"कजरी" के अवतरणों में अंतर
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13:04, 12 अक्टूबर 2012 का अवतरण
कजरी या 'कजली' महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला लोकगीत है, जो उत्तर प्रदेश में काफ़ी प्रचलित है। परिवार में किसी मांगलिक अवसर पर महिलाएँ समूह में कजरी गायन करतीं हैं। महिलाओं द्वारा समूह में प्रस्तुत की जाने वाली कजरी को 'ढुनमुनियाँ कजरी' कहा जाता है। भारतीय पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष की तृतीया को सम्पूर्ण पूर्वांचल में 'कजरी तीज' पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन महिलाएँ व्रत करतीं हैं। शक्ति स्वरूपा माँ विंध्यवासिनी का पूजन-अर्चन करती हैं और 'रतजगा'[1] करते हुए समूह बना कर पूरी रात कजरी गायन करती हैं। ऐसे आयोजन में पुरुषों का प्रवेश वर्जित होता है। यद्यपि पुरुष वर्ग भी कजरी गायन करता है, किन्तु उनके आयोजन अलग होते हैं।
उत्पत्ति
'कजरी' की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, यह कहना कठिन है, परन्तु यह तो निश्चित है कि मानव को जब स्वर और शब्द मिले, और जब लोक जीवन को प्रकृति का कोमल स्पर्श मिला होगा, उसी समय से लोकगीत हमारे बीच हैं। प्राचीन काल से ही उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर जनपद माँ विंध्यवासिनी के शक्तिपीठ के रूप में आस्था का केन्द्र रहा है। अधिसंख्य प्राचीन कजरियों में शक्तिस्वरूपा देवी का ही गुणगान मिलता है। आज कजरी के वर्ण्य-विषय काफ़ी विस्तृत हैं, परन्तु कजरी गायन का प्रारम्भ देवी गीत से ही होता है।[2]
वर्षा ऋतु का चित्रण
भारत के हर प्रान्त के लोकगीतों में वर्षा ऋतु को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उत्तर प्रदेश के प्रचलित लोकगीतों में ब्रज का मलार, पटका, अवध की सावनी, बुन्देलखण्ड का राछरा तथा मिर्जापुर और वाराणसी की 'कजरी'। लोक संगीत के इन सब प्रकारों में वर्षा ऋतु का मोहक चित्रण मिलता है। इन सब लोक शैलियों में 'कजरी' ने देश के व्यापक क्षेत्र को प्रभावित किया है।
विकास यात्रा
कजरी के वर्ण्य-विषय ने जहाँ एक ओर भोजपुरी के सन्त कवि लक्ष्मीसखी, रसिक किशोरी आदि को प्रभावित किया, वहीं अमीर ख़ुसरो, बहादुरशाह ज़फर, सुप्रसिद्ध शायर सैयद अली मुहम्मद 'शाद', हिन्दी के कवि अम्बिकादत्त व्यास, श्रीधर पाठक, द्विज बलदेव, बदरीनारायण उपाध्याय 'प्रेमधन' आदि भी कजरी के आकर्षण मुक्त नहीं रह सके। यहाँ तक कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अनेक कजरियों की रचना कर लोक-विधा से हिन्दी साहित्य को सुसज्जित किया। साहित्य के अलावा इस लोकगीत की शैली ने शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में भी अपनी आमद दर्ज कराई। उन्नीसवीं शताब्दी में उपशास्त्रीय शैली के रूप में ठुमरी की विकास यात्रा के साथ-साथ कजरी भी इससे जुड़ गई। आज भी शास्त्रीय गायक-वादक, वर्षा ऋतु में अपनी प्रस्तुति का समापन प्रायः कजरी से ही करते हैं।[2]
विषय
'कजरी' के विषय परम्परागत भी होते हैं और अपने समकालीन लोक जीवन का दर्शन कराने वाले भी। अधिकतर कजरियों में श्रृंगार रस[3] की प्रधानता होती है। कुछ कजरी परम्परागत रूप से शक्ति स्वरूपा माँ विंध्यवासिनी के प्रति समर्पित भाव से गायी जाती हैं। भाई-बहन के प्रेम विषयक कजरी भी सावन में बेहद प्रचलित है। परन्तु अधिकतर कजरी ननद-भाभी के सम्बन्धों पर केन्द्रित होती हैं। ननद-भाभी के बीच का सम्बन्ध कभी कटुतापूर्ण होता है तो कभी अत्यन्त मधुर भी होता है।
प्राचीनता
कजरी गीत का एक प्राचीन उदाहरण तेरहवीं शताब्दी का, आज भी न केवल उपलब्ध है बल्कि गायक कलाकार इसको अपनी प्रस्तुतियों में प्रमुख स्थान देते हैं। यह कजरी अमीर ख़ुसरो की बहुप्रचलित रचना है, जिसकी पंक्तियाँ हैं-
"अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया...।"
भारत में अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर की एक रचना- "झूला किन डारो रे अमरैयाँ..." भी बेहद प्रचलित है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कई कजरी रचनाओं को विदुषी गिरिजा देवी आज भी गातीं हैं। भारतेन्दु ने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कजरी रचना की है। लोक संगीत का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है। साहित्यकारों द्वारा अपना लिये जाने के कारण कजरी गायन का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक हो गया। इसी प्रकार उपशास्त्रीय गायक-गायिकाओं ने भी कजरी को अपनाया और इस शैली को रागों का बाना पहना कर क्षेत्रीयता की सीमा से बाहर निकाल कर राष्ट्रीयता का दर्ज़ा प्रदान किया। शास्त्रीय वादक कलाकारों ने कजरी को सम्मान के साथ अपने साजों पर स्थान दिया, विशेषतः सुषिर वाद्य के कलाकारों ने। सुषिर वाद्यों- शहनाई, बाँसुरी आदि पर कजरी की धुनों का वादन अत्यन्त मधुर अनुभूति देता है। 'भारतरत्न' सम्मान से अलंकृत उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँन की शहनाई पर तो कजरी और अधिक मीठी हो जाती थी।[2]
फ़िल्मों में प्रयोग
ऋतु प्रधान लोक-गायन की शैली कजरी का फ़िल्मों में भी प्रयोग किया गया है। हिन्दी फ़िल्मों में कजरी का मौलिक रूप कम मिलता है, किन्तु 1963 में प्रदर्शित भोजपुरी फ़िल्म 'बिदेसिया' में इस शैली का अत्यन्त मौलिक रूप प्रयोग किया गया। इस कजरी गीत की रचना अपने समय के जाने-माने लोक गीतकार राममूर्ति चतुर्वेदी ने की थी और इसे संगीतबद्ध किया एस.एन. त्रिपाठी ने। यह गीत महिलाओं द्वारा समूह में गायी जाने वाली 'ढुनमुनिया कजरी' शैली में मौलिकता को बरक़रार रखते हुए प्रस्तुत किया गया। इस कजरी गीत को गायिका गीत दत्त और कौमुदी मजुमदार ने अपने स्वरों से फ़िल्मों में कजरी के प्रयोग को मौलिक स्वरुप प्रदान किया था।[2]
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