बाँस गीत

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बाँस गीत छत्तीसगढ़ की यादव जातियों द्वारा बाँस के बने हुए वाद्य यंत्र के साथ गाया जाने वाला लोकगीत है। यह गीत छत्तीसगढ़ का बहु प्रचलित लोकगीत है। एक तरह से यह यादव समाज की निजी धरोहर है, क्योंकि इस विधा में यादव बंधु ही पारंगत होते हैं। यादव मूलत: पशु पालक होते हैं, वैदिक काल से लेकर अब तक अधिकांश यादवों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन ही है। ये अपने पशुओं को चराने के लिए जंगलों में जाते थे और वहीं निवास करते थे। जंगलों में मनोरंजन का कोई साधन नहीं होने के कारण मन-बहलाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों से युक्त इस विधा का जन्म हुआ होगा।

शुरुआत

बाँस गीत के गायक मुख्यत: रावत या अहीर जाति के लोग हैं। छत्तीसगढ़ में राउतों की संख्या बहुत है। राउत जाति को यदुवंशी माना जाता है। अर्थात् इनका पूर्वज कृष्ण को माना जाता है। ऐसा लगता है कि जब वे लोग गाय को जगंलों में चराने के लिए ले जाते थे, उसी वक्त वे बाँस को धीरे-धीरे वाद्य यंत्र के रूप में इस्तेमाल करने लगे थे। इस गीत की शुरुआत शायद इस प्रकार हुई थी- गाय घास खाने में मस्त रहती थी और राउत युवक बाँस के टुकड़े को उठाकर कोशिश करता कि उसमें से कोई धुन निकले, और फिर अचानक एक दिन वह सृजनशील युवक बाँस को बड़ी मस्ती से बजाने लग गया।[1]

बाँस का चुनाव

इस लोकगीत में बाँस बजाया जाता है। छत्तीसगढ़ में मालिन जाति के बाँस को सबसे अच्छा माना जाता है। इस बाँस में स्वर भंग नहीं होता है। बीच से बाँस को पोला करके उस में चार सुराख बनाये जाते हैं, जैसे बाँसुरी वादक की उंगलियाँ सुराखों पर नाचती हैं, उसी तरह बाँस वादक की उंगलियाँ भी सुराखों पर नाचती हैं और वह विशेष धुन निकलने लगती हैं।[1]

शंख की तरह फूंककर बाँस बजाने वाले को 'बँसकहार' की संज्ञा दी जाती है और समाज में इनका विशिष्ट स्थान होता है। बँसकहार बाँस का मर्मज्ञ होता है, वह जंगल या गाँव से, जहाँ बाँस का भीरा उपलब्ध हो, वहाँ से ऐसे बाँस का चुनाव करता है जो न तो ज्यादा मोटा हो और न ही पतला, और जो आगे की ओर जरा-सा मुड़ा हुआ होता है। ऐसे बाँस को स्थानीय भाषा में 'ठेडगी बाँस' की संज्ञा दी जाती है। इसका लगभग तीन फीट लंबा टुकड़ा आरी से काटकर लाया जाता है।[2] छत्तीसगढ़ी लोक गीतों में बाँस गीत बहुत महत्त्वपूर्ण शैली है। यह बाँस का टुकड़ा करीब चार फुट लम्बा होता है। यह बाँस अपनी विशेष धुन से लोगों को मोहित कर देता है।

वाद्य निर्माण

जो बाँस काटकर लाया जाता है, वह पोला होता है, लेकिन उसमें गाँठ होते हैं, जिसे लोहे की सरिया को गर्म कर भेदा जाता है ताकि स्वर आसानी से पार हो सके। इसके बाद लगभग छ: इंच की दूरी में एक बड़ा छेद बनाया जाता है, जिसे 'ब्रह्मरंध' कहा जाता है। इसे मोम लगाकर दो भागों में विभक्त किया जाता है तथा तालपत्र से आधा आच्छादित किया जाता है, जिससे विशेष स्वर स्फुटन हो। बाँस के मध्य में क्रमश: चार छिद्र किये जाते हैं। आखिरी छिद्र को बुजुर्गों के कथनानुसार, धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का परिचायक बताया गया है और इस तरह शुरू होता है नाद ब्रह्म को साधने का उपक्रम।

गीत गायन

बाँस गीत के गायन में मुख्यत: चार लोगों की भूमिका होती है-

  1. बाँस को बजाने वाला 'बँसकहार'।
  2. गीत गाने वाला गायक, जिसे 'गीत गायक' कहा जाता है।
  3. गायक का साथ देने वाला 'रागी', जो गायक के स्वर से स्वर मिलाता है।
  4. गीत की समाप्ति पर रामजी-रामजी का उद्घोष करने वाला, जिसे 'टेहीकार' कहा जाता है।

टेहीकार विशेष गुण और स्वर प्रतिभा संपन्न व्यक्ति होता है जो लोकोक्ति एवं मुहावरों तथा स्वरचित दोहों को पिरोकर श्रोताओं को मुग्ध कर बांधने का कार्य करता है। वैसे तो बाँस गीत परिणयोत्सव, मांगलिक पर्व पर आयोजित होते हैं, किन्तु यह एक ऐसा लोकगीत है, जो अधिकांश शोकमय वातावरण दशगात्र एवं तेरहवीं के समय भी आयोजित होते हैं। इसका मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जो परिवार शोक संतप्त होता है, इन गीतों मेंं समाहित आध्यात्मिक एवं उपदेशात्मक तथ्यों के द्वारा उनके जनजीवन को सामान्य बनाने का अभीष्ट कार्य संपन्न किया जाता है।[2]

विषयवस्तु

बाँस गीत में छत्तीसगढ़ के जनजीवन से संबंधित गीत, यादव वीरों की गाथा, रामायण के दोहे, कबीर के दोहे तथा आध्यात्मिक गीतों का समावेश होता है। इन गीतों में लोकभाषा में गूढ़ रहस्यों का भी प्रतिपादन किया जाता है, जो विद्वानों के लिए भी आश्चर्य का विषय प्रस्तुत करती है। बाँस गीत मात्र लोकगीत ही नहीं अपितु हमारे सरल, सहज, सादगी पूर्ण संस्कार का भी द्योतक है। इसके श्रोताओं में महिलाएं, बच्चे, पुरुष सभी होते हैं।

आयोजन

बाँस गीत के आयोजन में किसी विशेष प्रयास या आर्थिक प्रयोजनों की आवश्यकता नहीं होती। एक दरी बिछाकर बाँस गीत के कलाकारों को सम्मानपूर्वक विराजित करा दिया जाता है और उनके सम्मुख श्रोतागणों को बिठा दिया जाता है और शुरू हो जाता है रसास्वादन का दौर। सर्वप्रथम गीतगायन द्वारा अपने ईष्ट देव एवं देवताओं का स्मरण किया जाता है ताकि उसके उत्तरदायित्व के निर्वहन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो, यथा-

अंठे मा बइठै गुरु कंठा न तो, जिभिया मा गौरी गणेश।
ज्यों-ज्यों अक्षर भूल बिसरौ माता, भूले अक्षर देवे सम झाय।।

इसे 'सुमरनी' कहते हैं। तत्पश्चात् गायक दोहों के माध्यम से अपने कुल गौरव का भी बखान करते हैं, जैसे-

कऊने दियना तोरे दिन मा बरे, कउने दियना बरे रात
कऊने दियना घर अंगना मा बरे, कऊने दिया दरबार हो।।
सुरूज दियना तोरे दिन मा बरे, चंदा दियना बरे रात।
सैना दियना घर अंगना मा बरे, भाई दियना दरबार हो।

इसी प्रकार इन लोकगीतों में रामायण के प्रसंगों को भी रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, जैसे सीता हरण के प्रसंग में जटायु सीता जी से पूछते हैं-

काखर हौ तुम धिया पतोहिया, काखर हौ भौजाई।
काखर हौ तुम प्रेम सुन्दरी, कऊन हरण लेई जाई।।
दशरथ के मैं धिया पतोहिया, लछमन के भौजाई।
रामचन्द्र के प्रेम सुन्दरी, रावण हर ले जाई।।

गीत का पद समाप्त होते ही टेहीकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए टेही लगाता है। वह 'रामजी-रामजी सत्य' है और हास्य उत्पन्न करने के लिए स्वरचित आशु कविता उद्धृत करता है।[2]

रावत-रवताईन से जुड़ा बाँस गीत

छत्तीसगढ़ में रावत लोग बहुत मेहनती होते हैं। सुबह 4 बजे से पहले उठकर जानवरों को लेकर चराने के लिए निकल जाते हैं। संध्या के पहले कभी भी घर वापस नहीं लौटते। घर लौटकर भी बकरी, भेड़, गाय की देखभाल करते हैं। पति को निरन्तर व्यस्त देखकर रवताईन कभी-कभी नाराज़ हो जाती है और अपने पति से जानवरों को बेच देने को कहती है। इस सन्दर्भ में रावत और रवताईन के वार्तालाप से जुड़ा एक बाँस गीत इस प्रकार है[1]-

रवताईन-
छेरी ला बेचव, भेंड़ी ला बेचँव, बेचव करिया धन
गायक गोठन ल बेचव धनि मोर, सोवव गोड़ लमाय

रावत-
छेरी ला बेचव, न भेड़ी ला बेचव, नइ बेचव करिया धन
जादा कहिबे तो तोला बेचँव, इ कोरी खन खन

रवताईन-
कोन करही तोर राम रसोइया, कोन करही जेवनास
कोन करही तोर पलंग बिछौना, कोन जोही तोर बाट

रावत-
दाई करही राम रसोइया, बहिनी हा जेवनास
सुलरवी चेरिया, पंलग बिछाही, बँसी जोही बाट

रवताईन-
दाई बेचारी तोर मर हर जाही, बहिनी पठोह ससुरार
सुलखी चेरिया ल हाट मा बेचँव, बसी ढीलवँ मंझधार

रावत-
दाई राखें व अमर खवा के बहिनी राखेंव छे मास
सुलखी बेरिया ल छाँव के राखेंव, बँसी जीव के साथ

लोककथाओं में प्रमुखता

छत्तीसगढ़ में सभी प्रकार के लोकगीत, जैसे- सुवा, डंडा, करमा, ददरिया, बाँस गीत में गाये जाते हैं। परन्तु मौलिकता के आधार पर देखा जाये तो लोककथाओं में बाँस गीत की ही प्रमुखता है। बहुत सारी लोक कथाएँ हैं, जिनमें 'शीत बसन्त', 'भैंस सोन सागर', 'चन्दा ग्वालिन की कहानी', 'अहिरा रुपईचंद', 'चन्दा लोरिक की कहानी' बहुत प्रसिद्ध हैं। रावत जाति के लोग ही बाँस गीत गाया करते हैं, इसीलिये गीत के पात्र, गीत का नायक-नायिका रावत, अहीर ही होते हैं। गाय भैंस पर आधारित कथाओं की संख्या अधिक है।

'भैंस सोन सागर' की कहानी

बाँस गीतों में कहानी होने के कारण एक ही कहानी पूरी रात तक चलती है। कभी-कभी तो कई रातों तक चलती है। रावत लोग एक भैंस की कहानी को गाते हैं, जिसका नाम है "भैंस सोन सागर"। कहानी इस प्रकार है[1]-

राजा महर सिंह के पास लाख के करीब मवेशियों की झुंड थी। उनमें से एक थी 'सोन सागर' नाम की भैंस। सोन सागर हर साल जन्माष्टमी के दिन सोने का बच्चा पैदा करती थी। परन्तु वह सोने का बच्चा किसी को भी दिखाई नहीं देता था। राजा महर सिंह ने एक बार घोषण की कि अगर कोई व्यक्ति उन्हें सोने का बच्चा दिखा दे, तो उसको अपना आधा राज्य, आधी मवेशियाँ दे देगा और अपनी बहन खोइलन के साथ विवाह भी करा देगा। किन्तु जिस व्यक्ति को असफलता मिलेगी, उसे कारागार में डाल दिया जायेगा। न जाने कितने रावत अहीर आये, पर किसी को भी सफलता नहीं मिली। सभी को कारागार में बन्द कर दिया गया। अन्त में आये तीन भाई, जो बहुत कम आयु के थे। बड़ा 'कठैता' 12 वर्ष का था, 'सेल्हन' 9 साल का और सबसे छोटा 'कौबिया' जो सिर्फ़ 6 साल का था।

राजा को बड़ा दु:ख हुआ। उसने तीनों भाईयों को समझाने की कोशिश की, "तुम तीनों भाई क्यों कारागार में जाना चाहते हो?" पर तीनों ने कहा कि वे कौशिश करेंगे कि उन्हें कारागार में न जाना पड़े। इसके बाद तीनों भाई सोन सागर भैंस को दूसरे जानवरों के साथ चराने लगे। देखते ही देखते जन्माष्टमी की रात आ गई। तीनों भाईयों ने सोन सागर भैंस के गले में घंटी बाँध दी। रात बढ़ती गई। भैंस एक डबरे के अन्दर चली गई। बड़ा भाई कठैता भैंस पर नज़र रख रहा था और सेल्हन व कौबिया वहीं पर सो गए। पर जैसे-जैसे रात बढ़ती गई, कठैता को भी बड़ी ज़ोर की नींद लगी और वह भी सो गया। सोन सागर भैंस उसी वक्त डबरे से निकलकर शिव मन्दिर में चली गई। हर साल जन्माष्टमी की रात में राजकुमारी खोइलन उसी मन्दिर में पूजा करने आती थी और जैसे ही सोन सागर सोने के बच्चे को जन्म देती, राजकुमारी खोइलन उसे कलश की तरह चढ़ाती थी। उसे भगवान शंकर ने आशीर्वाद दिया था कि जन्माष्टमी में उसे अपना पति मिलेगा। राजकुमारी नहाने जा रही थी। सोन सागर भैंस ने जैसे ही सोने के बच्चे को जन्म दिया, राजकुमारी खोइलन तुरन्त उसे अपनी साड़ी में छिपाकर नहाने चली गई।

सोन सागर भैंस उसी डबरे में वापस चली गई। कठैता की सबसे पहले नींद खुल गई। वह तुरन्त डबरे के भीतर गया और फिर हैरान खड़ा रह गया। सेल्हन और कोबिया भी नींद खुलते ही अन्दर गए और कठैता को हैरान देखकर ही सब समझ गये। अब क्या होगो? तीनों भाई बड़े दु:खी होकर खड़े रह गये। इसके बाद कठैता नेे बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। उसने ध्यान से जमीन की ओर देखा। ये तो सोन सागर के पाँव का निशान है, तो इसका मतलब है कि वह कहीं बाहर गई थी। सेल्हन और कोबिया उस डबरे के भीतर ही ढूंढ रहे थे, शायद सोने का बच्चा उन्हें वहीं कहीं मिल जाये। इधर कठैता सोन सागर के पाँव के निशान के साथ चलता गया। जब वह शिव मन्दिर तक पहुँच गया तो देखा कि राजकुमारी खोइलन नहाकर आ रही थी। कठैता को लगा कि राजकुमारी कुछ छिपाकर ले जा रही है। उसने राजकुमारी से पूछा तो राजकुमारी बहुत नाराज़ हो गई। दोनों झगड़ ही रहे थे कि अचानक सोने का बच्चा गिर गया। राजकुमारी को अचानक याद आया कि भगवान शंकर ने तो मुझे वरदान दिया था कि मुझे मेरा पति यहीं मिलेगा। उसने कठैता को पूरी बात बता दी। कठैता बड़ा खुश होकर सोने के बच्चे को लेकर राजा के पास पहुँचा। राजा पहले तो आश्चर्य चकित रह गये। उसके बाद अपना वचन पूरा किया। इस तरह कठैता और खोइलन का विवाह हो गया।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 बाँस गीत (हिन्दी) इग्निका। अभिगमन तिथि: 10 जून, 2015।
  2. 2.0 2.1 2.2 छत्तीसगढ़ का अनूठा लोकगीत बाँस गीत (हिन्दी) यदुवंश। अभिगमन तिथि: 09 जून, 2015।

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