आमाशय तथा ग्रहणी के व्रण
आमाशय तथा ग्रहणी के व्रण (पेप्टिक व्रण) एक अघातक परिमित व्रण होता है, जो पाचन प्रणाली के उन भागों में पाया जाता है जहाँ अम्ल और पेपसिन युक्त आमाशयिक रस भित्ति के संपर्क में आता है, जैसे ग्रासनलिका का निम्न प्रांत, आमाशय और ग्रहणी। इन व्रणों का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। इनके कारण हुए रक्तस्राव का वर्णन हिप्पोक्रेटीज़ ने 460 ई.पू. में किया है किंतु सभ्यता के आधुनिक संघर्षमय वातावरण में यह रोग बहुत अधिक पाया जाता है। शवपरीक्षा के आँकड़ों के अनुसार संसार के 10 प्रति शत व्यक्ति ऐसे व्रणों से आकांत रहते हैं।
लक्षण-सामान्यत: यह व्रण 20 से 50 वर्ष की आयु में होता है। आमाशय व्रण की अपेक्षा पक्वाशय में व्रण अल्प वय में होता है और स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में चार गुना अधिक पाया जाता है। यह प्राय: साधारण अपक्षरण के समान होता है, जो कुछ व्यक्तियों में चिरस्थायी रूप ले लेता है। इसका कारण है, यह अभी तक ज्ञात नहीं हुआ है, किंतु यह माना जाता है कि आमाशय में अम्ल की अधिकता, आमाशय के ऊतकों की प्रतिरोधक शक्ति का हास और मानसिक उद्विग्नता व्रणों की उत्पत्ति में विशेष भाग लेते हैं।
रोग का सामान्य लक्षण-भोजन के पश्चात् उदर के उपरजिठर प्रांत में पीड़ा होती है,जो वमन होने से या क्षार देने से शांत या कम हो जाती है। रोगी को समय समय पर ऐसे आक्रमण होते रहते हैं, जिनके बीच वह पीड़ा से मुक्त रहता है। कुछ रोगियों में पीड़ा अत्याधिक और निरंतर होती है और साथ में वमन भी होते हैं, जिससे पित्तजनित शूल का संदेह होने लगता है। मुँह से अधिक लार टपकना, अम्लिक डकारों का आना, गैस बनने के कारण बेचैनी या पीड़ा, वक्षेस्थि के पीछे की ओर जलन और कोष्ठबद्धता, कुछ रोगियों को ये लक्षण प्रतीत होते हैं। आमाशय से रक्तस्राव के निरंतर या अधिक मात्रा में होने के कारण रक्ताल्पना हो सकती है। दूसरे उपद्रव जो उत्पन्न हो सकते हैं: (1) निच्छिद्रण (परफ़ोरेशन), (2) जठरनिर्गम (पाइलोरस) की रुकावट (ऑब्स्ट्रक्शन) तथा (3) आमाशय और अन्य अंगों का जुड़ जाना।
निदान-रोगी की व्यथा के इतिहास से रोग का संदेह हो जाता है, किंतु उसका पूर्ण निश्चय मल में अदृश्य रक्त उपस्थिति, अम्लता की परीक्षा तथा एक्स-रश्मि द्वारा परीक्षणों से होता है। बेरियम खिलाकर एक्स-रश्मि चित्र लिए जाते हैं आमाशयदर्शक द्वारा व्रण को देखा जा सकता है।
चिकित्सा-उपद्रवमुक्त रोगियों की औषधियों द्वारा चिकित्सा करके साधारणतया स्वस्थ दशा में रखना संभव है। चिकित्सा का विशेष सिद्धांत रोगों की मानसिक उद्विग्नता और समस्याओं को दूर करना और आमाशय में अम्ल को कम करना है। अम्ल की उत्पति को घटाना और उत्पन्न हुए अम्ल का निराकरण, दोनों आवश्यक हैं। इनसे व्रणों के अच्छे होने और रोगी के पुन: स्थापन में बहुत सहायता मिलती है तथा व्रण फिर से नहीं उत्पन्न होते। तंबाकू, मद्य, चाय, और कहवा, मसाले और मिर्चो का प्रयोग छोड़ना भी आवश्यक है। अधिक परिश्रम और रात को देर तक जागने से भी हानि होती है। निच्छिद्रण, अतिरिक्त स्राव, क्षुद्रांत्रबद्धता तथा औषधिचिकित्सा से असफलता होने पर शल्यकर्म आवश्यक होता है।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 392-93 |