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[[चित्र:Samraat Mihir Bhoj Mahaan.jpg|thumb|सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा, [[अक्षरधाम मंदिर दिल्ली|अक्षरधाम मंदिर]], [[दिल्ली]]]]
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'''गुर्जर प्रतिहार''' वंश की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने 725 ई. में की थी। उसने [[राम]] के भाई [[लक्ष्मण]] को अपना पूर्वज बताते हुए अपने वंश को [[सूर्यवंश]] की शाखा सिद्ध किया। अधिकतर [[गुर्जर]] सूर्यवंश का होना सिद्द करते है तथा गुर्जरो के शिलालेखो पर अंकित [[सूर्य देवता|सूर्यदेव]] की कलाकृर्तिया भी इनके सूर्यवंशी होने की पुष्टि करती है।<ref>{{Cite book|title=Sun-worship in ancient India|author=Lālatā Prasāda Pāṇḍeya|publisher=Motilal Banarasidass|year=1971|page=245}}</ref>आज भी [[राजस्थान]] में गुर्जर सम्मान से '''मिहिर''' कहे जाते हैं, जिसका अर्थ ''सूर्य'' होता है।<ref>{{cite book|title=Gazetteer of the Bombay Presidency, Volume 9, Part 1|author= Bombay (India : State)|publisher=Govt. Central Press|year=1901|page=479}}</ref><ref>{{cite book|title=Śri Śaṅkara Bhagavatpādācārya's Saundaryalaharī|author=Chandrasekharendra Saraswati (Jagatguru Sankaracharya of Kamakoti)|coauthor=Śaṅkarācārya, Bharatiya Vidya Bhavan|publisher=Bharatiya Vidya Bhavan|year=2001|page=339}}</ref>
 
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'''गुर्जर प्रतिहार''' वंश की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने 725 ई0 में की थी। उसने [[राम]] के भाई [[लक्ष्मण]] को अपना पूर्वज बताते हुए अपने वंश को [[सूर्यवंश]] की शाखा सिद्ध किया।अधिकतर [[गुर्जर]] सूर्यवंश का होना सिद्द करते है तथा गुर्जरो के शिलालेखो पर अन्कित सुर्यदेव की कलाकर्तिया भी इनके सुर्यवन्शी होने की पुष्टि करती है।<ref>{{Cite book|title=Sun-worship in ancient India|author=Lālatā Prasāda Pāṇḍeya|publisher=Motilal Banarasidass|year=1971|page=245}}</ref>आज भी राजस्थान मे गुर्जर सम्मान से ''मिहिर'' कहे जाते है, जिसका अर्थ ''सुर्य'' होता है।<ref>{{cite book|title=Gazetteer of the Bombay Presidency, Volume 9, Part 1|author= Bombay (India : State)|publisher=Govt. Central Press|year=1901|page=479}}</ref><ref>{{cite book|title=Śri Śaṅkara Bhagavatpādācārya's Saundaryalaharī|author=Chandrasekharendra Saraswati (Jagatguru Sankaracharya of Kamakoti)|coauthor=Śaṅkarācārya, Bharatiya Vidya Bhavan|publisher=Bharatiya Vidya Bhavan|year=2001|page=339}}</ref>
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विद्वानों का मानना है कि इन गुर्जरो ने भारतवर्ष को लगभग 300 साल तक अरब-आक्रन्ताओं से सुरक्षित रखकर ''प्रतिहार'' (रक्षक) की भूमिका निभायी थी, अत: प्रतिहार नाम से जाने जाने लगे।<ref>New image of Rajasthan. Directorate of Public Relations, Govt. of Rajasthan. 1966. p. 2</ref>।रेजर के शिलालेख पर प्रतिहारो ने स्पष्ट रूप से गुर्जर-वंश के होने की पुष्टि की है।<ref>Rama Shankar Tripathi (1999). History of ancient India. Motilal Banarsidass Publ.. p. 318.</ref>नागभट्ट प्रथम बड़ा वीर था। उसने [[सिंध प्रांत|सिंध]] की ओर से होने से अरबों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया। साथ ही दक्षिण के [[चालुक्य वंश|चालुक्यों]] और [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूटों]] के आक्रमणों का भी प्रतिरोध किया और अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखा। नागभट्ट के भतीजे का पुत्र [[वत्सराज]] इस वंश का प्रथम शासक था, जिसने सम्राट की पदवी धारण की, यद्यपि उसने राष्ट्रकूट [[ध्रुव धारावर्ष|राजा ध्रुव]] से बुरी तरह हार खाई। वत्सराज के पुत्र [[नागभट्ट द्वितीय]] ने 816 ई. के लगभग गंगा की घाटी पर हमला किया, और [[कन्नौज]] पर अधिकार कर लिया। वहाँ के राजा को गद्दी से उतार दिया और वह अपनी राजधानी [[कन्नौज]] ले आया।
विद्वानो के मानना है कि इन गुर्जरो ने भारतवर्ष को लगभग ३०० साल तक अरब-आक्रन्ताओ से सुरक्षित रखकर ''प्रतिहार'' (रक्षक) की भुमिका निभायी थी, अत: प्रतिहार नाम से जाने जाने लगे।<ref>New image of Rajasthan. Directorate of Public Relations, Govt. of Rajasthan. 1966. p. 2</ref>।रेजर के शिलालेख पर प्रतिहारो ने स्पष्ट रूप से गुर्जर-वन्श के होने की पूष्टि की है।<ref>Rama Shankar Tripathi (1999). History of ancient India. Motilal Banarsidass Publ.. p. 318.</ref>नागभट्ट प्रथम बड़ा वीर था। उसने सिंध की ओर से होने से अरबों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया। साथ ही दक्षिण के चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के आक्रमणों का भी प्रतिरोध किया और अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखा। नागभट्ट के भतीजे का पुत्र [[वत्सराज]] इस वंश का प्रथम शासक था, जिसने सम्राट की पदवी धारण की, यद्यपि उसने राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से बुरी तरह हार खाई। वत्सराज के पुत्र [[नागभट्ट द्वितीय]] ने 816 ई0 के लगभग गंगा की घाटी पर हमला किया, और [[कन्नौज]] पर अधिकार कर लिया। वहाँ के राजा को गद्दी से उतार दिया और वह अपनी राजधानी कन्नौज ले आया।
 
 
 
यद्यपि नागभट्ट द्वितीय भी राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय से पराजित हुआ, तथापि नागभट्ट के वंशज कन्नौज तथा आसपास के क्षेत्रों पर 1018-19 ई0 तक शासन करते रहे। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज प्रथम था, जो कि [[मिहिरभोज]] के नाम से भी जाना जाता है और जो नागभट्ट द्वितीय का पौत्र था। भोज प्रथम ने (लगभग 836-86 ई0) 50 वर्ष तक शासन किया और गुर्जर साम्राज्य का विस्तार पूर्व में उत्तरी बंगाल से पश्चिम में सतलुज तक हो गया। अरब व्यापारी सुलेमान इसी राजा भोज के समय में [[भारत]] आया था। उसने अपने यात्रा विवरण में राजी की सैनिक शक्ति और सुव्यवस्थित शासन की बड़ी प्रशंसा की है। अगला सम्राट महेन्द्रपाल था, जो 'कर्पूरमंजरी' नाटक के रचयिता महाकवि राजेश्वर का शिष्य और संरक्षक था। महेन्द्र का पुत्र महिपाल भी राष्ट्रकूट राजा इन्द्र तृतीय से बुरी तरह पराजित हुआ। राष्ट्रकूटों ने कन्नौज पर क़ब्ज़ा कर लिया, लेकिन शीघ्र ही महिपाल ने पुनः उसे हथिया लिया। परन्तु महिपाल के समय में ही गुर्जर-प्रतिहार राज्य का पतन होने लगा। उसके बाद के राजाओं–भोज द्वितीय, विनायकपाल, महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, महिपाल द्वितीय और विजयपाल ने जैसे-तैसे 1019 ई0 तक अपने राज्य को क़ायम रखा।देवपाल के शासन के अन्तिम दिनों में [[गुर्जर प्रतिहार वंश|गुर्जर प्रतिहार]] साम्राज्य की शक्ति बढ़ने लगी।
 
  
महमूद गजनवी के हमले के समय कन्नौज का शासक राज्यपाल था। राज्यपाल बिना लड़े ही भाग खड़ा हुआ। बाद में उसने महमूद गज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली। इससे आसपास के गुर्जर राजा बहुत ही नाराज़ हुए। महमूद गज़नवी के लौट जाने पर कालिंजर के चन्देल राजा गण्ड के नेतृत्व में गुर्जर राजाओं ने कन्नौज के राज्यपाल को पराजित कर मार डाला और उसके स्थान पर त्रिलोचनपाल को गद्दी पर बैठाया। महमूद के दौबारा आक्रमण करने पर कन्नौज फिर से उसके अधीन हो गया। त्रिलोचनपाल बाड़ी में शासन करने लगा। उसकी हैसियत स्थानीय सामन्त जैसी रह गयी। कन्नौज में [[गहड़वाल वंश]] अथवा [[राठौर वंश]] का उदभव होने पर उसने 11वीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में बाड़ी के गुर्जर-प्रतिहार वंश को सदा के लिए उखाड़ दिया। गुर्जर-प्रतिहार वंश के आन्तरिक प्रशासन के बारे में कुछ भी पता नहीं है। लेकिन इतिहास में इस वंश का मुख्य योगदान यह है कि इसने 712 ई0 में सिंध विजय करने वाले अरबों को आगे नहीं बढ़ने दिया।
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यद्यपि नागभट्ट द्वितीय भी राष्ट्रकूट राजा [[गोविन्द तृतीय]] से पराजित हुआ, तथापि नागभट्ट के वंशज कन्नौज तथा आसपास के क्षेत्रों पर 1018-19 ई. तक शासन करते रहे। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज प्रथम था, जो कि मिहिरभोज के नाम से भी जाना जाता है और जो नागभट्ट द्वितीय का पौत्र था। भोज प्रथम ने (लगभग 836-86 ई.) 50 वर्ष तक शासन किया और गुर्जर साम्राज्य का विस्तार पूर्व में उत्तरी बंगाल से पश्चिम में सतलुज तक हो गया। अरब व्यापारी सुलेमान इसी राजा भोज के समय में [[भारत]] आया था। उसने अपने यात्रा विवरण में राजी की सैनिक शक्ति और सुव्यवस्थित शासन की बड़ी प्रशंसा की है। अगला सम्राट [[महेन्द्रपाल]] था, जो 'कर्पूरमंजरी' नाटक के रचयिता महाकवि राजेश्वर का शिष्य और संरक्षक था। महेन्द्र का पुत्र महिपाल भी राष्ट्रकूट राजा इन्द्र तृतीय से बुरी तरह पराजित हुआ। राष्ट्रकूटों ने कन्नौज पर क़ब्ज़ा कर लिया, लेकिन शीघ्र ही महिपाल ने पुनः उसे हथिया लिया। परन्तु महिपाल के समय में ही गुर्जर-प्रतिहार राज्य का पतन होने लगा। उसके बाद के राजाओं–भोज द्वितीय, विनायकपाल, महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, महिपाल द्वितीय और विजयपाल ने जैसे-तैसे 1019 ई. तक अपने राज्य को क़ायम रखा। देवपाल के शासन के अन्तिम दिनों में [[गुर्जर प्रतिहार वंश|गुर्जर प्रतिहार]] साम्राज्य की शक्ति बढ़ने लगी।
  
====व्यवस्थापक, शक्तिशाली शासक राजा भोज====
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[[महमूद ग़ज़नवी]] के हमले के समय कन्नौज का शासक राज्यपाल था। राज्यपाल बिना लड़े ही भाग खड़ा हुआ। बाद में उसने महमूद ग़ज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली। इससे आसपास के गुर्जर राजा बहुत ही नाराज़ हुए। महमूद ग़ज़नवी के लौट जाने पर कालिंजर के चन्देल राजा गण्ड के नेतृत्व में गुर्जर राजाओं ने कन्नौज के राज्यपाल को पराजित कर मार डाला और उसके स्थान पर [[त्रिलोचनपाल (कन्नौज का राजा)|त्रिलोचनपाल]] को गद्दी पर बैठाया। महमूद के दोबारा आक्रमण करने पर कन्नौज फिर से उसके अधीन हो गया। त्रिलोचनपाल बाड़ी में शासन करने लगा। उसकी हैसियत स्थानीय सामन्त जैसी रह गयी। कन्नौज में [[गहड़वाल वंश]] अथवा [[राठौर वंश]] का उद्भव होने पर उसने 11वीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में बाड़ी के गुर्जर-प्रतिहार वंश को सदा के लिए उखाड़ दिया। गुर्जर-प्रतिहार वंश के आन्तरिक प्रशासन के बारे में कुछ भी पता नहीं है। लेकिन इतिहास में इस वंश का मुख्य योगदान यह है कि इसने 712 ई. में सिंध विजय करने वाले अरबों को आगे नहीं बढ़ने दिया।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, गुर्जर प्रतिहार वंश के आरम्भिक शासक वत्सराज तथा नागभट्ट द्वितीय, पाल और राष्ट्रकूट शासकों से पराजित हो गए थे, और इस प्रकार इनकी स्थिति कमज़ोर हो गई थी। प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक व्यवस्थापक, उस वंश का सबसे अधिक शक्तिशाली शासक राजा भोज था। हमें यह पता नहीं है कि भोज कब सिंहासन पर बैठा। उसके प्रारम्भिक जीवन के बारे में हमें पता इसलिए नहीं है क्योंकि नागभट्ट द्वितीय तथा राष्ट्रकूट शासक गोपाल तृतीय से पराजित होने के बाद प्रतिहार साम्राज्य का लगभग विघटन हो गया थां भोज ने धीरे धीरे फिर साम्राज्य की स्थापनी की। उसने कन्नौज पर 836 ई0 तक पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया और जो गुर्जर प्रतिहार वंश के अंत तक उसकी राजधानी बना रहा। राजा भोज ने गुर्जरत्रा (गुर्जरो से रक्षित देश) या गुर्जर-भुमि (राजस्थान) पर भी पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित किया, लेकिन एक बार फिर गुर्जर प्रतिहारों को पाल तथा राष्ट्रकूटों का सामना करना पड़ा। भोज देवपाल से पराजित हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि कन्नौज उसके हाथ से गया नहीं। अब पूर्वी क्षेत्र में भोज पराजित हो गया, तब उसने मध्य [[भारत]] तथा दक्कन की ओर अपना ध्यान लगा दिया। गुजरात और मालवा पर विजय प्राप्त करने के अपने प्रयास में उसका फिर राष्ट्रकूटों से संघर्ष छिड़ गया। नर्मदा के तट पर एक भीषण युद्ध हुआ। लेकिन भोज मालवा के अधिकतर क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में सफल रहा। सम्भव है कि उसने गुजरात के कुछ हिस्सों पर भी शासन किया हो। [[हरियाणा]] के [[करनाल]] ज़िले में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार भोज ने [[सतलुज नदी|सतलज नदी]] के पूर्वी तट पर कुछ क्षेत्रों को भी अपने अधीन कर लिया था। इस अभिलेख में भोज देव के शक्तिशाली और शुभ शासनकाल में एक स्थानीय मेले में कुछ घोड़ों के व्यापारियों द्वारा घोड़ों की चर्चा की गई है। इससे पता चलता है कि प्रतिहार शासकों और मध्य एशिया के बीच काफ़ी व्यापार चलता था। अरब यात्रियों ने बताया कि गुर्जर प्रतिहार शासकों के पास भारत में सबसे अच्छी अश्व सेना थी। मध्य एशिया तथा अरब के साथ भारत के व्यापार में घोड़ों का प्रमुख स्थान था। देवपाल की मृत्यु और उसके परिणामस्वरूप पाल साम्राज्य की कमज़ोरी का लाभ उठाकर भोज ने पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
 
  
दुर्भाग्यवश हमें भोज के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। भोज का नाम कथाओं में अवश्य प्रसिद्ध है। सम्भवतः उसके समसामयिक लेखक भोज के प्रारम्भिक जीवन की रोमांचपूर्ण घटनाओं, खोए हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के साहस, तथा कन्नौज की विजय से अत्यनत प्रभावित थे। किंतु भोज [[विष्णु]] का भक्त था और उसने 'आदिवराह' की पदवी ग्रहण की थी जो उसके सिक्कों पर भी अंकित है। कुछ समय बाद कन्नौज पर शासन करने वाले [[परमार वंश]] के राजा भोज, और [[गुर्जर प्रतिहार वंश|प्रतिहार वंश]] के इस राजा भोज में अन्तर करने के लिए इसे कभी-कभी 'मिहिर भोज' भी कहा जाता है।
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==व्यवस्थापक, शक्तिशाली शासक राजा भोज==
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प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक व्यवस्थापक, उस वंश का सबसे अधिक शक्तिशाली शासक राजा भोज था। हमें यह पता नहीं है कि भोज कब सिंहासन पर बैठा। उसके प्रारम्भिक जीवन के बारे में हमें पता इसलिए नहीं है क्योंकि नागभट्ट द्वितीय तथा राष्ट्रकूट शासक गोपाल तृतीय से पराजित होने के बाद प्रतिहार साम्राज्य का लगभग विघटन हो गया था। भोज ने धीरे धीरे फिर साम्राज्य की स्थापना की। उसने कन्नौज पर 836 ई. तक पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया और जो गुर्जर प्रतिहार वंश के अंत तक उसकी राजधानी बना रहा। राजा भोज ने गुर्जरत्रा (गुजरात क्षेत्र) (गुर्जरो से रक्षित देश) या गुर्जर-भूमि (राजस्थान का कुछ भाग) पर भी पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित किया, लेकिन एक बार फिर गुर्जर प्रतिहारों को पाल तथा राष्ट्रकूटों का सामना करना पड़ा। भोज देवपाल से पराजित हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि कन्नौज उसके हाथ से गया नहीं। अब पूर्वी क्षेत्र में भोज पराजित हो गया, तब उसने मध्य [[भारत]] तथा दक्कन की ओर अपना ध्यान लगा दिया। [[गुजरात]] और [[मालवा]] पर विजय प्राप्त करने के अपने प्रयास में उसका फिर राष्ट्रकूटों से संघर्ष छिड़ गया। [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] के तट पर एक भीषण युद्ध हुआ। लेकिन भोज मालवा के अधिकतर क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में सफल रहा। सम्भव है कि उसने गुजरात के कुछ हिस्सों पर भी शासन किया हो। [[हरियाणा]] के [[करनाल]] ज़िले में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार भोज ने [[सतलुज नदी|सतलज नदी]] के पूर्वी तट पर कुछ क्षेत्रों को भी अपने अधीन कर लिया था। इस अभिलेख में भोज देव के शक्तिशाली और शुभ शासनकाल में एक स्थानीय मेले में कुछ घोड़ों के व्यापारियों द्वारा घोड़ों की चर्चा की गई है। इससे पता चलता है कि प्रतिहार शासकों और [[मध्य एशिया]] के बीच काफ़ी व्यापार चलता था। अरब यात्रियों ने बताया कि गुर्जर प्रतिहार शासकों के पास भारत में सबसे अच्छी अश्व सेना थी। मध्य एशिया तथा अरब के साथ भारत के व्यापार में घोड़ों का प्रमुख स्थान था। देवपाल की मृत्यु और उसके परिणामस्वरूप पाल साम्राज्य की कमज़ोरी का लाभ उठाकर भोज ने पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
  
भोज की मृत्यु सम्भवतः 885 ई0 में हुई। उसके बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम सिंहासन पर बैठा। महेन्द्रपाल ने लगभग 908-09 तक राज किया और न केवल भोज के राज्य को बनाए रखा वरन [[मगध]] तथा उत्तरी बंगाल तक उसका विस्तार किया। [[काठियावाड़]], पूर्वी पंजाब और [[अवध]] में भी इससे सम्बन्धित प्रमाण मिले हैं। महेन्द्रपाल ने [[कश्मीर]] नरेश से भी युद्ध किया पर हार कर उसे भोज द्वारा विजित [[पंजाब]] के कुछ क्षेत्रों को कश्मीर नरेश को देना पड़ा।
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दुर्भाग्यवश हमें भोज के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। भोज का नाम कथाओं में अवश्य प्रसिद्ध है। सम्भवतः उसके समसामयिक लेखक भोज के प्रारम्भिक जीवन की रोमांचपूर्ण घटनाओं, खोए हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के साहस, तथा कन्नौज की विजय से अत्यनत प्रभावित थे। किंतु भोज [[विष्णु]] का भक्त था और उसने '[[आदिवराह]]' की पदवी ग्रहण की थी जो उसके सिक्कों पर भी अंकित है। कुछ समय बाद कन्नौज पर शासन करने वाले [[परमार वंश]] के राजा भोज, और [[गुर्जर प्रतिहार वंश|प्रतिहार वंश]] के इस राजा भोज में अन्तर करने के लिए इसे कभी-कभी 'मिहिर भोज' भी कहा जाता है।
  
====अल मसूदी के अनुसार====
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भोज की मृत्यु सम्भवतः 885 ई. में हुई। उसके बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम सिंहासन पर बैठा। महेन्द्रपाल ने लगभग 908-09 तक राज किया और न केवल भोज के राज्य को बनाए रखा वरन् [[मगध]] तथा उत्तरी बंगाल तक उसका विस्तार किया। [[काठियावाड़]], पूर्वी पंजाब और [[अवध]] में भी इससे सम्बन्धित प्रमाण मिले हैं। महेन्द्रपाल ने [[कश्मीर]] नरेश से भी युद्ध किया पर हार कर उसे भोज द्वारा विजित [[पंजाब]] के कुछ क्षेत्रों को कश्मीर नरेश को देना पड़ा।
इस प्रकार प्रतिहार नौवीं शताब्दी के मध्य से लेकिर दसवीं शताब्दी के मध्य, अर्थात एक सौ वर्षों तक उत्तरी भारत में शक्तिशाली बने रहे। बग़दाद निवासी अल मसूदी 915-16 में गुजरात आया था और उसने प्रतिहार शासकों, उनके साम्राज्य के विस्तार, और उनकी शक्ति की चर्चा की है। वह गुर्जर-प्रतिहार राज्य को अल-जुआर ([[गुर्जर]] का अपभ्रंश) और शासक को 'बौरा' पुकारता है। जो शायद आदिवराह का ग़लत उच्चारण है। यद्यपि यह पदवी राजा भोज की थी, जिसका इस समय तक देहान्त हो चुका था। अल मसूदी कहता है कि जुआर राज्य में 1,800,000 गाँव और शहर थे। इसकी लम्बाई 2,000 किलोमीटर थी और इतनी ही इसकी चौड़ाई थी। राजा की सेना के चार अंग थे और प्रत्येक अंग में सात लाख से लेकर नौ लाख सैनिक थे। अल मसूदी कहता है कि उत्तर की सेना से यह नरेश मुलतान के शासक और उसके मित्रों से युद्ध करता है, दक्षिण की सेना से राष्ट्रकूटों से तथा पूर्व की सेना से पालों से संघर्ष करता है। इसके पास युद्ध के लिए प्रशिक्षित केवल 2,000 हाथी थे लेकिन अश्व सेना देश में सबसे अच्छी थी।
 
प्रतिहार शासक साहित्य तथा ज्ञान को बहुत प्रोत्साहित करते थे। महान संस्कृत कवि और नाटककार राजशेखर भोज के पौत्र महीपाल के दरबार में रहता था। प्रतिहारों ने कई सुन्दर भवनों और मन्दिरों का निर्माण कर कन्नौज की शोभा बढ़ाई।
 
  
आठवीं-नौवीं शताब्दी के दौरान कई भारतीय विद्वान बग़दाद के ख़लीफ़ों के दरबार में गए। इन्होंन अरब में भारतीय विज्ञान, विशेषकर गणित, बीजगणित तथा चिकित्सा शास्त्र का प्रचार किया। हमें उन राजाओं के नाम का पता नहीं जो अपने दूतों और इन विद्वानों को बग़दाद भेजते थे। प्रतिहार [[सिंध]] के अरब शासकों के शत्रु के रूप में जाने जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि इस काल में भी भारत और पश्चिम एशिया के बीच विद्वानों और वस्तुओं का आदान-प्रदान जारी रहा।  
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==अल मसूदी के अनुसार==
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इस प्रकार प्रतिहार नौवीं शताब्दी के मध्य से लेकिर दसवीं शताब्दी के मध्य, अर्थात् एक सौ वर्षों तक उत्तरी भारत में शक्तिशाली बने रहे। बग़दाद निवासी [[अल मसूदी]] 915-16 में गुजरात आया था और उसने प्रतिहार शासकों, उनके साम्राज्य के विस्तार, और उनकी शक्ति की चर्चा की है। वह गुर्जर-प्रतिहार राज्य को अल-जुआर ([[गुर्जर]] का अपभ्रंश) और शासक को 'बौरा' पुकारता है। जो शायद आदिवराह का ग़लत उच्चारण है। यद्यपि यह पदवी राजा भोज की थी, जिसका इस समय तक देहान्त हो चुका था। अल मसूदी कहता है कि जुआर राज्य में 1,800,000 गाँव और शहर थे। इसकी लम्बाई 2,000 किलोमीटर थी और इतनी ही इसकी चौड़ाई थी। राजा की सेना के चार अंग थे और प्रत्येक अंग में सात लाख से लेकर नौ लाख सैनिक थे। अल मसूदी कहता है कि उत्तर की सेना से यह नरेश मुलतान के शासक और उसके मित्रों से युद्ध करता है, दक्षिण की सेना से राष्ट्रकूटों से तथा पूर्व की सेना से पालों से संघर्ष करता है। इसके पास युद्ध के लिए प्रशिक्षित केवल 2,000 हाथी थे लेकिन अश्व सेना देश में सबसे अच्छी थी। प्रतिहार शासक [[साहित्य]] तथा ज्ञान को बहुत प्रोत्साहित करते थे। महान् [[संस्कृत]] कवि और नाटककार राजशेखर भोज के पौत्र महीपाल के दरबार में रहता था। प्रतिहारों ने कई सुन्दर भवनों और मन्दिरों का निर्माण कर कन्नौज की शोभा बढ़ाई। आठवीं-नौवीं शताब्दी के दौरान कई भारतीय विद्वान् बग़दाद के ख़लीफ़ों के दरबार में गए। इन्होंन अरब में भारतीय [[विज्ञान]], विशेषकर गणित, बीजगणित तथा चिकित्सा शास्त्र का प्रचार किया। हमें उन राजाओं के नाम का पता नहीं जो अपने दूतों और इन विद्वानों को बग़दाद भेजते थे। प्रतिहार [[सिंध]] के अरब शासकों के शत्रु के रूप में जाने जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि इस काल में भी भारत और पश्चिम एशिया के बीच विद्वानों और वस्तुओं का आदान-प्रदान जारी रहा।  
  
राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय ने 915 और 918 ई0 के मध्य में एक बार फिर कन्नौज पर धावा बोल दिया। इससे प्रतिहार साम्राज्य कमज़ोर पड़ गया और सम्भवतः गुजरात पर राष्ट्रकूटों का अधिकार स्थापित हो गया क्योंकि अल मसूदी कहता है कि प्रतिहार साम्राज्य की समुद्र तक पहुँच नहीं थी। गुजरात, समुद्र के रास्ते होने वाले व्यापार का केन्द्र था तथा उत्तरी भारत से पश्चिम एशिया को जाने वाली वस्तुओं का प्रमुख द्वार था। गुजरात के हाथ से निकल जाने से प्रतिहारों को और भी धक्का लगा। महीपाल के बाद प्रतिहार साम्राज्य का धीरे-धीरे पतन हो गया। एक और राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण तृतीय ने 963 ई0 में उत्तरी भारत पर आक्रमण कर प्रतिहार शासक को पराजित कर दिया। इसके शीघ्र बाद प्रतिहार साम्राज्य का विघटन हो गया।  
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राष्ट्रकूट नरेश [[इन्द्र तृतीय]] ने 915 और 918 ई. के मध्य में एक बार फिर कन्नौज पर धावा बोल दिया। इससे प्रतिहार साम्राज्य कमज़ोर पड़ गया और सम्भवतः गुजरात पर राष्ट्रकूटों का अधिकार स्थापित हो गया क्योंकि अल मसूदी कहता है कि प्रतिहार साम्राज्य की समुद्र तक पहुँच नहीं थी। गुजरात, समुद्र के रास्ते होने वाले व्यापार का केन्द्र था तथा उत्तरी भारत से पश्चिम एशिया को जाने वाली वस्तुओं का प्रमुख द्वार था। गुजरात के हाथ से निकल जाने से प्रतिहारों को और भी धक्का लगा। महीपाल के बाद प्रतिहार साम्राज्य का धीरे-धीरे पतन हो गया। एक और राष्ट्रकूट सम्राट [[कृष्ण तृतीय]] ने 963 ई. में उत्तरी भारत पर आक्रमण कर प्रतिहार शासक को पराजित कर दिया। इसके शीघ्र बाद प्रतिहार साम्राज्य का विघटन हो गया।  
  
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[[Category:भारत के राजवंश]] [[Category:इतिहास कोश]]  
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[[Category:मध्य काल]]
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[[Category:प्रतिहार साम्राज्य]]  
 
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07:50, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा, अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली

गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने 725 ई. में की थी। उसने राम के भाई लक्ष्मण को अपना पूर्वज बताते हुए अपने वंश को सूर्यवंश की शाखा सिद्ध किया। अधिकतर गुर्जर सूर्यवंश का होना सिद्द करते है तथा गुर्जरो के शिलालेखो पर अंकित सूर्यदेव की कलाकृर्तिया भी इनके सूर्यवंशी होने की पुष्टि करती है।[1]आज भी राजस्थान में गुर्जर सम्मान से मिहिर कहे जाते हैं, जिसका अर्थ सूर्य होता है।[2][3]

विद्वानों का मानना है कि इन गुर्जरो ने भारतवर्ष को लगभग 300 साल तक अरब-आक्रन्ताओं से सुरक्षित रखकर प्रतिहार (रक्षक) की भूमिका निभायी थी, अत: प्रतिहार नाम से जाने जाने लगे।[4]।रेजर के शिलालेख पर प्रतिहारो ने स्पष्ट रूप से गुर्जर-वंश के होने की पुष्टि की है।[5]नागभट्ट प्रथम बड़ा वीर था। उसने सिंध की ओर से होने से अरबों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया। साथ ही दक्षिण के चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के आक्रमणों का भी प्रतिरोध किया और अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखा। नागभट्ट के भतीजे का पुत्र वत्सराज इस वंश का प्रथम शासक था, जिसने सम्राट की पदवी धारण की, यद्यपि उसने राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से बुरी तरह हार खाई। वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने 816 ई. के लगभग गंगा की घाटी पर हमला किया, और कन्नौज पर अधिकार कर लिया। वहाँ के राजा को गद्दी से उतार दिया और वह अपनी राजधानी कन्नौज ले आया।

यद्यपि नागभट्ट द्वितीय भी राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय से पराजित हुआ, तथापि नागभट्ट के वंशज कन्नौज तथा आसपास के क्षेत्रों पर 1018-19 ई. तक शासन करते रहे। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज प्रथम था, जो कि मिहिरभोज के नाम से भी जाना जाता है और जो नागभट्ट द्वितीय का पौत्र था। भोज प्रथम ने (लगभग 836-86 ई.) 50 वर्ष तक शासन किया और गुर्जर साम्राज्य का विस्तार पूर्व में उत्तरी बंगाल से पश्चिम में सतलुज तक हो गया। अरब व्यापारी सुलेमान इसी राजा भोज के समय में भारत आया था। उसने अपने यात्रा विवरण में राजी की सैनिक शक्ति और सुव्यवस्थित शासन की बड़ी प्रशंसा की है। अगला सम्राट महेन्द्रपाल था, जो 'कर्पूरमंजरी' नाटक के रचयिता महाकवि राजेश्वर का शिष्य और संरक्षक था। महेन्द्र का पुत्र महिपाल भी राष्ट्रकूट राजा इन्द्र तृतीय से बुरी तरह पराजित हुआ। राष्ट्रकूटों ने कन्नौज पर क़ब्ज़ा कर लिया, लेकिन शीघ्र ही महिपाल ने पुनः उसे हथिया लिया। परन्तु महिपाल के समय में ही गुर्जर-प्रतिहार राज्य का पतन होने लगा। उसके बाद के राजाओं–भोज द्वितीय, विनायकपाल, महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, महिपाल द्वितीय और विजयपाल ने जैसे-तैसे 1019 ई. तक अपने राज्य को क़ायम रखा। देवपाल के शासन के अन्तिम दिनों में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य की शक्ति बढ़ने लगी।

महमूद ग़ज़नवी के हमले के समय कन्नौज का शासक राज्यपाल था। राज्यपाल बिना लड़े ही भाग खड़ा हुआ। बाद में उसने महमूद ग़ज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली। इससे आसपास के गुर्जर राजा बहुत ही नाराज़ हुए। महमूद ग़ज़नवी के लौट जाने पर कालिंजर के चन्देल राजा गण्ड के नेतृत्व में गुर्जर राजाओं ने कन्नौज के राज्यपाल को पराजित कर मार डाला और उसके स्थान पर त्रिलोचनपाल को गद्दी पर बैठाया। महमूद के दोबारा आक्रमण करने पर कन्नौज फिर से उसके अधीन हो गया। त्रिलोचनपाल बाड़ी में शासन करने लगा। उसकी हैसियत स्थानीय सामन्त जैसी रह गयी। कन्नौज में गहड़वाल वंश अथवा राठौर वंश का उद्भव होने पर उसने 11वीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में बाड़ी के गुर्जर-प्रतिहार वंश को सदा के लिए उखाड़ दिया। गुर्जर-प्रतिहार वंश के आन्तरिक प्रशासन के बारे में कुछ भी पता नहीं है। लेकिन इतिहास में इस वंश का मुख्य योगदान यह है कि इसने 712 ई. में सिंध विजय करने वाले अरबों को आगे नहीं बढ़ने दिया।

व्यवस्थापक, शक्तिशाली शासक राजा भोज

प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक व्यवस्थापक, उस वंश का सबसे अधिक शक्तिशाली शासक राजा भोज था। हमें यह पता नहीं है कि भोज कब सिंहासन पर बैठा। उसके प्रारम्भिक जीवन के बारे में हमें पता इसलिए नहीं है क्योंकि नागभट्ट द्वितीय तथा राष्ट्रकूट शासक गोपाल तृतीय से पराजित होने के बाद प्रतिहार साम्राज्य का लगभग विघटन हो गया था। भोज ने धीरे धीरे फिर साम्राज्य की स्थापना की। उसने कन्नौज पर 836 ई. तक पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया और जो गुर्जर प्रतिहार वंश के अंत तक उसकी राजधानी बना रहा। राजा भोज ने गुर्जरत्रा (गुजरात क्षेत्र) (गुर्जरो से रक्षित देश) या गुर्जर-भूमि (राजस्थान का कुछ भाग) पर भी पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित किया, लेकिन एक बार फिर गुर्जर प्रतिहारों को पाल तथा राष्ट्रकूटों का सामना करना पड़ा। भोज देवपाल से पराजित हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि कन्नौज उसके हाथ से गया नहीं। अब पूर्वी क्षेत्र में भोज पराजित हो गया, तब उसने मध्य भारत तथा दक्कन की ओर अपना ध्यान लगा दिया। गुजरात और मालवा पर विजय प्राप्त करने के अपने प्रयास में उसका फिर राष्ट्रकूटों से संघर्ष छिड़ गया। नर्मदा के तट पर एक भीषण युद्ध हुआ। लेकिन भोज मालवा के अधिकतर क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में सफल रहा। सम्भव है कि उसने गुजरात के कुछ हिस्सों पर भी शासन किया हो। हरियाणा के करनाल ज़िले में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार भोज ने सतलज नदी के पूर्वी तट पर कुछ क्षेत्रों को भी अपने अधीन कर लिया था। इस अभिलेख में भोज देव के शक्तिशाली और शुभ शासनकाल में एक स्थानीय मेले में कुछ घोड़ों के व्यापारियों द्वारा घोड़ों की चर्चा की गई है। इससे पता चलता है कि प्रतिहार शासकों और मध्य एशिया के बीच काफ़ी व्यापार चलता था। अरब यात्रियों ने बताया कि गुर्जर प्रतिहार शासकों के पास भारत में सबसे अच्छी अश्व सेना थी। मध्य एशिया तथा अरब के साथ भारत के व्यापार में घोड़ों का प्रमुख स्थान था। देवपाल की मृत्यु और उसके परिणामस्वरूप पाल साम्राज्य की कमज़ोरी का लाभ उठाकर भोज ने पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

दुर्भाग्यवश हमें भोज के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। भोज का नाम कथाओं में अवश्य प्रसिद्ध है। सम्भवतः उसके समसामयिक लेखक भोज के प्रारम्भिक जीवन की रोमांचपूर्ण घटनाओं, खोए हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के साहस, तथा कन्नौज की विजय से अत्यनत प्रभावित थे। किंतु भोज विष्णु का भक्त था और उसने 'आदिवराह' की पदवी ग्रहण की थी जो उसके सिक्कों पर भी अंकित है। कुछ समय बाद कन्नौज पर शासन करने वाले परमार वंश के राजा भोज, और प्रतिहार वंश के इस राजा भोज में अन्तर करने के लिए इसे कभी-कभी 'मिहिर भोज' भी कहा जाता है।

भोज की मृत्यु सम्भवतः 885 ई. में हुई। उसके बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम सिंहासन पर बैठा। महेन्द्रपाल ने लगभग 908-09 तक राज किया और न केवल भोज के राज्य को बनाए रखा वरन् मगध तथा उत्तरी बंगाल तक उसका विस्तार किया। काठियावाड़, पूर्वी पंजाब और अवध में भी इससे सम्बन्धित प्रमाण मिले हैं। महेन्द्रपाल ने कश्मीर नरेश से भी युद्ध किया पर हार कर उसे भोज द्वारा विजित पंजाब के कुछ क्षेत्रों को कश्मीर नरेश को देना पड़ा।

अल मसूदी के अनुसार

इस प्रकार प्रतिहार नौवीं शताब्दी के मध्य से लेकिर दसवीं शताब्दी के मध्य, अर्थात् एक सौ वर्षों तक उत्तरी भारत में शक्तिशाली बने रहे। बग़दाद निवासी अल मसूदी 915-16 में गुजरात आया था और उसने प्रतिहार शासकों, उनके साम्राज्य के विस्तार, और उनकी शक्ति की चर्चा की है। वह गुर्जर-प्रतिहार राज्य को अल-जुआर (गुर्जर का अपभ्रंश) और शासक को 'बौरा' पुकारता है। जो शायद आदिवराह का ग़लत उच्चारण है। यद्यपि यह पदवी राजा भोज की थी, जिसका इस समय तक देहान्त हो चुका था। अल मसूदी कहता है कि जुआर राज्य में 1,800,000 गाँव और शहर थे। इसकी लम्बाई 2,000 किलोमीटर थी और इतनी ही इसकी चौड़ाई थी। राजा की सेना के चार अंग थे और प्रत्येक अंग में सात लाख से लेकर नौ लाख सैनिक थे। अल मसूदी कहता है कि उत्तर की सेना से यह नरेश मुलतान के शासक और उसके मित्रों से युद्ध करता है, दक्षिण की सेना से राष्ट्रकूटों से तथा पूर्व की सेना से पालों से संघर्ष करता है। इसके पास युद्ध के लिए प्रशिक्षित केवल 2,000 हाथी थे लेकिन अश्व सेना देश में सबसे अच्छी थी। प्रतिहार शासक साहित्य तथा ज्ञान को बहुत प्रोत्साहित करते थे। महान् संस्कृत कवि और नाटककार राजशेखर भोज के पौत्र महीपाल के दरबार में रहता था। प्रतिहारों ने कई सुन्दर भवनों और मन्दिरों का निर्माण कर कन्नौज की शोभा बढ़ाई। आठवीं-नौवीं शताब्दी के दौरान कई भारतीय विद्वान् बग़दाद के ख़लीफ़ों के दरबार में गए। इन्होंन अरब में भारतीय विज्ञान, विशेषकर गणित, बीजगणित तथा चिकित्सा शास्त्र का प्रचार किया। हमें उन राजाओं के नाम का पता नहीं जो अपने दूतों और इन विद्वानों को बग़दाद भेजते थे। प्रतिहार सिंध के अरब शासकों के शत्रु के रूप में जाने जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि इस काल में भी भारत और पश्चिम एशिया के बीच विद्वानों और वस्तुओं का आदान-प्रदान जारी रहा।

राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय ने 915 और 918 ई. के मध्य में एक बार फिर कन्नौज पर धावा बोल दिया। इससे प्रतिहार साम्राज्य कमज़ोर पड़ गया और सम्भवतः गुजरात पर राष्ट्रकूटों का अधिकार स्थापित हो गया क्योंकि अल मसूदी कहता है कि प्रतिहार साम्राज्य की समुद्र तक पहुँच नहीं थी। गुजरात, समुद्र के रास्ते होने वाले व्यापार का केन्द्र था तथा उत्तरी भारत से पश्चिम एशिया को जाने वाली वस्तुओं का प्रमुख द्वार था। गुजरात के हाथ से निकल जाने से प्रतिहारों को और भी धक्का लगा। महीपाल के बाद प्रतिहार साम्राज्य का धीरे-धीरे पतन हो गया। एक और राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण तृतीय ने 963 ई. में उत्तरी भारत पर आक्रमण कर प्रतिहार शासक को पराजित कर दिया। इसके शीघ्र बाद प्रतिहार साम्राज्य का विघटन हो गया।


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संदर्भ

  1. Lālatā Prasāda Pāṇḍeya (1971) Sun-worship in ancient India। Motilal Banarasidass।
  2. Bombay (India : State) (1901) Gazetteer of the Bombay Presidency, Volume 9, Part 1। Govt. Central Press।
  3. Chandrasekharendra Saraswati (Jagatguru Sankaracharya of Kamakoti) (2001) Śri Śaṅkara Bhagavatpādācārya's Saundaryalaharī। Bharatiya Vidya Bhavan।
  4. New image of Rajasthan. Directorate of Public Relations, Govt. of Rajasthan. 1966. p. 2
  5. Rama Shankar Tripathi (1999). History of ancient India. Motilal Banarsidass Publ.. p. 318.

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