय जय जगदंबा॥
पाप हीन करती महतारी॥
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मधु-कैटभ जो अति बलवाना। बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना॥
 
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समर हज़ार पाँच में घोरा। फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा॥
वाल्मीकिजी थे हत्यारा।
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मातु सहाय कीन्ह तेहि काला। बुद्धि विपरीत भई खलहाला॥
तव प्रसाद जानै संसारा॥
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तेहि ते मृत्यु भई खल केरी। पुरवहु मातु मनोरथ मेरी॥
 
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चंड मुण्ड जो थे विख्याता। क्षण महु संहारे उन माता॥
रामचरित जो रचे बनाई।
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रक्त बीज से समरथ पापी। सुरमुनि हृदय धरा सब काँपी॥
आदि कवि की पदवी पाई॥
+
काटेउ सिर जिमि कदली खम्बा। बार-बार बिन वउं जगदंबा॥
 
+
जगप्रसिद्ध जो शुंभ-निशुंभा। क्षण में बाँधे ताहि तू अम्बा॥
कालिदास जो भये विख्याता।
+
भरत-मातु बुद्धि फेरेऊ जाई। रामचन्द्र बनवास कराई॥
तेरी कृपा दृष्टि से माता॥
+
एहिविधि रावण वध तू कीन्हा। सुर नरमुनि सबको सुख दीन्हा॥
 
+
को समरथ तव यश गुन गाना। निगम अनादि अनंत बखाना॥
तुलसी सूर आदि विद्वाना।
+
विष्णु रुद्र जस कहिन मारी। जिनकी हो तुम रक्षाकारी॥
भये और जो ज्ञानी नाना॥
+
रक्त दन्तिका और शताक्षी। नाम अपार है दानव भक्षी॥
 
+
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा। दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा॥
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा।
+
दुर्ग आदि हरनी तू माता। कृपा करहु जब जब सुखदाता॥
केवल कृपा आपकी अम्बा॥
+
नृप कोपित को मारन चाहे। कानन में घेरे मृग नाहे॥
 
+
सागर मध्य पोत के भंजे। अति तूफ़ान नहिं कोऊ संगे॥
करहु कृपा सोइ मातु भवानी।
+
भूत प्रेत बाधा या दुःख में। हो दरिद्र अथवा संकट में॥
दुखित दीन निज दासहि जानी॥
+
नाम जपे मंगल सब होई। संशय इसमें करई न कोई॥
 
+
पुत्रहीन जो आतुर भाई। सबै छांड़ि पूजें एहि भाई॥
पुत्र करहिं अपराध बहूता।
+
करै पाठ नित यह चालीसा। होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा॥
तेहि न धरई चित माता॥
+
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै। संकट रहित अवश्य हो जावै॥
 
+
भक्ति मातु की करैं हमेशा। निकट न आवै ताहि कलेशा॥
राखु लाज जननि अब मेरी।
+
बंदी पाठ करें सत बारा। बंदी पाश दूर हो सारा॥
विनय करउं भांति बहु तेरी॥
+
रामसागर बाँधि हेतु भवानी। कीजै कृपा दास निज जानी॥</poem></span></blockquote>
 
 
मैं अनाथ तेरी अवलंबा।
 
कृपा करउ जय जय जगदंबा॥
 
 
 
मधु-कैटभ जो अति बलवाना।
 
बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना॥
 
 
 
समर हजार पाँच में घोरा।
 
फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा॥
 
 
 
मातु सहाय कीन्ह तेहि काला।
 
बुद्धि विपरीत भई खलहाला॥
 
 
 
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी।
 
पुरवहु मातु मनोरथ मेरी॥
 
 
 
चंड मुण्ड जो थे विख्याता।
 
क्षण महु संहारे उन माता॥
 
 
 
रक्त बीज से समरथ पापी।
 
सुरमुनि हृदय धरा सब काँपी॥
 
 
 
काटेउ सिर जिमि कदली खम्बा।
 
बार-बार बिन वउं जगदंबा॥
 
 
 
जगप्रसिद्ध जो शुंभ-निशुंभा।
 
क्षण में बाँधे ताहि तू अम्बा॥
 
 
 
भरत-मातु बुद्धि फेरेऊ जाई।
 
रामचन्द्र बनवास कराई॥
 
 
 
एहिविधि रावण वध तू कीन्हा।
 
सुर नरमुनि सबको सुख दीन्हा॥
 
 
 
को समरथ तव यश गुन गाना।
 
निगम अनादि अनंत बखाना॥
 
 
 
विष्णु रुद्र जस कहिन मारी।
 
जिनकी हो तुम रक्षाकारी॥
 
 
 
रक्त दन्तिका और शताक्षी।
 
नाम अपार है दानव भक्षी॥
 
 
 
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा।
 
दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा॥
 
 
 
दुर्ग आदि हरनी तू माता।
 
कृपा करहु जब जब सुखदाता॥
 
 
 
नृप कोपित को मारन चाहे।
 
कानन में घेरे मृग नाहे॥
 
 
 
सागर मध्य पोत के भंजे।
 
अति तूफान नहिं कोऊ संगे॥
 
 
 
भूत प्रेत बाधा या दुःख में।
 
हो दरिद्र अथवा संकट में॥
 
 
 
नाम जपे मंगल सब होई।
 
संशय इसमें करई न कोई॥
 
 
 
पुत्रहीन जो आतुर भाई।
 
सबै छांड़ि पूजें एहि भाई॥
 
 
 
करै पाठ नित यह चालीसा।
 
होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा॥
 
 
 
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै।
 
संकट रहित अवश्य हो जावै॥
 
 
 
भक्ति मातु की करैं हमेशा।
 
निकट न आवै ताहि कलेशा॥
 
 
 
बंदी पाठ करें सत बारा।
 
बंदी पाश दूर हो सारा॥
 
 
 
रामसागर बाँधि हेतु भवानी।
 
कीजै कृपा दास निज जानी॥</poem></span></blockquote>
 
 
 
  
 
'''दोहा'''
 
'''दोहा'''
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप ।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप ।
 
डूबन से रक्षा करहु परूँ न मैं भव कूप ॥
 
डूबन से रक्षा करहु परूँ न मैं भव कूप ॥
 
 
बलबुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु ।
 
बलबुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु ।
 
राम सागर अधम को आश्रय तू ही देदातु ॥</poem></span></blockquote>
 
राम सागर अधम को आश्रय तू ही देदातु ॥</poem></span></blockquote>
  
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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[[Category:आरती_स्तुति_स्त्रोत]]
 

12:17, 21 मार्च 2014 के समय का अवतरण

जनक जननि पद्मरज, निज मस्तक पर धरि।
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु।
दुष्टजनों के पाप को, मातु तु ही अब हन्तु॥
जय श्री सकल बुद्धि बलरासी। जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी॥
जय जय जय वीणाकर धारी। करती सदा सुहंस सवारी॥
रूप चतुर्भुज धारी माता। सकल विश्व अन्दर विख्याता॥
जग में पाप बुद्धि जब होती। तब ही धर्म की फीकी ज्योति॥
तब ही मातु का निज अवतारी। पाप हीन करती महतारी॥
वाल्मीकिजी थे हत्यारा। तव प्रसाद जानै संसारा॥
रामचरित जो रचे बनाई। आदि कवि की पदवी पाई॥
कालिदास जो भये विख्याता। तेरी कृपा दृष्टि से माता॥
तुलसी सूर आदि विद्वाना। भये और जो ज्ञानी नाना॥
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा। केवल कृपा आपकी अम्बा॥
करहु कृपा सोइ मातु भवानी। दुखित दीन निज दासहि जानी॥
पुत्र करहिं अपराध बहूता। तेहि न धरई चित माता॥
राखु लाज जननि अब मेरी। विनय करउं भांति बहु तेरी॥
मैं अनाथ तेरी अवलंबा। कृपा करउ जय जय जगदंबा॥
मधु-कैटभ जो अति बलवाना। बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना॥
समर हज़ार पाँच में घोरा। फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा॥
मातु सहाय कीन्ह तेहि काला। बुद्धि विपरीत भई खलहाला॥
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी। पुरवहु मातु मनोरथ मेरी॥
चंड मुण्ड जो थे विख्याता। क्षण महु संहारे उन माता॥
रक्त बीज से समरथ पापी। सुरमुनि हृदय धरा सब काँपी॥
काटेउ सिर जिमि कदली खम्बा। बार-बार बिन वउं जगदंबा॥
जगप्रसिद्ध जो शुंभ-निशुंभा। क्षण में बाँधे ताहि तू अम्बा॥
भरत-मातु बुद्धि फेरेऊ जाई। रामचन्द्र बनवास कराई॥
एहिविधि रावण वध तू कीन्हा। सुर नरमुनि सबको सुख दीन्हा॥
को समरथ तव यश गुन गाना। निगम अनादि अनंत बखाना॥
विष्णु रुद्र जस कहिन मारी। जिनकी हो तुम रक्षाकारी॥
रक्त दन्तिका और शताक्षी। नाम अपार है दानव भक्षी॥
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा। दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा॥
दुर्ग आदि हरनी तू माता। कृपा करहु जब जब सुखदाता॥
नृप कोपित को मारन चाहे। कानन में घेरे मृग नाहे॥
सागर मध्य पोत के भंजे। अति तूफ़ान नहिं कोऊ संगे॥
भूत प्रेत बाधा या दुःख में। हो दरिद्र अथवा संकट में॥
नाम जपे मंगल सब होई। संशय इसमें करई न कोई॥
पुत्रहीन जो आतुर भाई। सबै छांड़ि पूजें एहि भाई॥
करै पाठ नित यह चालीसा। होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा॥
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै। संकट रहित अवश्य हो जावै॥
भक्ति मातु की करैं हमेशा। निकट न आवै ताहि कलेशा॥
बंदी पाठ करें सत बारा। बंदी पाश दूर हो सारा॥
रामसागर बाँधि हेतु भवानी। कीजै कृपा दास निज जानी॥

दोहा

मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप ।
डूबन से रक्षा करहु परूँ न मैं भव कूप ॥
बलबुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु ।
राम सागर अधम को आश्रय तू ही देदातु ॥

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